भक्ति कालीन गद्य साहित्य
भक्ति कालीन गद्य साहित्य
भक्तिकालीन समय में गद्य साहित्य के क्षेत्र में भी उत्थान का काल रहा है। इसमें अनेक रचनाकारों ने अपनी कृतियों से इस काल को सुशोभित किया है। भक्ति कालीन गद्य साहित्य को हम चार वर्गों में विभाजित कर सकते हैं-
1. ब्रजभाषा में रचित गद्य साहित्य
2. खड़ीबोली में रचित गद्य साहित्य
3. दक्खिनी में रचित गद्य साहित्य
4.
1. ब्रजभाषा में गद्य साहित्यः
भक्तिकालीन समय में गद्य साहित्य में उल्लेखनीय कार्य किया गया। इसमें इतिहास, भूगोल, सामाजिक, संदर्भित विषयों में कार्य किया गया। गद्य के इतिहास में गोरखपंथी ग्रन्थों की चर्चा मिलती है।
2. खड़ी बोली में गद्य साहित्यः
उत्तर भारत में खड़ी बोली में रचित गद्य रचनाओं का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। प्रामाणिक रचनाएँ 17 वीं शताब्दी से प्राप्त होती है। इस काल की जो रचनाएँ मिलती हैं, वह इस प्रकार हैं- कुतुबशतक, भागलु पुरान, गणेस गोसठ, पोथी सचुषुड |
3. दक्खिनी में गद्य साहित्य:
दक्खिनी का अविर्भाव सूफियों और संतों के द्वारा हुआ। इन रचनाओं का विषय प्रेमाख्यानक रहा है। इसका आदि कवि गेसूदराज बन्दानवाज माना जाता है। दक्खिनी गद्य की कृतियों में वजही कृत 'सबरस' का विशेष महत्त्व रहा है। इसका गद्य कवित्वमय है।
4. राजस्थानी में गद्य साहित्यः
राजस्थानी का गद्य इतिहास काफी पुराना है। मारवाड़ी बोली में गद्य का पुष्कल साहित्य प्राप्त होता है। इस गद्य में अनेक विषयों को अपने वर्णन का विषय बनाया है। राजस्थानी गद्य की प्रमुख भक्तिकालीन गद्य कृतियाँ - तत्त्व विचार पथ्वीचन्द्र चरित्र, धनपाल कथा, अंजनासुंदरी कथा आदि है। इन कृतियों में कुछ कृतियां जैन धर्म से संबंधित भी रही हैं।
भक्तिकालीन राजस्थानी गद्य की और भी रचनाएँ है। उनमें से कुछ रचनाओं के नाम ये हैं
आदिनाथ चरित्र, कालिकाचार्य कथा, श्रावक व्रतादि अतिचार, कल्याण मंदिरस्रोत की अवचूरी यानी व्याख्या, गणितसार, मुग्धावबोध मौक्तिक टीका (टीका ग्रंथ) कोकशास्त्र बालावबोध, उक्ति संग्रह भाष्य आदि । राजस्थानी मारवाड़ी भाषा की गद्य रचनाएँ भी शामिल की जाती है उनमें वंशावली, पट्टावली, पीढ़ावली रचनाएँ ऐतिहासिक तथ्यों का उल्लेखपरक हैं। कुछ आज्ञापत्र, ताम्रपत्र, प्रशस्ति पत्र भी गद्य से मिलते है। संस्कृत - प्राकृत ग्रंथों की व्याख्याएं मिलती है। 'बेली किसन रूक्मणी री टीका' इस काल की प्रसिद्ध टीका है। ये सब गद्य रचनाएँ अललित गद्य की कोटि की है। ललित गद्य की रचनाएँ भी है पर वे परिमाण में कम है।
भक्तिकालीन गद्य साहित्य की विशेषताएँ
2. भक्तिकाल के गद्य के कई रूप मिलते हैं: ब्रजभाषा गद्य, खड़ी बोली गद्य, दक्खिनी गद्य, राजस्थानी गद्य आदि। इनमें से ब्रजभाषा गद्य की पंडिताऊ छवि, दक्खिनी गद्य की उर्दू-फारसी मिश्रण पद्धति खड़ी बोली की गद्य कृतियाँ बहुत सी पद्य रचना के अनुवादवाली है। छः राजस्थानी गद्य मुख्य रूप से कथा, वर्णन, वचनिका, पत्रावली, गुर्ववाली, बलावबोध आदि के रूप में बढ़ी है।
3. भक्तिकालीन गद्य के सन्दर्भ में ऐसी रचनाएँ भी आ गई है जिनका उल्लेख दूसरे विद्वानों ने अपभ्रंश की गद्य रचनाओं के संदर्भ में किया है। उदाहरण के लिए पथ्वीचन्द्र नामक कृति है जिसके रचयिता माणिक्य चन्द्र सूरि है। इसका मतलब यह है कि अपभ्रंश का चलन अभी तक वर्तमान था। वह धीरे-धीरे कम हो रहा था। इसलिए बहुत से विद्वान अपभ्रंश और पुरानी हिंदी में स्पष्ट अन्तर करने में अधिक सक्षम रहे हैं।
4. भाषा की वैज्ञानिक दृष्टि से भक्तिकाल का गद्य बड़े महत्त्व का है। किस प्रकार संहित भाषा व्यवहित बनती है उसका संश्लिष्ट पद-क्रिया रूप सरलता की ओर है और उसका पूर्व रूप इस काल के गद्य में मिलता है बहुत से शब्द एकदम संस्कृत विभक्तियों से युक्त होकर प्रयुक्त हुए है और बार में उनकी वे विभक्तियाँ घिसकर वर्तमान हिंदी रूप में ढली है। महादेव गोरषगुष्टि में आये ऐसे शब्द इस तरह के उदाहरण हैं- उतपतते, कथन्ति, कथित भ्रमते । उतपतते शब्द मूलरूप से संस्कृत की आत्मनेपदी धातु के रूप का है। कथन्ति संस्कृत के कथयन्ति क्रिया रूप में संक्षिप्तीकरण है। कथित, भ्रमते भी संस्कृत के विभक्ति युक्त शब्द है।
5 भक्तिकालीन गद्य में ललित गद्य का समावेश अपेक्षाकृत अधिक होना प्रारंभ हो गया था। जो गद्य वंशावली पत्र, टिप्पणी, व्याख्या, व्याकरण, गणित अनुवाद आदि के रूप में बिखरा हुआ था वह परिमाण में अधिक था पर ललित गद्य भी अपना स्वर उठा रहा था ।
6 इस समय के गद्य के साथ पद्य का समावेश कई रूपों में देखने में आता है कुछ रचनाएँ ऐसी है जो पूर्णतः गद्य की हैं। दूसरी तरह की रचनाएँ गद्य के साथ पद्य को भी साथ-साथ लेकर चली हैं। तीसरी पद्य प्रधान ऐसी रचनाएँ है जिनमें थोड़ा बहुत गद्य भी आता चला जाता है।
7. गद्य के विकास की दुर्बलता में विद्वानों ने पद्य के झुकाव को कारण माना है। पद्य प्रायः कंठ करने में सरल होता है। इसलिए पद्य को अधिक प्रमुखता मिलती रही है और इस जमाने तक साहित्य को कंठस्थ करने की परम्परा बराबर बनी हुई थी। अतः गद्य की ओर झुकाव कम रहा ।
8. दक्खिनी हिंदी की तरह दक्खिनी गद्य भी उर्दू फारसी मिश्रित रूप में इस काल में देखने में आता है। इसके रचयिता मुख्यतः वे मुसलमान विद्वान थे जिनका हिंदी से संबंध था या जो हिंदी प्रदेश से दक्खिन में जा बसे थे।
9 गद्य खंड के ऐसे अनेक नमूने हैं जो किसी एक भाषा के अनिवार्यतः नहीं लगते। ब्रजभाषा, खड़ीबोली, राजस्थानी और अपभ्रंश के मिले-जुले गद्य खंड इस समय देखने में आते है। उनके अलगाव की स्थिति धीरे-धीरे बदलने की ओर थी पर यह बदलाव मंद मालूम पड़ता है ।
भक्तिकाल में साहित्यिक (ललित) गद्य बहुत कम परिमाण में रचा गया। इस समय की ललित ग्रन्थ रचनाओं की संख्या बीस से अधिक नहीं है। भक्तिकालीन सामान्य गद्य का भी परिमाण विशाल नहीं कहा जा सकता हैं। बौद्धिक व्यावहारिक जीवन के अपेक्षाकृत कम विकसित होने, तत्कालीन जन-मानस के आज की अपेक्षा अधिक भावुक, काव्यप्रिय, धर्मनिष्ठ होने भक्ति आन्दोलन की तीव्रता संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश की पथ प्राय प्रवत्ति, प्रेम का अभाव, कागज की कमी, साहित्य को कण्ठस्थ करने की परम्परा और विभाषाओं में व्याख्यानुवाद की प्रवत्ति प्रबल न होने के कारण गद्य का विकास भक्तिकाल में नहीं हो सका ।