भक्तिकालीन काव्य की उपलब्धियाँ |Bhakti Kalin Kavya Ki Uplabdhiyan

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भक्तिकालीन काव्य की उपलब्धियाँ

भक्तिकालीन काव्य की उपलब्धियाँ |Bhakti Kalin Kavya Ki Uplabdhiyan
 

भक्तिकालीन काव्य की उपलब्धियाँ

भक्तिकालीन समय हिंदी साहित्य के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण काल रहा है। हिंदी के उच्चकोटि के और बड़े महत्त्व के कवि इस काल में हुए हैं। कबीर जायसीतुलसीसूरमीरारसखान आदि सभी इसी काल की शोभा थे। अपनी प्रतिभा और काव्य सर्जना की असीम प्रभावशाली दक्षता के कारण उन्होंने इस काल को सुशोभित किया है। अपने-अपने क्षेत्र के ये सर्वाधिक प्रभावशाली कवि हुए है। काव्य संबंधी अनेक विशेषताओं के साथ-साथ इनमें भक्ति की अतल स्पर्शी गंभीरता भी देखने में आती है। भक्ति और काव्य का इतना उच्चकोटि का व्यामिश्रण और किसी काल में नहीं मिलता। भारतीय संस्कृति का यह मूल गुण रहा है कि यहाँ लीकिकता से पारलौकिकता को ऊँचा माना जाता रहा है। धर्म और अध्याय में बड़े हुए मन्त्रपूत आर्य-चक्षु ऋषियों के सामने सम्राट लोग झुकाते रहे हैं। भक्तिकाल में भी ऐसी ही पाते हैं पहुँचे हुए सन्त-साधुओं के सामने राजा और राजनेताओं ने अपना सिर झुकाया है। उनकी कृपा की याचना की है। अकिंचनता के सामने सम्पन्नता का ऐसा झुकाव और किसी काल में देखने में नहीं आता। इतनी अधिक गंभीरता और आध्यात्मिक उच्चता के होते हुए भी ये कवि अपने को सदैव दीनहीनतुच्छ और कमजोर समझते रहे।

 

रामभक्ति काव्य के महात्मा तुलसीदास 

रामभक्ति काव्य के महात्मा तुलसीदास ने तपस्वी बाल्मीकि द्वारा प्रचलित रामकथा को अपने ढंग से प्रस्तुत करके रामकथा का सर्वजन सुलभ स्वरूप पैदा किया। उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की विनयपत्रिकारामचरितमानसकवितावलीगीतावली आदि उनमें से प्रमुख हैं। सभी में राम की कथा को तरह-तरह से बढ़ाया गया है। भगवान के अवतार की कथाश्रित व्याख्या करके राजा रंकगहस्थी भिखारीऊँच-नीचअच्छे-बुरेबालक-वद्ध स्त्री-पुरुष सबके लिए भगवान की पूजा अर्चनापाठ रामायणसेवा सत्संग का मार्गखोल दिया। शंकराचार्य के अद्वैत सिद्धान्त के सन्यास मार्ग की प्रतिष्णा थी उसे स्वीकार न करके रामानुजाचार्य सम्मत विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त की तुलसी ने व्यावहारिक सरलता प्रस्तुत की। पतंजलि ने अपने व्याकरण महाभाष्य में एक श्रुति वाक्य का उल्लेख किया है-

 

एकः शब्दः सम्यकः ज्ञातः सुप्रयुक्तः स्वर्गे लोके काम धुग्भवति । " 

अर्थात एक ही शब्द यदि अच्छी तरह से जान लिया जाए और उसका ठीक-ठीक प्रयोग कर दिया जाए तो वह स्वर्ग में भी और इस लोक में भी मनवांछित फलों को देने वाला होता है। ऐसा लगता है गोस्वामी तुलसीदास ने एक शब्द राम को अच्छी तरह जान लिया था उसका ठीक प्रयोग भी किया था। वह उनके लिए इस लोक में तो मनवांछित फलदाता हुआ ही उनका परलोक भी सुधर गया। रामचरितमानस के अंत में वे कहते है

 

"जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदास हूँ । 

पायो परमविश्रमु राम समान प्रभु नाही कहूँ ।।*


कृष्ण भक्त कवियों के सिरमौर सूर  

कृष्ण भक्त कवियों के सिरमौर अंधे सूर ने अपने बंद नेत्रों से ब्रह्म को माया के संबंध से रहित देखकर शुद्धाद्वैत समर्थित विचारों को भगवान सम्मत सूरसागर में अभिव्यक्त किया। ब्रजभाषा का महा महत्त्व का सूरसागर कृष्ण भक्ति का आकार ग्रंथ है। भागवत पुराण से प्रभाव लेकर अपनी मौलिकता और मेधा से और कवित्व शक्ति से बड़े निखरे रूप में प्रस्तुत किया। भागवत पुराण में जिसका नाम भी नहीं हैउस राधा को मूल्य देकर रसनीयता का ऐसा सागर बहाया जिसमें तपोभूमि वन्दावन और ब्रज विश्वविख्यात हो गये। सूरदास की सूक्ष्मेंक्षण शक्ति बड़ी अद्भुत थी । बाललीला का वर्णन करके उन्होंने ऐसा साहित्य उभारा जो सहज ही रस चुबिनी कोटि में रखा गया और वात्सल्य को रसत्व सिद्ध करने में अतीव सहायक रहा। भंगार का संयोग वियोग गोपियों के माध्यम से व्यक्त करे रसनीय काव्य प्रदान किया। उन्हें वात्सल्य और श्रंगार रस का सम्राट कहा जाता है। ऊँचे भक्त और ऊँचे कविदो अद्भुत शिखरों का मेल सूर के साहित्य में है। अष्टछाप के कवि और मीरा तथा रसखान अपनी-अपनी तरह से काव्य को आगे बढ़ाते रहे पर उनको प्रेरणा देन वाल सूरदास ही है जिनको ब्रज के पत्ते पत्ते में सांस- सांस में रमें कृष्ण का उनकी आझदिनी शक्ति राधा का अनुभव होता रहा । सूर के सामने राध संबंधी साहित्य था जिसका सूर ने रसमय प्रयोग किया। रूप गोस्वामी महाराज के भक्तिरसामत सिन्धुऔर 'उज्जवलनील मणि इस तरह की गहराई के बेहद प्रशंसनीय ग्रंथ हैं हितहरिवंश का राह सुधानिधास्तव भी इसी कोटि का है उसके एक-एक श्लोक पर सूर जैसा सिद्ध कवि सौ-सौ छंद लिख सकता हैजैसेएक श्लोक द्रष्टव्य है

 

"प्रेमोल्लासेक सीमा परम रस चमत्कार वैचित्र्य सीमा । 

सौन्दर्यस्यैक सीमा किमपि नववयोरूप लावण्य सीमा ।। 

लीला माधुर्य सीमा निज जन परमौदार्य्य वात्सल्य सीमा । 

सा राधा सौख्य सीमा जयति रतिकला केलिमाधुर्य सीमा।।" 


अर्थात प्रेम के उल्लास की एक सीमापरम रस के चमत्कार की विचित्रता की सीमासौन्दर्य की एक सीमाअनिर्वचनीय नवीन वय रूप लावण्य की सीमालीला युक्त माधुर्य की सीमा निजजन के प्रति परम उदारता और निज जन 'दासीजन के प्रति वात्सल्य की सीमासौख्य की सीमारतिकलाओंऔर केलियों के माधुर्य की सीमाश्री राधा की जय-जयकार होती रहे।

 

हिंदी साहित्य के भक्तिकाल में कृष्ण काव्य लिखने वाले अपरिमित कवि मिल जायेंगे लेकिन उनमें जो स्थान सूर को मिलावह किसी अन्य को नहीं मिल सकता है। सूरसागर सूर की सर्वसम्मत प्रामाणिक रचना है। सूर के सागर में प्रेम की उत्ताल तरंगे सदैव तरंगायित होती रहती है। सूर की दष्टि पैनी थी। वे अपने युग के समाज के प्रति पूर्णतः सचेत रचनाकार थे। यवनों के अत्याचार से आक्रांत जनता के मन से जब ईश्वर के प्रति विश्वास उठ गया थाऐसे समय में सूरदास ने अपने दिव्य प्रेमसंगीत द्वारा जीवन में आस्था जगाई और आशा का संचार किया।

 

भक्तिकालीन साहित्य में तुलसी का प्रादुर्भाव एक युगान्तारी घटना है। इनमें कारयित्री प्रतिभा का अद्भुत सामंजस्य देखा जा सकता था। तुलसी का लोकानुभव अत्यन्त व्यापक था। वे सच्चे अर्थों में व्युत्पन्न कवि थे । भक्तिकालीन रचनाकारों ने समाज की निम्न वर्गीय जनता की वर्ग चेतना की व्यंजना की है। तुलसी एवं सूर जैसे समाज के दिशादाहकप्रेरणास्रोत एवं महिमामंडित कवि कभी-कभी इस धरती पर जन्म लेते हैं। जिस काल में इस प्रकार के महिमामंडित कवि एवं रचनाकार उत्पन्न हुए हो वह काल अवश्य ही उपलब्धियों से भरा होगा।

 

भक्तिकालीन समय में हिंदी साहित्य के महान् रचनाकार उत्पन्न हुए । इन्होंने न केवल अपनी रचना र्मिताकाव्य- लालित्यअलंकरण और भाषा भाव से राष्ट्र एवं समाज की प्रतिष्ठा बढाईअपितु लोक चेतना को अद्भूत संजीवनी प्रदान की है। ऐसी लोक चेतना से समाज को दिशा प्राप्त है। इस प्रकार से समाज धीरे-धीरे दासत्व से मुक्तिभौतिकता से अध्यात्मअविपरीत अंधकार से प्रकाश तथा मत्यु से अमरत्व की ओर जाने में समर्थ होता है। शाश्वत संदेश का वहन करने वाली यह चेतना एक जाति की नहींअपितु मानवता के लिए आलोक-स्तम्भ बनती है। इस प्रकार के महान् रचनाकार केवल रचनाकार ही नही रह जातेवरन् युगद्रष्टा महापुरूष और लोकनायक के रूप में प्रतिष्ठित हुआ करते हैं।

 

जिस समय उत्तर भारत में नाथों और सिद्धों की अंतस्साधना प्रचलित हो चुकी थीउसी समय दक्षि भारत में आलवार भक्तों की भावधारा भी प्रवाहित हो रही थी जिसका समर्थन वहाँ के वैष्णव आचार्यों द्वारा किया गया। दक्षिण भारत में वैष्णव धर्म की स्थापना करने वाले रामानुजमध्वविष्णु स्वामी और निम्बार्क के चार महान् आचार्य हुए। इनके प्रयास से वैष्णव धर्म की पावन धारा दक्षिण से उत्तर की ओर प्रवाहित होने लगी। भक्ति के आचार्यों एवं भक्त कवियों की प्रेरणा से भक्तिकाल में चार मुख्य धाराओं का उदय हुआ-संत काव्यधारासूफी काव्यधाराकृष्णकाव्यधारा एवं राम काव्यधारा । भक्ति आन्दोलन के परिणामस्वरूप हिंदी में ऐसे साहित्य की सष्टि हुई जिसमें काव्य कला का चरम विकास दिखायी देता है। गुण एवं परिणाम दोनों की दष्टियों से इस युग में विपुल साहित्य लिखा गया है। भारतीय धर्म साधना एवं चेतना के इतिहास में हिंदी संत काव्य का प्रमुख स्थान हैं। धर्मसाधना एवं लोक जीवन के निर्मल स्वरूप को विकृत तथा विषम बनाने वाले तत्त्वों की इन कवियों ने तीव्र स्वर में आलोचना की। अंधविश्वास में डूबे समाज के लिए इन्होंने कल्याणकारी अभिनव मार्ग प्रशस्त किया। लोककल्याण के नाम पर प्रसारित आडम्बरअनाचार एवं बह्यचारों की निंदा करते हुए संतों ने उसकी निस्सारता प्रमाणित की । संतों के कण्ठों से प्रस्फुटित ये वाणियाँ मंदाकिनी के दश्य मानवता का मंगल पाथेय बनीं। संतों की दृष्टि में कवि एवं कवि कर्म सामान्य नहीं था। इन्होंने अपने संदेशों एवं उच्चादर्शों के प्रचार हेतु काव्य को माध्यम बनाया। हिंदी साहित्य में संत काव्य ने साहित्य एवं कला की अभिनव मान्यताएँ संस्थापित की। इनका मतवाद सहज साधना पर अवलम्बित हैउनकी दार्शनिक विचारधारा मूल उद्गम उपनिषद है। इनकी वाणी में सरलता एवं प्रभावोत्पादकता विद्यमान है। ये संत नैतिकाता के प्रचारकसत्य उद्घाटक एवं समाज सुधारक थे। इनमें अटूट विश्वास भरा हुआ था। संत कवियों की समाज साधना उन्हें अन्य कवियों के सामान्य स्तर से ऊपर उठाकर सम्मानित आसन पर प्रतिष्ठित कर देती है।

 

अपने तत्कालीन युग की धार्मिक विसंगति को दूर कर इन संतों ने सांस्कृतिक सामंजस्य स्थापित किया । इन्होंने हिन्दू एवं मुस्लिम के संघर्ष से पीड़ित मानव के हृदय में यह भरने का पुष्ट प्रयत्न किया कि राम-रहीमकेशव करीम में भिन्नता नहीं है। धर्म की सबसे बड़ी विशेषता है औदार्यकरूणा से मुक्त होनादया एवं सहिष्णुता का विकास करना। इन गुणों से परे रहकर मानव लौकिक-आलौकिक कोई सुख नहीं प्राप्त कर सकता। समाजधर्म और संस्कृति के विकास एवं उत्थान की दृष्टि से संतों का योगदान महत्त्वपूर्ण रहा है। उन्होंने अपने रचना बल के द्वारा सत्यक्षमादयात्यागविनयसमतासमदष्टिकथनी करनीआदि सामाजिक विश्वासों की परिपाटी ही बदल दी है।

 

संतों का लक्ष्य बड़ा ही व्यापक रहा है। इन्होंने जीवों के निस्तार के लिए उच्चादर्शों के उपदेश दिए। मानव को कल्याणकारी पथ पर अग्रसर करना ही इनका उद्देश्य था। इनके हृदय में दुःखियों के प्रति असीम संवेदना थी। वे संसार को सुखी एवं प्रसन्नचित देखना चाहते थे। इसलिए इन्होंने सामाजिक परिवेश को सुधारने का सतत् प्रयास किया। संसार का सम्पूर्ण दुःख दारिद्रय वे अपने ऊपर लेना चाहते थे। इससे अधिक व्यापक तथा महत्त्वपूर्ण मानवतावादी दृष्टिकोण उच्च कोटि के संतों में ही हो सकता है ।

 

"जे दुखिया संसार मेंखावो तिनका दुक्ख ।

 दलिद्दर सौंपि मलूक को लोगन दीजै सुक्ख ।। "

 

संतों का मत था कि सद्गुण एवं नैतिक शक्ति बहुत ही प्रभावोत्पादक होती है इसीलिए इन्होंने मानव में मानसिक शक्ति बढ़ाकर उत्साह भरने की चेष्टा की। वे मानते थे कि मानव में वह शक्ति है जिसके नाते वह अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं कर सकता है। स्पष्टतः इन्होंने नैतिकतापूर्ण मानवतावाद का समर्थन किया जिससे जनता में आर्थिक उदारता और विनम्रता आई ।

 

संत साहित्य सामाजिक प्रगतिशीलता का प्रतीक है। प्रत्येक दष्टि से यह साहित्य प्रगतिशीलता के रंग में अनुरंजित है काव्य के अंतरंग-बहिरंग पक्षों में तत्कालीन संत कवि पूर्णतः प्रगतिशील हैं। भाषाभावरसछंदआदि की दृष्टि से उन्होंने ऐसे प्रयोग किये जो उनके युग की मान्यताओं को पुष्टताप्रदान करते हैं। इनके द्वारा सुझाये गये विचार भविष्य के लिए मानदंड बन गये। उन्होंने समाज में प्रगतिशील विचारों का समावेश कर युग-युग से पीड़ित जनका का उद्धार किया। संत चरनदास के विचारों में इस प्रकार की स्थिति का सुंदर आकलन किया गया है

 

"एकन पग पनही नहीं एक चढ़े सुखपाल । 

एक दुखी एक अति सुखीएक भूप इक रंक,

एकन को विद्या बड़ीएक पढ़े नहिं अंक । 

एकन को मेवा मिलेएक चने भी नाहिं

कारन कौन दिखाइयेकरि चरनन की छांहि ।।

 

उपर्युक्त पंक्तियों से स्पष्ट हो जाता है कि इन संतों ने जिस साहित्य की रचना कीवह सच्चे अर्थों में जन - साहित्य है। भाषा एवं विचार बोध की दृष्टि से वह शुद्ध रूप से लोक की वस्तु है। अपनी वाणी के द्वारा संतों ने देश को एक महान् सांस्कृतिक जाल से बाँध दिया सामंती एवं अभिजात श्रंखलाओं के छिन्न-भिन्न हो जाने पर जातीयता विकसित हुईजिसका शासन वर्ग की सभ्यता और संस्कारों से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं था। संतों में एक गहरा दायित्व बोध था जिसके द्वारा वे देश और समाज के सजग प्रहरी बने। एक उदाहरण दष्टव्य है-

 

"सुखिया सब संसार हैखावै और सोवै । 

दुखिया दास कबीर हैजागे और रोवै।। "

 

सूफी काव्यधारा भक्तिकाल की दूसरी महत्त्वपूर्ण धारा है। इसको प्रेमाख्यानक काव्य के नाम से भी जाना जाता है। भक्तिकाल को स्वर्ण युग बनाने में इस धारा के कवियों का योगदान भी महत्त्वपूर्ण रहा है। सूफी मत इस्लाम धर्म का प्रतिनिधित्व करने वाली एक प्रमुख धारा का नाम हैजिसक पर कुरान का स्पष्ट प्रभाव दिखाई पड़ता है। दिल्ली के शासक किसी न किसी सूफी साधक के शिष्य बनते थे और उसे विशेष सम्मान देते थे। मुगल राज्य के विस्तार के साथ-साथ सूफियों का भी प्रसार होता गया। प्रमुख कारण यह था कि सूफियों ने भी अपने आप को इस्लाम से अलग नहीं होने दिया। हिंदी में प्रचलित प्रेमाख्यानों की हृदयग्राही परम्परा के द्वारा उन्होंने जनता के मध्य अपने विचारों का प्रचार किया। अकबर के युग तक सूफीमत प्रेम एवं भक्ति पर आधारित होकर सर्वमान्य हो चुका था । धीरे-धीरे इस मत में भारतीय संगीतनृत्यदेवोपासना की भावना आदि का प्रवेश होता चला गया। सूफी संतों ने ऊँच-नीच के भेदभाव को मिटाने का सतत् प्रयास किया। उन्होंने यह प्रतिपादित किया कि जीवन में प्रेम की भावना ही उच्च एवं प्रधान होती है। सूफियों के दर्शन की भावना इतनी सरल और मधुर थीकि जनता ने उसे बड़े हर्ष और प्रेम के साथ अपने जीवन में आत्मसात् कर लिया। सूफी कवि उदार प्रकृति के थेइसी कारण उनके प्रेमाख्यानों में धार्मिक कट्टरता के दर्शन कम होते हैं। साहित्यिक दृष्टि से हिंदी सूफी काव्य का विशेष महत्त्व है। इन सूफी कवियों ने सुंदर प्रबन्ध काव्यों की रचना की है। उपमानयोजनाकथानक रूढ़ि तथा वस्तु वर्णन की प्रधानता के कारण उन्हें इस विधा को स्वीकार करना पड़ा। इनकी कथा का आधार पौराणिकता पर आधारित प्रसंग और घटनाएँ हैं। इनका संयोग-वियोग तथा नख-शिख वर्णन अत्यन्त आकर्षक है। इनके द्वारा रचित प्रेमाख्यानों का उद्देश्य मनोरंजन कम आध्यात्मिक प्रचार अधिक माना गया है। कथा रूढ़ियों के स्रोत भारतीय और भारतीयेत्तर दोनों रहे हैं। फारसी की मनसबी शैली का प्रभाव अधिक रहा है सांसारिक प्रेम उनके लिए ईश्वरीय प्रेम का सोपान था। सूफी काव्य परम्परा के लगभग समस्त प्रेमाख्यानकों की सामान्य विशेषताएँ प्रायः एक जैसी रही हैलेकिन इनमें से कुछ कृतियाँ अपना विशिष्ट स्थान रखती है तथा समाज पर लम्बा प्रभाव छोड़ जाती है जायसी की अमरकृति पदद्मावतभी इसी तरह की कृति रही है। जायसी इन कवियों में विशेष तौर पर सर्वोपरि हैं और 'पद्मावतइस परम्परा का गौरव ग्रंथ है। जायसी से पूर्व की सभी प्रेमकथाएँ कल्पित थीं जायसी ने अपने ग्रंथ पद्मावत में इतिहास और कल्पना का सुन्दर समन्वय प्रस्तुत किया है। रत्नसेन और पद्मावती की प्रणय कथा को अपनी कल्पना से रसासिक्त कर अत्यन्त आकर्षक बना दिया है। लौकिक प्रेम के आधार पर आध्यात्मिक अभिव्यंजना करने वाले इस ग्रंथ में प्रेम-साधना को ईश्वर प्राप्ति का मार्ग बतलाया है। पद्मावत की प्रेम कहानी हिन्दू घरों में प्रचलित कहानी है जिसे जायसी ने मुस्लिम संस्कृति से जोड़कर हिन्दू-मुसलमानों के मध्य निरन्तर बढ़ रही खाई को कम करने का कार्य किया। यह जायसी का उत्कृष्टतम योगदान कहा जा सकता है जायसी की नागमती का विरह-वर्णन हिंदी साहित्य का सर्वश्रेष्ठ विरह वर्णन माना जाता है।

 

जायसी ने लोक संस्कृति के विभिन्न तत्त्वों को अपने काव्य में रखकर एक ओर तो काव्यात्मकता की रक्षा की है और दूसरी ओर लोक संस्कृति को जीवित रखने का प्रशंसनीय कार्य किया है। इन्होंने हिन्दुओं की कहानी को उनकी ही बोली में प्रस्तुत किया। इन कथाओं में लोकप्रचलित घटनाओंविश्वासों और गाथाओं को प्रकट किया गया है। इस दष्टि से जायसी को लोक कवि कहा जा सकता है ।

 

कृष्ण काव्य में कृष्ण का उपास्यरूप महाभारतहरिवंश विष्णु पुराण तथा श्रीमद्भागवत पुराणों में विस्तार से मिलता है महाभारत हरिवंश तथा विष्णुपुराण में वष्णिवंशीय सात्वतकृष्ण के ऐश्वर्यमय रूप की प्रधानता हैवैसे तो भक्ति काल में कृष्ण काव्य लिखने वाले अपरिमित कवि हुए हैंकिन्तु इनमें सूरदास का स्थान सर्वप्रमुख रहा है सूरदास को न केवल अष्टछाप के कवियोंअपितु सम्पूर्ण कृष्ण कथा कवियों में सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त है। सूरसागर सूर की सर्वसम्मत प्रामाणिक रचना है। हरि लीला इसका वर्ण्य विषय है। दैन्यवात्सल्यसख्यअंगार यादि में सूर की मौलिकता झलकती है। नन्द-यशोदा के साहचर्य में वात्सल्यश्रीदामा आदि सखाओं के सान्निध्य में सख्य तथा बज कुमारियों के प्रसंग में माधुर्य स्पष्ट झलकता है। प्रत्येक पद मुक्तक एवं स्वतंत्र आवाद्य है किन्तु कुछ खण्ड काव्यात्मक विशेषताओं से सम्पन्न है ।

 

सूरदास की दृष्टि बड़ी तीव्र थी। वे अपने युग के सचेष्ट रचनाकार थे। यवनों के अत्याचार से आक्रांत जनता के मन से जब ईश्वर के प्रति विश्वास उठ चुका थाऐसे समय में सूर ने ब्रज कुमारी द्वारा अपनी मन को सरल-सुहावना बनाकर चतुर्दिक् भुवन मोहन की मुरली बजाई। अपने दिव्य प्रेम संगीत द्वारा जीवन में आस्था जगाई और आशा का संचार किया। उन्होंने समानता की परिपाटी पर आधारित एक ऐसे मानव समाज की सष्टि की जो विश्व बन्धुत्व तथा निश्छल प्रेम पर आधारित था। -

 

सूर के कृष्ण सदैव सामान्य रहे हैं. विशिष्ट नहींचाहे वे राजा नंद के पुत्र रहे हो चाहे स्वयं राजा। सूर की वह जीवन-दष्टि कितनी स्पहणीय है जिसमें आज की तरह कहीं भय और तनाव नहीं हैहै जो केवल मुरली की मधुर ध्वनिनाचना-गानाखेल और मनोविनोद। यहाँ नगरीय जीवन की चमक-दमक नहीं है। कालिन्दी का सुंदर कूल है। सूर का काव्य समाज को नव जीवन की प्रेरणा देता हैं। कोई भी जीवन से ऊबता नहीं है भारतीय जीवन दष्टि पूर्ण की आराधना करती है। यही कारण है कि सूर का काव्य अपूर्ण दष्टि वाले मानव को सदैव आकर्षित करता है।

 

सूर की भाषा ब्रज भाषा है इन्होंने ही सर्वप्रथम ब्रज भाषा को एक सुव्यवस्थित साहित्यिक भाषा के रूप में अपनी रचनाओं में स्थान दिया। वास्तव में जो लालित्य और मोहकता ब्रज भाषा में हैवह किसी अन्य भाषा में नहीं है। इसमें काव्योपयोगी रमणीय शब्दों की भरमार है। श्रृंगार रस के लिए तो ब्रजभाषा के समकक्ष कोई भाषा ही नहीं ठहरती। इसकी शब्दावली बड़ी ही समद्ध है। सूर ने ब्रजभाषा को जनभाषाधार्मिक भाषा तथा साहित्यिक भाषा का गौरव प्रदान किया है। इस दष्टि से हिंदी जगत् में उनकी उपलब्धि महान् है। हिंदी का कृष्ण भक्तिकाव्य संपूर्ण हिंदी काव्य में अनुभूति की तलस्पर्शिता और अभिव्यक्ति की भंगिमा के कारण श्रेष्ठ है। ये भक्त कवि मानसी उपासना के कारण स्वयं अनुभूतिमय हो गये थे। इसलिए इनके काव्य में संवेदन की सच्चाई और बोध की गरिमा दिखायी देती है। मानव का सौन्दर्य और प्रेम यहाँ साकार हो उठता है। नारी और पुरूष का साहचर्यरूपासक्तिमानसमर्पणएक दूसरे में अंतर्लीन हो जाने की आतुरता रखते है। इन कवियों ने व्यापक सांस्कृतिक चेतना का उन्नयन किया जिसका मूल बिन्दु सौन्दर्य था ।

 

उत्तर भारत में राम भक्ति के प्रचार का श्रेय स्वामी रामानन्द को जाता है। रामानुज के श्री सम्प्रदाय में दीक्षित होकर भी उन्होंने रामावत् सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया। रामानुजाचार्य ने विष्णु के अन्य रूपों में रामरूप को तथा अन्य भक्तिभावों में दास्य को विशेष महत्त्व दिया। उत्तर भारत में ही गुह्य साधना के रूप में सीताराम के सौन्दर्य रूप की उपासना भी प्रचलित थी तथा आचरण पक्ष में सामाजिकता की दृष्टि से अध्यात्म रामायण की परम्परा भी ग्रहीत थी।

 

हिन्दी साहित्य जगत में तुलसी का प्रादुर्भाव एक युगान्तरकारी घटना है। इसमें कारयित्री एवं भावयित्री प्रतिभा का अद्भुत सामंजस्य था। इनका अध्ययन जितना गंभीर थालोकानुभव उतना ही व्यापक - विशाल । राम-कथा के अनन्त स्रोतों का मंथन करके तुलसी ने जो मानस-नवनीत निकालाउसकी स्निग्धता से भारतीय जन मानस ही नहींअपितु विश्व मानवता आज भी अपरमित आनंद का अनुभव करती है। तुलसीदास हिन्दी साहित्य के सर्वाधिक महिमावान कवि है।

 

तुलसीदास ने राम के जिस रूप स्वरूप की प्रतिष्ठा की उसमें अपरिमित शक्तिशील एवं सौन्दर्य का अद्भुत सामंजस्य दिखाई देता है। इन विशेषताओं में मानव की सम्पूर्ण उदात्तता समाहित हो गयी है। आराध्य शक्तिशाली होगा तभी वह भक्तों की रक्षा करने में समर्थ होगा। युगीन लोक रक्षण की दृष्टिगत रखते हुए तुलसी ने राम को शक्तिमान के रूप में प्रस्तुत किया। शील से शक्ति मर्यादित होती हैउसके दुरूपयोग की संभावनाएँ कम होती है। इसलिए तुलसी ने राम के सर्वगुण सम्पन्न रूप की अवधारणा की है। वे आदर्श पुत्रपतिभाईस्वामी आदि रूपों में दिखाई देते हैं । तुलसी की भक्ति पद्धति सेवक - सेव्य भाव की है। राम नाम के प्रति पूर्ण विश्वास के साथ जीवन की समग्र नैतिकता के आध र पर वे भारतीय समाज के महत्त्वपूर्ण घटक सिद्ध हुए। सम्पूर्ण उत्तर भारत में जितना आदर उनके 'रामचरितमानसको मिलाउतना इंग्लैंड में बाइबिल को भी नहीं मिला होगा। तुलसीदास ऐसे महान् देवदूत हैं जो रामानंद के सिद्धान्त को पूर्व से पश्चिम तक ले गये तथा उसे स्थिर विश्वास में परिणत किया ।

 

भक्तिकाल की चारों धाराओं का अनुशीलन करने पर हम पाते हैं कि इन सारे संतों और भक्तों का उद्देश्य रचनात्मक है। वे मानव-मानव में किसी प्रकार का भेद-भाव नहीं रखते हैं। एक ओर निर्गुण संत आत्म परिष्कार और चित्तशोधन करते हैं। वे ईश्वर की इच्छानुसार जीवन जीने में विश्वास करते हैं। 'जेहि बिधि राखेँ त्यूँ रहौं जो कुछ देइ सो खाऊँ।वहीं दूसरी ओर सूफी संत हैं जो हिन्दू-मुस्लिम के बीच की युगीन दरार देखते हैउसे कम करने का प्रयास करते है। इसके साथ ही कृष्ण - काव्यधारा के कवियों ने जीवन में प्रेम की प्रतिष्ठा करकेतुलसी जैसे कवियों ने एकत्व दर्शन करके समूचे युग और मानवता का कल्याण किया है।

 

भक्ति आन्दोलन में युग जीवन की आतंरिक वेदना की स्वानुभूतिभगवान की भक्ति और करूणा में स्थिर आशा एवं आस्था के स्वर मुखर है। निराश एवं हतोत्साहित जनता के जीवन में शक्ति कानव-संचार है। भारतीय साहित्य चिन्तन परम्परा का समन्वय और विकास है। पौराणिक प्रतीकोंमिथ्योंशास्त्रीय कथाओंविचारों एवं अनुभूति धाराओं का लोकाभिमुखी रूप है। तथा उनका लोक कथाओं से संयोग है। भक्तिकाव्य लोक प्रतिभा की रचनात्मक शक्ति की देन है। इस काल में हिंदी की अन्य शैलियों जैसे- गद्य आदि का विकास उतना नहीं हुआ थाकिन्तु काव्य-क्षेत्र में ही जो विविध शैलियाँ विकसित हुईवे गुणों एवं परिमाण की दृष्टि से अपरिमित हैं। युगानुरूप इन कवियों ने जिस राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक चेतना का विकास कियासामाजिक सौहार्द लाने का प्रयास कियावह अन्यत्र दुर्लभ है। भक्तिकाल को हिंदी साहित्य का स्वर्णयुग कहना उचित एवं तर्कसंगत है।

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