भक्तिकालीन संत काव्य धारा वैशिष्ट्य और अवदान
भक्तिकालीन संत काव्य धारा वैशिष्ट्य और अवदान
सन्त काव्य में कृत्रिम सौन्दर्य नहीं है, बल्कि उसमें वनराजि का स्वाभाविक सौन्दर्य है। इस काव्य में आध्यात्मिक विषयों की अभिव्यक्ति हुई है। पर वह जन-जीवन में डूबी हुई अनुभूतियों से सम्पन्न है । सन्त काव्य में अनेक धार्मिक सम्प्रदायों के प्रभाव को आत्मसात् किया है, किन्तु इसमें धर्म अथवा साध् ना की कोई शास्त्रीय व्याख्या नहीं है, इस काव्य में जन-जीवन के सत्य की अभिव्यक्ति अलंकार विहीन सीधी-साधी भाषा में हुई है। सन्त साहित्य साधना, लोक पक्ष तथा काव्य वैभव सभी दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। सन्त कवियों की विचार सरणि निजी अनुभूतियों पर आधत है। सन्त साहित्य में एक अद्भुत विचारगत साम्य है।
1. अवतारवाद का खण्डनः
सभी संतों ने राम कृष्ण अथवा अन्य किसी भी रूप में ईश्वर के अवतार लेने को मिथ्या और भ्रामक बताया है। बहुदेववाद का भी खंडन किया है। सभी संतों ने ब्रह्म, विष्णु तथा महेश की इसीलिए निन्दा की है कि वे भी माया ग्रस्त हैं। इस प्रकार की विचारधारा इस्लाम धर्म के एकेश्वरवाद के भी निकट है तथा शंकर के अद्वैत के अनुरूप भी है हिन्दू-मुस्लिम दोनों जातियों में विद्वेषाग्नि को शान्त करके उनमें एकता की स्थापना के लिए इन्होंने एकेश्वरवाद का संदेश सुनाया-
"यह सिर नये न राम कूं नाहीं गिरियो टूट
आन देव नहिं परसिये, यह तन जायो छूट।।"
2 जाति-पाँति के भेद-भाव का विरोध
संत कवि जाति पाँति के नियमों के कट्टर विरोध थे। इनकी दृष्टि में सब मनुष्य बराबर थे तथा भगवद्-भक्ति का समान अधिकार था ।
"जाति पाँति पूछे नहिं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई
संत सामाजिक क्रान्तिकारी थे। उन्होंने सामाजिक अन्याय का विरोध किया था। छुआछूत, हिन्दू-मुसलमान में विद्वेष और भेदभाव की उन्होंने खुलकर निन्दा की थी और मानव मात्र को समान मानने की आवाज बुलंद की थी ।
3 रहस्यवादी प्रवृत्ति:
संत कवियों की रहस्य भावना सूफी कवियों के रहस्यवाद से भिन्न है, क्योंकि संतों ने आत्मा के संबंधों की समानता पति-पत्नी के संबंधों से करते हुए स्पष्ट रूप में यही माना है कि आत्मा परमात्मा से मिलने के लिए आतुर हो उठती है। संतों की रहस्यात्मक पद्धति भारतीय परम्परा के अनुकूल है। इस रहस्यवाद का मूल आधार अद्वैतवादी चिन्तन है। कबीर के कथनानुसार
"जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है, बाहिर भीतर पानी ।
फूटा कुम्भ जल जलहिं समाना, यह तत् कहो गयानी ।। "
संतों के रहस्यवाद पर योग का भी स्पष्ट प्रभाव है जहाँ इंगला, पिंगला और सहसदल कमल आदि प्रतीकों का प्रयोग है। इनमें रहस्यवाद वहाँ भी मिलता है, जहाँ वे उलटबांसियों के रूप में गुह्य साधना का वर्णन करते हैं।
4. संत काव्य में युग चेतनाः
संत काव्य की महत्ता प्रतिपादित करते हुए डा० त्रिलोकी नारायण दीक्षित ने कहा है "संतों का व्यक्तित्व सच्चे अर्थों में संवेदनशील था। उनका मानस स्वच्छ और उदार था। इसीलिए उनका साहित्य जन भावनाओं की सहज, प्रवृत्तियों, परिस्थितियों, विकृतियों तथा विडम्बनाओं का एक विशाल शब्द-चित्र है। दूसरे शब्दों में, उन्होंने तत्कालीन समाज का यथार्थ चित्र अंकित किया है। संतकाव्य, आत्मविश्वास, आशावाद और आस्था की भावना संस्थापित करने में सहायक साहित्य है । यह जीवन-शक्ति का अजस्र स्रोत है। इस काव्य का प्रमुख प्रयोजन है- त्रस्त, संतप्त, उपेक्षित, उत्पीड़ित मानव को परिज्ञान प्रदान करना। इसमें जीवन का स्वरूप, विश्लेषण और व्याख्या उपलब्ध होती है। संक्षेप में, निर्गुण काव्य आचरण की पवित्रता का संदेश लेकर जनता के सम्मुख आया।
5. निर्गुण की उपासनाः
संत काव्य की मूल भावना निर्गुण की उपासना है। उनका निर्गुण बौद्ध साधकों के शून्य से पथक है। वह संसार के प्रत्येक कण में व्याप्त है, वही प्रत्येक साँस में है। उसका वर्णन नहीं किया जा सकता, कबीर का कहना है-
"पारब्रह्म के तेज का कैसा है उनमान ।
कहिबे कूँ सोभा नहीं देख्या ही परवान।।"
यद्यपि संतों ने अपने इस निर्गुण निराकार ब्रह्म को पौराणिक नाम ही प्रदान किया है, जैसे राम, कृष्ण, केशव, गोपाल आदि परन्तु इन पौराणिक महापुरूषों से अन्य बातों में वह इनसे नितान्त भिन्न है। कबीर ने इसी भेद को स्पष्ट करते हुए कहा है
"राम नाम तिहुँ लोक बखाना ।
राम नाम का मरम है आना।। "
6. गुरु की महत्ताः
सभी संतों ने ब्रह्म-साधना के लिए सद्गुरू का पथ-प्रदर्शन अनिवार्य माना है। सद्गुरू ही उन्हें परम तत्व के रहस्य से परिचित करा, उनके हृदय में उसके प्रति अनन्य प्रेम की भावना उत्पन्न करता है। नामदेव ने गुरू महिमा को व्यक्त करते हुए कहा है
"सुफल जनम मोको गुरु कीना । दुख बिसार सुख अंतर दीना ।
ज्ञान जान मोको गुरू दीना । राम नाम बिन जीवन हीना ।।
7" रूढ़िवाद और मिथ्याडंबर का विरोध:
भक्ति कालीन सभी संतों ने रूढ़ियों, मिथ्याडंबरों तथा अन्धविश्वासों की कटु आलोचना की है। इसका कारण इन लोगों का सिद्धों और नाथपंथियों से प्रभावित होना है। कबीर ने तिलक, छाया, माला, रोजा, नमाज योग की " क्रिया आदि को व्यर्थ ठहराया और इनके मानने वालों को फटकारा। उनकी भर्त्सना में चिढ या खीझ नहीं, परोक्ष रूप से उपदेश का भाव उभर रहा है-
"दुनिया कैसी बावरी, पाथर पूजन जाय।
घर की चकिया कोई न पूजै, जेहि का पीसा खाय ।।"
8. लोक कल्याण की उत्कट भावनाः
संतों की साधना में वैयक्तिकता की अपेक्षा सामाजिकता अधिक है। नाथ सम्प्रदाय की साधना व्यक्तिगत और पद्धति शास्त्रीय थी, जबकि संतो की साधना सामाजिक और पद्धति स्वतंत्र है। इन्होंने जन- समान्य में आत्म गौरव की दीप्ति भर दी थी, जिसके कारण उन्होंने प्रत्येक प्रकार के अन्याय-अत्याचार का प्रतिरोध करने की शक्ति प्राप्त कर ली थी।
9. भाषाः
अधिकांश संतों ने अपने काव्य की भाषा में प्रदेश विशेष की बोली के साथ ब्रज, अवधी, राजस्थानी, पंजाबी, हरियाणवी आदि शब्दावली को प्रयुक्त किया है, जिसे अहि कांश विद्वानों ने 'सधुक्कड़ी भाषा कहा है। तत्कालीन परिवेश के अनुरूप संत-वाणी की रचना मुख्यतः जनता के अशिक्षित, उपेक्षित और पिछड़े हुए वर्गों के लिये हुई थी। संतों की भाषा अति सरल, कृत्रिमताविहीन और सहज है।
10. अलंकारः
संत कवि अलंकारवादी भी नहीं थे, किन्तु उनकी कविता में अनेकानेक शब्दगत और अर्थगत अलंकार सहज रूप से आ गये हैं। उपमा, रूपक, दष्टान्त, तद्गुण, स्वभावोक्ति, सहोक्ति, अत्युक्ति, विशेषोक्ति, अन्योक्ति, उल्लेख, उत्प्रेक्षा, व्यतिरेक, असंगति, श्लेष, यमक, अनुप्रास, काव्यलिंग आदि अलंकार उनके काव्य को चमत्कार प्रदान करते हैं। संतों के रूपक जीवन की सामान्य प्रवत्तियों एवं घटनाओं पर आधारित हैं। कबीर आदि के रूपक और प्रतीक बड़े सशक्त हैं और जीवन के व्यापक क्षेत्र से लिये गये हैं। संतों का साहित्य लोक - भावना का यथार्थ बिम्ब प्रस्तुत करता है। जीवन में आस्था और विश्वास का संदेश देता है। मध्ययुगीन सामाजिक और सांस्कृतिक समस्याओं के भावात्मक निरूपण में यह काव्य अप्रितम है। संतों ने अपने समय के मानव समाज को दोषमुक्त कर परिष्कृत बनाने की चेष्टा की है।