हिंदी साहित्य का भक्तिकाल | भक्तिकालीन परिवेशः ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक| Bhakti period of Hindi literature

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हिंदी साहित्य का भक्तिकाल , Bhakti period of Hindi literature 

हिंदी साहित्य का भक्तिकाल | Bhakti period of Hindi literature

हिंदी साहित्य का भक्तिकाल

 

 भक्तिकालीन परिवेशः ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक

 

भक्ति काल का उद्भव विशेष परिस्थितियों में हुआ है। भारत मुस्लिम शासन में अनेक विषमताओं से जूझ रहा था। ऐसे में जनमानस को आस्था विश्वास और भक्ति से ही जीने का मार्ग मिलता है। इस काल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ रेखाकंन योग्य है-

 

भक्ति काल का ऐतिहासिक परिवेश

 

हिंदी साहित्य का मध्यकाल भारत में मुस्लिम साम्राज्य के क्रमिक उत्थान-पतन का युग है। उस समय का शासक दिल्ली का सुलतान मुहम्मद बिन तुगलक उत्तर से दक्षिण तक अपने राज्य का विस्तार करना चाहता था। इसी विचार का लक्ष्य कर उसने दिल्ली की अपेक्षा देवगिरी को अपनी राजधानी बनाया और उसका नाम दौलताबाद रखा। 1375 से 1700 विक्रमी संवत् तक दास, खिलजी, तुगलक, सैयद, लोदी, मुगल आदि वंशों के व्यक्ति दिल्ली की गद्दी पर रहे। जाति और संस्कृति की दृष्टि से ये विदेशी ही बने रहे। भले ही इनमें से अनेक का जन्म भारत में हुआ था । धार्मिक दमन, राज्य विस्तार के लिए निरन्तर युद्ध तथा ऐश्वर्य और विलासिता का जीवन इनकी विशेषताएँ रही जिसके परिणामस्वरूप हिंदी धर्म व वैष्णन भक्ति के पुनर्जागरण को बल मिला। अपने धर्म की रक्षा के लिए एक अखिल भारतीय धार्मिक आन्दोलन, जिसे भक्ति आन्दोलन भी कहा जाता है, प्रारम्भ हुआ। भक्ति आन्दोलन के प्रेणेता दार्शनिक, संत, महात्मा और समाज-सुधारक थे जिन्होंने एक ओर इस्लाम की आक्रामकता के विरुद्ध जन-जन को संगठित किया, वहीं दूसरी ओर सद्भाव स्थापित करने का प्रयास भी किया।

 

सोलहवीं शती के मध्य में बाबर ने मुगल सल्तनत की नींव डाली उसने मेंवाड़ के राणा सांगा को पराजित करके राजपूतों के प्रतिरोध को रोक दिया, किन्तु पठानों ने हिम्मत न हारी। पठान शासक शेरशाह सूरी ने हुमायूँ को पराजित किया। शेरशाह के उत्तराधिकारी अयोग्य निकले ओर मुगलों का नेतत्त्व अकबर जैसे प्रतिभाशाली व्यक्ति के हाथ में आ गया। कालान्तर में सम्राट अकबर के सामने देश के छोटे-छोटे हिन्दू और मुसलमान शासकों ने एक-एक कर घुटने टेक दिये। अकबर का प्रतिरोध महाराणा प्रताप ने किया और वे आजीवन लड़ते रहे। शाहजहाँ के शासन के अन्तिम दिनों में बुन्देलखण्ड में चंपतराय और महाराष्ट्र में शिवजी ने स्वतन्त्रता का झंडा ऊँचा किया।

 

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भक्तिकाल का सामान्य परिचय देते हुए कहा है, "देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिंदू जनता के हृदय में गौरव, गर्व और उत्साह के लिए वह अवकाश न रहा गया। कोई भी साहित्य युग परिस्थितियों से प्रभावित हुए बिना नहीं रहता है। किन्तु भक्तिकालीन साहित्य परिस्थितियों से बहुत कम प्रभावित हुआ। एक भक्तिकालीन कवि ने लिखा है। 

'सन्तन कहा सीकरी सों काम ।'

 

वह न तो राजदरबार को महत्त्व देते थे और न प्राकृत-जन का गुणगान करते थे। मुस्लिम शासक केवल अनुदार एवं असहिष्णु ही नहीं कहे जा सकते। उनके शासन काल में संस्कृत एवं देशी भाषाओं के साहित्य, संगीत और कला को प्रोत्साहन मिला। जौनपुर के सुल्तानों ने शास्त्रीय संगीत का पुनरुदार करवाया तथा 'संगीत शिरोमणि' नामक संस्कृत ग्रंथ का निर्माण कराया। भक्ति काव्य का धर्म विकास मुगल साम्राज्य के समय में हुआ है, किन्तु राजनीतिक व्यवस्था के प्रति असन्तोष इन कवियों की वाणी में यत्र-तत्र अवश्य मिल जाता है। जैसे

 

" म्लेच्छनि भार दुखित मेंदिनी । " 

"वेद धर्म दूरि गये, भूमि चोर भूप भये । 

साधु सीद्यमान जान रीति पाप पीन की ।"

 

भक्तिकाल का सामाजिक परिवेश

 

इस युग में सामाजिक परिस्थितियों में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ। हिन्दू-मुस्लिम संस्कृति में आदान-प्रदान हुआ। उस समय तक हिन्दू-मुसलमानों में परस्पर विवाह हो जाते थे। किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं है कि हिन्दुओं और मुसलमानों में पूर्ण समन्वय स्थापित हो गया था। कुछ मुसलमान शासक हिन्दुओं के साथ अत्यंत कठोर व्यवहार करते थे। अलाउद्दीन ने दोआब के हिन्दुओं से उपज का 50 प्रतिशत भाग कर के रूप में बड़ी कठोरता से वसूल किया था। उस युग के हिन्दुओं की आर्थिक विपन्नता का चित्र खींचते हुए 'तारीखे फिरोजशाही के लेखक बर्नियर का कहना है कि "उन हिन्दुओं के पास ध न संचित करने के कोई साधन नहीं रह गये थे और उनमें से अधिकांश को निर्धनता, अभावों एवं आजीविका के लिए निरन्तर संघर्ष में जीवन बिताना पड़ता था। प्रजा के रहन-सहन का स्तर बहुत निम्न कोटि का था । करों का सारा भार उन्हीं पर था। राज्य पद उनको अप्राप्त थे।" तुलसीकृत 'कवितावली' की निम्नलिखित पंक्तियों से तत्कालीन समाज की स्थिति स्पष्ट झलकती है

 

खेती न किसान को, भिखारी को न भीख बलि । 

बनिक को बनिज न चाकर को चाकरी ।। 

जीविका विहीन लोग सीघमान सोच बस । 

कहँ एक एकन सौं, कहाँ जाई, का करी ।।

 

आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने तत्कालीन सामाजिक परिस्थिति का विवेचन करते हुए लिखा है। "दैनिक जीवन, रीति रस्म, रहन-सहन, पर्व-त्यौहार आदि की दृष्टि से तत्कालीन भारतीय समाज, सुविध -सम्पन्न और असुविधा - ग्रस्त इन दो वर्गों में विभक्त था। प्रथम वर्ग में राजा-महाराजा, सुल्तान, अमीर, सामन्त और सेठ साहूकार आते थे, जिनमें मनमाने ढंग से वैभव प्रदर्शन की उल्लासपूर्ण प्रवत्ति पायी जाती थी। द्वितीय वर्ग में किसान, मजदूर, सैनिक, राज्य कर्मचारी और घरेलू उद्योग-धन्धों में लगी सामान्य जनता थी जो प्रथा परम्परा का पालन कर संतोष की साँस ले लिया करती थी।" हिन्दुओं में जाति-पाति के बंधन दिन-प्रति-दिन कठोर होते जा रहे थे, किन्तु इनके प्रति आवाज भी उठ रही थी। महाराष्ट्र के नामदेव की भाँति उत्तर भारत में रामानन्द और उनके शिष्य कबीर खुलकर इसका विरोध कर रहे थे। उन्होंने सामाजिक रूढ़ियों का खंडन किया। हिंन्दू-मुस्लिम एकता का संतों का प्रयास मुगल काल में संगीत, कला आदि के क्षेत्रों में दोनों संस्कृतियों के समन्वय में देखा जा सकता है ।

 

तत्कालीन साधु-समाज पर भी पाखण्ड की काली छाया मंडराने लगी थी। भारतीय मुस्लिम समाज की अवस्था हिन्दुओं से अधिक भिन्न न थी । वर्ग-व्यवस्था में आस्था न रखने वालों में भी किसी न किसी प्रकार का आपसी भेदभाव बना हुआ था। इन दिनों दास प्रथा भी प्रचलित थी। हिन्दू कन्याओं को सम्पन्न मुसलमान अधिकाधिक संख्या में क्रय करके अपने घरों में रख लिया करते थे। कुलीन नारियों का अपहरण करवाकर अमीर लोग अपना मनोरंजन करते थे। स्त्रियों को पुरूष जैसा स्तर व सम्मान प्राप्त नहीं था। मुस्लिम महिलाओं की स्थिति हिन्दू स्त्रियों से अधिक भिन्न न थी। बहु विवाह प्रथा के कारण हरमों में इनकी दुर्गति हुआ करती थी। मुस्लिम समाज अपने मूल रूप को खोकर एक प्रकार से भारतीयकरण में प्रचलित हो गया था ।

 

भक्तिकाल का सांस्कृतिक परिवेश

 

तत्कालीन समय में हिन्दू और मुस्लिम संस्कृतियाँ एक-दूसरे के निकट आई। संगीत, चित्र तथा भवन निर्माण कलाओं में दोनों संस्कृतियों के उपकरणों में समन्वय स्थापित हुआ। समन्वयात्मकता भारतीय संस्कृति की मूलभूत विशेषता है। पुराणों में समन्वयात्मकता को जागत करने व उसे बढ़ावा देने का यथासम्भव प्रयास किया गया है। मूर्ति-पूजा, तीर्थ यात्रा, धर्म-शास्त्रों का सम्मान, कर्म फल में विश्वास, अवतारवाद अथवा सगुण भक्ति का ही सर्वत्र आधिपत्य दिखाई देता है। भारतीय समाज में समय-समय पर विदेशी और विजातीय तत्त्वों के आते रहने के कारण परस्पर संघात होते रहे हैं। परन्तु इन्हीं में से होकर एक जीवनी शक्ति का संचार भी होता रहा है कि भारतीय साहित्य डूबते-डूबते उभरकर इस युग की एक अन्य उल्लेखनीय विशेषताओं में गिना जा सकता है, जिनकी धुरी पर हिन्दू जीवन चक्र चलता रहा और इस्लाम के भारत प्रवेश के पूर्व तक अविकृत रूप में प्रचलित रहा। मध्यकालीन हिन्दू समाज के दो पक्ष उभरकर हमारे सामने आते हैं। एक वह जो शास्त्रों का समर्थक है और दूसरा वह जो परम्परागत विश्वासों तथा मान्यताओं अथवा स्वानुभूति का पक्षधर है। यह दूसरा पक्ष ही पौराणिक पक्ष है। परवर्ती आचार्यों ने इन्हीं मतों की व्याख्या प्रतिव्याख्या के रूप में विशिष्यद्वैत, केवलाद्वैत, द्वैताद्वैत, शद्धाद्वैत आदि मतों की स्थापना की। इन सभी में ईश्वर को निरपेक्ष मानकर उसकी भक्ति का प्रतिपादन किया गया है, परन्तु आत्मा, परमात्मा, मोक्ष, पुनर्जन्म आदि के सिद्धान्त प्रायः ज्यों के त्यों रह गये हैं।

 

ईश्वर और मनुष्य के बीच संबंध स्थापित करने का एक माध्यम धर्म है। जाति, कुल, देश-काल और परिस्थितियों से निरपेक्ष होकर नैतिक दायित्व का निर्वाह करना धर्म है। धर्माचार अथवा नैतिकता समाज परक है और धर्म साधनाव्यक्तिनिष्ठ । साध्य और साध का एकीकरण साधना के माध्यम से होता है । परन्तु इस काल में धर्म-साधनों की बाढ़ सी आ गई और गुप्त साधनाओं के अन्तर्गत तुच्छ साधनाएँ भी इसमें प्रवेश कर गई। धर्माचार के नाम पर अनाचार, मिथ्याचार और व्याभिचार तक पलने लग गया। फलस्वरूप ज्ञान-चर्चा की आड़ में पाखण्ड को प्रश्रय मिलने लगा और समाज में एक प्रकार की अराजकता फैल गई।

 

मध्यकाल में अरूचि और संस्कार का प्राधान्य था । इस कारण बहुधा सांमजस्य बिगड़ जाता था । और सन्तुलन बनाये रखने के लिए बार-बार समन्वय की ओर उन्मुख होना पड़ता था। इस प्रकार मध्यकाल में भारत की सामाजिक संस्कृति का रूप और अधिक निखरने लगा। ताजमहल और लाल किला भारतीय तथा ईरानी वास्तुकलाओं के सम्मिश्रण के उत्तम निदर्शन है। नायक-नायिकाओं के नयनाभिराम चित्रों तथा विविध कलाओं के रूप में दोनों जातियों की चित्र कलाओं का समागम दर्शनीय है। एलोरा के समीप कैलास मन्दिर में शिव की मूर्ति के सिर के ऊपर बोधिवक्ष स्थित है। खजुराहो से उपलब् कोक्कल के वैधनाथ मन्दिर वाले शिलालेख में ब्रह्म, जिन, बुद्ध तथा वामन को शिव का स्वरूप कहा गया है।

 

भक्तिकाल में साहित्यिक परिवेश

 

भक्तिकाल में जिस साहित्य की रचना हुई वह अधिकांश पद्य में अर्थात् छन्दोबद्ध काव्य रूप में है। उस समय संस्कृत तो उच्च हिन्दू वर्ग के लोगों की काव्य भाषा थी। शाही दरबारों में अरबी-फारसी को प्रयोग होता था। परन्तु हिन्दी की लोकभाषाओं का, विशेष रूप से अवधी तथा ब्रजभाषा का, काव्य में प्रयोग होता था। कबीर ने तो ऐसी मिली-जुली लोकभाषा का प्रयोग किया है जिसे सधुक्कड़ी खिचड़ी अथवा सन्ध्या भाषा कहा गया है। भक्तिकाल में प्रबन्धकाव्य, मुक्तक काव्य तथा गीतिकाव्य की रचना । संस्कृत भाषा के कुछ ग्रंथों की टीकाएँ भी हुई। हिंदी भाषा और साहित्य ने भक्तिकालीन परिवेश में उच्चकोटि का सहित्य रचने की पृष्ठभूमि नहीं बल्कि चरम विकास प्राप्त किया। कबीर, सूर तथा तुलसी की रचनाएँ साहित्यिक परिवेश की अनुपम देन हैं। भक्तिकालीन साहित्य चरमोत्कर्ष का साहित्य था। इसकी विशेषताएँ अन्य कालों से कहीं अधिक चरम सीमा पर थी।

 

1. गुरु की महिमा का वर्णनः 

सभी संतों तथा भक्तों ने गुरु की महत्ता का स्वीकार किया है, क्योंकि भक्तिमार्ग में वही व्यक्ति दीक्षित होता है जिस पर गुरु की कृपा हो । बिना गुरू के ज्ञान होना संभव नहीं । निर्गुण भक्तिधारा के प्रमुख संत कबीर ने तो गुरू को गोबिन्द अर्थात् ईश्वर से भी पहले पूजने की बात कहीं है जैसे कि- 

"गुरू गोबिन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पाय । 

बलिहारी गुरु आपकी, जिन गोबिन्द दियो बताय ।। "

 

सगुण भक्तिधारा में तुलसीदास ने भी ऐसा ही कहा है

 "बिना गुरु कहां ते पाऊं, दीजो ज्ञान हरिगुण गाऊं ।" 

अथवा 

रामचरिमानस के आरम्भ में बालकाण्ड में लिखा है।- 

"बन्दों गुरूपद पदुम परागा" ।

 

सूरदास ने भी गुरु की महत्ता एवं कृपा को स्वीकार किया है। सूफी संत जायसी ने भी भक्तिमार्ग दिखाने वाले गुरू को ही स्वीकारते हुए लिखा है

 

"गुरू सूआ जेहि पंथ दिखावा" ।

 

2 नामकरण अथवा नाम की महत्ता: 

ईश्वर को चाहे निर्गुण मानने वाले सन्त हो अथवा सगुण मानने वाले भक्त कवि हो सभी ने राम, कृष्ण तथा अल्लाह के नाम को स्मरण करने की बात कही है। तुलसी ने तो कलियुग में केवल 'राम नाम' को आधार मान कर 'कलियुग केवल नाम अधारा' कहा, संत कवियों ने राम और रहीम में कोई अंतर नहीं माना, परन्तु कबीर के 'राम' और तुलसी के राम' में भिन्नता देखी जा सकती है। 


3. भक्तिभावना का प्राधान्यः 

सारे भक्ति साहित्य में भक्ति की प्रधानता दिखाई पड़ती है। संत कबीर ने भक्ति के बिना सारे संसार को डूबा हुआ और मरा हुआ ही माना है। वे कहते है-

"हरि भक्ति जाने बिना बूढ़ि मुआ संसार। " 

भक्तों ने भी उस ज्ञान का खण्डन किया है जो भक्ति के विरूद्ध है। सूरदास ने गोपियों के माध्यम से उद्धव को कहलवाया है-

 

"बार-बार वचन निवारो, भक्ति विरोधी ज्ञान तिहारो" ।

 

 

4. प्रेमभाव की अभिव्यक्ति 

भक्तिकालीन साहित्य में मनुष्यमात्र तथा ईश्वर के प्रति सच्चे प्रेम की भावना देखी जा सकती है। संत कबीर ने तो पंडित अथवा विद्वान होने की कसौटी ही प्रेम को बताया है।

 

"पोथी पढ़ि पढ़ि, जग मुआ, पंडित भया न कोय । 

ढाई आखर प्रेम का, पढि सो पंडित होय ।।

 

सूफी संतों ने भी प्रेम को भक्ति का आधार माना है। 


5 संसार के बंधनों से मुक्त होने का भावः 

सम्पूर्ण भक्तिसाहित्य में ईश्वर या ब्रह्म के प्रति राग तथा संसार के प्रति वैराग्य की भावना पाई जाती है। भक्ति को ही सांसारिक बधनों से छुटकारा दिलाने का साधन माना है। इसी वैराग्य भाव को मुक्ति अथवा मोक्ष की कामना भी कहा जा सकता है। 

 

6. सत्संग, भजन-कीर्तन व संगीत का महत्वः 

भक्तिकालीन साहित्य में सत्संग की महत्ता स्वीकार करते हुए संतों की संगति को भक्तिभाव तथा शुद्धाचरण के लिए हितकर बताया है सूर एवं तुलसी ने भी सत्संग की महत्ता स्वीकार की है भक्ति साहित्य में लोक-संगीत तथा कीर्तन को भी उचित स्थान दिया गया है। तुलसी ने लिखा है, 

"बिनु सत्संग विवेक न होई" ।

 

कबीर, तुलसी, सूर सभी ने सत्संग की महत्ता पर बल दिया है। 


7. जाति पाँति तथा ऊँच-नीच के भाव का खण्डनः 

भक्ति साहित्य के क्षेत्र में जाति-पाँति, ऊँच-नीच तथा छूआ-छूत का सभी संतों, सूफियों तथा भक्त कवियों ने प्रबल खण्डन किया है। यह भी हो सकता है कि अधिकांश सन्त तथा भक्त तथाकथित निम्न जातियों अथवा हीन समझी जाने वाली जातियों से संबंधित थे। इसके अतिरिक्त भगवत् भक्ति में ऊँच-नीच के भाव को सर्वथा त्याज्य ही माना गया हैं क्योंकि ईश्वर की आराधना करने वाले एक समान है। कबीर ने कहा भी हैं।

 

"जाति न पूछो साध की, पूछ लीजियों ग्यान । 

मोल करो तलवारि का, पड़ी रहन दो म्यान।।

 

तुलसी का भी मानना है कि- 

जाति-पांति पूछे नहि कोई, हरि को भजै सो हरि का होई ।।

 

8. भगवान तथा भक्त संबंधी भावः 

सच्चे भक्त तो भगवान को भी अपने वश में कर लेते है। भगवान से व्यक्तिगत संबंध स्थापित करने की बात संत कवि तथा सूफी भी मानते हैं ऐसे कई प्रसंग भक्तिकालीन साहित्य में देखे जा सकते है जहाँ भक्त की लाज बचाने को भगवान को किसी न किसी रूप में आकर सहायता करनी पड़ी

 

"जब जब भीड़ पड़ी संतन पर आकर प्राण बचायें। " 

इसी सन्दर्भ में किसी

 

सूफी संत ने कहा है 

"खुदी को जो खुद से जुदा देखते हैं 

खुदी को मिटाकर खुदा देखते हैं।"

 

9. लोक भाषा में लोक जीवन का दर्शनः 

भक्तकाल के सभी संतों, भक्तों तथा रचनाकारों ने संस्कृत भाषा को न अपनाकर लोकभाषा ब्रज, अवधी अथवा सधुक्कड़ी मिली जुली साधारण बोलचाल की भाषा को अपने साहित्य का माध्यम बनाया।

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