डॉ. मार्टिन लूथर किंग जूनियर का जीवन परिचय एवं विचार
Dr martin luther Junior Biography Details in Hindi
डॉ. मार्टिन लूथर किंग जूनियर के विचार एवं जीवन परिचय (Dr martin luther Junior Biography)
- तेरहवीं सदी के सन्त महापुरुष फ्रांसिस के बाद हम आपका परिचय बीसवीं सदी अमेरिका के महापुरुष डॉ. मार्टिन लूथर किंग जूनियर से कराने जा रहे हैं। डॉ. मार्टिन लूथर किंग जूनियर एक पादरी का पुत्र होने के कारण किंग जूनियर को ईसाई धर्म के संस्कार और शिक्षा-दीक्षा विरासत में प्राप्त हुयी। यहाँ तक कि उन्होंने अपनी पीएच. डी. थीसिस भी धर्मशास्त्र पर लिखी, और पादरी के पद पर चर्च की सेवा का मार्ग चुना। परन्तु विधाता ने उनके लिए कोई और ही मार्ग चुन रखा था। बीसवीं सदी का युगधर्म कुटिया में रह कर ईशा मसीह के पवित्र संदेश के प्रचार प्रसार का नहीं, बल्कि सामाजिक सरोकारों में मानवता के उत्थान के संघर्ष का रहा है। इस युग के मसीहा और आदर्श गाँधी हैं, फ्रांसिस नहीं। डॉ. किंग ने भी गाँधी से अहिंसा और असहयोग आन्दोलन का पाठ सीखा और जीवन पर्यन्त अफ्रीकी नस्ल के लोगों को अमेरिकी समाज में समानता का अधिकार दिलाने के लिए संघर्षरत रहे । यह युग वैयक्तिक दासता का नहीं, बल्कि समाजों और संस्कृतियों की गुलामी का रहा है। इसलिए कलोनिअल और पोस्ट - कलोनिअल चेतना का संघर्ष व्यक्ति के मोक्ष के लिए नहीं, समाजों और संस्कृतियों की मुक्ति के लिए है ।
- मार्टिन लूथर किंग जूनियर का जन्म अमेरिका के जॉर्जिया प्रदेश की राजधानी ऐटलान्टा में 15 जनवरी 1626 को हुआ था। उनकी माँ का नाम अल्बर्टा विलियम किंग तथा पिता का नाम माइकेल किंग था पिता जी चर्च में पादरी थे तथा सोलहवीं सदी के जर्मन दार्शनिक एवं समाज सुधारक मार्टिन लूथर से इतना प्रभावित थे कि उन्होंने न केवल अपना नाम बदल कर मार्टिन लूथर किंग रख लिया, बल्कि यही नाम उन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्र का भी रखा। परिणामतः पिता के नाम के आगे सीनियर और पुत्र नाम के साथ जूनियर की संज्ञा जोड़ना अनिवार्य हो गया ।
- किंग जूनियर बचपन से ही मेधावी प्रतिभा के धनी थे। स्कूल में उन्होंने दो बार एक साथ दो कक्षाओं की परीक्षा उत्तीर्ण की। साथ ही वे एक कुशल वक्ता भी थे, जिसके कारण उन्हें वाद-विवाद प्रतियोगिताओं के लिए स्कूल की टीम में स्थान दिया जाता था। किंग जूनियर ने बाद में अफ्रीकी-अमेरिकी नागरिक अधिकार आन्दोलन में अपनी इस प्रतिभा का बखूबी इस्तेमाल किया।
- घर में धार्मिक माहौल होने के कारण किंग जूनियर को बचपन से ही चर्च के क्रियाकलापों में शामिल किया जाने लगा। वे बहुत अच्छा गाते थे, इसलिए चर्च के प्रार्थना - गायन में हमेशा भाग लिया करते थे। माँ की संगीत शास्त्र पर अच्छी पकड़ थी, और उन्होंने किंग जूनियर को न केवल संगीत की शिक्षा दी बल्कि उन्हें अच्छा संगीतज्ञ बनने के लिए प्रेरित भी किया। माँ के शान्त एवं मृदुल स्वभाव के विपरीत, पिताजी कठोर अनुशासन में विश्वास रखते थे, और आवश्यक होने पर बच्चों की पिटाई करने से तनिक भी नहीं हिचकिचाते थे ।
- किंग सीनियर मानव समानाधिकार के समर्थक थे, और गोरी नस्ल के असमानता तथा भेदभाव के आचरण का अपने स्तर से विरोध प्रदर्शन भी किया करते थे। समानता के संघर्ष का पहला पाठ किंग जूनियर ने अपने पिता से ही सीखा। जैसे जैसे वे बड़े हुए, उन्होंने अनेको बार गोरों के भेदभाव और अपमानपूर्ण व्यवहार का दर्द सहा । ऐसे व्यवहार से अन्य अफ्रीकी-अमेरिकन लोगों की तरह ही किंग जूनियर का भी मन अवसाद और निराशा से भर जाता था । कुछ परिवार के संस्कार, और बहुत कुछ इस विषाद ने उन्हें ईश्वर की शरण में उन्मुख होने के लिए प्रेरित किया.
- कई बार देखा गया है कि जब व्यक्ति को कोई राह नहीं सूझती तो वह ईश्वर की ओर मुड़ कर रास्ता तलाशता है। कुछ ऐसा ही सम्भवतः किंग जूनियर के साथ घटित हुआ । नियमित पढ़ाई खत्म करते ही वे चर्च की पूर्णकालीन सेवा में चले गये और फिर बोस्टन विश्वविद्यालय से धर्मशास्त्र में पीएच.डी. की उपाधि भी प्राप्त की । बोस्टन में शिक्षा के दौरान ही उनकी मुलाकात अपनी भावी पत्नी कोरेटा स्कॉट से हुयी। कोरेटा को संगीत में रुचि थी, और वे एक अच्छी गायिका थीं। १६५३ में विवाह के पश्चात कोरेटा ने अपनी संगीत की महत्वाकाँक्षा को किनारे करते हुए परिवार के प्रति अपने उत्तरदायित्व को अधिक महत्व देना उचित समझा। परन्तु कालान्तर में जब वे नागरिक अधिकार आन्दोलन में अपने पति के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर खड़ी हुयीं, तब जनमानस के जागरण के लिए उन्होंने अपनी संगीत की प्रतिभा का भरपूर उपयोग किया ।
- यहाँ पर हमें अमेरिका में दास प्रथा के इतिहास के कुछ मुख्य तथ्य जानना आवश्यक है। सैद्धान्तिक रूप में सन 1865 में अमरीकी गृह युद्ध के पश्चात दास प्रथा समाप्त कर दी गयी थी। लेकिन व्यावहारिक स्तर पर गोरे और कालों का सामुदायिक अलगाव और भेदभाव एक लम्बे समय तक व्यवहार में रहा, विशेषकर किंग जूनियर के कार्यक्षेत्र जॉर्जिया और ऐलबामा जैसे दक्षिणी राज्यों में, जिन्हें गृह युद्ध के दौरान कन्फेडरेट्स के नाम से जाना जाता था और जहाँ दास प्रथा सदियों से प्रबल रूप से विद्यमान थी दास-प्रथा तो नहीं, परन्तु गोरे और कालों का भेदभाव हमने अपने यहाँ भी अंग्रेजी शासन के दौरान भरपूर झेला है।
- अमेरिका में अफ्रीकी-अमेरिकन लोगों की नस्लीय प्रताड़ना की कथा वास्तव में अत्यन्त कष्टप्रद रही है। वे अपने शहर के अच्छे इलाकों में रह नहीं सकते थेय उनका स्थान केवल शहर की मलिन बस्तियों, जिन्हें गेटो (हीमजजव) कहा जाता है, तक सीमित था। उनके बच्चों का प्रवेश गोरों के स्कूल में वर्जित था। वे गोरों के लिए बनी जन- सुविधाओं या शौचालयों का प्रयोग नहीं कर सकते थे। उन्हें बसों की अगली सीट पर बैठना मना थाय इतना ही नहीं, गोरे मुसाफिर के आने पर उन्हें अपनी सीट छोड़नी पड़ती थी। इस मसले पर उन्हें न्यायालय से भी कोई राहत नहीं मिली। अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि व्यावहारिक स्तर पर नस्लीय अलगाव गैरकानूनी नहीं है, बशर्ते गोरी और काली दोनों नस्लों को समान सुविधाएं प्राप्त हों यथा, दोनों नस्लों को बस में बैठने का अधिकार है दोनों को स्कूल की सुविधा है दोनों के पास घर और जन सुविधाएं हैं।
- सुप्रीम कोर्ट के इस आपत्तिजनक निर्णय के पश्चात अफ्रीकी-अमेरिकन लोगों का आक्रोश मुखर हो उठा। हर जगह उन्होंने इस अलगाववादी व्यवहार का विरोध करना प्रारम्भ कर दिया। एक ऐसी ही घटना दिसम्बर 1655 में ऐलबामा राज्य के मॉन्टगॉमरी शहर में घटी। रोजा पार्क्स नाम की एक अफ्रीकी-अमेरिकन महिला ने किसी गोरे मुसाफिर के लिए अपनी बस की सीट खाली करने से मना कर दिया। इस कृत्य को सम्पूर्ण गोरी नस्ल का अपमान करार करते हुए, रोजा पार्क्स को हिरासत में ले लिया गया और उसे एक रात सलाखों के पीछे बितानी पड़ी। रोजा पार्क्स के समर्थन में अफ्रीकी-अमेरिकन समुदाय ने बस सेवाओं का राष्ट्रव्यापी बहिष्कार प्रारम्भ कर दिया। इस राष्ट्रव्यापी आन्दोलन का नेतृत्व डॉ. मार्टिन लूथर किंग जूनियर और उनके मित्र ई.डी. निक्सन कर रहे थे। अमेरिका के इतिहास में यह आन्दोलन आज भी मॉन्टगॉमरी बस बायकाट के नाम से प्रसिद्ध है। इस आन्दोलन के दौरान गोरों ने काली नस्ल के लोगों को अनेकानेक प्रकार से प्रताड़ित किया - उन्हें बुरी तरह से पीटा गयाय उनकी बस्तियों में बम फेंककर उनके घर जला दिए गयेय उनकी स्त्रियों का बलात्कार किया गयाय डॉ. किंग और उनके सहयोगियों को बार बार जेल में डाल दिया गया। परन्तु इतनी प्रताड़ना के बावजूद अफ्रीकी-अमेरिकन समुदाय ने हार नहीं मानी और उनका बस सेवाओं का राष्ट्रव्यापी बहिष्कार एक वर्ष के ऊपर चलता रहा। बस कम्पनियों का घाटा बढ़ता जा रहा था। अन्ततः दिसम्बर 1956 में सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया कि बस सेवाओं मे नस्लीय भेदभाव असंवैधानिक है। अफ्रीकी-अमेरिकन लोगों के लिए यह अभूतपूर्व विजय थी, और इस विजय से उनके समान नागरिक अधिकारों के संघर्ष को अत्यन्त बल मिला।
- गोरों की जिस मानसिकता के खिलाफ किंग जूनियर संघर्ष कर रहे थे, लगभग वैसी ही परिस्थितियों में महात्मा गाँधी ने भी ऐसा ही संघर्ष पहले दक्षिण अफ्रीका में और बाद में भारत में किया था। अपने युग में गाँधी जी का प्रभाव पूरे विश्व पर था, और किंग भी इस प्रभाव से अछूते नहीं थे। जब वे मोरहाउस कॉलेज में विद्यार्थी थे, उस समय किंग जूनियर ने अपने प्रधानाचार्य बेंजमिन एलाया मेज की प्रेरणा से पहली बार गाँधी जी के साहित्य का अध्ययन किया। गाँधी फाउन्डेशन, अमेरिका के शिवदास लिखते हैं, "मेज अपनी भारत यात्रा के पश्चात बहुत से अन्य अफ्रीकी-अमेरिकियों की भाँति गाँधी जी के शिष्यके रूप में लौटे थे, और किंग के जीवन पर उनका बड़ा प्रभाव पड़ा।" जून १६५६ में नेशनल एसोसिएशन फॉर दि एडवांसमेंट ऑफ कलर्ड पीपल के राष्ट्रीय अधिवेशन को सम्बोधित करते हुए किंग जूनियर ने कहा कि "आत्मा के बल से ही मोहनदास गांधी अपने देशवासियों को ब्रिटेन की राजनीतिक दासता, आर्थिक शोषण और अपमान से मुक्त करवा पाए ।" "द ऑटोबायग्राफी ऑफ मार्टिन लूथर किंग, जूनियर " में उल्लेख मिलता है कि किंग ने एक बार कहा, "मोंटगोमरी बहिष्कार के दौरान अहिंसक सामाजिक परिवर्तन की हमारी नीति के प्रेरणास्रोत भारत के गाँधी थे। जैसे ही बसों में भेदभाव के मुद्दे पर हमें विजय मिली, मेरे कुछ मित्रों ने सलाह दीरू तुम भारत जाकर महात्मा का काम क्यों नहीं देख आते, तुम तो उनके बहुत प्रशंसक हो ?"
- अन्ततः जब फरवरी 1656 में पत्नी कोरेटा के साथ किंग एक माह से अधिक के लिए भारत भ्रमण पर आये तो उन्होंने अपनी इस यात्रा को तीर्थयात्रा की संज्ञा दी। भारत में उन्होंने पडित नेहरू, डॉ. राधाकृष्णन, विनोबा भावे, जे. बी. कृपलानी सहित गाँधी जी के अनेक अनुयायियों से मुलाकात की। अपनी यात्रा की विदाई सन्ध्या पर दिए गये रेडियो संदेश किंग ने कहा - "भारत में अपने इस प्रवास के बाद मैं पहले से कहीं अधिक विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि विश्व के तमाम दलित समुदायों के लिए उनके न्याय और सम्मान प्राप्ति के संघर्ष में अहिंसात्मक असहयोग आन्दोलन से बेहतर कोई अन्य मार्ग नहीं है। गाँधी जी ने अपने जीवन में जिन मूल्यों को साकार किया वे सृष्टि की धर्मकाया में शाश्वत रूप से अवस्थित हैं, और यह गुरुत्वाकर्षण की तरह ऐसे सिद्धान्त हैं जिनसे कोई भी अछूता नहीं बच सकता।"
- समान नागरिक अधिकारों की अहिंसात्मक संघर्ष से प्राप्ति के लिए किंग ने फ्रेड शटलवर्थ, जोजफ लोअरी और रैल्फ ऐबरनेथी के साथ सदर्न क्रिश्चियन लीडरशिप कॉन्फ्रेन्स (स) की स्थापना की। इस संघर्ष में किंग और उनके साथियों को तमाम यातनाओं का सामना करना पड़ा। जैसा कि आप पहले ही पढ़ चुके हैं, गोरों द्वारा आन्दोलनकारियों को बुरी तरह पीटा जाता था, उनके घरों को बम से उड़ा दिया जाता था, और उन्हें हर प्रकार की धमकियाँ दी जाती थी। किंग जूनियर इन सभी यातनाओं को अपने आराध्य प्रभु यीशु मसीह की भाँति सह जाते थे । एक बार जब उनके घर पर बमबारी हुई तो उन्होंने अपने समर्थकों से प्रार्थना की कि वे इसके विरोध में उग्र न हों। किंग का दृढ़ विश्वास था कि हिंसा से कोई भी आन्दोलन हमेशा हार जाता हैय वह कभी सफल नहीं हो सकता।
- 1657 से 1668 में अपनी मृत्यु तक किंग जूनियर ने कई आन्दोलनों का नेतृत्व किया, जिनमें प्रमुख हैं ऐलबानी आन्दोलन, बर्मिंघम अभियान, सेलमा से मॉन्टगॉमरी का जुलूस, और वाशिंगटन मार्च। इन दस वर्षों के संघर्ष में किंग ने साठ लाख मील की यात्रा की, पाँच पुस्तकों की रचना की, और ढाई हजार से अधिक ओजस्वी भाषण दिये। 1663 में वाशिंगटन मार्च के दौरान दिया गया उनका भाषण 'मेरा एक स्वप्न है' अत्यन्त प्रसिद्ध है। इसमें उन्होंने कहा मित्रों, आज मैं आपसे कहता हूँ कि भले ही आज हम कठिनाइयों के दौर से गुजर रहे हों, फिर भी मेरा एक स्वप्न है, एक ऐसा स्वप्न जिसकी जड़ें अमेरिकी स्वप्न में निहित हैं।
- मेरा स्वप्न है कि एक दिन यह देश ऊपर उठेगा और सार्थक रूप से अपने इस सिद्धान्त को जी पायेगा कि "हमारी मान्यता है कि यह सत्य प्रत्यक्ष है, कि जन्म से प्रत्येक व्यक्ति समान है।" मेरा स्वप्न है कि एक दिन जॉर्जिया के लालिमा लिए पहाड़ों पर भूतपूर्व दासों के पुत्र और भूतपूर्व दास - स्वामियों के पुत्र भाइयों की तरह एक साथ मेज पर बैठ सकेंगे । मेरा स्वप्न है कि एक दिन यह ऐसा देश होगा जहाँ मेरे चारों छोटे बच्चों का मूल्यांकन उनकी त्वचा के रंग से नहीं बल्कि उनके चरित्र की गुणवत्ता से किया जायेगा। आज यह मेरा स्वप्न है।
- यह डॉ. मार्टिन लूथर किंग जूनियर के संघर्षो का ही परिणाम है कि आज अमेरिकी समाज उत्तरोत्तर नागरिक समानता की ओर अग्रसर हो सका है। संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकार ने 'नागरिक अधिकार अधिनियम 1664 तथा मतदान अधिकार अधिनियम 1665 का कानून पास करके इस दिशा में अभूतपूर्व कदम उठाया है।
- 1664 में मात्र पैंतीस वर्ष की आयु में डॉ. किंग को नोबेल शान्ति पुरस्कार प्रदान किया गया। पुरस्कार की सम्पूर्ण राशि उन्होंने नागरिक अधिकार आन्दोलन को दान कर दी । 4 अप्रैल 1668 को जेम्स अर्ल रे नाम के एक सिरफिरे गोरे ने डॉ. किंग की गोली मार कर हत्या कर दी, ठीक वैसे ही जैसे उनके आदर्श पुरुष महात्मा गाँधी की हत्या की गयी थी ।
- मृत्यु के बाद डॉ. किंग को अनेक तरह से सम्मानित किया गया। उनके नाम पर वाशिंगटन राज्य के सर्वाधिक जनसंख्या वाले जिले का नाम 'किंग काउन्टी' रखा गया उनके जन्म दिवस को राष्ट्रीय अवकाश घोषित किया गया है। उन्हें मृत्यु पश्चात 'प्रेसीडेन्शियल मेडल ऑफ फ्रीडम तथा 'कॉग्रेसनल गोल्ड मेडल ऑफ फ्रीडम प्रदान किये गये। अनेक सड़कों, स्कूलों, इमारतों के नाम डॉ. मार्टिन लूथर किंग जूनियर के नाम पर रखे गये हैं। आज जब विश्व निरन्तर हिंसा और युद्ध के पागलपन की ओर अग्रसर है, डॉ. किंग और महात्मा गाँधी जैसे महापुरुष ही हमें सही रास्ता दिखा सकते हैं।