भक्ति काल स्वर्ण युग Golden Era of Hindi Literature
भक्ति काल स्वर्ण युग
हिंदी साहित्य के भक्तिकालीन समय को साहित्यिक क्षेत्र का स्वर्ण युग माना जाता है। भक्तिकाल निस्संदेह हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग है। इस काल का साहित्य अपने पूर्ववर्ती साहित्य एवं परवर्ती साहित्य से निश्चित रूप में उत्कृष्ट है। भक्तिकाल से पूर्व हिंदी के आदिकाल अथवा वीरगाथा काल में कविता वीर और श्रंगार रस प्रधान थी, जीवन की अन्य दशाओं और क्षेत्रों की ओर कवियों का ध्यान गया ही नहीं। इस काल के चारण कवि राज्याश्रित थे और उनकी कविता अपने आश्रयदाता राजाओं की प्रशस्तिमात्र थी। सर्वोपरि इस काल के साहित्य की प्रामाणिकता भी संदिग्ध है। भक्तिकाल के उत्तरवर्ती साहित्य में रीतियुक्त अथवा भंगार - प्रधान कविता का बोलबाला रहा है। इस काल की कविता में भी जीवन की स्वस्थ प्रेरणाएँ नहीं रहीं एकमात्र श्रंगार की ही इस युग में प्रधानता है और उसमें भी अश्लीलता अधिक है वस्तुतः रीतिकालीन कविता 'स्वान्तः सुखाय' अथवा 'जनहिताय' न होकर 'सामन्त सुखाय' है। आधुनिक काल का साहित्य अपनी व्यापकता एवं विविधता की दृष्टि से भक्तिकाल से आगे निकल जाता है। विशेषकर गद्य साहित्य का विकास जितना आ पुनिक युग में हुआ है, उतना भक्तिकाल में नहीं इसके विपरीत भक्तिकाल में गद्य का प्रायः अभाव सा ही रहा है परन्तु अनुभूति की गहराई एवं भावप्रवणता के क्षेत्र में आधुनिक युग का साहित्य भक्तिकाल के साहित्य की समकक्षता में नहीं रखा जा सकता।
भक्तिकालीन साहित्य को हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग माना गया है। इस सन्दर्भ में अधिकांश विद्वानों का एक मत है। इस संदर्भ में कुछ मत उल्लेखनीय हैं-
भक्ति काल स्वर्ण युग के संबंध में बाबू श्यामसुन्दर दास का मत
भक्तिकाल में अनेक भक्त कवियों-कबीर, सूर, तुलसी, मीराबाई, रसखान आदि की वाणी (साहित्य) की सरिता अगाध रूप में बही है। डा० श्यामसुन्दर दास के शब्दों में जिस युग में कबीर, जायसी, - तुलसी सूर जैसे रससिद्ध कवियों और महात्माओं की दिव्य वाणी उनके अन्तःकरणों से निकलकर देश के कोने-कोने में फैली थी, उसे साहित्य के इतिहास में सामान्यतः भक्तियुग कहते हैं निश्वय ही वह हिंदी साहित्य का स्वर्णयुग था इस संदर्भ में आगे लिखते हैं- 'हिंदी - काव्य में से यदि वैष्णव कवियों के काव्य को निकाल दिया जाए तो जो बचेगा वह इतना हल्का होगा कि उस पर किसी प्रकार का गर्व न कर सकेंगे। लगभग दो सौ वर्षों की इस हृदय और मन की साधना के बल पर ही हिन्दी अपना सिर प्रान्तीय साहित्यों के ऊपर उठाये हुए है। तुलसीदास, सूरदास, नन्ददास, मीरा, रसखान, हितहरिवंश, कबीर इनमें से किसी पर भी संसार का कोई साहित्य गर्व कर सकता है। हमारे पास ये सब हैं। ये वैष्णव कवि हिंदी भारती के कण्ठमाल हैं।"
भक्ति काल स्वर्ण युग के संबंध में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का मत
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपना मत स्पष्ट करते हुए लिखा है 'समूचे भारतीय इतिहास में ये अपने ढंग का अकेला साहित्य है। इसी का नाम भक्ति-साहित्य है। यह एक नई दुनिया है।"
1. भक्तिकालीन काव्य सर्वोत्तम काव्य के रूप में
अंग्रेजों का मानना है कि 'यदि हमारे सम्मुख एक ओर शेक्सपियर रखा जाए और दूसरी ओर विश्व का साम्राज्य, तो हम पहले शेक्सपियर को ही चुनेंगे हमारे यहाँ सूर तुलसी, नन्ददास आदि कितने ही शेक्सपियर हुए हैं जो भारती के कण्ठहार है। इस प्रकार हिंदी के समालोचकों ने एकमत से हिंदी साहित्य के भक्तिकाल को हिंदी का स्वर्णयुग माना हैं यह काल हिंदी काव्य की चतुर्मुखी उन्नति का काल था काव्य-सौष्ठव, समन्वयवाद, भारतीय संस्कृति, भावपक्ष, कलापक्ष और संगीत आदि सभी दृष्टियों से यह काव्य सर्वोत्तम है। यह एक साथ हृदय, मन और आत्मा की तप्ति करता है।
2. भक्तिकालीन हिंदी साहित्य की चार काव्यधाराएँ:
भक्तिकालीन काव्य की विविध रूपों में प्रगति हुई। इस काल की चार काव्य-धाराओं ने एक साथ हिंदी साहित्य की वृद्धि कर डाली। चार काव्यधाराएँ निम्नलिखित हैं
1. संत काव्यधारा
2. प्रेम काव्यधारा
3. कृष्ण काव्यधारा
4. राम काव्यधारा
1. संत काव्य धाराः
सन्त काव्यधारा के प्रमुख कवि कबीर है। इनके अतिरिक्त दादूदयाल, नानक, सुन्दरदास आदि का स्थान सन्तों में महत्त्वपूर्ण है। कबीर आदि संतों के साहित्य में रहस्यवाद, भक्ति, खण्डन - मण्डन एवं सुधार की भावनाएँ हैं। काव्यत्व की दृष्टि से भी इनके काव्य में शब्दगत, अर्थगत एवं रसगत रमणीयता विद्यमान है। कबीर ने साखी', 'शब्द', 'रमैनी' की रचना की है, जो 'बीजक' कृति में विद्यमान है।
संत काव्य की विशेषताएँ
गुरु की महिमा का सुन्दर चित्रांकन संत साहित्य में ही नहीं वरन् सकल भारतीय (i) गुरू जीवन और वाड्मय में गुरू को अत्यन्त गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है, क्योंकि गुरू अन्धकार - अज्ञान का निरोधक बताया गया है। इस जगत् में गुरु को ही की महत्ता और अपरिहार्यता निर्विवाद है गुरू रागुरुम (ब्रह्म) का अनुभावक ज्ञाता होता है। यह अनन्त (ब)को अनन्त लोचनों से दर्शाता है, इसलिए वह अनन्त महिमामण्डित है।
"सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपगार
लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत दिखावणहार ।। "
गुरु की संत साहित्य में अभूतपूर्व अभ्यर्थना हुई है संत दादूदयाल की निर्मान्ति धारणा पशुता को परास्त कर देवत्व स्थापित करता है, ज्ञान देकर है कि गुरु ही मनुष्य से ब्रह्म की अनुभूति कराता है, इसीलिए दादू गुरू-उपदेश को अत्यन्त दुर्लभ स्वीकार करते हैं। इसी दुर्लभता को भावित करके उसे मुक्तिदाता के रूप में अंगीकार किया है
"जीव रचा जगदीश नैं। बांध्या काया मांहि ।
जन रजब मुक्ता किया तो गुर समि कोई नाहिं । । "
(ii) माया की व्यर्थता का चित्रणः
माया का सिद्धान्त भारतीय अध्यात्म क्षेत्र की सबसे प्रमुख विशेषता है। 'माया' शब्द की व्युत्पति 'मा' धातु से मानी जाती है। जिसका शाब्दिक अर्थ है परिधि, सीमा या फिर माप । कोई ऐसा रूप या अन्य वस्तु जिससे लोग धोखे या भ्रम में पड़ जाते हैं माया कही जा सकती है। इस प्रकार माया वह आवरण है, जो आत्मा-परमात्मा के मध्य भेद का पर्दा डालकर उसे अपने सत्स्वरूप से पथक करती है तथा नाना सांसारिक कर्मों में अलिप्त करती है। वह भ्रम, अज्ञान व धोखा कहा जायेगा। संत कबीर ने माया को जीव और ब्रह्म के मध्य भेद डालने वाली शक्ति बताया है। इसने अपने हाथ में सत्, रज, तप, तीनों गुणों को धारण कर रखा है
"माया महा ठगिनि हम जानी।
तिरगुन फाँसि लिये कर डोलै, बोलै मधुरी बानी ।। "
संतों ने माया को अनेक नामों से जाना-बखाना हैं। कबीर ने इस माया को बहुरूपिणी - मनोमोहिनी बताया है। इसकी व्याप्ति सर्वत्र है । समग्र संसार इसी माया में आलिप्त है। मिथ्या जानकर भी मानव - माया मोह में मग्न हो जाता है। सुंदरदास का मत इस सन्दर्भ में इस प्रकार है-
"माया मोह माँहि जिनि भूलै ।
लोक कुटुम्ब देषि मत फूलै ।
इनके संग लागि क्या जरना,
समुझि देषि निश्चै करि मरना ।। "
(iii) संसार की असारता का चित्रणः
संत कबीर आदि निर्गुणिए संतों ने अद्वैतवादियों की तरह ब्रह्म की सत्यता और जगत् की अनित्यता को सुरेखित किया है। उन्होंने जगत् की क्षणिकता का बोध कराने के लिए इस संसार को सुमेंर का फूल, धुंध का मेंघ, कागज की पुड़िया आदि से उपमित किया है। गुरू नानक भी चमक-दमक वाले इस संसार को अनित्य मानते हैं। संत मूलकदास को भी समस्त संसार मरा हुआ प्रतीत होता है। और संसार का समस्त ऐश्वर्य फटकन' लगता है।
"जेते सुख संसार के इकट्ठे किये बटोर ।
कन थोरे कांकर घने देखा फटक पछोर ।।"
(iv) नारी विषयक चिन्तनः
संतों ने नारी के दो रूपों की अवधारणा की हैं- एक तो उसा का कामिनी रूप है जिसे संतों ने गर्हित और त्याज्य माना है, दूसरा उसका सती रूप है जो संतों के लिए बड़ा मान्य और ग्राह्य है। संत कबीर ने बड़े ही स्पष्ट शब्दों में कनक और कागिनी की निन्दा की है। कागिनी भक्ति, मुक्ति और ज्ञान की विनाशिका होती है, इसीलिए कबीर उसे त्याज्य बताते हैं
"नारि नसावे तीनि सुख जी नर पार्टी होइ।
भगति मुकति जिन ध्यान में पैसि न सकई कोई ।। "
(v) नैतिक भावना की प्रबलताः
नीति एक व्यापक शब्दभाव है। यह उत्कृष्ट आचार-संहिता है। नीति ही मानव को कर्त्तव्याकर्त्तव्य का विवेक प्रदान करती है। काव्य और जीवन का बड़ा ही समीपी संबंध है।
नैतिक भावना से अनुप्राणित होकर संतों ने अपनी कविता में प्रणय, दान, दया, अहिंसा, सत्संगति, सदाचार, सत्यता, परोपकार क्षमा, शीर्य, निन्दा, त्याग, क्रोध विसर्जन, अभिमान हीनता आदि नीति के नाना रूपों को शब्दांकित किया है। प्रेम की अनिवार्यता को भावित करके संत कबीर उस शरीर को व्यर्थ एवं हेय मानते है जो प्रेम रस से लबालब नहीं भरा है। संतों के मन में दान की बड़ी महिमा थी । दान देकर दाता स्वयं का अभ्युदय करता है। कबीर ने इस भावसत्य को व्यंजित करते हुए कहा है
"ऋतु बसंत जाचक भया, हरिख दिया द्रुम पात ।
ताते नव पल्लव भया, दिया दूरि नहिं जात ।। "
(vi) मानवतावादी चिन्तनः
भक्तिकालीन संतों के समय धर्म के वास्तविक स्वरूप का लोप हो चुका था, इसीलिए संतों ने बाह्यचारों एवं बाह्याडम्बरों के खण्डन द्वारा लोकमानस को धर्म के मूल रूप को समझने के लिए उद्बोधित कियां इस उद्बोधन में उन्होंने हिन्दू और मुसलमान की एकता का प्रतिपादन किया। जातिय एकता की स्थापना की, ब्राह्मणों के थोथे ज्ञान को दमित किया लोगों को समाज तथा धर्म की संकुचित सीमा को तजकर सार्वभौमिक और सार्वकालिक जीवन-मूल्यों को अंगीकार करने की सलाह दी।
"कछु न कहाव आप कौ; काहू संग न जाइ ।
दादू निर्परव है रहै, साहिब सौं ल्यौ लाइ । ।“