हिंदी साहित्य का इतिहास : काल-विभाजन, सीमा निर्धारण
हिंदी साहित्य का इतिहास : काल-विभाजन, सीमा निर्धारण
हिंदी साहित्य के इतिहास ग्रन्थों की परम्परा की सुनिश्चित पष्ठभूमि नहीं है। इसका अधिकांश भाग अब तक भी अप्राप्य ही है। अन्य तथ्य खोज के अभाव में अज्ञात ही रह गए हैं। भारतवर्ष पर अनेक आक्रमणों और देवी प्रकोपों से हिन्दी साहित्य का बहुत बड़ा अंश काल कवलित होकर रह गया है। जो तथ्य हमारे सामने हैं उन्हीं के आधार पर हम काल विभाजन की कोशिश करते हैं।
(क) हिंदी साहित्य का काल विभाजन
प्रारम्भ की पुस्तकों में काल विभाजन संबंधी तथ्यों का अभाव रहा है। इनमें उपलब्ध कवियों और उनकी रचनाओं का विवरण ही मिलता है। ऐसे ग्रन्थों में नाभादास के 'भक्तमाल' में 200 भक्तों का चरित्रांकन किया गया है। ब्रज के वार्ता साहित्य में 'चौरासी वैष्णव की वार्ता' और 'दो सौ बावन' वैष्णवों की वार्ता' प्रमुख हैं। यह क्रम काफी लम्बे समय तक चलता रहा है। शिवसिंह सेंगर ने 'शिव सिंह सरोज' में 829 कवियों की कविताओं का संकलन किया है और अन्त में 1003 कवियों के विवरण भी प्रस्तुत किए है। सेंगर ने हिंदी साहित्य के इतिहास को शताब्दियों के आधार पर विभाजित करने का प्रारम्भिक प्रयास किया है। इस विभाजन का कोई विशेष महत्त्व नहीं रहा। डा० ग्रियर्सन ने अपनी रचना 'दी माडर्न वर्नाकुल लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान' में काल विभाजन करते हुए विभिन्न साहित्यकारों पर विशद् चर्चा की भी की है। उन्होंने हिंदी साहित्य के इतिहास को 12 भागों में विभक्त किया है। यह विभाजन किसी एक आधार से न जुड़कर साहित्यिकता, राजनीतिक, रचना - प्रकृति आदि की विविधता से जुड़ा हैं। इसमें साहित्य इतिहास के विभाजन का प्रयास अवश्य दिखाई देता है किन्तु विभाजन तर्क संगत नहीं है। मिश्र बन्धुओं ने अपने साहित्येतिहास ग्रन्थ 'मिश्रबन्धु विनोद' में काल-विभाजन में नयी दष्टि और नये विवेक का परिचय दिया है। मिश्र बन्धुओं का प्रयास निश्चित ही सभी दष्टियों से ग्रियर्सन के काल-विभाजन से बहुत विकसित और वैज्ञानिक है। विभाजन इस प्रकार किया गया है
1. आरम्भिक काल
(i) पूर्वारम्भिक काल संवत् 700 से लेकर 1343 तक
(ii) उत्तरारम्भिक काल : संवत् 1343 से 1444 तक
2. माध्यमिक काल
(1) पूर्वमाध्यमिक काल : संवत् 1445 से 1560 तक
(ii) प्रौढ़ माध्यमिक काल संवत् 1561 से 1580 तक
3. अलंकृत काल
(i) पूर्वालंकृत काल : संवत् 1681 से 1790 तक
(ii) उत्तरालंकृत काल : संवत् 1791 से 1889 तक
4.
5. वर्तमान काल : संवत् 1926 से आगे
मिश्र बन्धुओं का काल-विभाजन व्यवस्थित एवं वैज्ञानिक है, परन्तु इस वर्गीकरण में अनेक विसंगतियाँ देखी गई है। पूरे वर्गीकरण में कोई निश्चित आधार नहीं अपनाया गया है। आरम्भिक काल, माध्यमिक काल, वर्तमान काल आदि विभाजन के साथ अलंकृत काल नाम युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि यह काल क्रम के आधार से अलग प्रकृतिगत आधार को प्रकट करता है। इसमे पद्धति की दष्टि से भी एकरूपता का निर्वाह नहीं किया गया है। प्रथम तीन कालों को दो-दो खण्डों में वर्गीकृत किया गया है, किन्तु बाद के दो कालों में यह पद्धति नहीं अपनायी गई है।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास का काल विभाजन चार भागों में किया है-
1. आदिकाल - वीरगाथाकाल संवत् 1050-1375
2. पूर्व मध्यकाल - भक्तिकाल: संवत् 1375-1700
3. उत्तर मध्यकाल -रीतिकाल संवत् 1700-1900
4.आधुनिक काल गद्यकाल संवत् 1900 से अद्यावधि
आचार्य शुक्ल ने आदिकाल में वीरगाथाओं की प्रमुखता को ध्यान में रखकर इसे 'वीरगाथाकाल' के नाम से अभिहित किया । शुक्ल ने इसमें तीन प्रमुख बातों पर ध्यान दिया है- (i) वीरगाथात्मक ग्रंथों की प्रचुरता (ii) जैनों द्वारा प्राचीन ग्रंथों को धार्मिक साहित्य घोषित करके उसे रचनात्मक साहित्य की परिधि से निकाल देना और इसी प्रकार नाथों और सिद्धों की रचनाओं को शुद्ध साहित्य में स्थान न देना (iii) मुख्य बात उन रचनाओं की है, जिनमें भिन्न-भिन्न विषयों पर फुटकर दोहे मिलते हैं। आचार्य शुक्ल ने वीरगाथाकाल का नामकरण करते समय निम्नलिखित रचनाओं का उल्लेख किया है
- विजयपाल रासो- नल्लसिंहः संवत् 1355
- हम्मीर रासो - शागधरः संवत् 1357
- कीर्तिलता- विद्यापतिः संवत् 1460
- कीर्तिपताका-विद्यापतिः संवत् 1460
उपर्युक्त रचनाएं अपभ्रंश भाषा में लिखी गई हैं। देशी भाषा में रचित पुस्तकों का ब्यौरा इस प्रकार है।
- खुमान रासो - दलपति विजयः संवत् 1180-1205
- बीसलदेव रासो नरपति नाल्हः संवत् 1292
- पथ्वीराज रासो- चन्दवरदाई: संवत् 1225-1249
- जयचन्द प्रकाश- भट्ट केदारः संवत् 1225
- जय मयंकजस चन्द्रिका मधुकरः संवत् 1240
- परमाल रासो- आल्हा का मूल जगनिकः संवत् 1230
- खुसरो की पहेलियाँ - अमीर खुसरोझः संवत् 1230
- विद्यापति पदावली - विद्यापति, संवत् 1460
एक बात यह है कि शुक्ल जी ने जिन ग्रन्थों को धार्मिक कहकर छोड़ दिया था, उन्हें तथा कुछ नव्य प्राप्त ग्रंथों को भी अब साहित्य-परिधि में समाविष्ट कर लिया गया है। डा० श्याम सुंदर दास ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रंथ 'हिदी भाषा और साहित्य' के 'साहित्य' भाग में काल-विभाजन का अद्भुत मार्ग अपनाया है। इन्होंने काल-विभाजन तो शुक्ल के अनुसार ही किया है, परन्तु विवेचन करते समय यह मौलिकता दिखायी है कि हिंदी साहित्य की प्रत्येक प्रधान प्रवति का विकास एवं इतिहास - आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक था एक साथ प्रस्तुत कर दिया है। पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी ने सम्पूर्ण हिंदी साहित्य के इतिहास को बीज-वपन, अंकुरोद्भव तथा पत्रोद्गम काल के नाम से तीन भागों में विभक्त किया है। परन्तु यह नाम समीचीन मालूम नहीं पड़ता है। साहित्यिक प्रवत्तियों की दष्टि से इसे उक्त नाम से पुकारना असंगत है, क्योंकि इस काल में अपने पूर्ववर्ती साहित्य की सभी काव्य रूढ़ियों और परम्पराओं का भी उद्भव हुआ, जो अपने समुचित विकसित रूप में है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने प्रस्तुत काल के साहित्य को अन्तर्विरोधों का साहित्य कहा है, किन्तु घूम फिर कर उन्होंने इस काल को आदिकाल के नाम से पुकारा है। परन्तु आचार्य द्विवेदी ने यह भी स्वीकार किया है कि 'आदिकाल' •से आने वाला आदि शब्द सबसे अधिक खतरनाक है। उन्होंने लिखा है, "वस्तुतः हिन्दी का आदिकाल शब्द एक प्रकार की भ्रामक धारणा की सष्टि करता है और श्रोता के चित्त में यह भाव पैदा करता है कि यह काल कोई आदिम मनोभापन्न, परंपराविनिर्मुक्त, काव्य रूढियों से अछूते साहित्य का काल है।" यह ठीक बात नहीं है क्योंकि यह काल बहुत अधिक परम्परा प्रेमी, रूढ़िग्रस्त, सजग और सचेत कवियों का काल है ।