हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा
हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा
- हिंदी साहित्य के इतिहास-लेखन की आधार भूमि विभिन्न साहित्यकारों की जीवन वत्ति संबंधित रचनाएं प्रस्तुत करती है। प्रारम्भ में विभिन्न कवियों का व्यक्तित्व और कृतित्व ही प्रस्तुत किया जाता रहा है। ऐसी प्रारम्भिक कृतियों में 'चौरासी वैष्णवों की वार्ता', 'दो सौ बावन वैष्णव की वार्ता', 'भक्तमाल' आदि प्रमुख हैं। इन संग्रहों में काल-क्रमिक विवेचन न होने के कारण इनको साहित्य इतिहास वर्ग में स्थान नहीं दिया जा सकता।
- हिंदी में इतिहास लेखन की परम्परा के विषय में फ्रैंच विद्वान गार्सा - द - तासी का नाम सर्वप्रथम लिया जाता है। इन्होंने 'हिन्दुषी हिन्दुस्तानी साहित्य का इतिहास' लिखा। जिसमें हिन्दी और उर्दू के विभिन्न 738 कवियों को वर्ण क्रमानुसार स्थान मिला। इनमें 72 हिंदी के कवि सम्मिलित किए गये थे। इस ग्रन्थ का सर्वाधिक महत्त्व है कि यह हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन का प्रथम प्रयास है। इस कृति में हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं के कवियों को सम्मिलित किया गया है। डा० नगेन्द्र ने इसके विषय में कहा है कि- "कवियों को कालक्रम के स्थान पर अंग्रेजी वर्णक्रम में प्रस्तुत करना, काल विभाजन, युगीन प्रवतियों का अभाव और हिन्दी उर्दू कवियों को घुला मिला देना त्रुटिपूर्ण है। अनेक न्यूनताओं के होते हुए भी इतिहास लेखन की परम्परा के प्रवर्त्तक के रूप में गार्सा-द-तासी को गौरव प्राप्त है।"
- हिंदी साहित्येतिहास लेखन की परम्परा में शिवसिंह सेंगर का नाम विशिष्टता के साथ लिया जाता हैं। उनका ग्रन्थ 'शिवसिंह सरोज' 1888 ई० में प्रकाशित हुआ । इस ग्रंथ में 998 कवियों का विवरण दिया गया है। शिवसिंह सेंगर ने प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना के लिए हिन्दी और संस्कृति के अनेक ग्रन्थों की सहायता ली थी। 'शिवसिंह सरोज' के विषय में कहा का सकता है कि यह हिन्दी का ऐसा पहला ग्रन्थ है जो परवर्ती साहित्येतिहास लेखन का आधार ग्रन्थ बना।
- जार्ज इब्राहिम ग्रियर्सन ने सन् 1888 में 'दा मार्डन वर्नाकुलर लिटरेचर आफ हिन्दुस्तानी' नामक कृति की रचना की, जिसका हिन्दी अनुवाद 'हिन्दी साहित्य का प्रथम इतिहास' डा० किशोरी लाल गुप्त ने किया। इसमें विभिन्न साहित्यकारों की विभिन्न प्रवतियों को दर्शाते हुए उनका काल क्रमानुसार वर्गीकरण किया गया है। हिन्दी के विकासात्मक स्वरूप का निर्धारण यहीं से शुरू हुआ है। इस ग्रन्थ में प्रत्येक खण्ड काल विशेष के सूचक हैं जिनमें चारण काव्य, धार्मिक, काव्य, प्रेम काव्य आदि का आभास होता है। इस कृति में भक्तिकाल को स्वर्ण युग कहने की सुन्दर उक्ति मिली है। अंग्रेजी विषय में संकलित होने के कारण यह ग्रन्थ हिंदी इतिहास लेखकों के लिए विशेष प्रेरक नहीं बन सका ।
- मिश्रबन्धुओं ने 'मिश्र बन्धु विनोद' नामक पुस्तक में हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखा । इस ग्रन्थ के चार भाग दिखाये गये है। तीन भागों का प्रकाशन सन् 1913 ई० तथा चौथे भाग का प्रकाशन 1934 ई० में सामने आया । इस ग्रन्थ की रचना का आधार काशी नागरी प्रचारिणी सभा की खोज रिपोर्ट थी इस साहित्येतिहास- ग्रन्थ में सम्मिलित कवियों की संख्या पाँच हजार रही हैं मिश्र बन्धुओं ने अपने साहित्येतिहास को आठ कालखण्डों में विभाजित किया है और प्रत्येक युग के रचनाकारों के रचनात्मक योगदान का अनुशीलन किया है। यद्यपि वे हिंदी साहित्य का विधिवत् इतिहास लिखना चाहते थे, किन्तु अपनी चाहत में वे सफल नहीं हो सके। फिर भी ऐतिहासिक महत्त्व की दष्टि से 'मिश्रबन्धु विनोद' के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। साहित्येतिहास की परम्परा में इसे एक सार्थक कदम कहा जा सकता है।
- साहित्येतिहास-लेखन की परम्परा में सर्वाधिक उल्लेखनीय नाम आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का रहा है। उन्होंने इस दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम उठाते हुए सुव्यवस्थित इतिहास लिखकर इतिहास-लेखन की परम्परा में एक नये युग और नयी चेतना की शुरूआत की। आचार्य शुक्ल का हिन्दी साहित्य का इतिहास' नामक ग्रन्थ पहले 'हिन्दी शब्द सागर की भूमिका के रूप में लिखा गया था, और फिर 1929 ई० में परिमार्जन के साथ अलग पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुआ । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल में रचनाकार- चयन की गहरी दष्टि थी। चयन प्रक्रिया का परिचय देते हुए उन्होंने 'मिश्रबन्धु विनोद' के पाँच हजार कवियों में से लगभग एक हजार प्रतिनिधि कवियों को ही अपने इतिहास में स्थान दिया है। वास्तव में, आचार्य शुक्ल ने इतिहासकार की तथ्यपरक दष्टि की अपेक्षा साहित्यलोचन की गहरी ने और पारदर्शी दष्टि को प्रमुखता दी। यही अद्भुत मूल्यांकन की क्षमता ही उनके इतिहास की प्राण शक्ति का पुंज है।
- अनेक विशेषताओं के बाद भी शुक्ल के इतिहास में भी कतिपय भ्रान्तियाँ और कमियाँ दिखायी पड़ती हैं। अधुनातन शोधों से वीरगाथा काल के नामकरण सामग्री और प्रवत्तियों के विषय में आचार्य शुक्ल की मान्यताएँ और धारणाएँ आधारहीन सिद्ध हो चुकी हैं, ऐसे ही और भी स्थलों पर कुछ कमियाँ देखी जा सकती हैं। फिर भी शुक्ल का साहित्येतिहास साहित्येतिहास-लेखन की परम्परा में एक महत्त्वपूर्ण कड़ी का काम करता रहा है। साहित्येतिहास-लेखन की कड़ी में अगला नाम आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का आता है। आचार्य द्विवेदी की कृति 'हिन्दी साहित्य की भूमिका' एक श्रेष्ठ कृति है। इस ऐतिहासिक कृति से साहित्य इतिहास लेखन के लिए नई दष्टि, नई सामग्री और नई व्याख्या मिलती है। आचार्य द्विवेदी ने साहित्य की विभिन्न रचना परम्पराओं उनकी शैलियों का विवरणात्मक और तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। संत काव्य की सुंदर पष्ठभूमि के साथ प्रेमाख्यान काव्य पर अनुसंधानात्मक कार्य करके तथ्य प्रतिपादन किया है। इनकी लेखनी से हिन्दी साहित्य उद्भव और विकास', 'हिन्दी साहित्य का आदिकाल' जैसी श्रेष्ठ रचनाएँ सामने आई है। निश्चित रूप से इनकी इतिहास दष्टि हिन्दी साहित्य इतिहास अध्ययनकर्त्ताओं और परवर्ती लेखकों के लिए अपूर्व प्रेरणा स्वरूप है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने साहित्येतिहास के तीन ग्रन्थों की रचना की है। (i) हिंदी साहित्य की भूमिका' संस्करण 1940 ई० (ii) 'हिंदी साहित्य का आदिकाल' 1952 ई० (iii) 'हिंदी साहित्य- उद्भव और विकास 1955 ई० ।
- डा० रामकुमार वर्मा ने 1938 ई० में 'हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक साहित्य' लिखा। यह ग्रन्थ सात प्रकरणों में विभक्त है। यह वर्गीकरण मूलतः आचार्य शुक्ल के वर्गीकरण पर आधारित है। फिर भी कालों के नये नामोल्लेख के साथ सरल शैली और प्रवाहमय विचारों से ऐतिहासिक तथ्यों का प्रतिपादन किया गया है। उनका भक्तिकाल संबंधी ऐतिहासिक विवेचन विशेष स्मरणीय है। नागरी प्रचारिणी सभा काशी के सौजन्य से हिन्दी साहित्य का वहत इतिहास प्रकाशित हुआ। यह विस्तत इतिहास 16 खण्डों में विभक्त किया गया है। इसमें सबसे अधिक लेखकों का योगदान इसकी अपूर्व सफलता ने 100 से अधिक लेखकों और सम्पादकों की भूमिका में हिंदी साहित्य की विविध धाराओं परम्पराओं के विभिन्न सूत्रों का पूर्ण आकर्षण रूप से समायोजन किया गया है। डा० गणपतिचन्द्र गुप्त ने 'हिन्दी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास' सन् 1965 ई० में लिखा। उनके साहित्येतिहास की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने अनेक पाश्चात्य विचारकों और इतिहासकारों के विचारों का मंथन करके इतिहास - प्रक्रिया का वैधानिक अध्ययन प्रस्तुत किया है। डा० गुप्त ने आचार्य शुक्ल द्वारा प्रस्तुत काल-विभाजन में संरचनात्मक परिवर्तन भी ने किया है। डा० धीरेन्द्र वर्मा ने अनेक विद्वानों के संयोग से इस परम्परा में 'हिंदी साहित्य ग्रन्थ प्रस्तुत किया। इसमें मुख्यतः आदि, मध्य और आधुनिक तीन कालों की साहित्य-सामग्री का क्रमबद्ध प्रस्तुतीकरण है। अत्याधिक कमियों के होते हुए भी इतिहास लेखन परम्परा में इसका विशेष महत्त्व है। इसमें लेखन की एकरूपता और विषय की अन्विति और संश्लेषण का अभाव अवश्य है। इसमें काव्य परम्पराओं का विवेचन विशेष उल्लेखनीय है ।
- हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा सतत चलती रही है। पूर्वकालीन इतिहास ग्रन्थों से प्रेरणा लेते हुए नई मान्यताओं और मौलिकताओं के साथ नए इतिहास ग्रन्थ सामने आते रहे हैं। हिंदी साहित्य के प्रारम्भिक इतिहास लेखक गार्सा -द- तासी से लेकर आज तक इस दिशा में क्रमिक विकास चलता रहा है। समय-समय पर नई दष्टि, नई पद्धति और नए चिन्तन के आधार पर अनुकूल और सन्तोषजनक साहित्य इतिहास के तथ्यों का उद्घाटन होता रहा है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि हिंदी साहित्य के इतिहास की सुदढ़ परम्परा सतत् प्रवाहित होती रही है।