हिंदी साहित्य का इतिहास : इतिहास दर्शन और साहित्येतिहास
इतिहास दर्शन और साहित्येतिहास
इतिहास की जानकारी
साहित्येतिहास की जानकारी को बढ़ाती है। इसलिए साहित्येतिहास को जानने से पूर्व
इतिहास-दर्शन को जानना अति आवश्यक है।
1 इतिहास अर्थ और परिभाषाएँ
इतिहास शब्द इति+ह+आस से
बना हैं जिसका शाब्दिक अर्थ- 'ऐसा ही हुआ' है। शाब्दिक अर्थ को देखें तो पता चलता है कि इतिहास का
संबंध अतीत से होता है और इसमें वास्तविक घटनाओं का सन्निवेश होता है। भारतीय
पाश्चात्य विद्वानों ने इतिहास के व्यापक स्वरूप की विवेचना की है। विभिन्न
विद्वानों द्वारा दी गई परिभाषाएं निम्नलिखित हैं-
हीगल ने लिखा है-
"इतिहास केवल घटनाओं का अन्वेषण तथा संकलन मात्र नहीं हैं, अपितु उसके भीतर
कार्य-कारण संबंध विद्यमान है।"
गणपतिचन्द्र गुप्त के
अनुसार- "अतीत के किसी भी तथ्य, तत्त्व या प्रवत्ति के वर्णन, विवरण, विवेचन, विश्लेषण को, जो कि काल विशेष या कालक्रम की दष्टि से किया गया हो, इतिहास कहलाता है।"
कालिंगवुड ने कहा है-"इतिहास धर्मशास्त्र या भूत विज्ञान की तरह एक चिन्तन
पद्धति है। यह एक प्रकार का शोध है, खोज है, अन्वेषण है। *
गोविन्दचन्द पाण्डे के अनुसार - "इतिहास एक ऐसा ज्ञानमय अनुशासन है जिसके माध्यम से किसी देश की सभ्यता और संस्कृति को देखा, परखा, समझा जाता है ।"
- इस प्रकार कहा जा सकता है कि इतिहास न केवन हमें घटना, तिथि और नामों का विवरण देता है, बल्कि इसमें घटना, स्थिति, प्रक्रिया और प्रकृति का सम्पूर्ण अनुशीलन किया जाता है। इतिहास से मनुष्य का नाता अत्यन्त पुराना है। मानव की समस्त क्रिया तथा प्रतिक्रिया आदि का समावेश इतिहास में किया जाता है। हमारे सारे संस्कार व्यवहार, संस्कृति सब को हम इतिहास की आँखों से देख सकते हैं। बिना अतीत को जाने वर्तमान स्वरूप को नहीं समझा जा सकता।
- मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में अनेक घटनाएं घटती रहती हैं। घटनाओं का इतिहास बनता जाता है और वही इतिहास हमें अतीत से जोड़कर रखता है। इस प्रकार मनुष्य इतिहास-दर्शन और इतिहास - विवेक के नये गवाक्षों को खोलता है। इतिहास के विषय में कुछ भ्रम लोगों के मन में आते हैं कि इतिहास केवल खण्डित शवों, खण्डित जीवन या व्यर्थ बीते समय तक की जानकारी देता है। जबकि वास्तविकता यह है कि इतिहास हमें नयी व्याख्या, नयी प्रेरणा और नयी दष्टि देता है। वह हमारे भावी जीवन का निर्माता होता है।
2 इतिहासकार एवं इतिहास बोध
- एक सफल इतिहासकार घटनाओं, वत्तान्तों और तत्कालीन घटनाओं का लेखा-जोखा प्रस्तुत करता है और हमें अतीत की घटनाओं का बोध करवाता है। इतिहासकार अपने अध्ययन कार्य को दो तरह से प्रकट करता है। (i) तथ्यों की जाँच (ii) स्रोतों से तथ्यों का चुनाव तथ्यों के चयन में इतिहासकार पूरी तटस्थता से कार्य करता है इसमें इतिहासकार जितना तटस्थ होगा, उसका इतिहास उतना ही प्रामाणिक और विश्वसनीय होगा। इतिहासकार की ईमानदारी और तटस्थ रूख उसके सच्चे इतिहास बोध का निर्माण करते हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने साहित्यिक इतिहास के विषय में कहा है कि जबकि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवति का संचित प्रतिबिम्ब होता है, तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता जाता हैं। आदि से अन्त तक इन्ही चित्तवत्तियों की परम्परा को परखते हुए साहित्य-परम्परा के साथ उनका सांमजस्य दिखाना ही साहित्य का इतिहास कहलाता है। जनता की चित्तवत्ति बहुत कुछ राजनीतिक, सामाजिक, साम्प्रदायिक तथा धार्मिक परिस्थिति के अनुसार होती है। साहित्यकार के लिए परम आवश्यक होता है कि वह साहित्य एवं साहित्यिक विधाओं की पूर्ण जानकारी हासिल करके तथा साथ-साथ धर्म, दर्शन, समाज आदि को इतिहास में शामिल करे। तभी वह साहित्य के विश्वसनीय और प्रमाणिक इतिहास की रचना कर सकता है। साहित्येतिहास' शब्द का प्रयोग सबसे पहले वाल्तेयर ने 18 वीं शताब्दी में किया था। इसके बाद हीगेल तथा अनेक विद्वानों ने इस शब्द का प्रयोग किया। हीगेल का मानना है कि इतिहास-दर्शन का अर्थ इतिहास संबंधी चिन्तनयुक्त विचारों के अतिरिक्त कुछ नहीं है। आधुनिक काल में साहित्येतिहास लेखन की परम्परा को विशेष दर्जा दिया गया। जिससे यह एक दर्शन के रूप में माना जाने लगा है। इसके अध्ययन की पूर्व पीठिका को प्रस्तुत करना कोई सरल कार्य नहीं है, क्योंकि पाश्चात्य विद्वानों, दार्शनिक, इतिहासकारों, आलोचकों और भारतीय विद्वानों ने इसके विकास एवं सिद्धांतों पर अलग-अलग मत व्यक्त किए हैं। विकासवादी सिद्धान्तों के अध्ययन में इतिहास की नई व्याख्या प्रस्तुत की गई है। इस सन्दर्भ में दार्शनिक कान्त का मत है कि सष्टि का बाह्य विकास प्रकृति की आन्तरिक विकास प्रक्रिया का प्रतिबिम्ब मात्र है। हीगल के विचार इस प्रकार प्रस्फुटित हुए हैं- इतिहास केवल विद्यमान है। विश्व इतिहास की प्रक्रिया का मूल लक्ष्य मानव चेतना का विकास है जो द्वन्द्वात्मक पद्धति पर आधारित हैं। यह सिद्धान्त प्रकृति और भौतिक वस्तुओं के पारस्परिक द्वन्द्व को ही मान्यता देता है। इसके अनुसार दो परिस्थितियों, घटनाओं के परस्पर संघर्ष के पश्चात् जो तीसरी वस्तु सामने आएगी वह पहले से बेहतर अवस्था में होगी। यह बात समाज व भौतिक संसार की समस्त वस्तुओं पर लागू होती है। इस प्रकार इतिहास-दर्शन का यह विकासशील दष्टिकोण साहित्येतिहास-दर्शन को जानने के लिए उपयोगी एवं मान्य है। इसके अन्दर मानवीय समाज की समस्त परिस्थितियों का लेखा-जोखा होता है। इसीलिए साहित्य में तत्कालीन इतिहास मुखर हो पाने में समर्थ होता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि साहित्य का इतिहास मात्र इतिहास ही नहीं होता बल्कि इसके माध्यम से युगीन इतिहास को भी प्रकट किया जाता है। साहित्येतिहास-दर्शन की इस विकासशील परम्परा का उल्लेख अनेक साहित्यकारों ने किया है।
1. डा० नगेन्द्र के अनुसारः
- उन्होंने 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' में कहा है कि "आज साहित्य का अध्ययन विश्लेषण केवल साहित्य तक सीमित रहकर नहीं किया जा सकता उसकी विषयगत प्रवतियों और शैलीगत प्रक्रियाओं के स्पष्टीकरण के लिए उसे संबंधित राष्ट्रीय परम्पराओं सामाजिक वातावरण, आर्थिक परिस्थितियों, युगीन चेतना एवं साहित्यकार की वैयक्तिक प्रवत्तियों का विश्लेषण विवेचन करना पड़ता है।"
2. डा० विश्वम्भर नाथ उपाध्याय के अनुसारः
- "साहित्येतिहास दर्शन सामान्य इतिहास दर्शन के समानान्तर होता है। उनके अनुसार साहित्य के इतिहास लेखक को उस सामाजिक संदर्भ को ध्यान रखना चाहिए जिसमें वह साहित्य प्रादुर्भूत हुआ है।" इस संबंध में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा रचित 'हिन्दी साहित्य का इतिहास उल्लेखनीय है ।
3. ए० एच० काफे के अनुसारः
- "साहित्येतिहास दर्शन के लिए युग चेतना नामक सिद्धांत दिया है जिसके अनुसार साहित्य के इतिहास की व्याख्या तदयुगीन चेतना के आधार पर की जानी चाहिए। लेकिन इसके साथ ही पूर्ववर्ती परम्पराओं का भी कुछ-न-कुछ प्रभाव होता है।"
4. तेन के अनुसारः
- तेन ने अपने अंग्रेजी साहित्य के इतिहास में यह भली-भाँति स्पष्ट किया है कि "किसी भी साहित्य के इतिहास को समझने के लिए उससे संबंधित जातीय परम्पराओं राष्ट्रीय और सामाजिक वातावरण एवं सामाजिक परिस्थितियों का अध्ययन विश्लेषण आवश्यक है। इसके लिए उसने जाति, वातावरण एवं क्षण विशेष के तीन तत्वों का उल्लेख किया है।"
3 साहित्येतिहास दर्शन के तत्व
विभिन्न विद्वानों के
मतों को दष्टिगत रखते हुए साहित्येतिहास-दर्शन में उभरी निम्नलिखित बातों का
उल्लेख किया जा सकता है।
(i) साहित्यकार की प्रतिभाः
- साहित्येतिहास की मूल ताकत साहित्यकार की सजन-शक्ति ही होती है। इसके विकास का यही मूल है। इतिहास की व्याख्या से संबंध है। कई बार एक युग में रहने वाले एक ही प्रकार की परिस्थितियों का सामना करते हुए दो साहित्यकारों की रचना में काफी अन्तर देखने को मिल जाता है। साहित्य सजन शक्ति साहित्यकार की प्रतिभा से जुड़ी होती है। प्रतिभा व उसके व्यक्तित्व को समझे बिना साहित्यकार की सजन-शक्ति को पूर्णतः नहीं जाना जा सकता। साहित्य इतिहास दर्शन का विवरण प्रस्तुत करने में साहित्यकार की सजन-शक्ति व उसकी प्रतिभा का विशेष स्थान होता है।
(ii) परिवेश तथा वातावरणः
- साहित्येतिहास दर्शन में परिवेश तथा वातावरण बहुत-सी परिस्थितियों से निर्मित हुआ करता है। जो बस परिवेश- रचना को प्रभावित कर उसके भावपक्ष को संवारता है। आदिकालीन साहित्य में राष्ट्रीय भावना की कमी देखी जा सकती है, परन्तु तत्युगीन रियासतों में जो दढ़ राष्ट्रीय भावना बढ़ी उसी के परिणामस्वरूप रासो ग्रन्थ लिखे गये । यद्यपि साहित्यकार राजाश्रय में रचना कर रहा था, फिर भी वह तत्कालीन वातावरण के दायरे में ही लिख रहा था। जो रचा जा रहा था, वह साहित्य के वातावरण का ही परिणाम रहा था। कहा जा सकता है कि तात्कालिक वातावरण से इस साहित्य का आकार निर्मित हुआ है।
(iii) साहित्यिक एवं सांस्कृतिक परम्पराएं:
- साहित्य की विधाओं एवं कृत्तियों के विकास में साहित्य की सम्यक् व्याख्या उससे संबंधित पूर्ववर्ती परम्पराओं के अध्ययन के बिना संभव नहीं है। साहित्य का उद्गम स्रोत खोजने के लिए इतिहासकार को केवल तत्कालीन परिस्थितियों पर ही नहीं, पूर्ववर्ती परम्पराओं पर भी विचार करना चाहिए। यदि हम भक्तिकाल में बहने वाली भक्ति की निर्गुण- सगुण भक्तिधारा का उत्स खोजने का प्रयास करें, तो उसके सूत्र सातवीं-आठवीं शती के दक्षिण में शंकराचार्य के अद्वैतावाद से जुड़े मिलते है । इसी प्रकार रीतिकालीन भंगार भावना का स्रोत अपभ्रंश के ग्रन्थों व संदेश रासक से अछूता नहीं दिखाई पड़ता। इस प्रकार साहित्येतिहास के दर्शन के विकास में परम्परा का योगदान भुलाया नहीं जा सकता।
(iv) द्वन्द्वात्मकताः
- व्यक्ति संघर्ष के बिना अपना विकास नहीं कर सकता। द्वन्द्वात्मक परिस्थितियाँ ही सष्टि का मूलाधार है। कवि या साहित्यकार भी किसी न किसी द्वन्द्व से प्रेरित होकर ही साहित्य की रचना करता है। यह द्वन्द्व आन्तरिक भी हो सकता है और बाह्य भी व्यक्तिगत द्वन्द्व के साथ-साथ आर्थिक द्वन्द्व, पारिवारिक द्वन्द्व सामाजिक द्वन्द्व एवं राष्ट्रीय द्वन्द्व भी साहित्य के विकास मे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। कबीर की रचनाओं में तत्कालीन • सामाजिक द्वन्द्व झलकता है। समस्त भक्ति युग में तात्कालिक विभिन्न भक्ति-धाराओं के द्वन्द्व को देखा जा सकता है जिसमें तुलसी की समन्वय भावना का समावेश दिखाई पड़ता है।
(v) संतुलन एवं सामंजस्यः
- साहित्यकार नैसर्गिक प्रतिभा परम्परा और वातावरण के द्वन्द्व से प्रेरित होकर परम्परा और युगीन वातावरण के अन्तर्विरोध से उत्पन्न द्वन्द्व ही साहित्य के विभिन्न आन्दोलनों, उसकी धाराओं एवं प्रवतियों को गति देता हुआ साहित्य की विकास प्रक्रिया को संचालित करता है। उपर्युक्त आधारों का अवलोकन करने के पश्चात् हम साहित्येतिहास-दर्शन के संबंध में निम्नलिखित निष्कर्ष निकाल सकते हैं।
- साहित्य का इतिहास तत्कालीन सामाजिक एवं राजनीतिक वातावरण का प्रतिबिम्ब होता है। साहित्य की प्रवत्तियाँ समाज की प्रवत्तियों पर प्रकाश डालती है। साहित्य का इतिहास साहित्य के उत्थान पतन की कहानी है। साहित्य के इतिहास को समझने के लिए रचनाओं एवं रचनाकारों और उनसे संबंधित स्थितियों, परिस्थितियों और परम्पराओं का ज्ञान होना आवश्यक है। साहित्य के विकास में युगीन चेतना का ही नहीं, पूर्ववर्ती परम्पराओं का भी न्यूनाधिक योगदान रहता है । साहित्येतिहास, कृतिकारों का ही ग्रन्थ नहीं होता है, अपितु वह काल प्रवाहित मानव समाज के विकास और उसकी विशेषताओं की लिपिबद्ध कथा है। उसे घटनाओं का व्यक्तियों का, तथ्यों का संकलन मानना असंगत है। साहित्येतिहास के वर्तमान और विगत को जोड़ने वाली, युग चेतना की व्याख्या करने वाली, जनता की संचित मनोवत्तियों का प्रतिबिम्बन करने वाली, मानव संस्कृति का उद्घाटन करने वाली या मानव-प्रगति की निरन्तर विकसित चेतना का अंकन करने वाली ज्ञानात्मक शाखा है।
- साहित्येतिहास को जानने के लिए डा० नगेन्द्र के इस कथन का उल्लेख किया जा सकता है कि "साहित्य के इतिहास में हम प्राकृतिक घटनाओं व मानवीय क्रिया-कलापों के स्थान पर साहित्यिक रचनाओं का अध्ययन ऐतिहासिक दृष्टि से करते हैं। साहित्यिक रचनाएं भी मानवीय क्रिया-कलापों का ही दर्शन करवाती हैं। इतिहास को समझने से पूर्व उनके रचनाकारों से संबंधि तस्थितियों, परिस्थितियों एवं परम्पराओं को जानना भी अति आवश्यक होता है। किसी कृतिकार की वास्तविक शक्ति रचनाओं, रचनाकारों और रचना प्रवत्तियों के मूल्यांकन में ही प्रकट होती है। साहित्येतिहास-लेखन में अनेक तत्त्व उसके साधक के रूप में कार्य करते हैं। उन तत्त्वों का उल्लेख यहाँ पर समीचीन जान पड़ता है। साहित्येतिहास लेखन में अनेक साधक तत्त्व हो सकते हैं। राजनीतिक तत्त्व, साहित्यिक तत्त्व, सामाजिक तत्त्व, सांस्कृतिक तत्त्व, दार्शनिक तत्त्व, आलोचनात्मक तत्त्व वस्तुतः साहित्येतिहास लेखन में साहित्यिक तत्त्वों की प्रधानता होती है लेकिन अन्य तत्त्वों की सार्थकता और महत्ता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। क्योंकि इन्हीं तत्त्वों से साहित्येतिहास प्रामाणिक एवं पूर्ण बनता है। इस सन्दर्भ में डा० मैनेजर पाण्डेय का विचार इस प्रकार रहा है- "उसका कतिपय नियमों द्वारा सरलीकरण करना गलत है। ऐतिहासिक तथ्यों को विकृत न करते हुए साहित्य के इतिहास को समझना ही हमारा ध्येय होना चाहिए। केवल इसी प्रकार हम मानवता की मुक्ति के लिए इस अन्तिम संघर्ष में योग दे सकेंगे। अतीत का अविकृत और सत्यपूर्ण उद्घाटन ही वर्तमान में सक्रिय हो सकता है। साहित्येतिहास-लेखन की सामग्री को ही साहित्येतिहास का स्रोत कह सकते हैं। लेखक सामग्री का संकलन और सामग्री का निध कारण साहित्येतिहास लेखन की अनिवार्यता होती है।" साहित्येतिहास में प्रयुक्त सामग्री को दो वर्गों में रखा जा सकता है। आन्तरिक साक्ष्य से संबंधित सामग्री तथा बाहरी साक्ष्य से संबंधित सामग्री । आन्तरिक एवं बाह्य परीक्षणों के माध्यम से साहित्येतिहास-लेखक किसी रचना की प्राचीनता और प्रामाणिकता के निर्धारण का प्रयास करता है। उदाहरण के तौर पर चन्दवरदायी कृत 'पथ्वीराज रासो' नामक कृत्ति ले सकते हैं। आन्तरिक एवं बाह्य परीक्षणों के आधार पर ही साहित्येतिहासकार उसकी प्रामाणिकता तथा स्थिति का निर्धारण करते चले आ रहे हैं।