मानव मूल्य और महापुरूष |मानव मूल्य की अवधारणा | Human Value and Famous Thinkers

Admin
0

मानव मूल्य और महापुरूष

मानव मूल्य और महापुरूष |मानव मूल्य की अवधारणा | Human Value and Famous Thinkers
 

मानव मूल्य की अवधारणा

 

  • मानव मूल्य पद में दो शब्द हैं। 'मानव' शब्द अपने आप में स्वभाव, प्रकृति, गुण यानी व्यक्ति-सापेक्षता का सूचक है तो 'मूल्य' अपने आप में परोपकार, परहित, सहजीविता, सामूहिकता, उर्ध्वगमन, उत्कर्ष, प्रेम करूणा आदि का सूचक इस दृष्टि से 'मानव - मूल्य' का अर्थ ""व्यक्ति की प्रकृति का 'सामाजिक प्रकृति' तक जाना या ""व्यक्ति प्रकृति का सामाजिक प्रकृति' में रूपान्तरण" से है ।

 

  • मानव मूल्य के सम्बन्ध में प्रायः भ्रम की स्थिति बनी हुई है। कुछ लोग मानव-प्रकृति को ही 'मानव- मूल्य' समझ लेते हैं। प्रसन्नता, मौन, दया की भावना, बर्हिमुखता, मेल-जोल आदि मनुष्य का स्वभाव है, उसका गुण है; मूल्य नहीं। स्मरण रहे कि जब तक मानव प्रकृति उर्ध्वगामी होकर 'सामूहिक क्रियाशीलता' का रूप ग्रहण नहीं कर लेती, तब तक वह मानव- मूल्य नहीं बनती। प्रेम मानव के होने का प्राथमिक मनोभाव है। किन्तु जब तक वह 'रति' रूप में रहता है, तब तक वह मानव प्रकृति है, किन्तु जब वह 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' की व्यापक मानवतावादी भूमि पर आरूढ़ होता है, तब वह 'प्रेम' बन जाता है। जैसे वीरता जब तक शौर्यप्रदर्शन तक सीमित है, तब तक वह व्यक्तिगत गुण है, किन्तु जब उसमें समाज, राष्ट्र के हित की भावना जुड़ जाती है; तब वह 'मूल्य' बन जाता है। जब कोई व्यक्ति अपने पराक्रम का प्रदर्शन, अपना बल प्रदर्शित करने के लिए करता है, तब तक उसकी वीरता 'व्यक्तिगत है; किन्तु जब वह वीरता राष्ट्रीयता के वृत्त से आच्छादित हो जाती है, तब वह 'मूल्य' बन जाती है। इस प्रकार 'मानव मूल्य' में स्पष्टतः दो चीजें प्रमुख हैं। एक, उसकी सार्वभौमिकता की भावना और दूसरे, मानव जीवन को उत्कर्ष प्रदान करनें की भावना । सत्य, करूणा, प्रेम, धर्म, परोपकार जब सामाजिक वृत्त से आच्छादित होकर सामूहिक क्रियाशीलता का रूप ले लेते हैं, तब 'मानव मूल्यों की उत्पत्ति होती है। आपने पिछली इकाइयों में मानव मूल्य की सैद्धान्तिक एंव व्यावहारिक स्थितियों से परिचय प्राप्त किया। इस इकाई में हम प्रमुख संत कवियों के आलोक में मानव मूल्य का अध्ययन करेंगे।

 

मानव मूल्य और महापुरूष

 

  • छात्रों ! आप महापुरूषों की जीवनियाँ पढ़ते रहते हैं। उन जीवनियों को पढ़ते हुए आपने महापुरूषों के उच्च विचार, आदर्श, उनके रहन-सहन, उनका जीवन-संघर्ष, उनकी सृजनात्मकता इत्यादि को पढ़ा होगा। क्या कभी आपने सोचा कि महापुरूषों के गठन में किस तत्व की सर्वाधिक प्रभावी भूमिका होती है? क्या महापुरूष जन्मजात प्रतिभा के धनी होते हैं? क्या महापुरूषों के गठन में उनके समाज की भूमिका प्रभावी होती है? आपके मन में यह प्रश्न भी उठा होगा कि महापुरूष और मानव मूल्य का क्या अंतर्सम्बन्ध है? यह प्रश्न भी महत्वपूर्ण है कि एक रचनाकार अपनी कृतियों के माध्यम से मानवमूल्य की अभिव्यक्ति किस प्रकार करता है? एक सन्त जब लेखक भी होता है, तो उसकी कृतियाँ किस प्रकार की होती हैं? इन प्रश्नों पर आपको नए ढंग से विचार करना चाहिए।

 

  • आपने यह पंक्ति तो पढ़ी और सुनी ही है- 'महाजनो येन गतः स पन्थाः अर्थात् महाजन (श्रेष्ठ् व्यक्ति) जिस पथ / रास्ते से चले हैं; वह पथ ही श्रेष्ठ हैं, अनुकरणीय है। यह उक्ति इस बात का संकेत है कि हम महापुरूष के जीवन, आदर्शो - कृत्यों को कितना महत्व देते हैं । किन्तु इस उक्ति की व्यंजना को भी समझने की आवश्यकता है। हर महापुरूष का पथ / रास्ता वह नहीं होता, जो उसके पूर्व के या समकालीन महापुरूषों का होता है। प्रत्येक क्षेत्र का बड़ा व्यक्ति किसी नए मार्ग का अन्वेषक, खोजकर्ता होता है। उसका यह मार्ग पुराने पथ का न तो विलोम होता है और न अनुलोम । वह पूर्व की मान्यताओं पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए, कहीं उनसे ग्रहण करते हुए, कहीं उनसे मुठभेड़ करते हुए एक नये मार्ग की खोज करता है। उसका यह मार्ग एक नये प्रकार के सत्य को धारण किये हुए होता है, इसलिए वह हमारे लिए महत्वपूर्ण होता है। रामचरित मानस में तुलसीदास ने राम, सीता तथा लक्ष्मण के वनगमन दृश्य में एक रूपक खींचा है, जो हमारे लिए महत्वपूर्ण है। राम के चरण चिन्ह पर सीता के चरण न पड़ें, इसलिए वह दूसरी तरफ अपना पैर रख रही हैं। लक्ष्मण इन दोनों के चरण चिन्हों को बचाते हुए अपने पैर रख रहे हैं। आप चाहें तो इसे 'श्रद्धा' का नाम दे सकते हैं। श्रेष्ठ व्यक्तियों का अनुसरण कह सकते हैं, किन्तु वास्तविक रूप में इसकी व्यंजना यही है कि हर महत्वपूर्ण व्यक्ति के सृजन - कर्म (चरण चिन्ह) पूर्व के 'सृजन- कर्मों से भिन्न होते हैं। एक तरफ से वह पारम्परिक जीवनमूल्यों में विश्वास भी रखता है, तथा दूसरी ओर वह नये जीवन मूल्यों का निर्माण भी करता है।

 

  • महापुरूष अपने युग की सम्भावना के निचोड़ होते हैं। हर युग अपने लिए एक सम्भावना लेकर आता है। नए युग की समस्याएं, आवश्यकतायें वही नहीं रहतीं, जो पूर्व युग में थी। युगानुरूप अनकी संरचना में बदलाव उपस्थित हो जाता है। युगानुरूप इस बदलाव की पूर्ति महापुरूषों के माध्यम से होती है। इस प्रकार महापुरूष सामाजिक आकांक्षा की पूर्तिकर्ता के रूप में हमारे सामने आता है। अतः मूलरूप से महापुरूषों के अवतरण में सामाजिक माँग' या सामाजिक आवश्यकता' का दबाव कार्य किया करता है। इनकी प्रतिभा जन्मजात तो होती है, किन्तु वह अपने युग- समाज के कारक तत्वों से अनुयोजित भी होती है। विवेकानन्द के समय का सांस्कृतिक दबाव किस प्रकार राष्ट्रीय-सामाजिक बनकर गांधी, अरविन्द में रूपान्तरित हो जाता है, इस तथ्य से हम परिचित ही हैं। मानव मूल्यों के सन्दर्भ में यह बात भी महत्वपूर्ण है कि यह बड़े क्षेत्र या बड़ी परिधि तक फैला हुआ है। हमारे सामने यह प्रश्न भी खड़ा होता रहता है कि हम मानव मूल्य की परिधि में किसे शामिल करें? क्या एक वैज्ञानिक के अन्वेपषण, खोज का सम्बन्ध मानव कल्याण से नहीं है? अपनी वैज्ञानिक खोज के माध्यम से एक वैज्ञानिक मानव जीवन को सरल, सुगम बना देता है। उसकी खोज मानव जाति व सभ्यता के विकास में युगान्तकारी हो जाती है। हाँ, यह हो सकता है कि ऐसा व्यक्तित्व प्रत्यक्ष में शुष्कर हो, अव्यावहारिक हो, किन्तु उसका अन्वेषण मानव जाति के लिए लाभप्रद हो सकता है ( होता है ); ऐसी स्थिति में वह भी मानव मूल्यों को ही धारण करता है।

Post a Comment

0 Comments
Post a Comment (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top