आदि कालीन साहित्य वर्गीकरण: जैन साहित्य
भगवान महावीर का जैन साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। भगवान महावीर ने अपने धर्म का प्रचार लोकभाषा के माध्यम से किया। पहले जैनधर्म का प्रचार एवं प्रसार उत्तरी भारत में अधिकाधिक रूप से फैला। गुजरात मे इसकी प्रधानता 8 वीं शताब्दी से 13 वीं शताब्दी तक बनी रही। वहाँ के चालुक्य, राष्ट्रकूट और सोलंकी राजाओं पर इसका पर्याप्त प्रभाव रहा है।
भगवान् महावीर का जैनधर्म हिन्दू के सदाचारों के अधिक समीप है। जैन धर्म का ईश्वर सष्टिनायमक नहीं है। वह चित् एवं आनन्द का स्रोत है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी साधना और पौरूष से परमात्मा का रूप धारण कर सकता है। इस धर्म की महत्त्वपूर्ण विशेषता यह थी कि इसमें ब्रह्मचर्य, अस्तेय और अपरिग्रह का विशेष महत्त्व है। प्रारम्भिक जैन साहित्य में दोहा - चौपाई पद्धति पर चरित - काव्य या आख्यानक काव्य का निर्माण हुआ। यही परम्परा आगे चलकर सूफी कवियों द्वारा ग्रहण कर ली गई। डा० वार्ष्णेय ने लिखा है, 'जैनधर्म की दोहा-चौपाई पद्धति आगे चलकर सूफी कवियों, तुलसी आदि द्वारा अपनाई गई। इन प्रारंभिक रचनाओं के आधार पर ही पुरानी हिंदी का जन्म और पीछे खींच ले जाया जाता है।"
जैन आचार्यों ने प्राकृत के अतिरिक्त अपभ्रंश में प्रचुर रचनाएँ लिखीं। इनका साहित्य मूलतः धर्म-प्रचार का साहित्य है, किन्तु साहित्यिक सौष्ठव के अंश पर्याप्त मात्रा में मिल जाते हैं। तत्कालीन व्याकरणादि ग्रंथों में इस साहित्य के उद्धरण मिलते हैं। स्वयंभू पुष्पदंत, घनपाल जैसे जैन कवियों ने हिन्दुओं की रामायण और महाभारत की कथाओं के राम और कृष्ण के चरित्रों को अपने धार्मिक सिद्धान्तों और विश्वासों के अनुरूप अंकित किया है। इन पौराणिक कथाओं के अतिरिक्त जैन तीर्थकारों एवं महापुरूषों के चरित्र लिखे गये तथा लोक-प्रचलित प्रसिद्ध नैतिकतावादी आख्यान भी जैन धर्म के रंग में रंग कर प्रस्तुत किये गये हैं। जैन साहित्य में शान्तरस की प्रधानता रही।
साहित्य को जैन-मुनियों का योगदान
हिंदी साहित्य एवं भाषा को जैन आचार्यों ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। अपभ्रंश भाषा को जैन- साहित्य ने न केवल भाषा विकास की दृष्टि से ही योगदान दिया है, बल्कि भावों, विचारों, जीवन-दर्शन संबंधी भी कुछ ऐसा योगदान दिया है जिससे आदिकालीन हिंदी के रासो ग्रंथों तथा चरित-काव्यों पर विशेष प्रभाव तो काव्य रूप की दष्टि से पड़ा, साथ ही जैनियों के जीवन-दर्शन ने भी संतों को अन्तर्मुखी प्रवत्ति की ओर प्रवत्त किया।
जैनाचार्यों की हिंदी भाषा को देन इस प्रकार रही है-
1. आध्यात्मिक दर्शन संबंधी देनः
जैन मुनियों तथा आचार्यों ने अपनी रचनाओं में आत्मा, परमात्मा, जीव, ब्रह्म जगत, माया, समाधि तथा मोक्ष आदि का विवेचन किया जिसका प्रभाव परवर्ती भक्ति - साहित्य पर पड़ा। जैनियों ने सिद्धान्त रूप में यह बताया है कि जीवात्मा तथा परमात्मा में तात्विक अन्तर नहीं केवल गुणात्मक अन्तर है। जो भेद आत्मा और परमात्मा में है वह माया के कारण ही है, ऐसी ही मान्यताएं ज्ञानाश्रयी संत-साहित्य की भी हैं।
2. वर्ण विषय संबंधी योगदानः
ब्रह्म के विषय में जैन साहित्य की मान्यता है कि वह ब्रह्म व्यापक है, अनिर्वचनीय, अनादि, अनन्त तथा निरंजन है। यही भावना कबीर आदि संतों की भी रही है। कबीर का रहस्यवाद भी इसी अन्तर्मुखी प्रवत्ति का सूचक है। ब्रह्म तो योगियों के हृदय में रमता है। रमण करने के कारण ब्रह्म को राम भी कहा है। जैन- साहित्य में कर्म संबंधी यह मान्यता है कि समाधि की अवस्था में सभी कर्म विनष्ट हो जाते हैं। इसलिए जैनियों ने समाधि द्वारा कर्म फल की मुक्ति से निर्वाण पद की प्राप्ति बताई है। जैन मुनियों ने प्रयोगात्मक मुक्ति प्राप्त करने के साधन बताते हुए गहस्थ धर्म के त्याग की बात कही है। कर्मों के कारण जीवात्मा बन्धनों से मुक्त केवल समाधि अवस्था मे ही हो सकता है। समाधि कष्टसाध्य है इसलिए वह सुख में बाधक है। विषयों के भोग तथा तष्णादि से समाधि या मुक्ति नहीं मिल सकती। जैन मुनियों में मुनि रामसिंह ने कहा है-
"मुंडिय मुंडिय मुंडिय सिर मुंडिय चित्त ण मुंडिया।
चित्तहउ मुंडिय जि कियहु संसार खंड णु तिकियउ ।।"
अर्थात
अरे, तुम अपना सिर तथा दाढ़ी-मूँछ तो मुँडवाते हो, परन्तु अपने मन को काबू में नहीं करते। जो अपने चित्त को मुँडता है, अर्थात् मन पर काबू कर लेता है, उसे संसार नहीं मिटा सकता।
इसी प्रकार की मान्यता कबीरदास की भी रही है जब वह कहते हैं-
"दाढ़ी मूंछ मुंडाय कै, हुआ जो घोटम घोट।
मन को क्यों नहिं मुंडिये जामें भरिया खोट ।। "
अर्थात्
अरे भोले मनुष्य, तू दाढ़ी, मूँछ तथा सिर मुंडा कर घोटम घोट तो हो गया परन्तु इसमे कोई लाभ नहीं। तू अपने मन को क्यों नहीं मुंडता ( काबू करता) तेरे इस मन में ही खोट भरे हुए हैं।
3. जैन साहित्य का काव्य रूपः
जैन आचार्यों ने अधिकांश रूप में चरित-काव्यों की रचना की है। इन चरितकाव्यों को लोककथाओं के रूप में ढाला गया है। इसी काव्यरूप ने मध्यकालीन महाकाव्यों को प्रभावित किया है। तुलसी का रामचरितमानस निश्चित रूप से चरित काव्यों की परम्परा का विकसित रूप है। स्वयंभू द्वारा रचित 'पउम चरिउ' से तुलसी तथा जायसी दोनों ही प्रभावित हुए है।
4. जैन- साहित्य की भाषा एवं वर्णन शैली
जैनाचार्यों ने चरित-काव्यों में दोहा, छप्पयों तथा चौपाइयों की छन्दोबद्ध वर्णन - शैली को अपनाया और पच्चीस चौपाइयों के पश्चात् एक दोहा लिखने की शैली अपनाई । 'रामचरित मानस पर भी इसी वर्णन शैली का प्रभाव देखा जा सकता है। प्रकृति चित्रण, वर्षा, पशु-पक्षी आदि का वर्णन भी जैन मुनियों ने अपने महाकाव्यों तथा खंडकाव्यों में किया था जिसका प्रभाव हिंदी परवर्ती महाकाव्यों तथा खण्ड काव्यों पर भी देखा जा सकता है। अलंकारों की दष्टि से भी जैन साहित्य ने हिंदी भाषा के अलंकार विधान को योगदान दिया है।
भाषा प्रयोगिक तौर पर तो जैन आचार्यों का अपभ्रंश साहित्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है ही, क्योंकि जब हिंदी का कोई भाषा वैज्ञानिक व्यावहारिक रूप से शब्दों के किसी रूप का विकास अन्वेषित करना चाहता है तो उसे संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा पुरानी हिंदी के शब्दों, रूपों का ज्ञान प्राप्त करना परमावश्यक है। इसलिए अपभ्रंश साहित्य हिंदी भाषा के विकास क्रम को सम्यक् रूप से समझने के लिए अनिवार्य है।
जैन मुनियों के अपभ्रंश साहित्य ने हिंदी के आदिकाल, भक्तिकाल तथा रीतिकाल को किसी न किसी भांति अवश्य ही प्रभावित किया है। जीवन-दर्शन आध्यात्मिक रहस्यवाद, काव्य रूप, वर्णन शैली तथा भाषागत योगदान को देखकर कहा जा सकता है कि हिंदी भाषा साहित्य को भली भाँति समझने के लिए अपभ्रंश साहित्य का अध्ययन भी कर लेना आवश्यक है, क्योंकि वह अविच्छिन धारा भारतीय वाङ्मय को सुचारू रूप से उजागर करती है।