कृष्ण काव्य धारा वैशिष्ट्य और अवदान
कृष्ण काव्य धारा वैशिष्ट्य और अवदान
कृष्ण काव्यधारा के वैशिष्ट्य और अवदान को स्पष्ट जानने के लिए इसे हम तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं-
1. वस्तुगत वैशिष्ट्य और अवदान
2.भावगत वैशिष्ट्य और अवदान
3. शिल्पगत वैशिष्ट्य और अवदान
वस्तुगत वैशिष्ट्य और अवदान
1. निर्गुण के स्थान पर सगुण की आराधनाः
कृष्ण काव्य धारा के कवियों ने निर्गुण के स्थान पर सगुण ब्रह्म को प्रमुखता दी है क्योंकि साधना के स्तर पर उसे ज्ञानी ही जान सकते है। भक्तों में ज्ञान का अभाव होता है। वह आँखों के सामने नहीं दिखाई पड़ता । सगुण ब्रह्म निरन्तर उनके सामने दिखाई पड़ता है। इसलिए उसकी साधना सरल होती है
2. श्रीकृष्ण का मानवी और अवतारी रूपः
इस काव्य धारा के रचनाकार प्रभु श्री कृष्ण के दो रूपों का चित्रण करते हैं-मानवी और अवतारी मानवी रूप में वे नन्द यशोदा और देवकी - वासुदेव के पुत्र है। अवतारी रूप में वे एक ईश्वर हैं।
3 तत्कालीन समाज और संस्कृतिः
इस युग के काव्यकारों ने तत्कालीन समाज और उसमें फलती-फूलती संस्कृति का यथार्थ वर्णन किया है।
भावगत वैशिष्ट्य और अवदान
वात्सल्य और श्रंगार रस :
कृष्ण काव्य धारा के सभी रचनाकारो ने वात्सल्य और श्रृंगाररस को प्रमुखता दी है। वात्सल्य प्राणिमात्र के मन की एक वत्ति होती है। वात्सल्य वर्णन में कृष्णभक्त कवियों ने श्री कृष्ण के बाल्यकाल से लेकर किशोरावस्था की विभिनन क्रीड़ाओं का सफल चित्रण प्रस्तुत किया है। इसमें सूर का वात्सल्य सबसे निराला कहा जा सकता है। यह वर्णन जितना यथार्थ है उतना की सहज एवं मार्मिक
विरहानुभूति चित्रणः
कृष्ण काव्य धारा के रचनाकारों ने वियोग श्रंगार के अन्तर्गत विरह की विभिन्न भूमियों का सजीव रूप चित्रित किया है। विरह की अनेकों दशाएँ इस काव्य में प्रस्तुत की गई है। इन कवियों का विरह संवेदना जन्य है ।
शिल्पगत वैशिष्ट्य और अवदान
1. मुक्तक काव्य रचना:
कृष्ण काव्य धारा के रचनाकारों ने प्रबंध रचनाओं का निर्माण न करके मुक्तक काव्यों का निर्माण किया है। कीर्तन भजन- जन्य आतुरता इनके काव्य रूपों में देखी जा सकती है। इन रचनाकारों ने पदों की रचना की है।
2. बिम्ब तथा प्रतीक विधानः
कृष्ण काव्यकारों ने बिम्बों और प्रतीकों का प्रयोग रसानुभूति के लिए किया है। भ्रमरगीत में सन्दर्भित पदों में 'भ्रमर' का प्रयोग प्रतीक रूप में किया गया है।
कृष्ण भक्ति काव्य में दार्शनिकता
कृष्ण भक्ति काव्य का मुख्य उद्देश्य तो शंकर के अद्वैत दर्शन का खण्डन करके सगुण कृष्ण भक्ति की स्थापना करना है। कृष्ण भक्ति साहित्य की दार्शनिक पष्ठभूमि स्वामी बल्वभाचार्य तथा स्वामी हितहरिवंश के राधावल्लभी सम्प्रदायों से निर्मित हुई पुष्टिमार्गीय प्रेमा रागानुगा तथा माधुर्य भाव की मधुरा भक्ति माना है। उस भक्ति की दार्शनिक मान्यताएँ तो भागवत पुराण में वर्णित पुष्टिमार्गी जीवन दर्शन है।
कृष्ण काव्य के वैशिष्ट्य और अवदान को इस रूप में प्रकट किया जा सकता है-
1 भक्ति का स्वरूप प्रेमः
कृष्ण भक्ति का आधार प्रेम है। इस प्रकार उनकी भक्ति को प्रेमा-भक्ति अथवा रागानुगा-भक्ति माना जाता है। जब कृष्ण के प्रति अगाध प्रेम अथवा आसक्ति हो जाती है, तब स्वाभाविक रूप से सांसारिक भोग-विलास आदि विषयों से विरक्ति हो जाती है। अतः कृष्ण भक्ति में प्रवत्ति तथा निवत्ति दोनों वत्तियाँ ही कलात्मक रूप में समन्वित दिखाई देती हैं कृष्ण भक्तों की ऐसी प्रेमा-भक्ति वात्सल्य, सख्य तथा माधुर्य आदि तीनों रूपों को धारण करने वाली त्रिवेणी है वास्तव में यदि मनोवैज्ञानिक तथा काव्य शास्त्रीय दृष्टि से देखा जाये तो उपर्युक्त तीनों भाव भंगार रस के तीन पथक - पथक स्थायी भाव हैं जैसे पुत्र- विषयक रति से वात्सल्य रस मित्र - विषयक रति से श्रंगार एवं माधुर्य रस तथा गुरू विषयक रति से भक्ति रस निष्पन्न होता है। प्रेम का चरम रूप माधुर्यमयी मधुरा भक्ति में देखा जा सकता है क्योंकि ऐसी स्थिति में भक्त तथा भगवान् में कोई भेद नहीं रहता है।
2. जीव तथा ब्रह्म के रूप की चर्चा:
आचार्य बल्भ के दार्शनिक विचारों के अनुसार ब्रह्म के अतिरिक्त और कुछ नहीं है, जीव और जगत् उसी ब्रह्म के सत् और चित्त अंश है। वही ब्रह्म आनन्दमय श्री कृष्ण के रूप में नित्य लीलामय है। वल्लभ का सिद्धान्त दार्शनिक शब्दावली में शुद्धाद्वैतवाद माना जाता है। इस दर्शन के अनुसार ब्रह्म सगुण है जो साक्षात् कृष्ण के रूप में देखा जा सकता है। कृष्ण पूर्ण रूप से सोलह कला पूर्ण रसमय है। श्रीकृष्ण का धाम गोलोक है तथा गोपों, गोपियों, यमुना, वन्दावन, लताएँ, कुंजे आदि सभी जगतवादी जीवात्माएँ कृष्ण का ही अंश है। रामा कृष्ण ही इष्टदेव हैं।
3. वेद-मर्यादा तथा कर्मकाण्ड पर चर्चा:
कृष्ण भगतजनों का जीवन-दर्शन है कि समस्त प्राणी चेतना का रागमय अथवा कृष्णमय हो जाना ही सच्चा ज्ञान है, जो प्रेमा-भक्ति से सभी कृष्ण भक्तों को सुलग है। इसलिए कृष्ण भका वैदिक गर्यादा जप, तप, योग तथा कर्मकाण्ड को महत्त्व न देकर केवल 'प्रेम' पर बल देते हैं।
4. निवत्ति और प्रवत्ति के बारे में विचार :
बल्लभाचार्य द्वारा स्थापित दर्शन में निवत्ति तथा प्रवत्ति दोनों ही जीवन मार्गों का अनुपम योग है। मुख्य रूप से प्रवत्ति का पोषक होते हुए भी स्वाभाविक निवत्ति को अपनाया जाना कृष्ण भक्तों की विशेषता है। मनोविकारों और मन की सभी प्रवत्तियों को कृष्णोन्मुख करना तो प्रवृत्ति मार्ग है तथा कृष्णलीला उस प्रवत्ति मार्ग का साधन है। स्वाभाविक रूप में जब भक्त प्रेम से उन्मुक्त होकर कृष्णमय हो जाता है तो वह संसारी क्रियाकलापों से विरक्त हो जाता है जिसे निवत्ति मार्ग कहा है। नवधा भक्ति में प्रवत्ति तथा निवत्ति दोनों मार्गों का सम्मिश्रण है
5. श्रीकृष्ण के विभिन्न नामों का उल्लेख
श्री कृष्ण जो स्वयं ब्रह्म-स्वरूप है उनका सौन्दर्य अद्वितीय है। उन्हें लीलाचारी, नटवर नागर श्याम मुरारी, गोविन्द गिरिधर, घनश्याम राध श्याम, बांकेबिहारी, रसीले कृष्ण आदि अनेक नामों से संबोधित करते हुए कृष्ण भक्ति में नाम स्मरण का भी विशेष महत्त्व है, क्योंकि भक्त को अपनी इच्छानुसार जो नाम प्रिय लगे उसी का स्मरण करे।
6. सत्संग तथा गुरू की महिमा
कृष्ण भक्ति दर्शन में सत्संग, कीर्तन, संगीत तथा रासलीलाओं पर विशेष बल दिया जाता है गुरु की महिमा तो सभी कृष्ण भक्तों ने गाई है गुरु कृपा से ही भक्त, प्रेमा-भक्ति में अनुरक्त होता है।
7. लोकमंगल की अपेक्षा लोकरंजन को प्रमुखताः
पुष्टिमार्गीय कृष्ण-भक्तजनों तथा अन्यों ने लोकमंगल की भावना को अधिक महत्त्व नहीं दिया जितना महत्त्व उन्होंने लोकरंजन को दिया है। लोकरंजन की भावना पर अधिक बल इसलिए भी दिया गया क्योंकि प्रवत्ति मार्ग के अनुसार लोक मनोरंजन ऐन्द्रिय आकर्षण तथा तुष्टि से ही भक्त को प्रेम का अद्भुत आनन्द मिलता है।
8. रासलीलाओं के भिन्न-भिन्न रूपों की चर्चा:
कृष्ण भक्ति के क्षेत्र में कृष्ण की जीवन संबंध अनेक प्रकार की लीलाओं को चित्रित करके पुष्टिमार्गीय जीवन दर्शन की ख्याति फैलाई है इसीलिए भगवान कृष्ण को गोपियों के साथ नृत्य करते हुए भी दिखाया जाता है और ग्वालों के साथ माखन चोरी करते हुए भी दिखाया है। लगभग कृष्ण सभी लीलाएँ करके भी उनसे निर्लिप्त रहते हैं। इनके अनेक रूपों का चित्रण इस प्रकार किया जा सकता है
(i) ब्रह्म को सगुण तथा साकार रूप में माननाः
कृष्ण भक्ति साहित्य में सगुण ब्रह्म की उपासना करने ही रीति है। कृष्ण भक्तों की मान्यता है कि कृष्ण ही ब्रह्म अथवा ईश्वर है जो साकार एवं सगुण है। कृष्ण की नित्य अजर-अमर है। अतः कृष्ण काव्य की यही प्रमुख विशेषता है कि उसमें कृष्ण एवं राधा को ही इष्ट माना है।
(ii) अवतारवारः
कृष्ण-भक्तों में विष्णु के अवतार कृष्ण को दुष्टों का संहार तथा सज्जनों का उद्धार करते हुए दिखाने की प्रवत्ति है। जब अधर्म तथा पाप चरम सीमा पर पहुँच जाते हैं तब बैकुण्ठ-धाम से विष्णु को कृष्ण के रूप में अवतार लेना पड़ता है। अपनी लीला का प्रदर्शन करना भी अवतार का स्वभाव है।
(iii) प्रेम-भाव का निरूपणः
कृष्ण भक्तों ने भक्ति का आधार एकमात्र प्रेम तत्त्व ही माना है। प्रेम की उच्चतम कोटि मधुरा भक्ति है। कृष्ण के प्रति प्रकट किया गया सच्चा प्रेम ही श्रंगार रस का स्थायी भाव 'रति' है जो भक्तों की भावनानुसार 'वात्सल्य' 'संख्य' तथा 'माधुर्य भाव में परिणत होता है। इसीलिए श्रंगारी भाव ही प्रधान है।
(iv) ब्राह्याडम्बरों का विरोध:
कृष्ण भक्ति में प्रेम का पंथ ही अनूठा रहा है। इसमें जप, तप, योग तथा वैदिक कर्मकाण्ड की आवश्यकता नहीं। प्रेम को किसी ब्रह्माडम्बर की आवश्यकता नहीं, वह तो हृदय की अनुभूति कही जा सकती है।
(v) वात्सल्य, श्रंगार तथा शान्त रस की प्रधानता
सम्पूर्ण कृष्ण काव्य में प्रमुख रूप से वात्सल्य श्रंगार तथा माधुर्य जन्य शांत रस की अभिव्यक्ति मिलती है।
(vi) संगीत की ओर प्रवृत्ति
कृष्ण भक्ति साहित्य में संगीत माधुरी को महत्व प्रदान करने के लिए ही अधिकांश भक्ति पद राग-रागिनियों में निबद्ध है। सूरदास, नन्ददास तथा मीरा के पद संगीतमय साहित्य के प्रमाण है
(vii) प्रकृति चित्रणः
कृष्ण भक्ति साहित्य भावात्मक काव्य है। ब्रह्म प्रकृति का चित्रण इसमें या तो भाव की पष्ठभूमि में हुआ है या उद्दीपन भाव के लिए। डा० ब्रजेश्वर ने लिखा में है, "दश्यमान जगत् का कोई भी सौन्दर्य उनकी आँखों से छूट नहीं सका। पथ्वी, आकाश, जलाशय, वन-प्रान्त तथा कुंज-भवन की सम्पूर्ण शोभा इन कवियों ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में निःशेष कर दी है।"
(viii) काव्य रूपः
कृष्ण काव्य का सजन प्रायः मुक्तक शैली में हुआ है। कृष्ण काव्य में एक प्रबन्ध काव्य भी मिलता है, जिसकी रचना शुद्ध ब्रजभाषा में हुई। ग्रंथ का नाम है, 'ब्रज विलास' नन्ददास के भँवरगीत, रास पंचाध्यायी आदि में कथात्मकता की मनोवृत्ति देखी जा सकती है।