राम काव्य धारा : वैशिष्टय और अवदान
राम काव्य धारा : वैशिष्टय और अवदान
राम काव्य जीवन की आदर्श कथा है। जीवन जैसा विविध और व्यापक है रामकथा या राम काव्य भी उतना ही विस्तत और बहुमुखी है। राम काव्य में जीवन अपनी विराटता के साथ व्यक्त हुआ है।
भक्तिकाल में ऐसे राम काव्य को निम्नलिखित दष्टिकोणों से देखा गया है।
राम के दो रूप माने गये हैं- एक निर्गुण रूप है तो दूसरा सगुण निर्गुण रूप से हमारा तात्पर्य देह और दैहिक संबंधों से परे के राम जबकि सगुण राम अवतारी हैं, दशरथ सुत के रूप में। भक्तिकालीन रामकाव्यधारा के कवियों ने निर्गुण राम की नहीं वरन् सगुण रूप के राम की अवतारणा अपने काव्यों में की है। उन्होंने राम और रामकथा को देशकाल तथा जनजीवन के अनुरूप मानकर प्रस्तुत किया है। रामकाव्यधारा में ऐसे विराट् राम की प्रतिष्ठा हुई है और भक्तों तथा कवियों ने राम के इन्हीं रूपों की अर्चना - वंदना की है। रामकाव्यकारों के लिए राम सर्वत्र विद्यमान रहते हैं।
राम काव्यधारा की दार्शनिक चेतना पर कई दर्शनों का प्रभाव देखा जा सकता है। इसीलिए विद्वान उस पर शंकर के अद्वैतवाद तथा रामानुजाचार्य के विशिष्टता द्वैतवाद का प्रभाव अनुभव करते हैं। रामकथा के कवियों का प्रयोजन रामभक्ति था । वे व्यक्ति के मन की कालुष्य को समाप्त कर देना चाहते थे, इसीलिए रामभक्ति का सहारा लिया। रामभक्त कवियों के उपास्यदेव राम विष्णु के अवतार हैं और परमब्रह्म स्वरूप है। अरण्यकाण्ड में इस प्रकार स्तुति की गई है
"जेहि श्रुति निरंजन ब्रह्म व्यापक विरज अज कहिं गावहीं।
करि ध्यान- ग्यान विराग जोग अनेक मुनि जेहि पावहीं।। "
इनके राम में शील, शक्ति और सौन्दर्य का समन्वय है। वे मर्यादापुरुषोत्तम है और आदर्श के प्रतिष्ठापक है। यही कारण है कि राम और सीता के नाम पर परवर्ती साहित्य में उच्छृंखल प्रेम उस रूप से चित्रित नहीं हुआ जैसा की राधा और कृष्ण के नाम पर ।
1. राम काव्य धारा में समन्वयात्मकताः
राम काव्य की समन्वयात्मक विचारधारा अत्यन्त उदार है। जिसमें ज्ञान, भक्ति, धर्म तथा कर्म का सुन्दर समन्वय तो है ही, साथ ही निर्गुण तथा सगुण में भी एकरूपता प्रकट होती है। तुलसीदास कहते हैं
"अगुनहिं सगुनहिं नहिं कछु भेदा।
गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा । । “
2. राम काव्य में लोक मंगल की भावनाः
राम भक्ति साहित्य में लोक मंगल की भावना को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। इसी भावना से राम को आदर्श लोक-सेवक, आदर्श गहस्थ एवं आदर्श राजा के रूप में प्रस्तुत किया गया है। आदर्श की प्रतिष्ठा राम के जीवन का अर्थ और इति है-
"परहित सरिस धर्म नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ।। "
राम भक्ति काव्य की प्रमुख विशेषता यह भी है कि उसमें साधारण लोगों के कल्याण की भावना को सर्वोच्च स्थान मिला है। लोक मंगल की भावना से ओत-प्रोत होकर राम को आदर्श लोक-सेवक तथा आदर्श गहस्थ आदि के रूप में प्रस्तुत किया गया है। सारे राम काव्य का केन्द्रीय भाव आदर्श समाज की स्थापना तथा लोक कल्याण की भावना को प्रसारित करना है। तुलसीदास ने रामराज्य की आदर्श कल्पना के लिए ही राम को आदर्श पुत्र तथा आदर्श राजा के रूप में स्थापित किया है कौशल्या जैसी आदर्श माता, लक्ष्मण तथा भरत जैसे आदर्श भाई, सीता जैसी आदर्श पत्नी, हनुमान जैसे आदर्श सेवक एवं भक्त तथा सुग्रीव जैसे आदर्श मित्रादि की कल्पना एवं स्थापना से लोक संग्रह की भावना ही स्पष्ट होती है। राक्षसों को अर्थात् अत्याचारियों का नाश करके आदर्श समाज की स्थापना करना ही राम काव्य की विशेषता है।
3 आदर्श पात्रों का चरित्र चित्रणः
राम भक्ति साहित्य में ऐसे पात्रों को विशेष महत्त्व दिया गया है जो अपने सदाचार से लोक में मर्यादा तथा आदर्श की स्थापना करने वाले हो । राम काव्य की यह विशेषता है कि उसमें सत् और असत्, सज्जन तथा दुर्जन, अच्छे और बुरे, सतोगुणी रजोगुणी, तथा तमोगुणी सभी प्रकार के पात्रों का चित्रण किया गया है। अन्त में असत्य पर सत्य की अथवा 'रावणत्व' पर 'रामत्व' की विजय दिखाई गई है। अन्त में दुर्जनों को दण्ड तथा सज्जनों को सफलता मिलती दिखाई गई है। राम को स्वयं ब्रह्मस्वरूप होते हुए भी मानव के रूप में लीला करते हुए दिखाकर तुलसी ने सिद्ध किया है कि अन्त में रामत्व की ही विजय होती है क्योंकि पापियों का संहार करने के लिए राम को नर रूप धारण करना पड़ता है।
4 जगत तथा जीवात्मा संबंधी विचारः
राम काव्य में सारे संसार को ही राम तथा सीता युक्त माना है और इसीलिए तुलसीदास ने कहा है
"सिया राम मय सब जग जानी, करउँ प्रनाम जोरि-जुग पानी।”
यह सारा संसार ही राम और सीता की लीला-स्थली है। राम परम पुरूष चेतन सीता प्रकृति है पुरुष तथा प्रकृति से ही यह सारी सष्टि व्याप्त है जीवात्माएँ उसी परम पुरूष का अंश है।
5 वैधी भक्ति का अनुसरणः
रामभक्ति काव्य ऐसी भक्ति का अनुसरण करता है जिसे शास्त्रीय शब्दावली में 'वैधी भक्ति माना जा सकता है। वैधी भक्ति में श्रद्धा और प्रेम का समन्वय होता है तथा भागवत पुराण में वर्णित नवधा भक्ति के प्रायः अधिकांश लक्षण मिलते है। कीर्तन-भाव से जो नियम बनाये जाते हैं उन्हें 'विधि' माना जाता है और विधि के अनुसार की गई भक्ति को वैधी भक्ति कहते है। वैधी भक्ति में साधक या भक्त शरीर, मन, आत्मा, प्रकृति और समाजगत अनुशीलों द्वारा भगवान का भजन करते हैं। राम भक्तों के इष्ट 'राम' का शील, शक्ति और सौन्दर्य ही ऐसा है जिस पर साधक या भक्त अपने तन-मन और आत्मा से मुग्ध हो जाता है और अपने को राम का सेवक या दास समझकर भक्ति करता है, इसी कारण तुलसी की भक्ति को दास्य भाव की भक्ति भी माना जाता है क्योंकि तुलसीदास ने कहा है
"सेवक सेव्य भाव बिनु, भव न तरिय उरगारि ।"
वैधी भक्ति में हरि-कीर्तन और सत्संग का विशेष महत्त्व होता है, इसीलिए कहा गया है-
"बिनु सत संग बिबेक न होई
राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ।। "
इसी कारण राम भक्ति का अनुसरण करने वाले भक्तों तथा कवियों ने 'राम नाम' के कीर्तन तथा सत्संग करने को भक्ति का एक साधन बताया है। राम भक्ति की सबसे बड़ी विशेषता है कि सामाजिक प्रतिबद्धता और मूल्य-बोध को प्रबल प्रेरणा। यह निश्चित है कि जिस समय बाल्मीकि रामायण की रचना हुई होगी, उस समय समाज व्यवस्था के आधारभूत आदर्शो की स्थापना की बहुत बड़ी आवश्यकता अनुभव की जाती रही होगी। तब से आदि रामायण सभी आदर्शनवेता भक्तों और भक्त कवियों की प्रेरणा का अक्षय स्रोत बनी रही है। इसका चरमोत्कर्ष तुलसी- काव्य में मिलता है। तुलसी ने धर्म की जीवन-सापेक्ष व्यावहारिक व्याख्या प्रस्तुत की है और आचार दर्शन या शील सौन्दर्य और कर्म - सौन्दर्य को ही धर्म कहा है। धर्म सभी सत्कर्मों की समष्टि है, धर्म जीवन की व्यापक व्यवस्था है यह मूल्यबोध विष्णुदास की रामायण कथा में भी देखने को मिलता है। सूरदास - के रामावतार संबंधी पदों में भी पवित्रता सतीत्व और वीरता के उदात की अभिव्यक्ति हुई है।
राम काव्य परम्परा की अन्य विशेषता एवं अवदान पाप का सक्रिय प्रतिरोध और शौर्य है। समूचे भक्ति काव्य में जिसे सच्चे अर्थो में शक्ति काव्य कहा जा सकता है, वह रामकाव्य ही है। इस काव्य में पाप और पतन के विरूद्ध सक्रिय प्रतिरोध और संघर्ष निरूपित किया गया है। रामभक्ति काव्य की धारा में सामाजिक संवेदना बड़ी गहरी है। सामाजिक दष्टि से रामभक्ति काव्य की महत्ता विशेष रूप से रही है। जिस समय रामभक्ति काव्य का प्रणयन हो रहा था उस समय का समाज अनेक प्रकार की भ्रांतियों का और रूढ़िवादिता का सामना कर रहा था। मुगलों के शासन के कारण भारतीय संस्कृति खतरे में पड़ी थी ऐसे विषम समय में रामभक्ति काव्य प्रणेताओं ने भारतीय समाज को पुनर्गठित किया।
प्रकृति को मानव की चिर सहचरी माना जाता है। रामभक्ति के कवियों ने राम की उपासना करते हुए प्रकृति के अनेक रूपों को अपनी रचनाओं में प्रयाप्त स्थान प्रदान किया है। इन कृतियों में वन जंगल, पहाड़ ग्राम, जनजीवन, सरिता, आदि का समावेश किया है।
रामकाव्य धारा का हिंदी साहित्य जगत् में विशेष स्थान है। रामकाव्यधारा में उपास्य श्री राम हैं जिनका व्यक्तित्व और चरित्र अति उत्तम है। राम शील व संकोच, मर्यादा और महानता की पराकाष्ठा पर आरूढ़ है उनके चरित्र में भारतीय संस्कृति- हिन्दू धर्म के दर्शन होते हैं रामभक्ति काव्य मानवीय मूल्यों की मंजूषा है।
रामभक्ति काव्यधारा की सबसे बड़ी उपलब्धि उसकी समन्वय साधना रही है। समन्वय की अंतत चेष्टा के माध्यम से तुलसी आदि कवियों ने उस समय के मानव-मानव को एक करने के प्रशस्त कार्य को अंजाम दिया। राम को आश्रय बनाकर कवियों ने जीवन-यापन का सफल संदेश दिया है।