रासो साहित्य की प्रवत्तियाँ (Raso Sahitya Ki Pravarti)
रासो साहित्य की प्रवत्तियाँ
रासो साहित्य की सामान्य प्रवत्तियाँ निम्नलिखित हैं -
A वस्तुपरक तथा कथ्यपरक प्रवत्तियाँ
(i) वस्तु कथ्य में अतिश्योक्तिपूर्ण वर्णन की अधिकताः
समकालीन कवियों ने अपने आश्रयदाता राजा को श्रेष्ठ वीर, पराक्रमी, सम्राट, दानवीर, दढ़ प्रतिज्ञा, शरणागत रक्षक और अनुपम सौन्दर्यशाली सिद्ध कर उसका अतिश्योक्तिपूर्ण वर्णन किया है। राजाओं का चरित्रांकन करना ही उस काल के रचनाकारों का मुख्य मकसद रहा था। रचनाकार दिन-रात शूर-वीर राजाओं के साथ रहता था। युद्ध के समय भी वह राजा का साथ नहीं छोड़ता था। वह युद्ध के समय सेना का नेतत्व करता था और अपनी ओजस्वी कविताओं से सम्पूर्ण वातावरण और परिवेश को वीरोचित भावना से आपूरित करता था। इस उत्साह, संघर्ष और युद्ध के बीच भी वह राजाओं के यशोगान को बढ़ा चढ़ाकर वर्णित करना नहीं भूलता था।
"चढ़ि तुरंग चहुआन, आन फेरीति पर द्धर ।
तास युद्ध मंडयौ, जास जानयौ सबर वर " ।
2. सामंती समाज तथा उसमें निहित संस्कृति का चित्रणः
चारण साहित्य प्रमुखतः सामन्तों का साहित्य है। इस साहित्य में सामंती सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक व्यवस्था के जिन सन्दर्भों का वर्णन किया गया है, वे अतिश्योक्तिपूर्ण अवश्य है पर उसमें यथार्थता भी है जिसे नकारा नहीं जा सकता। सामंतों की उपभोक्ता संस्कृति के अनेक चित्र इसमें सरलता से खोजे जा सकते हैं। विलासिता की प्रत्येक वस्तु के प्रति उनका गहरा लगाव है। कंचन और कामिनी के प्रति जितने वे जागरूक है उतने निम्न और निम्न मध्यवर्ग के प्रति नहीं। सामाजिक कुरीतियों के अन्तर्गत बहु-विवाह, अनमेल विवाह, गन्धर्वविवाह, सतीप्रथा जैसे अनेक रीति-रिवाजों का प्रचलन था। पथ्वीराज रासो' में इन सामाजिक कुरीतियों का सविस्तार वर्णन मिलता है। उस काल में धर्म के नाम पर हिन्दू-मुसलमानों में आए दिन युद्ध होता रहता था।
"दोउ दीन दीनं कढी बंकि अस्सी ।
किधौं मेघ में बीज कोहिन्नि कस्स ॥
किये सिप्परं कोर ता सेल अग्गी।
किधौं बद्दर कोर नागिन्न नग्गी" ।।
3. युद्धों का जीवन्त वर्णन सामान्य जन-जीवन नगण्यः
चारण काल की रचनाओं में सामंती परिवेश ओर जीवन को विभिन्न स्तरों के माध्यम से चित्रित किया है। इसमें सामान्य जन-जीवन का वर्णन नगण्य रहा है। दरबारी रचनाकारों से इस प्रकार की अपेक्षा करना गलत होगा कि वे सामान्य जन-जीवन की व्याख्या करे। उस समय के रचनाकार अपने आश्रयदाताओं को युद्ध के लिए प्रेरित करने वाली कविताओं का सजन किया करते थे। यथाः
"बज्जिय घोर निसानं रान चौहान चहूँ दिसि ।
सकल सूर सामंत समर बल जंत्र मंत्र तिसी" ।।
उठ्ठि राज प्रथिराज वाग लग्ग मनहु वीर नट ।
कढ़त तेग मन बेगं लगत मनहु बीजु घट्ट" ।।
4. अर्द्धप्रामाणिक रचनाओं की अधिकता
चारण साहित्य के अन्तर्गत आने वाली अधिकांशतः रचनाएँ अर्द्धप्रामाणिकता के झूले पर झूल रही हैं। 'पथ्वीराज रासो' प्रामाणिकता के अभाव में पूर्ण प्रतिष्ठा नहीं पा सकी। 'खुमाण रासो' (आल्हाखण्ड) की जो प्रति उपलब्ध है उसका रूप बदला हुआ है। विषयवस्तु और शिल्प की दृष्टि से इन रचनाओं के संबंध में कहा जा सकता है कि इनमें कई शताब्दियों तक परिवर्तन और परिवर्द्धन होते रहे हैं जिसके कारण इनका मूल रूप खत्म-सा हो गया है।
5. प्रकृति के बहुआयामी स्वरूप की चर्चाः
चारण साहित्य में प्रकृति के भिन्न-भिन्न स्वरूपों की चर्चा की गई है। उनमें प्रमुख ये हैं- आलम्बन, उद्दीपन, परिगणन, आलंकारिक, मानवीकरण आदि । प्रकृति को जहाँ आलम्बन और परिगणन रूप में प्रस्तुत किया गया है वहाँ यथार्थता की प्रधानता है, शेष प्रकृति-प्रसंगों में काल्पनिकता की अधिकता है। इनमें ऋतुओं के जो चित्र उकेरे गए है उनमें अवान्तर रूप से कहीं पुरूष ओर कहीं स्त्री - विरह ही माध्यम बने हुए हैं। भावप्रवणता और प्राकृतिक सौन्दर्य के स्तर पर प्रकृति का उद्दीपन रूप अनुपम है। बसंत ऋतु का चित्रण करते हुए कवि चन्दवरदाई लिखते हैं
"मवरि अंब फुल्लिंग, कदंब रयनी दिघ दींस भंवर भाव भुल्ले, भ्रमंत मकरंदव सींस ।
बहत बात उज्जलति, मोर अति विरह अगति किय।
कुलकहंत कल कंठ, पत्र राषस रति अग्गिय" ।
B भावपरक प्रवत्तियाँ
1. वीर तथा भंगार रस वर्णन
तत्कालीन साहित्य में दो प्रकार की रचनाएँ लिखी हैं प्रबन्ध काव्य और मुक्तक काव्य दोनों ही प्रकार की रचनाओं में श्रंगार या वीर रस की उद्भावना अवश्य देखी जा सकती है। प्रबन्ध काव्यों में एक साथ दोनों रसो का चित्रण मिलता है। चारणों ने अपनी रचनाओं में एक ओर युद्धों के वर्णन में वीरता और पराक्रम की अद्भुत सष्टि की है तो दूसरी ओर रूप-सौन्दर्य, वस्तु - सौन्दर्य और प्रेम से परिपूर्ण सरस चित्र भी उतारे हैं। नारी दोनों रसों के केन्द्र में हैं। नारी प्राप्ति के लिए ही युद्ध होता है और उसकी प्राप्ति के बाद वातावरण विलासपूर्ण हो जाता है। 'पथ्वीरास रासो' एक ऐसा अनूठा ग्रंथ है जिसमें वीर और श्रंगार रसों की नियोजना के लिए ही अन्य रसों को भी समाहित किया गया है। भंगार रस का उदाहरण दर्शनीय है-
"चंद बदन चष कमल, भौंह जनु भ्रमर गंधरत ।
कीर नास बिबोष्ठ, दसन दामिनी दमक्कत।
भुज प्रनाल कुच कोक सिंह लंकी गति वारून ।
कनक कंति दुति देह, जंघ कदली दल आसन" ।
इन रचनाकारों की रचनाओं का प्रमुख सरोकार सामंतों के विलासपूर्ण जीवन तथा उनकी वीरता और पराक्रम को वर्णित करना था।
2. विरहानुभूति वर्णन:
इस काल के सांमतों की यह विशेषता थी कि वे एक साथ कई नारियों से प्रेम करते थे। उनके जीवन में नई नारियों का क्रम लगातार चलता रहता था। नई नारियों के आ जाने पर पुरानी नारियों के प्रति सामंतों की प्रीत कमजोर पड़ जाती थी। जिससे वे निरंतर दुःखी रहती थीं। कभी-कभी विरहानुभूति का कारण प्रवास भी हुआ करता था। बीसलदेव रासो एक विरह प्रधान काव्य है जिसमें मान और प्रवास से ही विरह का प्रारम्भ दिखाया गया है। इस काल में नारी की कोई सामाजिक स्थिति नहीं थी। वह मात्र विलासिता की वस्तु थी। उसका समाज में कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं था । 'पथ्वीराज रासो' में संयोगिता के विरह-वर्णन का दश्य अनूठा रहा है-
"बढ़ि वियोग बहुबाल, चंद विय पूरन मान ।
बढ़ि वियोग बहुबाल, वद्ध जोवन सम मानं ।
बढ़ि वियोग बहुबाल, दीन पावस रिति बढ्दै ।
बढ़ि वियोग बहुबाल, जज्जि कुल बधु दिन चढ्दै" ।
उस बाला का वियोग ऐसे बढ़ा जैसे द्वितीया का चन्द्रमा दिन प्रतिदिन बढ़ कर पूर्णिमा तक विकसित होता है या जैसे यौवन वद्धावस्था की ओर बढ़ने लगता है या जैसे पावस की रात बढ़ती है या दिन चढ़ने पर कुलवधू की लज्जा ।
C रासो साहित्य की शिल्पगत प्रवृत्तियाँ
1. रासो काव्य ग्रन्थों का सर्जन:
सामंतों के आश्रय में रहकर चारणों ने जिन काव्य ग्रन्थों की रचना की है। उन ग्रंथों के नाम के साथ रासो' शब्द जुड़ा हुआ है। इस रासो शब्द के सन्दर्भ में अनके विचार प्रचलित हो चुके हैं। अनेक विद्वानों ने इस शब्द की व्युत्पति राजसूय (गार्सा द तासी), रासा (डा० हरप्रसाद शास्त्री) रासक (प० चन्द्रबली पाण्डेय) और रसिया शब्दों आदि से मानते है। जो नवीनतम खोजों के आलोक में समीचीन नहीं है। प० मोहनलाल विष्णुलाल पांड्या के अनुसार - "रासो शब्द संस्कृत के रास अथवा रासक' से बना है और संस्कृत भाषा में 'रास' के 'शब्द, ध्वनि, क्रीडा, श्रंखला, विलास, गर्जन, नृत्य और कोलाहल आदि के अर्थ और रासक के काव्य अथवा दश्य काव्यादि के अर्थ प्रसिद्ध हैं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने 'रासो' शब्द का मूल रूप 'रासक' को माना है। 'रासक' एक छंद भी है और काव्य रूप भी।
2. काव्य रूपः
चारण साहित्य में सांमतों के चरित्रों को उद्घाटित करने के लिए जिस अतिरंजनापूर्ण शैली को अपनाया गया था, वे प्रबन्ध काव्य के अधिक निकट थी । वीर और पराक्रम के साहसपूर्ण कारनामों और साहसिक कार्यों को मुक्तक काव्य की अपेक्षा प्रबंध काव्य में सफलतापूर्वक वर्णित करने की सम्भावनाएँ अधिक होती हैं। इसलिए इन चरितप्रधान काव्यों में प्रबंधात्मक शैली को ग्रहण किया गया।
3. अलंकार विधानः
अलंकारों के प्रयोग से काव्यवस्तु की शोभा बढ़ जाती है। चारणों की कविता में अलंकारों का प्रयोग इसी आशय से किया गया है। अलंकार यहाँ अंग न होकर अंगी है। शब्दालंकार के रूप में इन काव्यों में अनुप्रास, यमक, श्लेष, और वक्रोक्ति के अच्छे प्रयोग दिखलाई पड़ जाते हैं। यमक अलंकार का उदाहरण दष्टव्य है-
"अंग सुलच्छिन हेम तन, नग धरि सुदरि सीस
गौरी ग्रहि गोरी गयो, बिना जुद्ध बुझि रीस" ।।
इन रासो ग्रंथों मे अर्थालंकार के सफल प्रयोग भी किए गए हैं। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, संदेह, दीपक, भ्रम, अतिश्योक्ति, प्रतीप दष्टान्त जैसे अनेक अलंकारों का प्रयोग काव्य-परम्परा को ध्यान में रखकर किया गया है। प्रचलित उपनामों के साथ कुछ नवीन उपनामों के प्रयोग से वस्तु, भाव और शिल्प में रोचकता और प्रभाव बढ़ा है। वे नवीन उपनाम अपनी अर्थ सुलभता और लोक-प्रसिद्धि के कारण अर्थ- गौरव में भी निःसंदेह वृद्धि कर सके हैं। यथा
"जनु छैलनि कुलटा मिलै। बहुत दिवस रस षंक ।।
सांगरूपकों के प्रयोग से चारणों ने पुरातन कथासूत्रों, प्राकृतिक सौन्दर्य और मौलिक उद्भावनाओं को साकार रूप दिया है-
"बाल नाल सरिता उतंग। आनंग अंग सुज ।।
रूप सु तट मोहन तड़ाग । भ्रम भए कटाच्छ दुज" ।।
(i) छंद विधानः
रासो साहित्य में छंदों के विविधि प्रयोग मिलते हैं जिनमें कुछ ऐसे हैं जिनके रूप का पता नहीं है। छंदों के प्रयोग से रचनाकार की प्रतिभा और दूरदर्शिता का पता चलता है। मात्रा और वत्त से संबंधित इन छंदों का प्रयोग रासो में अधिक हुआ है। यथा- आर्मा, दूहा, पद्धरी, चौपाई, रासा, रोला सोरठा, करषा, साटक, छप्पय, आदि। 'पथ्वीराज रासो' में अडसठ छंदों का प्रयोग मिलता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि इस काल में रचनाकारों को छंदों का विशिष्ट ज्ञान था। छंदों के सर्वाधिक प्रयोग के कारण ही तो 'चन्दवरदाई' को "छप्पय का राजा' कहा गया है।
(ii) शिल्प विधानः
शिल्प एक गतिशील प्रक्रिया है जो रचना की सजनात्मकता को सार्थक बनाती है। शिल्प का रचाव बहुत कुछ भाषा के रचाव पर निर्भर करता हैं। भाषा की एक विशेष संरचना होती है। रचनाकार लोक-जीवन से उन सार्थक शब्दों को चुनता है जो उनके वस्तुलोक और भाव लोक को समद्ध करते हैं। रचना की सम्प्रेषणीयता के आधार यही शब्द हैं। चारणों ने रचना को स्तर पर जिन भाषाओं को प्रयोग किया है वे डिंगल और पिंगल भाषाएँ हैं, ये भाषाएँ लोकजीवन से जुड़ी हुई भाषाएँ है। लोक से जुड़े हुए शब्दों लोकोक्तियों और मुहावरों से भाषा सजीव और जीवंत हो गई है। शैली का जुडाव रचनावस्तु से होता है। रचनावस्तु को प्रभावी बनाने के लिए वह जिस प्रणाली को अपनाता है उसे ही 'शैली' कहते हैं। चारण साहित्य का अपना एक ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक महत्त्व हैं। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में यह साहित्य उन सामंतों के शोषण-कर्म को उजागर करता है जिसका संबंध जर, जोरू और जमीन से था। उनके द्वारा जो भी युद्ध किए जाते रहे उनका संबंध केवल उन्हीं से था। सामान्य जनता से इसका दूर तक नाता नहीं था। युद्ध की जीत रूप में हस्तगत नारी केवल सामंतों की भोग्या बन कर रह गई थी। सामान्य जनता के हित- चिन्तन जैसे सरोकारों से उसका कोई संबंध नहीं था। राजनीति के नाम पर जो भी हथकण्डे अपनाए जाते थे उससे मात्र सामंतों का हित चिन्तन होता था। युद्ध इस काल में सामंतों की प्रसिद्धि और गौरव का कारण बने हुए थे। मानव समाज और सर्वहारा वर्ग के बारे में सोचने के लिए उनके पास अवकाश नहीं था। युद्ध जाति विशेष का पेशा बन गया था। इन सामंतों के दो ही कर्म प्रमुख थे- युद्ध करना और युद्ध से प्राप्त वस्तुओं का उपभोग करना। नारियों को भोग्या वस्तु बनाकर इन सामंतों ने अपने सामाजिक स्तर को और भी गिरा दिया था। बाहरी आक्रमणों ने देश, जाति और समाज की स्थिति को अवन्ति के कगार पर पहुँचा दिया। जातीय अस्मिता आये दिन खतरे में पड़ती थी, क्योंकि सामंतों ने जिस उपभोक्ता (सामंती) संस्कृति को विकसित किया था उससे समूची जनता अलग थी। निरतंर युद्ध की अनुगूँज से देश और जाति की सांस्कृतिक विकास की गति थम सी गई थी। सांस्कृतिक विरासत के रख रखाव की चाह सामंतों में न थी। युद्ध और विलासिता ही उनके जीवन का मुख्य सरोकार बन गया था। साहित्यिक संरक्षण के रूप में उन्होंने जिन चारण रचनाओं को प्रश्रय दे रखा था उनका कार्य युद्धोन्माद को उत्पन्न कर देने वाली घटना- योजना का आविष्कार था। उन्होंने सामान्य जनता को रचना में स्थान नहीं दिया। सामंत ही उनके लिए सब कुछ थे। सामंतों के चरित्रांकन में ही रचनाकारों की सारी सजनात्मक की ताकत लगी हुई थी। सामाजिक और सांस्कृतिक कर्म के विविध पहलुओं की ओर उनकी दष्टि नहीं जा सकी। केवल सामंतों का गुणगान करना ही उस काल के रचनाकारों का मुख्य प्रतिपाद था।