रैदास (रविदास)जीवन परिचय साहित्य की अन्तर्वस्तु , साहित्य का प्रदेय
रैदास (रविदास) जीवन परिचय
- रैदास निर्गुण भक्ति काव्य परम्परा के महत्वपूर्ण कवि हैं। रामानन्द के 12 शिष्यों में से आप भी थे। कबीर की अपेक्षा रैदास का स्वर भिन्न है। कबीर की तेजस्विता जैसे आत्मवनिवेदन और प्रपत्तिभाव में विलीन गई हो। वस्तुतः निर्गुण भक्ति मार्ग में शास्त्रीय विधि-विधान, कर्मकाण्ड, बाह्यचार, अंधविश्वास, ऊँच-नीच के भेद का निरोध मिलता है। धार्मिक-सामाजिक रूढ़ियों, कट्टरताओं से मुक्त जिस भक्ति का निर्गुण कवियों ने प्रतिपादन किया है, वह बाह्यचार मूलक न होकर भावमूलक है, आन्तरिक है। इस भक्ति के लिए शास्त्र ज्ञान भी अपेक्षित नहीं है। निष्कलुष मन हृदय से परमात्मा के प्रति सच्ची निष्ठा, सच्चा और निष्काम प्रेम ही इस भक्ति के आधार हैं। रैदास का साहित्य इसी प्रकृति का है।
- रैदास का जन्म काशी में 1388 ई. में हुआ था। इनके पिता का नाम संतोख दास और माता का नाम कलसा देवी था। आप जाति से चर्मकार थे, इसलिए आपकी आजीविका जूते बनाने की थी। मध्याकालीन समय में जब जातिगत श्रेष्ठता की घोषणा होती थी, तब रैदास ने अपने को बार- बार रैदास चमारा' कह कर सम्बोधित किया है। रैदास में किसी प्रकार की जातिगत कुंठा नहीं है, क्योंकि उनके लिए जाति का अर्थ संकीर्ण था ही नहीं। एक जगह रैदास लिखते हैं- "जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात' / रैदास मनुष्य ना जुड़ सके जब तक जाति न जाता । रैदास ईश्वर रचित मानव जाति में आस्था रखते थे। सामाजिक विभेदकारी जाति के प्रश्न पर एक जगह रैदास ने लिखा है- "ब्राम्हण मत पूजिए जो होवे गुणहीन / पूजिए चरण चंडाल के जो होवे प्रवीन ।" इन कथनों से स्पष्ट है कि रैदास अपनी जमीन पर पूरे स्वाभिमान के साथ खड़े हैं। कबीर की तरह आपकी कविता में जीवन समाज के बहुविध चित्र भले न मिलते हों, किन्तु आपकी कविता में एक गहरी आद्रता और निश्छलता मिलती है। आपके मत का प्रचार राजस्थान, गुजरात समेत सम्पूर्ण उत्तर भारत में मिलता है। आपके शिष्यों में कई राजा-महाराजा शामिल थे। मीराबाई को आपकी शिष्य कहा जाता है।
रैदास साहित्य की अन्तर्वस्तु
- रैदास का साहित्य व्यक्ति की आन्तरिक भावनाओं के आधार पर रचित हुआ है। रैदास की कविता में सहज भक्तिभाव, तथा आत्म निवेदन के भाव प्रमुखता से व्यक्त हुए हैं। आपकी कविता में ब्रजभाषा अवधी, राजस्थानी, खड़ी बोली के साथ-साथ उर्दू-फारसी के शब्दों का मिश्रण है। आपकी कविता ने भक्ति को सहज रूप में ग्रहण करने वालों को बहुत प्रभावित किया। आपकी सादगी और भक्ति की प्रपत्ति भावना ही आपकी विशेषता है। यहाँ रैदास साहित्य के कुछ अंश दिये जा रहे हैं, जो आपको उनके साहित्य को समझने में सहायता करेंगे ।
अब कैसे छूटे राम रट लागी ।
प्रभु जी, तुम चन्दन हम पानी, जाकी अंग-अंग वास समानी ।।
प्रभु जी, तुम घन वन हम मोरा, जैसे चितवन चंद चकोरा ।।
प्रभु जी, तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती ।।
प्रभु जी, तुम मोती, हम धागा, जैसे सोनहिं मिलत सोहागा ।।
रैदास कनक और कंगन माहि जिमि अंतर कछु नाहिं ।
तैसे ही अंतर नहीं हिंदुअन तुरकन माहि ।।
हिन्दू तुरक नहीं कछु भेदा सभी मह एक रक्त और मासा ।
दोउ एकउ दूजा नाहीं, पेख्यो सोइ रैदासा ॥
हरि सा हीरा छाड़िकै, करै आन की आस ते नर जमपुर जाहिंगे, सत भाषै रैदास ।।
अंतरगति राचैं नहीं, बाहर कथै उदास ।
ते नर जमपुर जाहिंगे, सत भाषै रैदास ।।
रैदास कहें लाके दे रहे रैन दिन राम
सो भगता भगवंत सम, क्रोध न व्यापै काम ।।
जा देखे घिन उपजै, नरक कुंड में वास
प्रेम भगति सो अधरे, प्रगटत जन रैदास
रैदास की कविताओं को देख उनके मतों की दृढ़ता का बोध होता
है। भक्त कवि होते हुए भी वे जीवन की समस्याओं और उसके अन्तर्विरोधों से अनभिज्ञ
नहीं हैं। तत्कालीन समाज के अन्तर्विरोधों के समानान्तर रैदास मानक जीवन की सहजता
का शास्त्र अपनी कविता के माध्यम से रच रहे थे। 'मन चंगा तो कठौती में गंगा' आपका जीवन दर्शन था। कबीर
की तरह आपके कथ्य आक्रामक भले न हों, किन्तु उनमें रूढ़ियों का विरोध पर्याप्त तार्किक तरीके से
किया गया है।
रैदास (रविदास) साहित्य का प्रदेय
- रैदास का साहित्य निर्गुण भक्ति परम्परा का आधार लेकर विकसित हुआ है । वे ईश्वर को सब में देखते हैं 'थावर जंगम कीट पतंगा पूरि रहत हरिराई' । किन्तु इसका वर्णन नहीं किया जा सकता 'गुन निर्गुन कहियत नहिं जाके इस प्रकार वे ईश्वर के व्यापक रूपों की तलाश करते हैं। उनकी इस तलाश का निहितार्थ मनुष्य को उसके संकीर्ण रूपों से मुक्त होने में ही समझा जाना चाहिए।
- रैदास का स्वतन्त्र रूप से कोई ग्रन्थ नहीं मिलता । उनके फुटकल - पद 'बार्ना' नाम से संतवानी सीरिज में संग्रहीत हैं उनके कुछ फुटकल - पद 'गुरू ग्रन्थ साहिब' में भी मिलते हैं। रैदास के पदों में मानव-मानव की एकता के स्वर तो मिलते है; किन्तु उनमें कबीर की तरह भाव - सबलता नहीं मिलती। भारतीय मध्य काल के जिस दौर में रैदास रचना कर रहे थे, उसमें जातिगत द्वेष, धार्मिक पाखण्ड एंव मानवीय क्रूरता का चहुँओर वर्चस्व छाया हुआ था । रैदास की रचनाएं क्रूर पाश्विक, घृणित माहौल के बीच मानव समता की बात करती हैं । एक प्रकार से हम उन्हें 'मानवतावादी कवि या 'समतावादी कवि' कह सकते हैं।