श्री अरविन्द जीवन परिचय | Shri Arvind Short Biography in Hindi

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श्री अरविन्द जीवन परिचय  (Shri Arvind Short Biography in Hindi )

श्री अरविन्द जीवन परिचय | Shri Arvind Short Biography in Hindi

श्री अरविन्द जीवन परिचय (Shri Arvind Short Biography in Hindi)

 

  • श्री अरविन्द का जन्म 15 अगस्त 1872 को कलकत्ता में हुआ। आपने देखा कि इससे कुछ वर्ष पूर्व ही विवेकानन्द 1863 और गाँधी जी 1869 में जन्म ले चुके थे । दस वर्ष से भी कम समय के अन्तराल में तीन तीन महापुरुषों का भारत भूमि पर अवतरण हमें श्रीकृष्ण के वचन की याद दिलाता है कि जब जब धरती पर धर्म की ग्लानि और अधर्म का उत्थान होता है परम प्रभु स्वयं मानव शरीर धारण कर जन्म लेते हैं। भारत में 16वीं सदी वह कालखण्ड हैजब राष्ट्र अंग्रेजों की दासता और अत्याचार से पीड़ित थातथा जनमानस घोर निराशा और जड़ता के अन्धकार में डूबा हुआ था । इस विकराल असुर के अन्त के लिए दिव्यदृष्टि और आत्मबल से ओतप्रोत एक नहीं तीन तीन महावीरों का जन्म अनिवार्य था ।

 

  • विवेकानन्द का कार्य इस राष्ट्र के निरन्तर क्षीण होते सनातन धर्म की पुनर्स्थापना तथा युवाओं के मन में व्याप्त अज्ञानभीरुता और नपुंसकता के तमस को छिन्नभिन्न करना था। गाँधी जी का जन्म अंग्रजों के अन्यायदमन और शोषण के शासन को भारत से ही नहीं वरन् पूरे विश्व से निर्मूल करना था । श्री अरविन्द का कार्य इस राष्ट्र के प्राण में विस्मृत हुए सनातन सत्य और जीवन की दिव्यता को अपने अलौकिक जीवन के उदाहरण से पुनः जाग्रत करना था । यह हमारे इन्हीं पूर्वजों की देन है कि आज हम गर्व और गौरव से भारत राष्ट्र को विश्वगुरू के रूप में उदय होते देखने का स्वप्न संजोए हुए हैं।

 

  • श्री अरविन्द के पिता डॉ. कृष्णधन घोष विलायत से डॉक्टरी की पढ़ाई करके लौटे तो अंग्रेजियत के कट्टर भक्त होकर आये। श्री अरविन्द को जन्म के समय जो नाम दिया गया उसमें बीच में विलायती नाम भी जोड़ा हुआ था अरविन्द ऐक्रॉइड घोष घर में आया रखी गयी तो वह भी अंग्रेज । स्कूल भेजा गया तो दार्जिलिंग के लोरेटो कॉन्वेन्ट में जहाँ केवल विलायती बच्चे पढ़ते थे। फिर आगे पढ़ने के लिए केवल सात वर्ष की आयु में देश निकाला देकर इंग्लैण्ड भेज दिया गया। वहाँ उन्हें अपने दो और भाइयों के साथ एक अंग्रेज पादरी दम्पति के संरक्षण में इस हिदायत के साथ रखा गया कि यह बच्चे कभी भी किसी हिन्दुस्तानी वस्तुव्यक्ति या विचार के सम्पर्क में न आने पायें  उद्देश्य था इन बच्चों को पक्के अंग्रेज की शक्ल में ढालना ।

 

  • श्री अरविन्द इतनी उत्कृष्ट प्रतिभा के धनी थे कि प्रारम्भ से ही इंग्लैण्ड प्रवास के दौरान उन्होंने पाश्चात्य भाषाओंसाहित्यचिन्तन और संस्कृति को कुछ इस समग्रता में आत्मसात कर लिया कि जब वे केम्ब्रिज में उच्च शिक्षा के लिए पहुँचे तो उनके अंग्रेज सहपाठी भी उनके सामने कहीं नहीं ठहरते थे । केम्ब्रिज में ही वे भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन से जुड़े गुप्त संगठनों के सम्पर्क में आयेऔर उन्हें आभास हुआ कि इस आन्दोलन में योगदान करना उनकी नियति है। ऐसे में वे पिताजी की उन्हें आइ.सी.एस. अफसर बनाने की अभिलाषा कैसे पूरी करते मेधावी थेतो आइ.सी.एस. की लिखित परीक्षा उत्कृष्ट अंको से पास कर गये। उन दिनों आइ. सी. एस. बनने के लिए प्रयोगिक परीक्षा की भाँति घुड़सवारी की परीक्षा भी पास करनी पड़ती थी । भाँति भाँति के बहाने करते हुएश्री अरविन्द घुड़सवारी की परीक्षा में सम्मिलित होने से बचते रहे। इस तरह अन्ततः उन्हें आइ.सी.एस. के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया।

 

  • उन्हीं दिनों बड़ौदा नरेश इंग्लैण्ड में थे। श्री अरविन्द उनसे मिले और बड़ौदा की राजकीय सेवा में उन्हें आइ.सी.एस. के समतुल्य वेतन पर रख लिया गया। चौदह वर्ष के अंग्रेजी बनवास के बाद 1893 में जब वे भारत वापस लौटेतो यहाँ की भाषासंस्कृति और साहित्य से पूरी तरह अनभिज्ञ हो लौटे थे । यहाँ तक कि अपनी मातृभाषा बाँग्ला का ककहरा भी उन्हें नहीं आता था बुद्धि मेधावी हो तो कौशल कोई भी प्राप्त किया जा सकता है। श्री अरविन्द ने संस्कृतबाँग्ला और कुछ अन्य भारतीय भाषाएं सीख कर कुछ ही वर्षों में वेदउपनिषद्महाभारतरामायणकालिदासभर्तृहरि का सोपांग अनुशीलन सम्पन्न कर लिया. 

 

  • बड़ौदा में ही उन्होंने योगाभ्यास प्रारम्भ कियाऔर मराठी महात्मा लेले के निर्देशन में जो एक दिन ध्यान साधने बैठे तो कुछ ही घण्टों में निर्वाण की अवस्था प्राप्त कर ली। इन्हीं दिनों स्वतन्त्रता संग्राम आन्दोलन से वे इतनी गहराई से जुड़े कि मन के साथ साथ उनका पूरा वेतन ही आन्दोलन को समर्पित था । परन्तु राजकीय सेवा की सीमाओं के कारण वे खुलकर आन्दोलन का हिस्सा नहीं बन पा रहे थे। 1905 मे अंग्रेजो द्वारा बंगाल विभाजन की घोषणा के बाद वे खुलकर राष्ट्रीय आन्दोलन में कूद पड़े। बड़ौदा की नौकरी छोड़ कर वे कलकत्ता आ गये । यहाँ से 'युगान्तरऔर 'वन्दे मातरम्में लगातार प्रकाशित होने वाले उनके लेखों ने राष्ट्रीय आन्दोलन के चिन्तन को एक नयी दिशा और ऊर्जा प्रदान की। बाल गंगाधर तिलक और बिपिन चन्द्र पाल जैसे राष्ट्रवादी कांग्रेस के नेताओं का साथ देते हुए 1907 में उन्होंने सूरत के राष्ट्रीय अधिवेशन में कांग्रेस का विभाजन करवा दिया। श्री अरविन्द के बढ़ते प्रभाव से भारत के वाइसराय लॉर्ड मिन्टो कुछ इस तरह चिन्तित हो उठे कि उन्होंने इंग्लैण्ड की सरकार को पत्र लिखा कि "यह सर्वविदित तथ्य है कि अरविन्द सबसे खतरनाक इन्सान हैं जिनसे हमारा सामना हुआ है"। उनसे निपटने के लिए अंग्रेजी सरकार किसी भी सीमा तक जाने के लिए दृढ़संकल्प थी। कई बार उन पर देशद्रोह का असफल आरोप लगाया गया । 'वन्दे मातरम्के जून 1907 के अंक मे प्रकाशित किसी लेख को देशद्रोहात्मक कहते हुए जब श्री अरविन्द को गिरफ्तार कर लिया गयातो पूरा बंगाल सहानुभूतिक्षोभ और क्रोध से व्यथित हो उठा। इस अवसर पर कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कविता लिखीः

 

अरविन्दरवीन्द्रर लहो नमस्कार ! हे बन्धुहे देशबन्धुस्वदेश आत्मार। 

वाणी मूर्ति तुमि तोमा लागि लहे माननहे धननहे सुखकोनो क्षुद्र दान ।।

 

  • अन्ततः 1908 - 09 में उन्हें अतिप्रसिद्ध अलीपुर बमकाण्ड में एक वर्ष के लिए जेल में डाल दिया गया । अलीपुर जेल में श्री अरविन्द को भगवान वासुदेव के दर्शन हुए। जेल से बाहर आने के बाद उत्तरपाड़ा की एक जनसभा में उन्होंने इस अलौकिक दर्शन का विस्तार से वर्णन किया। उन्होंने बताया कि जजवकीलजेल की सलाखेंतमाम कैदी और कारागार के कम्बल तक में उन्हें भगवान वासुदेव ही दिखायी दे रहे थे। अंग्रेजी सरकार किसी भी तरह उन्हें फिर से जेल में डालने का यत्न कर रही थीकि एक दिन फरवरी १६१० में उन्हें फ्रेन्च कॉलोनी चन्द्रनगर प्रस्थान करने का ईश्वरीय आदेश प्राप्त हुआ। कुछ ही क्षणों में श्री अरविन्द ने कलकत्ता के उस राष्ट्रीय आन्दोलन के संसार से सदैव के लिए विदा ले ली । उनको प्रतीति हो चुकी थी कि इस आन्दोलन में अब उनके लिए कोई कार्य शेष नहीं रहा और राष्ट्र की स्वतन्त्रता निश्चित एवं अवश्यम्भावी थी.

 

  • अगले ईश्वरीय आदेश का अनुपालन करते हुए श्री अरविन्द ने 4 अप्रैल 1910 को पॉण्डिचेरी में पदार्पण किया। यहाँ अपने कुछ शिष्यों के साथ वे गहन योग-साधना में तल्लीन थे। मार्च 1914 में श्री माँ (मिर्रा अलफासा) का अपने पति पॉल रिशा के साथ पॉण्डिचेरी आगमन हुआ । यहाँ आने से पूर्व ही श्री माँ को उच्च कोटि की अनेक सिद्धियाँ प्राप्त थीं। उन्हें एक सांकेतिक प्रश्न भी प्राप्त था जिसका उत्तर देने वाला उनका गुरू सिद्ध हो सकता था। श्री माँ को अपने प्रश्न का उत्तर श्री अरविन्द से मिला.

 

  • सार्वभौमिक सनातन दर्शन और आध्यात्मिक दृष्टि के आधुनिक प्रस्तुतीकरण के लिए पॉल रिशाश्री माँ और श्री अरविन्द ने सम्मिलित रूप से 15 अगस्त 1914 को 'आर्यनाम के अंग्रेजी मासिक पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ किया। परन्तु कुछ समय पश्चात ही विश्वयुद्ध के कारण श्री माँ और पॉल को वापस स्वदेश फ्रांस जाना पड़ा। परिणाम स्वरूप, 'आर्यके सम्पूर्ण लेखन और प्रकाशन का दायित्व अकेले श्री अरविन्द के कन्धों पर आ पड़ा। इसे विधि का विधान ही कहेंगेक्यों कि कविताओंपत्रों और पूर्व - प्रकाशित राजनैतिक लेखों को छोड़कर श्री अरविन्द के सभी ग्रन्थों का प्रकाशन 'आर्यके पृष्ठों में ही हुआ। 15 जनवरी 1621 को साढ़े छः साल बाद जब 'आर्यबन्द हुआतब तक श्री अरविन्द का लेखन कार्य सम्पन्न हो चुका था। सावित्रीद लाइफ डिवाइनद सिन्थेसिस ऑफ योगएसेज ऑन द गीता उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं । 24 नवम्बर 1926 को श्री अरविन्द को महासिद्धि प्राप्त हुयीजब उनके रोम रोम में भगवान श्रीकृष्ण का अवतरण हो गया। उसी दिन से पृथ्वी पर सृष्टि के उद्धार एवं रूपान्तरण हेतु 'अतिमानसके अवतरण के लिए उन्होंने पूर्णरूपेण एकान्तवास का व्रत धारण कर लिया । अब वे वर्ष में केवल चार दर्शन - दिवसों को अपने शिष्यों तथा भक्तों को दर्शन देने के लिए अपने कक्ष से बाहर आते थे । 5 दिसम्बर 1950 को श्री अरविन्द ने देह त्याग महाप्रयाण कियाऔर उसके बाद उनके कार्य को श्री माँ ने आगे बढ़ाया। श्री माँ द्वारा स्थापित विश्व एकता का प्रतीक ऑरोविल नगर और पॉण्डिचेरी में श्री अरविन्द आश्रम आज लाखों लोगों के तीर्थस्थल हैं।

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