आदि कालीन साहित्य: वर्गीकरण
आदि कालीन साहित्य वर्गीकरण
- सिद्ध साहित्य, जैन साहित्य, नाथ साहित्य, रासो साहित्य
1 सिद्ध साहित्य
बौद्धमत को मानने वाले
ईश्वर की भक्ति का विरोध करते रहे, लेकिन धीरे-धीरे बुद्ध को भगवान के रूप में पूजने लगे। इस
धर्म मे जब तान्त्रिक सिद्धों का प्रभाव बहुत बढ़ गया, तो यह धर्म अपने वास्तविक
रूप और दिशा से एकदम बदल गया। आठवीं शताब्दी मे तान्त्रिक सिद्धों का प्रभाव बहुत
अधिक बढ़ गया था। इन्होंने बौद्ध धर्म के त्याग और संयम के स्थान पर भोग विलास को
ही जीवन का लक्ष्य मान लिया। शराब पीना और नीच वर्ग की स्त्रियों को योगिनी कहकर
उनसे भोग करना आवश्यक समझा जाने लगा। मांस, मत्स्य, मदिरा, मैथुन और मुद्रा, इन पाँच मकारों का सेवन इनकी साधना का प्रमुख अंग था।
सिद्धों के चमत्कारों का नारी- समाज पर इतना प्रभाव पड़ा कि स्त्रियाँ लोक-लाज, कुल मर्यादा को छोड़कर
विपरीत दिशा में जाने लगी। धर्म के नाम पर समाज में वासना अबाध गति से फूट कर बाहर
निकल पड़ी। इन क्रियाओं का प्रयोग भी निर्वाण-प्राप्ति समझा जाने लगा। मन की
निर्विकार और निश्चल स्थितियों के लिए 'महासुख' और 'सहजयान' की प्रधानता दी जाने लगी।
ईश्वर से अद्वैत सम्बन्ध जोड़ने के लिए सिद्धि के लिए 'सरहप्पा' नाम के सिद्ध ने लिखा है
कि 'खाते-पीते सुख से
रमण करते हुए ही जीवन व्यतीत करो।"
इन अनाचारी और वाममार्गी सिद्धों के मार्ग में पण्डित लोग और उनके शास्त्र बाधक थे, इसलिए अपने चेलों और चेलियों को ये उनके विरूद्ध शिक्षा देते थे। ये लोग 'निर्वाण साधना' या 'महासुख' का वर्णन बड़ी अश्लील वाणी में कर गए हैं। अपनी इस 'महासुख' अवस्था को ये 'समरस' अवस्था भी कहते थे और अपनी खुली भाषा में आध्यात्मिक पुट देकर उसकी व्याख्या करते थे। इन सहजमानी सिद्धों की संख्या 84 मानी गई। इनमें कुछ संस्कृत के भी अच्छे विद्वान थे। सरहप्पा, शबरप्पा, लुइप्पा, होम्मिप्पा और कण्हप्पा आदि सिद्ध इनमें उल्लेखनीय हैं।
साहित्यिक योगदान की
दष्टि से सिद्धों का साहित्य दोहा या दूहा नामक मुक्तक रूप में मिलता है। सिद्धों
की नीति, रीति, श्रंगार एवं धर्म संबंधी
मान्यताएँ हिंदी के आदि आदिकाल को तो प्रभावित नहीं करती पर संत साहित्य को अवश्य
ही प्रभावित करती है, जिसे सिद्धों का
योगदान माना जा सकता है।
कुछ सिद्धों का साहित्यिक परिचय
1. सरहप्पा
सिद्धों में सबसे अधिक प्रसिद्ध तो 'सरहप्पा' (सरोज वज) ही माने जाते हैं जिनका समय संवत् 690 वि० स्वीकार किया जाता है। सरहप्पा' की भाषा को संध्या भाषा' माना गया है जो कुछ स्पष्ट तथा कुछ अस्पष्ट होने के करण तथा पुरानी हिंदी तथा अपभ्रंश के बीच की होने के कारण भी संध्या भाषा कही गई है। सरहप्पा ने पंडितों को फटकारते हुए तथा अन्तः साधना पर जोर देते हुए लिखा है-
"पंडिअ सअल सत्त बक्खाण्ड । देहहि बुद्ध बसंत न जाणइ ।
अमणागमण ण तेन विखंडिअ तोविणिलज्ज मणइ हउँ पंडिअ । " - सरहप्पा
अर्थात
पंडित सकल
तत्त्वों की व्याख्या करता है परन्तु वह यह नहीं जानता कि बुद्ध तत्त्व (ज्ञान) तो
शरीर में रहता है। वह पंडित जीवन मरण से मुक्ति पाने में असमर्थ है फिर भी वह
निर्लज्ज अपने को पंडित कहता है। इस दोहे का जो भावार्थ है वैसी ही फटकार कबीरदास
भी पंडितों को सुनाते है। सरहप्पा का एक और दोहा शरीर में ही वह स्थान बताता है जो
मन का विश्राम स्थल है।
" जहि मन पवन न संचरइ, रवि ससि नाहि पवेस।
तहि बट चित्त विसाम करू, सरहे कहिअ उवेस।।" सरहप्पा
अर्थात
जिस मन में पवन
संचारित नहीं होती और जहाँ रवि तथा शशि भी प्रवेश नहीं पा सकते, वहाँ बैठकर चित्त विश्राम
करता है। सरहप्पा यही उपदेश देता है।
2. लूहिया (संवत् 830 के लगभग):
सिद्ध लूइया के चर्यागीत' तथा दोहों में भी संध्या भाषा का प्रयोग हुआ है। भाव की दष्टि से बौद्ध धर्म की मान्यताओं को ही अपने स्वार्थहित घुमा-फिरा कर बताया गया है। जैसे-
"काआ तरूवर पंच बिड़ाल चंचल चीए पइठो काल ।
दिट करिअ महा सुइ परिणाम लूइ भणइ गुरू पुच्छिअ जाण ।। "- लूइया
इस दोहे का रहस्यात्मक
अर्थ है। इस प्रकार की रहस्यात्मक प्रवत्ति परवर्ती सन्त-साहित्य को प्रभावित करती
है। इन पंक्तियों को सरलार्थ है कि काया रूपी वृक्ष को पंच बिडाल नष्ट कर रहे हैं।
चंचल चित्त मत्यु की ओर ले जाने वाला है। इसका परिणाम महाशून्य है। लूइया कहता है
कि इसका रहस्य गुरू से जानिए।
3. कण्हप्पा (कृष्णापाद संवत् 900 वि० के उपरान्त)
सिद्ध साहित्य में कण्हपा की बानी को भी पर्याप्त महत्त्व प्राप्त है। कण्हपा द्वारा प्रयुक्त सन्ध्या भाषा का उदाहरण इस प्रकार है-
"एक्क णा किज्जइ मंत्र शा तंत्र णिअ घरणी लइ केलि करंत ।
णिअ घरघरणी जाव शा मज्जइ । ताव कि पंचवर्ष
विहरिज्जइ । । "
अर्थात्
एक व्यक्ति
मन्त्र-तन्त्र का जाप न करके नित्य अपनी स्त्री के साथ क्रीड़ा करता रहता है। जब
तक घरणी रूप घर की नित्य स्वच्छता नहीं की जाती तब तक पंच विहारों में ही घूमता
रहता है। इसका भाव नित्य स्त्री सेवन को संकेतित करता है। वजयानियों की सिद्ध
मंडली योग एवं मन्त्र तन्त्र साधना के लिए मद्य तथा स्त्री (डोमिनी, रजकी आदि) का सेवन आवश्यक
बताती रही, इसीलिए सिद्ध
कण्हप्पा ने डोमिनी के साथ संभोग क्रीड़ा करने के लिए कुछ गीत गाए, जिन में से एक इस प्रकार
से है।
"आलो डोंबि! तोए सम करिब म सांग ।
निधिण कण्ह कपाली जोइ लाग।।"
"हालों डोंबी ! तो पुछमि सद भावे ।
आइससि जसि डोंवी का हरि नावे।। " कण्हप्पा
सिद्ध साहित्य का योगदान
1. भाषा के विकास की दृष्टि से सिद्धों द्वारा प्रस्तुत अपभ्रंश भाषा ने हिंदी को महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। क्योंकि 'संध्याभाषा' की शब्दावली से बहुत से शब्द रूप कबीर आदि सतों की बानियों में प्रयुक्त किए गये हैं।
2. शैली की दष्टि से भी
सिद्ध साहित्य के मुक्तक काव्य से दूहा यह दोहा, पद, चर्चा गीत तथा रहस्यात्मक उक्तियों से हिंदी में दोहा पद
तथा गीति काव्य रूपों का प्रयोग, मैथिल-कोकिल विद्यापति तथा संतों ने खूब किया है।
3. भाव की दृष्टि से भी
सिद्धों की बोलियों ने रागात्मक वत्ति का विकास करके श्रंगारी भाव का सन्देश दिया
है।
4. दार्शनिक अथवा रहस्यात्मक दष्टि से सिद्ध साहित्य ने शंकर के अद्वैतवाद तथा बौद्ध धर्म के शून्यवाद को मिलाकर शरीर में सारी सष्टि को बताकर उसका उपभोग करने की प्रवत्ति जगाई।
5. सिद्धों का प्रभाव
वीर-गाथाओं पर तो नगण्य है परन्तु श्रंगारी भाव का प्रभाव स्पष्ट रूप से इन पर
देखा जा सकता है। आदिकालीन कवि विद्यापति पर यह प्रभाव स्पष्ट रहा है।
6. सिद्ध- साहित्य ने संत-साहित्य को विशेषतः कबीर, दादू तथा रविदास आदि कवियों को रहस्यवाद के क्षेत्र में तथा उलटबांसियों के क्षेत्र में बहुत प्रभावित किया है।