हिंदी साहित्य का इतिहास : आदिकाल का नामकरण |वीरगाथा काल का नामकरण और पूर्वापर सीमा निर्धारण | AadiKal Ka Naamkaran

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 हिंदी साहित्य का इतिहास : आदिकाल का नामकरण

हिंदी साहित्य का इतिहास : आदिकाल का नामकरण |वीरगाथा काल का नामकरण और पूर्वापर सीमा निर्धारण | AadiKal Ka Naamkaran


 

आदिकाल का नामकरण -प्रस्तावना (Introduction)

 

काल की अविच्छिन्न धारा के समान साहित्यिक परम्पराएँ और प्रवृत्तियाँ निरंतर गतिशील रहा करती हैं। साहित्य में एक बार जो प्रवृत्ति उद्बुद्ध हो जाती हैं, उसमें अनुकूल एवं प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण तीव्रता और मन्दता की प्रक्रिया का होना तो सहज विश्वसनीय है, किंतु उसका सर्वथा विलुप्त होना नितांत अकल्पनीय है। प्रकृति का प्रत्येक पदार्थ विकास और ह्रास की प्रक्रिया से अनिवार्यतः संबद्ध है। उदाहरणार्थ, हिंदी साहित्य में रासो तथा वीरगाथात्मक रचनाएँ, भक्ति की विविध धाराओं से संबद्ध नाना कृतियाँ, रीतिपरक रचनाएँ, नीति तथा सूक्तिमयी उक्तियाँ और आधुनिक हिंदी साहित्य की विविधमुखी प्रवृत्तियाँ आदि किसी विशिष्ट काल में उद्भूत होकर काल के करालगर्त में सर्वथा निःशेष नहीं हो गईं, बल्कि कालक्रमानुसार उनकी वृद्धि और क्षीणता की क्रिया सतत् बनी रही।

 

➽ यद्यपि ज्ञान एक अद्वितीय और अखंड वस्तु है और उसका विभाजन कृत्रिम तथा अवैज्ञानिक व्यापार है, किंतु बोध सुकरता के लिए उसे कतिपय निश्चित खंडों, उपखंडों शाखाओं एवं प्रशाखाओं में विभक्त कर लेने से अध्ययन में सरलता आ जाती है। किंतु यह स्मरण रखना होगा कि काल एवं खंड - विभाजन आदि स्वाभाविक और तर्कसंगत होना चाहिए जिससे साहित्य की समग्र प्रवृत्तियों के अवबोध के लिए यथेष्ट सहायता मिल सके। मनमाने कटघरों में, साहित्यिक ज्ञान एवं सामग्री को बरबस फिट करना साधक न होकर बाधक होगा।

 

➽ आचार्य शुक्ल ने हिंदी साहित्य की सामग्री के अध्ययन के लिए इसे वीरगाथा काल (आदिकाल) सं. 1050-1375, भक्तिकाल ( पूर्व मध्यकाल) सं. 1375-1700, रीतिकाल (उत्तर मध्यकाल) सं. 1700-1900 तथा आधुनिक काल ( गद्य काल) सं. 1900 से अब तक चार कालों में विभक्त किया है। यद्यपि शुक्ल जी का उक्त काल-विभाजन विद्वानों के जगत में प्रायः मान्य है, किंतु हमारे विचारानुसार उक्त विभाजन पुनः समीक्ष्य है।

 

वीरगाथा काल का नामकरण और पूर्वापर सीमा निर्धारण

 

➽ इसके नामकरण और पूर्वापर सीमा निर्धारण का प्रश्न हिंदी साहित्य के इतिहास के विवादास्पद प्रश्नों में एक प्रमुख प्रश्न है। हिंदी साहित्य के इतिहास के अनेक अधिकारी लेखक विद्वानों ने इस संबंध में अपने-अपने भिन्न मत दिये हैं। यहाँ हम विविध मतों के औचित्य और अनौचित्य का पर्यवेक्षण करके समस्या के समाधान को खोजने का प्रयास करेंगे।

 

➽ सर्वप्रथम मिश्रधुओं ने अपने 'मिश्रवधुविनोद' नामक ग्रंथ में विवेच्य काल को आदिकाल के नाम से पुकारा किंतु आचार्य शुक्ल ने इस युग में वीरगाथाओं की प्रमुखता को ध्यान में रखकर इसे 'वीरगाथा काल' के नाम से अभिहित किया। शुक्ल जी के नामकरण के संबंध में तीन प्रमुख बातों पर ध्यान देना आवश्यक होगा। पहली यह कि इस काल में वीरगाथात्मक ग्रंथों की प्रचुरता, दूसरी, जैनाचार्यों द्वारा विरचित प्राचीन ग्रंथों को धार्मिक साहित्य घोषित करके उसे रचनात्मक साहित्य की परिधि से निकाल देना और इसी प्रकार नाथों और सिद्धों की रचनाओं को शुद्ध साहित्य में स्थान न देना, तीसरी मुख्य बात उन रचनाओं की है जिनमें भिन्न-भिन्न विषयों पर फुटकर दोहे मिलते हैं, किंतु उनसे किसी विशेष प्रवृत्ति का निर्मित न हो सकना । आचार्य शुक्ल ने अपने हिंदी साहित्य के इतिहास में वीरगाथाकाल का नामकरण करते समय निम्न रचनाओं का उल्लेख किया है

 

1. विजय पाल रासो -नल्लसिंह कृत सं. 1350 )

2. हम्मीर रासो -(शार्डधर कृत सं. 1357) 

3. कीर्तिलता - ( विद्यापति कृत सं. 1460 ) 

4. कीर्तिपताका -( विद्यापति कृत सं. 1460 ) 

(उपर्युक्त चारों पुस्तकें अपभ्रंश भाषा में हैं।) 


देशी भाषा काव्य की आठ पुस्तकों का नाम निम्न हैं- 

5. खुमान रासो -(दलपति विजय सं. 1180-1205) 

6. बीसलदेव रासो -(नरपति नाल्ह सं. 1292)

7. पृथ्वीराज रासो -चंदबरदाई सं. 1225-1249) 

8. जयचंद्र प्रकाश -भट्ट केदार कृत सं. 1225 ) 

9. जयमयंक जसचंद्रिका-(मधुर कवि कृत सं. 1240 )

10. परमाल रासो-आल्हा का मूल जगनिक कृत सं. 1230)

11. खुसरो की पहेलियाँ आदि-अमीर खुसरो सं. 1230) 

12. विद्यापति पदावली (विद्यापति कृत सं. 1460)

 

➽  आचार्य शुक्ल ने वीरगाथाओं की प्रमुखता को ध्यान में रखकर ही 'वीरगाथा काल' नाम दिया।

 

➽  आचार्य शुक्ल का वीरगाथात्मक प्रवृत्ति की स्थापना के लिए उल्लिखित अपभ्रंश की प्रथम चार रचनाओं को परिगणित कर लेना असंगत है। कदाचित् शुक्ल की इस असंगति का कारण हिंदी और अपभ्रंश को अभिन्न रूप से ग्रहण करना है। वे अपने हिंदी साहित्य के इतिहास में लिखते हैं- " अपभ्रंश या प्राकृताभास हिंदी के पद्यों का सबसे पुराना पता तांत्रिक और बौद्धों की सांप्रदायिक रचनाओं के भीतर मिलता है। मुंज और भोज के समय सं. 1050 के लगभग तो ऐसी अपभ्रंश या पुरानी हिंदी का पूरा प्रचार शुद्ध साहित्य या काव्य रचनाओं में पाया जाता है।" इस प्रसंग में विचारणीय प्रश्न यह है कि यदि हमें अपभ्रंश को पुरानी हिंदी कहना ही है तो फिर सं. 700 में रचित अपभ्रंश काव्यों को हिंदी साहित्य क्यों न मान लिया जाए और फिर कालिदास की रचनाओं में जहाँ छुटपुट रूप में अपभ्रंश प्रयुक्त हुआ है, उसमें भी हिंदी साहित्य का अस्तित्व क्यों न स्वीकार कर लिया जाये। "देशी भाषा' और पुरानी हिंदी की आड़ में समस्त अपभ्रंश साहित्य को हिंदी में समाविष्ट करने की मनोवृत्ति कदापि स्वस्थ नहीं कही जा सकती है। अन्य आधुनिक भारतीय भाषाओं के समान हिंदी भाषा और उनके साहित्य का

 

➽  प्रादुर्भाव भी ईसा की तेरहवीं शताब्दी में हुआ। आधुनिक भारतीय भाषाओं के विकासक्रम तथा भाषाशास्त्रीय दृष्टि से ऐसा मानना संगत भी हैं। यदि हम हिंदी के प्रति अनन्य मोह का प्रदर्शन करते हुए इसे आठवीं या ग्यारहवीं शताब्दियों में उद्भूत और विकसित मानते हैं तो इस संबंध में एक जटिल प्रश्न का उपस्थित होना स्वाभाविक है। जब अन्य आधुनिक भारतीय भाषाओं का प्रादुर्भाव तेरहवीं शताब्दी में हुआ तो हिंदी का उदय आठवीं या ग्यारहवीं शताब्दी में कैसे और क्यों हुआ? संभवतः इस प्रश्न का उत्तर हमारे पास मीनमेख करने के सिवा और कुछ नहीं ।

 

➽  हिंदी के पूर्वरूपों की कल्पना के आधार पर अपभ्रंश साहित्य को बलात् हिंदी में समेट लेना हितकर नहीं है। हिंदी के इस प्रकार के पूर्वरूपों का आभास हमें प्राकृत लौकिक संस्कृत तथा वैदिक संस्कृत तक में मिल सकता है (विशेषत: हिंदी की तत्सम शब्दावली का ) । कोई भी प्रचलित भाषा अपने समय में देशी भाषा या लोकभाषा हो सकती है। हाल की प्राकृत में प्रणीत गाथा सतसई तत्कालीन देशी भाषा में लिखी गई। अब्दुर्रहमान का संदेश रासक भी देशी भाषा या लोक भाषा का काव्य है। गाथा सतसई की भाषा प्राकृत है और संदेशरासक की भाषा असंदिग्ध रूप से अपभ्रंश है। इस काल में रचित सिद्धों और जैनों के चरित काव्यों, रासो ग्रंथों, लोकप्रेम संबंधी खंड काव्य संदेशरासक तथा नीति और उपदेशपरक नाथों की वाणियों की भाषा निश्चित रूप से अपभ्रंश है। अपभ्रंश के संक्रमण काल में उपलब्ध होने वाले क्वचित् हिंदी के पूर्व रूपों के आधार पर अपभ्रंश साहित्य को हिंदी या पुरानी हिंदी के अंतर्गत रखना नितांत अवैज्ञानिक है। अंग्रेजों के शासनकाल में स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए हमारे प्रयत्न सतत गति से चलते रहे किंतु भारत की वास्तविक स्वतंत्रता 1947 में ही मानी जायेगी। निःसंदेह स्वतंत्रता प्राप्ति के निमित्त किये गये राष्ट्रीय आंदोलनों का अपना महत्त्व है किंतु वे आंदोलन स्वतंत्रता नहीं कहे जा सकते। हाँ, उन आंदोलनों ने स्वतंत्रता की पृष्ठभूमि अवश्य प्रस्तुत कर दी।

 

➽  इसी प्रकार वस्तु स्थिति यह है कि अपभ्रंश और हिंदी दो भिन्न-भिन्न भाषाएँ हैं। इसके अतिरिक्त जिन रचनाओं में आचार्य शुक्ल को पुरानी हिंदी का रूप आभासित हुआ है, वे भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से शुद्ध अपभ्रंश की रचनाएँ हैं। दूसरे, आचार्य शुक्ल ने बीसलदेव रासो और खुमान रासो आदि ग्रंथों को पहले का रचित मान लिया है, जबकि ये 15वीं शताब्दी के बाद रचित सिद्ध हो चुके हैं। हमीर रासो और विजयपाल रासो की प्रामाणिकता संदिग्ध है। मोतीलाल मेनारिया का कहना है कि खुमान रासो के रचयिता को रावल खुमान (सं. 870) का समकालीन मानना गलत है। बीसलदेव रासो के रचयिता नरपति नाल्ह को मेनारिया ने गुजरात के नरपति नामक कवि से अभिन्न माना है जिसका समय सं. 1545 है। अपभ्रंशों ने हिंदी भाषा और साहित्य की पार्श्वभूमि अवश्य तैयार कर दी किंतु वे स्वयं हिंदी नहीं हैं। शार्ङ्गधर कवि के हम्मीर रासो की रचना का आधार प्राकृत पैंगलम् में आये हुए कुछ पद्य हैं। यह ग्रंथ अभी तक आधा प्राप्य है। विजयपाल रासो को मिश्रबंधुओं ने सं. 1355 का ग्रंथ स्वीकार किया है। भाषा और शैली की दृष्टि से यह ग्रंथ भी परवर्ती सिद्ध होता है। इसी प्रकार भट्ट केदार का जयचंद प्रकाश सं. 1225 और मधुकर कवि कृत 'जयमयंक जस चंद्रिका' (सं. 1240 ) ग्रंथ नोटिस मात्र है। 'राठोडाँ की ख्यात' नामक ग्रंथ में केवल उनका नामोल्लेख है, आज तक ये ग्रंथ उपलब्ध भी नहीं हुए। शिवसिंह सरोज में इन दोनों को शहाबुद्दीन गोरी के दरबार का कवि माना गया है। वस्तुतः जब तक ये दोनों पुस्तकें प्राप्त नहीं हो जातीं तब तक इनके संबंध में निर्णयात्मक रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है।

 

➽  पृथ्वीराज रासो अर्द्ध- ऐतिहासिक रचना है। शुक्ल जी के अनुसार तो वह अप्रामाणिक ही है। जगनिक भट्ट का परमार रासो या आल्हाखंड अपने मूल रूप से बहुत दूर हो गया है। खयाल है कि यह ग्रंथ महाकवि तुलसी के समय में नहीं था अन्यथा अपने पूर्ववर्ती साहित्य की शैलियों के कुशल समन्वयकर्ता तुलसी इसकी सरस और रोचक शैली का कहीं न कहीं अवश्य अनुकरण करते। अस्तु! अधिक-से-अधिक हम इसे अर्द्ध-ऐतिहासिक या अर्द्ध- प्रामाणिक रचनाओं की कोटि में रख सकते हैं।

 

➽  खुसरो की पहेलियों में प्रारंभिक हिंदी का स्वरूप अवश्य मिल जाता है परंतु उसमें वीरगाथाओं की कोई भी प्रवृत्ति लक्षित नहीं होती।

 

➽ विद्यापति और उनके ग्रंथ कीर्तिलता, कीर्तिपताका और विद्यापति पदावली आचार्य शुक्ल ने उनका रचना काल सं. 1460 स्वीकार किया है। बड़ा ही आश्चर्य है कि 83 वर्ष पूर्व समाप्त होने वाले वीरगाथा काल में बेचारे विद्यापति को जबरदस्ती बिठा दिया गया। शुक्ल जी ने इसका कारण उनका अपभ्रंश में काव्य निर्माण करना बताया है, पर केवल इस आधार पर उन्हें पीछे धकेल देना असंगत है और यदि वह अभीष्ट था तो विद्यापति के परवर्ती अपभ्रंश भाषा में लिखने वाले कवियों को भी इस स्वनिर्मित कठघरे में बंद क्यों नहीं कर दिया गया। इसके अतिरिक्त विद्यापति के काव्य की प्रवृत्तियाँ वीरगाथा काल की अपेक्षा भक्ति और रीतिकालीन काव्य से अधिक साम्य रखती हैं। बीसलदेव रासो के श्रृंगार प्रधान प्रेमकाव्य की भाव धारा वीर रस को नहीं अपति भक्ति और शृंगार को पुष्ट करती है, विषय उनका राधा कृष्ण है और शैली मुक्तक गीति की है। उनमें आश्रयदाता का शौर्य गान इतना अधिक नहीं उभर पाया है जितना कि राधाकृष्ण का शृंगारी चित्र । इससे सिद्ध होता है कि विद्यापति चंदबरदायी के साथी नहीं, प्रत्युत सूर और तुलसी, बिहारी की कक्षा में आते हैं।

 

➽  उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि शुक्ल जी ने जिन 12 ग्रंथों को आदिकाल के लक्षण-निरूपण एवं नामकरण के लिए चुना उनमें अधिकांश ग्रंथ संदिग्ध एवं अप्रामाणिक हैं, कुछ नोटिस मात्र हैं, और कुछ ग्रंथों को हठात् सम्मिलित करके भानमती का कुनबा जोड़ने का विफल प्रयास किया है। आचार्य शुक्ल ने जिन ग्रंथों के आधार पर वीरगाथात्मक प्रवृत्ति की जो मूल भित्ति तैयार की थी वह आज के नवीन अनुसंधानों के सामने बिलकुल खिसक चली है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने अपनी पुस्तक 'हिंदी काव्यधारा' में बौद्ध; नाथ, सिद्धों और जैनियों की अनेक रचनाओं का संकलन किया है जो उपदेशमूलक और हठयोग की महिमा एवं क्रिया का विस्तार से प्रचार करने वाली रहस्यमूलक रचनाएँ हैं। महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री ने बौद्ध सिद्धों की जिनमें सहजयान और वज्रयान के अनुयायियों की रचनाएँ आती हैं, का एक वृहद् प्रकाशन कराया है। इसके अतिरिक्त हिंदी में गोरखनाथ के नाम से प्रचलित अनेक रचनाएँ प्राप्त हुई हैं। बहुत-सी रचनाएँ संस्कृत की हैं। इन पुस्तकों के अतिरिक्त हिंदी में भी गोरखनाथ की कई पुस्तकें पाई जाती हैं। स्वर्गीय डॉ. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल ने इन सबका प्रकाशन हिंदी साहित्य सम्मेलन से कराया था। यदि ये नवीन अनुसंधानों के फलस्वरूप उपलब्ध पुस्तकें आचार्य शुक्ल के सामने होतीं तो निश्चय था कि उन 12 तथाकथित वीरता प्रवृत्तिमूलक रचनाओं के आधार पर वीरगाथाकाल के नामकरण की मान्यता न बनाते क्योंकि ये बारह रचनाएँ आज भी उपलब्ध आदिकालीन साहित्यिक सामग्री के सम्मुख आटे में नमक के बराबर भी नहीं हैं।

 

➽  शुक्ल जी ने मिश्रबंधुओं द्वारा गिनाई गई दस पुस्तकों 'भगवद्गीता' तथा वृद्धनवकारादि धर्म को जैन धर्म से संबंधित कहकर उन्हें साहित्य की कोटि में नहीं रखा है। यहाँ पर भी शुक्ल कुछ भ्रांत ही रह गए हैं। ये पुस्तकें धार्मिक होते हुए भी साहित्यिक उदारता से शून्य नहीं हैं। आचार्य हजारीप्रसाद का इस संबंध में कहना है कि, " धार्मिक प्रेरणा या आध्यात्मिक उपदेश होना काव्य का बाधक नहीं समझा जाना चाहिए, अन्यथा हमें संस्कृत की रामायण, महाभारत, भागवत एवं हिंदी के रामचरितमानस, सूरसागर आदि साहित्यिक सौंदर्य संवलित अनुपम ग्रंथ रत्नों को भी साहित्य की परिधि से बाहर रखना पड़ जायेगा । "

 

➽  इन पुस्तकों के अतिरिक्त कुछ अन्य अपभ्रंश भाषा की पुस्तकें प्राप्त हुई हैं जिनमें उच्च कोटि का उत्कृष्ट साहित्य उपलब्ध होता है। इनमें कुछ धर्म से संबंद्ध हैं और कुछ लौकिक विषय प्रेमादि से ये पुस्तकें संख्या में बहुत अधिक हैं जिनमें प्रमुख हैं- 'संदेशरासक', 'भविष्यत कथा', 'पउम चरिउ', 'हरिवंश पुराण', 'जसहर चरिउ', 'पाहुड़ दोहा' आदि। ये पुस्तकें भी शुक्ल जी की दृष्टि में नहीं आई थीं अन्यथा वे एकान्तिक रूप से इस काल का नाम वीरगाथा काल न रखते। सच तो यह है कि आदिकालीन साहित्य को देखते हुए हम निश्चित और अंतिम रूप से किसी प्रवृत्ति की प्रधानता की ओर संकेत नहीं कर सकते। शायद ही भारत के इतिहास में इतने विरोधी व्याघातों का युग कभी आया होगा। इस काल में एक तरफ तो संस्कृत के बड़े-बड़े कवि उत्पन्न हुए जिनकी रचनाएँ अलंकृत काव्य परंपरा की चरम सीमा पर पहुँच गई थीं। दूसरी ओर, अपभ्रंश के कवि हुए जो अत्यंत सहज-सरल भाषा में अत्यंत संक्षिप्त शब्दों में अपने मार्मिक मनोभाव प्रकट करते थे। श्रीहर्ष के नैषधचरित के अलंकृत श्लोकों के साथ हेमचंद्र के व्याकरण में आये हुए अपभ्रंशों के दोहों की तुलना करने में यह बात अत्यंत स्पष्ट हो जायेगी कि धर्म और दर्शन के क्षेत्र में भी महान् प्रतिभाशाली आचार्यों का उद्भव इसी काल में हुआ और दूसरी तरफ निरक्षर संतों के ज्ञान प्रचार का बीज भी इस काल में बोया गया । यह काल भारतीय विचारों का मंथन काल है और इसलिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।

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