आदिकाल की वीरगाथाओं की विशेषताएँ
आदिकाल की वीरगाथाओं की विशेषताएँ
हिन्दी साहित्य के आदिकाल में वीरगाथाओं का युग राजनीतिक दृष्टि से पतनोन्मुख, सामाजिक रूप से दीन-हीन तथा धार्मिक दृष्टि से क्षीण काल है। इस काल में जहाँ एक ओर जैन, नाथ और सिद्ध साहित्य का निर्माण हुआ वहीं दूसरी ओर राजस्थान में चारण कवियों द्वारा चरित काव्य भी रचे गये। इनका प्रधान विषय वीरगाथाओं से सम्बद्ध है, अतः इन्हें वीरगाथा काव्य भी कहते हैं। यहाँ हम इन वीरगाथाओं की सामान्य प्रवृत्तियों एवं विशेषताओं की विवेचन करेंगे
1. संदिग्ध रचनाएँ-
इस काल में उपलब्ध होने वाली प्रायः सभी वीरगाथाओं की प्रामाणिकता संदेह की दृष्टि से देखी जाती है। इस काल में रचित चार काव्य प्राप्त हुए हैं- खुमान रासो, बीसलदेव रासो, पृथ्वीराज रासो तथा परमाल रासो । भाषा, शैली और विषय सामग्री की दृष्टि से इन ग्रन्थों के संबंध में कहा जा सकता है कि इनमें निरन्तर कई शताब्दियों तक परिवर्तन और परिवर्द्धन होते रहे हैं। यह परिवर्तन और परिवर्द्धन का कार्य इतनी प्रचुर मात्रा में हुआ है कि इसका मूल रूप भी दब गया है। यह संबंधित आश्रयदाताओं के काल में भी लिखी गई, इस बात को निश्चयात्मक रूप से नहीं कहा जा सकता है। खुमान रासो में 16वीं सदी तक की सामग्री का समावेश कर लिया गया है। परमाल रासो का स्वरूप आल्हा खंड से कितना ही बदला हुआ है। पृथ्वीराज रासो की भी यही स्थिति है। हां, बीसलदेव रासो के लघु काव्य होने के कारण उसमें अपेक्षाकृत अधिक परिवर्तन नहीं हुए। समष्टि रूप से इन ग्रन्थों के मूल रूप की पहचान एक अत्यंत दुष्कर कार्य हो गया है।
2. ऐतिहासिकता का अभाव-
इन रचनाओं में इतिहास प्रसिद्ध चरित्र नायकों को लिया गया है किन्तु उनका वर्णन शुद्ध इतिहास की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। इन कवियों के द्वारा दिये गये संवत् और तिथियां इतिहास से मेल नहीं खातीं बल्कि उस समय में लिखे गए संस्कृत काव्यों में दिए गये संवतों और घटनाओं से भी इनका मेल नहीं बन पाता। इन काव्यों में इतिहास की अपेक्षा कल्पना का बाहुल्य है। इतिहास के विषय को लेकर चलने वाले कवि से जो सावधानता अपेक्षित होती है, वह इन काव्य निर्माताओं में नहीं। अतिरंजनापूर्ण शैली इस दिशा में एक ओर महाव्याघात सिद्ध हुई है। इन चारण कवियों को अपने आश्रयदाताओं को राम, कृष्ण, नल, युधिष्ठिर आदि से उत्कृष्ट बताना एवं सर्वविजेता घोषिता करना अभिप्रेत था, अतः इतिहास को अतिशयोक्ति तथा कल्पना पर न्यौछावर कर दिया। यहाँ तक कि पृथ्वीराज रासो में पृथ्वीराज को उन राजाओं का भी विजेता कहा गया है जो उससे कई शताब्दियों पूर्व अथवा पश्चात् विद्यमान थे। अस्तु! इस दिशा में संस्कृत साहित्य का जागरूक कवि भी सफल नहीं उतर सका है फिर हासोन्मुख काल के चारण कवि से इसकी क्या आशा की जा सकती है। आदर्शवाद का दृष्टिकोण इस दिशा में पग-पग पर आकर अड़ गया है।
3. युद्धों का सजीव वर्णन
युद्धों का वर्णन इन ग्रन्थों का प्रमुख विषय है और यह वर्णन इतना सजीव बन पड़ा है कि कदाचित संस्कृत साहित्य भी इस दिशा में इन काव्यों की होड़ नहीं कर सकता। इन काव्यों में युद्धों का वर्णन अत्यंत मूर्तिमान बिम्बग्राही रूप से हुआ है। कारण चारण कवि केवल मसिजीवी नहीं था करवाल -ग्राही भी था। आवश्यकता पड़ने पर वह स्वयं भी समरस्थल में जूझा करता था और युद्ध के विकट दृश्यों को अपनी खुली आंखों से देखा करता था। वह समय भीतरी कलहों और बाहरी आक्रमणों का समय था अतः अपने आश्रयदाताओं को युद्धों के लिए उत्तेजित करना उस काल के कवि का प्रमुख कर्तव्य सा बन गया था। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी इस संबंध में लिखते हैं-" लड़ने वालों की संख्या कम थी क्योंकि लड़ाई भी जाति विशेष का पेशा मान ली गई थी। देश रक्षा के लिए या धर्म रक्षा के लिए समूची जनता के सन्नद्ध हो जाने का विचार ही नहीं उठता था। लोग क्रमशः जातियों और उपजातियों, सम्प्रदायों और उपसम्प्रदायों में विभक्त होते जा रहे थे। लड़ने वाली जाति के लिए सचमुच चैन से रहना असंभव हो गया था क्योंकि उत्तर पूरब, दक्षिण, पश्चिम सब ओर से आक्रमण की सम्भावना थी। निरन्तर युद्ध के लिए प्रोत्साहित करने को भी एक वर्ग आवश्यक हो गया था। चारण इसी श्रेणी के लोग थे। उनका कार्य ही था हर प्रसंग में आश्रयदाता के युद्धोन्माद को उत्पन्न कर देने वाली घटना योजना का आविष्कार। "
इन चारण कवियों ने युद्धों के कारण के लिए किसी-न-किसी स्त्री की कल्पना कर ली थी। उसकी प्राप्ति के लिए युद्ध हो जाया करते थे। उस समय की प्रचलित काव्य परिपाटी थी। रुक्मिणी और उषा आदि के हरण के पौराणिक वृत्तांत उस समय भी लोगों को भूले नहीं थे। उस समय के संस्कृत कवि विल्हण कृत विक्रमांकदेव चरित में भी विवाहों और युद्धों का खुलकर वर्णन है। कहीं-कहीं पर ऐसे वर्णनों में वर्णनात्मक वस्तु परिगणन शैली को अपनाया गया है। ऐसे वर्णनों में भावोन्मेष की कमी है। निःसंदेह यहाँ युद्धों का मूल कारण नारी है किन्तु उसे केवल रमणी रूप में ही प्रस्तुत नहीं किया गया, उसका वीर महिला रूप भी दर्शाया गया है।
4. संकुचित राष्ट्रीयता -
चारण कवियों ने अपने आश्रयदाता की प्रशंसा का मुक्त कंठ से गान किया है। जीविका प्राप्ति के लिए उसे अनधिकारी राजाओं एवं सामन्तों की भी प्रशंसा की है। देशद्रोही जयचन्द के गुणानुवादक भी उस समय विद्यमान थे। भट्ट केदार ने 'जयचन्द प्रकाश' लिखा और मधुकर ने 'जयमयंक जस चन्द्रिका' नामक ग्रन्थ लिखा। उस समय राष्ट्र शब्द से समूचे भारत का अर्थ नहीं लिया गया बल्कि अपने-अपने प्रदेश एवं राज्य का ही अर्थ ग्रहण किया गया। अजमेर और दिल्ली के राज-कवि को कन्नौज अथवा कालिंजर के समृद्ध अथवा उजाड़ हो जाने पर कोई हर्ष एवं विषाद नहीं होता था। उस समय के राजाओं ने अपने सौ-पचास गांवों को राष्ट्र समझ रखा था तो फिर उनके आश्रित कवियों को उन्हीं के पदचिह्नों पर ही चलना था । वस्तुतः यह देश का एक महादुर्भाग्य था । यदि उस समय राष्ट्रीयता का व्यापक रूप होता तो निश्चय था कि हमारे देश का मानचित्र आज कुछ और होता।
5. वीर और श्रृंगार रस
इन वीरगाथाओं में वीर तथा शृंगार रस का अद्भुत सम्मिश्रण हैं। वीर रस का तो इतना सुंदर परिपाक हुआ है कि कदाचित परवर्ती हिन्दी साहित्य में वीर रस का इतना पुष्ट रूप मिलना दुर्लभ है। उस समय युद्ध का बाजार चारों ओर गरम था। आबाल-वृद्ध में युद्ध के लिए अदम्य उत्साह था। उस समय की वीरता का आदर्श इन पंक्तियों में स्पष्ट हो जाता है-
बारह बरस लै कूकर जिये, और तेरह लौं जिये सियार ।
बरस अठारह छत्री जीवे आगे जीवन को धिक्कार ॥
युद्धों का मूल कारण नारी को कल्पित कर लिया गया। अतः श्रृंगार रस का भी इस साहित्य में जमकर वर्णन मिलता है। रासो ग्रन्थों में चर्चित नर-नारी प्रेम विलास या वासना से ऊपर नहीं उठ सका है। वीर रस की दीप्ति के लिए लिखे गये वीरता के पद भी वासनात्मक प्रवृत्ति को उत्तेजित करने के हेतु आए हैं। युद्धों का एकमात्र कारण नारी - लिप्सा है। उक्त ग्रन्थों में निरूपित युद्धों के मूल में उदात्त प्रेम भावना या राष्ट्रीयता का सहज उल्लास नहीं है । अस्तु! वीर और श्रृंगार जैसे दो विरोधी रसों का समावेश इस साहित्य में इतने सुंदर ढंग से किया गया है कहीं भी विरोध आभासित नहीं होता। वस्तुतः यह बात उस समय के कलाकार की जागरूकता की परिचायक है। वीरगाथाओं में शांत तथा हास्य रस को छोड़कर अन्य सभी रसों का समावेश है। श्रृंगार रस के वर्णन के अंतर्गत इन्होंने षट्-ऋतु वर्णन, नखशिख वर्णन आदि काव्य रूढ़ियों का भी सम्यक् निरूपण किया है।
6. प्रकृति चित्रण -
इस साहित्य में प्रकृति का आलंबन और उद्दीपन दोनों रूपों में चित्रण मिलता है। नगर नदी, पर्वत आदि का वर्णन भी शोभन बन पड़ा है। प्रकृति के स्वतंत्र रूप में चित्रण के स्थल इन काव्यों में थोड़े ही मिलते हैं। अधिकतर उसका उपयोग उद्दीपन रूप में किया गया है। प्रकृति चित्रण की जो उदार शैली छायावादी युग मे मिलती है वह इस काल में नहीं। कहीं-कहीं तो इन्होंने प्रकृति-चित्रण में नाम परिगणन शैली को अपनाया है जहाँ रसोद्रेक के स्थान पर नीरसता आ गई है।
7. रासो ग्रन्थ -
इस साहित्य के सभी ग्रन्थों के नाम के साथ रासो शब्द जुड़ा हुआ है जोकि काव्य शब्द का पर्यायवाची हैं। कुछ लोग रासो का संबंध रहस्य अथवा रसायन जोड़ते हैं किन्तु यह भ्रामक है। मूल रूप में रासक एक छन्द है जिसका प्रयोग अपभ्रंश साहित्य में सन्देश रासक आदि ग्रन्थों में मिलता है। फिर इसका प्रयोग गेय रूपक के अर्थ में होने लगा। पीछे इस शब्द का प्रयोग चरित काव्य एवं कथा काव्य के लिए होने लगा। रासो नाम के चरित काव्यों में से कुछ का उपयोग गाने के लिए अधिकतर होने लगा, इससे जनवाणी ने इनको धीरे-धीरे अपने-अपने समय के अनुरूप करते-करते इनका पुराना रूप ही बदल दिया। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण आल्हा खंड है।
8. काव्य के दो रूप -
वीरगाथाएं मुक्तक और प्रबंध दोनों रूपों में मिलती हैं। प्रथम रूप का प्राचीन उपलब्ध ग्रंथ बीसलदेव रासो है और दूसरे का प्राचीन पृथ्वीराज रासो इन दो रूपों के अतिरिक्त उस साहित्य में और कोई दूसरा काव्य रूप नहीं है। उसमें काव्य रूपों की विविधता का अभाव है। न तो उस समय दृश्य काव्य था और न ही गद्य का प्रचलन था। उस समय की कुछ रचनाएँ अप्रामाणिक और कुछ अर्द्ध-प्रामाणिक और नोटिस मात्र हैं। भट्ट केदार का 'जयचन्द प्रकाश' तथा मधुकर प्रणीत 'जयमयंक जस चन्द्रिका' दोनों इसी कोटि के ग्रन्थ हैं। इसका उल्लेख मात्र ही 'राठौड़ा री ख्यात' में मिलता है।
9. फुटकर रूप में गद्य
इस काल में काव्य के उक्त दो रूपों के अतिरिक्त फुटकर रूप में गद्य लिखे जाने के भी संकेत हैं। राउलवेल (चम्पू), उक्ति-व्यक्ति प्रकरण तथा वर्ण- रत्नाकर नामक रचनाएँ इस दिशा में उल्लेखनीय हैं। राउलवेल में राजकुमारी के नखशिख का वर्णन है। उक्ति व्यक्ति प्रकरण व्याकरण संबंधी ग्रंथ हैं और वर्णरत्नाकर तत्कालीन भारत का कोणात्मक ग्रंथ है। इन ग्रन्थों से गद्य धारा की अखंडता सूचित होती है ।
10. जनजीवन से सम्पर्क नहीं
इन ग्रन्थों में सामन्ती जीवन उभरकर आया है। इनका जीवन के साथ कोई संबंध नहीं है। राजदरबारी कवि से जनजीवन की विस्तृत व्याख्या की आशा भी नहीं की जा सकती है। वीरगाथाओं तथा रीतिग्रन्थों के कवियों ने स्वामिनः सुखाय काव्यों की सृष्टि की है, अतः उनमें साधारण जनजीवन के घात-प्रतिघातों का अभाव है।
11. छन्दों का विविधमुखी प्रयोग-
इस साहित्य में छन्द क्षेत्र में तो मानो एक क्रांति ही हो गई। छन्दों का जितना विविधमुखी प्रयोग इस साहित्य में हुआ है उतना इसके पूर्ववर्ती साहित्य में नहीं हुआ। दोहा, तोटक, तोमर, गाथा, गाहा, पद्धरि, आर्या, सट्टक, रोला, उल्लाला और कुण्डलिया आदि छन्दों का प्रयोग बड़ी कलात्मकता के साथ किया गया है। यहाँ छन्द परिवर्तन केशव की रामचन्द्रिका के समान चमत्कार प्रदर्शन के लिए नहीं हुआ प्रत्युत अतिशय भाव द्योतन के लिए हुआ है। इस परिवर्तन में कहीं भी अस्वाभाविकता नहीं है। आचार्य हजारी प्रसाद के शब्दों में- “ रासो के छन्द जब बदलते हैं तो श्रोता के चित्त में प्रसंगानुकूल नवीन कम्पन उत्पन्न करते हैं। "
12. डिंगल और पिंगल भाषा-
इन काव्यों की एक अन्य उल्लेखनीय विशेषता है डिंगल भाषा का प्रयोग । उस समय की साहित्यिक राजस्थानी भाषा को आज के विद्वान डिंगल नाम से अभिहित करते हैं। यह भाषा वीरत्व के स्वर के लिए बहुत उपयुक्त भाषा है। चारण अपनी कविता को बहुत ऊंचे स्वर में पढ़ते थे और डिंगल भाषा उसके उपयुक्त थी। उस समय की अपभ्रंश मिश्रित साहित्यिक ब्रजभाषा पिंगल के नाम से अभिहित की जाती है। इन काव्यों में संस्कृत के तत्सम तथा तद्भव शब्दों के अतिरिक्त अरबी और फारसी के भी शब्द पाये जाते हैं। तद्भव शब्दों का प्रयोग बहुलता से मिलता है क्योंकि यह प्रवृत्ति डिंगल भाषा के अनुकूल पड़ती है। संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश के समान डिंगल भाषा के अधिकांश रूप संश्लिष्ट हैं।
इन वीर काव्यों की परंपरा अगली कई शताब्दियों तक चलती रही। भक्तिकाल में पृथ्वीराज, दुरसा जी, बांकीदास और सूर्यमल ने डिंगल भाषा में वीर काव्य प्रस्तुत किये। केशव और तुलसी के काव्यों में भी वीर रस का सुन्दर परिपाक हुआ है। इस दिशा में रीतिकाल में भूषण सूदन और लाल के अतिरिक्त पद्माकर, गुरु गोविन्द सिंह, सबलसिंह, गोकुलनाथ, श्रीधर, जोधराज और चन्द्रशेखर के नाम उल्लेखनीय हैं। आधुनिक युग में मैथिलीशरण गुप्त और रामधारी सिंह दिनकर राष्ट्रीय कवि कहलाते हैं। वियोगी हरि और श्यामनारायण पांडे में वीर रस का सुन्दर परिपाक हुआ है। प्रगतिवादी साहित्य में भी वीर रस का सराहनीय प्रयोग हुआ है।
आदिकाल की वीरगाथाओं का महत्त्व -
इस साहित्य का ऐतिहासिक तथा साहित्यिक दोनों दृष्टियों से महत्त्व है। भाषा विज्ञान की दृष्टि से यह साहित्य अत्यंत उपादेय है। इसमें वीर तथा श्रृंगार रस का सुन्दर परिपाक बन पड़ा है। निःसंदेह इन ग्रन्थों में अतिरंजनापूर्ण शैली के प्रयोग से इतिहास दब-सा गया है परन्तु फिर भी राजस्थान का इतिहास इन ग्रन्थों में अवश्य निहित है, जिसका उपयोग थोड़ी सतर्कता के साथ किया जा सकता है। डॉ. श्यामसुन्दर दास के इस वीरगाथा साहित्य के संबंध में कहे गये शब्द विशेष महत्त्वपूर्ण बन पड़े हैं-" इस काल के कवियों का युद्ध वर्णन इतना मार्मिक तथा सजीव हुआ है कि इनके सामने पीछे के कवियों की अनुगर्भित किन्तु निर्जीव रचनाएँ नकल-सी जान पड़ती हैं। कर्कश पदावली के बीच वीर भावों से भरी हिन्दी के आदि युग की यह कविता सारे हिन्दी साहित्य में अपनी समता नहीं रखती।"
इस संबंध में रवीन्द्रनाथ ठाकुर लिखते हैं-
'भक्ति साहित्य हमें प्रत्येक प्रांत में मिलता है। सभी स्थानों के कवियों ने अपने ढंग से राधा और कृष्ण के गीतों का गान किया है, परन्तु अपने रक्त से राजस्थान ने जिस साहित्य का निर्माण किया है वह अद्वितीय है और उसका कारण भी है। राजपूताने के कवियों ने जीवन की कठोर वास्तविकताओं का स्वयं सामना करते हुए युद्धों के नक्कारों की ध्वनि के साथ स्वाभाविक काव्यगान किया। उन्होंने अपने सामने साक्षात् शिव के तांडव की तरह प्रकृति का नृत्य देखा था। क्या कोई कल्पना द्वारा उस कोटि के काव्य की कल्पना कर सकता है? राजस्थानी भाषा के प्रत्येक दोहे में जो वीरत्व की भावना है और उमंग है, यह राजस्थान की मौलिक निधि है और समस्त भारतवर्ष के गौरव का विषय है। यह स्वाभाविक, सच्ची और प्राकृत है। "