आदिकाल की प्रमुख भाषाएँ एवं साहित्य -संस्कृत भाषा और साहित्य
आदिकाल की प्रमुख भाषाएँ एवं साहित्य -प्रस्तावना ( Introduction)
➽ महाभारत अपने आप
में भारतीय साहित्य का एक समग्र रूप है। इसमें कौरव-पांडवों के युद्ध की ऐतिहासिक
घटना, उस युग की तथा
परवर्ती समय की नैतिक, ऐतिहासिक, पौराणिक, धार्मिक चेतना
तत्त्वत्वादों और कल्पनाप्रवण आख्यानों से ऐसे आच्छादित हो गई है कि वह नगण्य -सी
प्रतीत होती है। भारतीय दृष्टिकोण से महाभारत पाँचवाँ वेद, इतिहास, पुराण, स्मृति, शास्त्र और काव्य
सभी कुछ है। जो कुछ भारत और भारतीय साहित्य में है वह सब कुछ महाभारत में भी है।
जो महाभारत में नहीं है वह अन्यत्र भी नहीं है। इससे उक्त महा प्रबन्धात्मक काव्य
की विषय व्यापकता, आकार विशालता तथा
लक्ष्य की महत्ता का सहज में अनुमान लगाया जा सकता है। सवा लाख श्लोकों के इस
महाग्रन्थ में मनोविनोद, ज्ञानार्जन, जीवन-निर्माण तथा
कवि - बुद्धि के सृजन की एक अद्भुत क्षमता है।
➽ पालि, प्राकृत और अपभ्रंश मध्यकालीन आर्य भाषाएँ थीं, जिनका समय मोटे तौर पर 600 से 1200 ई.पू. तक स्वीकार किया जाता है। प्राकृत भाषा का समय सामान्यतः 600 ई.पू. से 600 ई. तक है किंतु संस्कृत नाटकों में छिटपुटे रूप से प्राकृतों का प्रयोग 1800 सदी तक होता रहा है।
संस्कृत भाषा और साहित्य
➽ संस्कृत भाषा और
उसका वाङ्मय केवल भारतीय साहित्य में ही गरिमाशाली नहीं है, अपितु विश्व -
साहित्य में अद्वितीय है। इसके पीछे विशाल भारत देश की मनीषा और प्रतिभा का कई
सहस्र वर्षों का सतत् चिन्तन और उसकी रस-साधना विद्यमान है। मात्रा में यह साहित्य
जितना विपुल है, गुण में उतना ही
प्रकृष्ट है। परवर्ती भारतीय - साहित्य निरन्तर कई शताब्दियों तक संस्कृत साहित्य
से प्रेरित एवं प्रभावित होता रहा है।
➽ संस्कृत साहित्य को मुख्यतः दो भागों में विभक्त किया जा सकता है- (क) वैदिक साहित्य, (ख) लौकिक संस्कृत साहित्य |
➽ वैदिक साहित्य के अंतर्गत चारों वेद, वेदांग, ब्राह्मण-ग्रन्थ तथा उपनिषद आदि हैं और लौकिक संस्कृत साहित्य अपने व्यापक अर्थ में धार्मिक तथा ऐहिकतापरक काव्यों, प्रबन्ध काव्यों, गीति काव्यों, नाटकों, मुक्तक काव्यों, कथा साहित्य, अलंकृत गद्य काव्यों, इतिहास एवं पुराणों, समीक्षाशास्त्र, नाना वैज्ञानिक विषयों, पत्थरों और ताम्रपत्रों के साहित्य को समाविष्ट कर लेता है।
➽लौकिक संस्कृत साहित्य का प्रतिपाद्य भाषा-शैली तथा परिवेश की दृष्टि से वैदिक साहित्य से किंचित भिन्न है। यास्क ( 8वीं सदी ई. पू.) के निरुक्त से यह स्पष्ट है। कि उसके समय तक वैदिक भाषा को समझना कुछ कठिन हो गया था और साथ-साथ एक लोकभाषा (ब्रह्मर्षि और अंतर्वेदिक) विकसित होकर साहित्य क्षेत्र में परिनिष्ठित होने लगी थी।
➽ पाणिनि (ई. पू. छठी सदी से पूर्व भी कई वैयाकरण उक्त
लोकभाषा को परिष्कृत एवं नियमबद्ध करने का प्रयास कर चुके थे। पाणिनि ने अपने
पूर्ववर्ती वैयाकरणों की पद्धति का अनुसरण करते हुए परिनिष्ठित संस्कृत का जो रूप
अपने व्याकरण द्वारा निश्चित किया वह आज तक मान्य है। पाणिनि का यह प्रयास भाषा
वैज्ञानिक दृष्टि से विश्व - साहित्य में अद्वितीय है। आज तक संस्कृत भाषा का अर्थ
पाणिनी व्याकरणसम्मत लौकिक या श्रेण्य संस्कृत लिया जाता है। रामायण और महाभारत
केवल विषय-वस्तु ही नहीं बल्कि भाषा की दृष्टि से भी वैदिक भाषा और लौकिक संस्कृत
भाषा के बीच की एक सुन्दर कड़ी हैं। पाणिनि से लेकर पंडितराज जगन्नाथ तक लौकिक
संस्कृत के साहित्य का निरन्तर सृजन होता रहा और आज भी इस भाषा का पाठन तथा इसके
साहित्य सृजन की परम्परा अपने किसी-न-किसी रूप में अक्षुण्ण है।
➽ वाल्मीकिकृत रामायण और वेदव्यास रचित महाभारत दोनों महाप्रबन्ध काव्य शताब्दियों से भारतीय साहित्य के उपजीव्य ग्रंथ बने रहे हैं। ये दोनों ही भारतीय संस्कृति और इतिहास के मूल्यवान स्रोत हैं। रामायण सात कांडों में विभक्त है। यूरोपीय विद्वानों ने बालकांड और उत्तर कांड को प्रक्षिप्त माना है। भारतीय साहित्य में वाल्मीकि को आदिकवि और रामायण को आदिकाल स्वीकार किया गया है। भाव पक्ष और कला-पक्ष की दृष्टि से रामायण एक अतीव कलात्मक एवं अनुकरणीय रचना है। इसमें अंगी रस करुण के साथ वीर, श्रृंगार, अद्भुत और रौद्र आदि रसों का सुंदर समन्वय है। वस्तु वर्णन तथा प्राकृतिक दृश्यों के बिम्बग्राही वर्णन वाल्मीकि को निश्चयतः एक उत्कृष्ट कवि सिद्ध करते हैं।
➽ दंडी आदि
काव्यशास्त्रियों ने कदाचित रामायण के आधार पर ही महाकाव्य के लक्षणों का निर्धारण
किया था। मानव स्वभाव के विशद चित्रण और आदर्श चरित्रों की सृष्टि में वाल्मीकि
अद्वितीय हैं। कदाचित इन्हीं महनीय गुणों के कारण रामायण भारतीय जीवन तथा साहित्य
को शताब्दियों से प्रेरित और प्रभावित करती रही है और भविष्य में भी यह अधिकाधिक
प्रचारित होती रहेगी।
➽ महाभारत अपने आप
में भारतीय साहित्य का एक समग्र रूप है। इसमें कौरव-पांडवों के युद्ध की ऐतिहासिक
घटना उस युग की तथा परवर्ती समय की नैतिक, ऐतिहासिक, पौराणिक, धार्मिक चेतना तत्त्ववादों और कल्पनाप्रवण आख्यानों से ऐसे
आच्छादित हो गई है कि वह नगण्य सी प्रतीत होती है। भारतीय दृष्टिकोण से महाभारत
पाँचवाँ वेद, इतिहास, पुराण, स्मृति, शास्त्र और काव्य
सभी कुछ है। जो कुछ भारत और भारतीय साहित्य में है वह सब कुछ महाभारत में भी है।
जो महाभारत में नहीं है वह अन्यत्र भी नहीं है। इससे उक्त महाप्रबन्धात्मक काव्य
की विषय व्यापकता, आकार विशालता तथा
लक्ष्य की महत्ता का सहज में अनुमान लगाया जा सकता है। सवा लाख श्लोकों के इस
महाग्रन्थ में मनोविनोद, ज्ञानार्जन, जीवन-निर्माण तथा
कवि बुद्धि के सृजन की एक अद्भुत क्षमता है।
➽ रामायण और
महाभारत के काल का प्रश्न अतीव विवादास्पद है। कतिपय विद्वान रामायण को पूर्ववर्ती
मानते हैं जबकि दूसरे महाभारत को । अस्तु, इतना तो निर्विवाद है कि ये दोनों ग्रन्थ ई.पू. छठी सदी के
आसपास विद्यमान थे और इनका अंतिम रूप गुप्त नरेशों के समय में निष्पन्न हुआ। इन
ग्रंथों में प्रक्षेपों की प्रक्रिया बहुत समय तक चलती रही और यह रामायण की
अपेक्षा महाभारत में बहुत ही अधिक हुई।
➽ पुराण भारतीय
साहित्य का एक अतीव महत्त्वपूर्ण अंग है। भारतीय साहित्य इनके प्रभूत मात्रा में
प्रभावित हुआ है। पुराणों का रचनाकाल ईसा की दूसरी सदी से लेकर नवीं दसवीं सदी तक
है किंतु पुराण साहित्य की सत्ता का प्रमाण कौटिल्य के अर्थशास्त्र, रामायण-महाभारत
तथा उससे भी पूर्व के समय में मिलता है। इनमें केवल धर्म, दर्शन और
अवतारवाद का ही प्रतिपादन नहीं है बल्कि भारतीय संस्कृत और इतिहास का भी सुन्दर
लेखा-जोखा मिलता है। निःसंदेह इनमें कल्पना का अतिशय है किन्तु भारतीय धर्म, दर्शन, संस्कृति और
इतिहास के अध्येता के लिए ये बहुत मूल्यवान हैं। भागवत पुराण ने भारत के भक्ति
साहित्य को अपरिमित प्रभावित किया है। पुराणों की संख्या 18 है- विष्णु, वायु, शिव, अग्नि, लिंग, स्कन्द, वामन, वराह, भविष्य, नारद, मार्कंडेय, कूर्म, मत्स्य, गरुड़, ब्रह्मांड, श्रीमद्भागवत, ब्रह्मवैवर्त तथा
ब्रह्म आदि। इनके अतिरिक्त 18 उपपुराण भी माने गये हैं तथा जैनों के पुराण भी संस्कृत
भाषा में लिखे गये।
➽ संस्कृत के महाकाव्यों की एक विशाल परम्परा है। यद्यपि दीप शिखा, कवि-कुलगुरु कालिदास के काल के विषय में विद्वानों में मतैक्य नहीं है, किंतु कालिदास के साहित्य के अन्तः साक्ष्य तथा उसमें चित्रित सांस्कृतिक और सामाजिक दशाओं के आधार पर उन्हें ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में विक्रम संवत् के प्रवर्तक के समय में मानना निरापद है। कालिदास के दो महाकाव्यों रघुवंश और कुमारसंभव में भारतीय रस साधना का चरम परिपाक मिलता है। कुमारसंभव में शिव-पार्वती विवाह, कार्तिकेय के जन्म तथा तारकासुर के युद्ध का वर्णन है। रघुवंश में दिलीप से लेकर अग्निवर्ण तक के सूर्यवंशी राजाओं का वर्णन है। रघुवंश में क्या कला-पक्ष और क्या भाव पक्ष दोनों चरम सीमा पर पहुँच गए हैं। रघुवंश की गणना संस्कृत साहित्य के बृहत्त्रयी महाकाव्यों में होती है। कालिदास के महाकाव्य रस विधान और अभिव्यंजना शैली की दृष्टि से इतने परिमार्जित और परिष्कृत हैं कि उनसे सहज में अनुमान किया जा सकता है कि प्राक् कालिदास काल में भी महाकाव्यों की एक विशाल परम्परा रही होगी। किंवदन्ती है कि वैयाकरण पाणिनि ने जाम्बवती परिणय और पाताल विजय के दो काव्य लिखे थे और वररुचि ने भी इस दिशा में स्तुत्य प्रयास किया था। अस्तु ।
➽ कालिदास से पूर्व के महाकाव्य अप्राप्य हैं। कनिष्क के समकालीन अश्वघोष (ई. प्रथम सदी) ने सौंदरानन्द और बुद्धचरित नामक दो महाकाव्य लिखे। सौंदरानन्द में बुद्ध के सौतेले भाई नन्द और उनकी पत्नी सुन्दरी के प्रेम तथा बुद्ध के प्रभाव का वर्णन किया गया है जबकि बुद्धचरित में महात्मा बुद्ध के जीवन, उपदेश और सिद्धांतों का वर्णन है। अश्वघोष के काव्य प्रणयन का उद्देश्य कविता के माध्यम से मोक्ष और धर्म की प्राप्ति है, अतः इनकी कृतियों का कोई विशेष साहित्यिक महत्त्व नहीं है। शैली की सरलता की दृष्टि से ये ग्रन्थ निश्चित रूप से महत्त्वपूर्ण हैं। कालिदासोत्तर काव्यों में रस का स्थान अलंकृति, चमत्कार तथा पांडित्य ने ले लिया और वह हृदय की वस्तु न रहकर मस्तिष्क की वस्तु बनकर रहा गया।
➽ कालिदास की सरस, मधुर, प्रसाद-गुणमयी अभिव्यंजना शैली शाब्दी क्रीड़ा मात्र बनकर रह गई । काव्य के इस विचित्र मार्ग के प्रवर्तक किरातार्जुनीय महाकव्य के लेखक भारवि (छठी सदी) पुलकेशी द्वितीय के समकालीन थे। भारवि संस्कृत साहित्य में अर्थ- गौरव के लिए बहुप्रशंसित हैं। काव्य में शास्त्र के समावेश का निर्देशन भारवि के समसामयिक भट्टि कवि का रावणवध है, जहाँ रामकथा के साथ-साथ काव्य के ब्याज से व्याकरणशास्त्र का व्यावहारिक प्रयोग दिखाया गया है। इसी काल में रामकथा पर आश्रित कुमारदास रचित 'जानकीहरण' में अलंकृति-शैली अपने उग्र रूप में प्रकट हुई हैं।
➽ माघ का शिशुपाल वध संस्कृत महाकाव्यों में महत्त्वपूर्ण है। माघ ने प्रत्येक क्षेत्र में भारवि को तिरोहित करने के लिए अपने काव्य का निर्माण किया, अतः भारवि काव्य की दूषित प्रवृत्तियाँ और गुण शिशुपाल वध में स्फुट रूप से दृष्टिगोचर होते हैं माप के भक्त आलोचकों ने पदलालित्य, अर्थ गांभीर्य और अनूठी उपमाओं के लिए इनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। रत्नाकर (9वीं सदी) का हरविजय, हरिश्चन्द्र (10 वीं सदी) का धर्म शर्माभ्युदय तथा और भी इसी प्रकार के अनेक काव्य माघ की पद्धति पर निर्मित हुए । चित्रात्मक काव्यों के अंतर्गत नलोदय काव्य, कविराज ( 11वीं सदी) का राघवपांडवीय, हरिदत्त सूर का राघव नैषधीय चिदम्बर का 'राघव पांडवीय' आदि ऐसी रचनाएँ हैं जिनमें श्लेष के बल से दोहरी - तिहरी कथाओं का संयोजन किया गया। निःसंदेह इनमें कर्ताओं का रचना कौशल और उनका शब्द भंडार पर अपार अधिकार द्योतित होता है, किंतु इनमें हृदय को छूने की क्षमता नहीं है। प्रौढोक्तिमय काव्यों में मखक ( 14वीं सदी) का श्रीकंठ चरित प्रसिद्ध है। ऐतिहासिक काव्यों की परम्परा में विल्हण ( 11वीं सदी) का विक्रमांकदेव चरित तथा पद्मगुप्त (11वीं सदी) का नव- साहसांक चरित्र उल्लेखनीय हैं। इसमें इतिहास को अतिरंजित कल्पना से मिश्रित कर दिया गया है। इसके अतिरिक्त हम्मीर विजय और सुजान चरित भी ऐतिहासिक काव्य हैं। श्री हर्ष (12वीं सदी) का नैषधीय चरित महाकाव्य माघोत्तर काव्यों में विशेष उल्लेखनीय है। इसका नाम वस्तुतः नल-दमयन्ती परिणय ही होना चाहिए। इसमें गंभीर पांडित्य, दर्शन, प्रौढोक्ति, चमत्कारवादिता, आलंकारित चातुर्य अपने परिपाक पर पहुँच गए हैं। महाकाव्य निर्माण की यह परंपरा मुस्लिम तथा अंग्रेजी शासनकाल तक यत्किचित् रूप में मिलती रही और आज भी चरितात्मक काव्यों का प्रणयन जारी है।
➽ रामायण और महाभारत केवल विषय-वस्तु ही नहीं बल्कि भाषा की दृष्टि से भी वैदिक भाषा और लौकिक संस्कृत भाषा के बीच एक सुन्दर कड़ी है।
➽ संस्कृत के खंड
काव्यों के अंतर्गत कालिदास का मेघदूत, विल्हण की चौर पंचाशिका, विक्रम का नेमिदूत तथा धोमी का हंसदूत आदि उल्लेखनीय हैं।
हिंदी तथा भारत की अन्य अनेक आधुनिक आर्य भाषाओं में लिखे गए सन्देश काव्यों पर
उक्त काव्यों का प्रभाव स्पष्ट है।
➽ संस्कृत नाटक
साहित्य की परम्परा जहाँ विशाल है, वहाँ समृद्ध भी है। भास (4 सदी ई. पूर्व) से पूर्व का
संस्कृत-नाटक-साहित्य अप्राप्य है। भास के 13 नाटक उपलब्ध हुए हैं, जिनमें कुछ एकांकी भी हैं। इनके नाटक भाषा की दृष्टि से सरल
तथा अभिनेय हैं। इनकी रचनायें हैं- प्रतिमा, अभिषेक, बाल चरित, पंचरात्र, स्वप्नवासवदत्ता, प्रतिज्ञा यौगन्धरायण, अधिदरिद्र भास, चारुदत्त (नाटक) दूतवाक्य, उरुभंग, घटोत्कच, मध्यमव्यायोग, कर्णभार (एकांकी)। महाकवि कालिदास के तीन नाटक
मालविकाग्निमित्र, विक्रमोर्वशीय
तथा अभिज्ञान शाकुन्तलम् में उनकी नाट्य प्रतिभा उत्तरोत्तर रूप से विकसित हुई है।
भारतीय नाट्य साहित्य में तो अभिज्ञान शाकुन्तलम् शीर्ष स्थानीय है ही किन्तु
विश्व साहित्य में भी इसका एक अद्वितीय स्थान है। इसमें धरा और स्वर्ग का एक
अपूर्व मिलन तथा काव्य- कला और नाटकीय प्रतिभा का एक अद्भुत सम्मिश्रण है। अश्वघोष
के शारिपुत्र प्रकरण का भी पता चला है। मृच्छकटिक के रचयिता शूद्रक का काल यद्यपि
अनिश्चित है किंतु भारत के अधिकतर विद्वान उसे ईसा की प्रथम सदी में मानते हैं।
इसमें नाटकीय कौशल, व्यापार की
गतिशीलता और मानवीय अनुभूतियों का चित्रण चरम परिपाक पर पहुँच गया है। कदाचित् विश्व
साहित्य में यह प्रथम सुंदर यथार्थवादी रचना है। हर्षवर्धन (7वीं सदी) की तीन
रचनाओं में प्रियदर्शिका और रत्नावली नाटिकाएँ हैं और नागानन्द नाटक है। प्रथम दो
में उदयन और वासवदत्ता के हल्के-फुल्के प्रणय के चित्र हैं और ये कालिदास के
मालविकाग्निमित्र से अत्यधिक प्रभावित हैं। इन दोनों रचनाओं ने परवर्ती संस्कृत और
प्राकृत साहित्य की नाटिकाओं को अत्यधिक प्रभावित किया है। नागानन्द बोधिसत्व
जीमूतवाहन की दानशीलता से संबद्ध है। हर्ष नाटककार की अपेक्षा एक सफल कवि प्रतीत
होते हैं। नाट्यशास्त्रीय नियमों के पालन की दृष्टि से इनकी रत्नावली का संस्कृत
साहित्य में काफी आदर है। हर्षोत्तर नाटक साहित्य में ह्रासोन्मुख प्रवृत्तियों का
प्रवेश होने लगा। भट्टनारायण ( 8वीं सदी) के वेणीसंहार में उक्त प्रवृत्तियाँ स्पष्ट हैं।
वेणीसंहार नाटकीय दृष्टि से सफल नहीं है। इसमें कालिदासोत्तर महाकाव्यों की अलंकार
प्रधानता पाहित्य प्रदर्शन प्रौढोक्तियों और चमत्कारवादिता का प्राचुर्य है।
मुरारि के अनर्घ - राघव ( 9वीं सदी) में
उक्त हासात्मक प्रवृत्तियाँ अपेक्षाकृत और भी उग्र रूप में प्रकट हुई। हर्षोत्तर
काल में विशाखदत्त तथा भवभूति ( 8वीं सदी) के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। विशाखदत्त का 'मुद्राराक्षस' नाटकीय दृष्टि से
एक अतीव सफल रचना है। इसमें नन्दों के विनाश और चंद्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य
स्थापना की ऐतिहासिक घटना है। इसमें चाणक्य की नीति और उसका चारित्रिक औदात्य
दर्शनीय हैं। संस्कृत नाटककारों में कालिदास के पश्चात् भवभूति का नाम आता है।
इनके महावीर चरित, मालती माधव तथा
उत्तर रामचरित नाटकों में महावीर चरित तथा उत्तर रामचरित कथा से संबद्ध हैं और
मालती माधव मृच्छकटिक की पद्धति पर मालती और माधव के रोमांस से संबंधित हैं।
भवभूति कवि के रूप में जितने सफल हैं उतने नाटककार के रूप में नहीं। परवर्ती नाटक
साहित्य रंगमंच से दूर हटता गया और उसमें पांडित्य प्रदर्शन की प्रवृत्ति अधिकाधिक
बढ़ती गई। राजशेखर (10वीं सदी) के बाल
रामायण और जयदेव का प्रसन्न राघव इसके प्रत्यक्ष निदर्शन हैं। अन्योपदेशी नाटकों
में प्रबोधचन्द्रोदय मुख्य हैं। परवर्ती संस्कृत नाटक साहित्य में भागों और
प्रहसनों की एक विशाल परम्परा मिलती है। जिसका स्थानाभाव के कारण उल्लेख करना संभव
नहीं है।
➽ संस्कृत का गद्य साहित्य भी पर्याप्त समृद्ध है। इसमें जहाँ एक ओर सरल अनलंकृत और स्वाभाविक शैली में रचित जीव-जन्तु संबंधी औपदेशिक कथाओं तथा लोकप्रिय कथाओं से संबंधित पंचतन्त्र, हितोपदेश, शुकसप्तति, सिंहासनद्वात्रिंशत पुतलिका, बेताल पंचविंशति, भोज प्रबंध और पुरुषपरीक्षा जैसी कृतियाँ मिलती हैं, वहाँ सुबन्धु - दण्डी और बाण की रोमांस कथाएँ शिलालेख तथा चम्पू काव्य भी आते हैं और साथ ही कथासरितसागर और वृहत्कथा मंजरी आदि भी हैं। प्रत्यक्षर - श्लेषमय प्रबन्ध के लेखन में परम पटु सुबन्धु (छठी सदी) की वासवदत्ता में राजकुमार कन्दर्प केतु और वासवदत्ता के प्रेम की कथा है। इसमें लेखक ने अपने पांडित्य, चमत्कारप्रियता और कलाबाजी का पूरा परिचय दिया है। यह रचना कथानक रूढ़ियों की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। दण्डी (7वीं सदी) की दो रचनाओं अतीव सुन्दरी कथा और दशकुमार चरित में दूसरी रचना विशेष उल्लेखनीय है। दण्डी अपने पदलालित्य, सरल, स्वाभाविक सरस वर्णनों और जीवन की परम गहन यथार्थ अनुभूतियों के चित्रण की कला में संस्कृत गद्य साहित्य में बेजोड़ हैं। हर्षवर्धन के समकालीन वाण में सुबन्धु की कृत्रिम पाडित्यपूर्ण अलंकृत शैली और दण्डी की आख्यायिका काव्य है और कादम्बरी कथा काव्य । अद्भुत प्रतिभा के धनी बाण का संस्कृत गद्य साहित्य में मूर्धन्य स्थान है। बाणोत्तर काल में प्रचलित कृत्रिम और पांडित्यपूर्ण चम्पू शैली में प्रणीत गद्य काव्यों में त्रिविक्रम भट्ट ( 10वीं सदी) के नल चम्पू तथा मदालसा चम्पू, धनपाल की तिलक मंजरी, वादीमसिंह की गद्य चिंतामणि, सोमदेव सूरि का यशस्तिलक चम्पू, हरिश्चन्द्र का घर चम्पू उल्लेखनीय हैं। इस प्रकार की रचनाएँ 18वीं-19वीं सदी तक लिखी जाती रहीं, भारतेन्दुकालीन अम्बिकादत्त व्यास का 'शिवराज विजय' वर्णनपटुता और सरस प्रवाहमयी शैली की दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण कृति है।
➽ संस्कृत में नीति, श्रृंगार और
भक्ति स्रोत संबंधी तीन प्रकार के मुक्तक काव्य लिखे गये हैं। संस्कृत के शृंगारी
मुक्तकों में भर्तृहरि का श्रृंगार शतक, अमरूक का अमरूक शतक जयदेव का गीत-गोविन्द, गोवर्धन की .
आर्यासप्तशती पण्डितराज जगन्नाथ का भामिनी विलास उल्लेखनीय हैं। संस्कृत में रचित
भक्ति स्तोत्रमय साहित्य अत्यंत समृद्ध है। इसमें वैष्णवों, शैवों, शाक्तों और जैनों
की शताधिक रचनाएँ मिलती हैं।
➽ संस्कृत समीक्षा शास्त्री के अंतर्गत रस, अलंकार, ध्वनि, रीति और वक्रोक्ति सम्प्रदायों से संबंधित अनेक आचार्यों की महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं। हिंदी के काव्यशास्त्र पर उक्त सम्प्रदायों का अपरिमित प्रभाव पड़ा है। इसके अतिरिक्त संस्कृत साहित्य में धर्मशास्त्र, कामशास्त्र, व्याकरण, छन्दशास्त्र, दर्शन, तंत्र, आयुर्वेद, स्थापत्य और शिल्पादि कलाओं, नाट्य शास्त्र, निबन्ध, टीका, भाष्य तथा नाना वैज्ञानिक विषयों पर लिखे गये ग्रंथों की अपरिमेय विशाल राशि प्राप्त होती है।
➽ इसके अतिरिक्त अंग्रेजी शासनकाल में भी संस्कृत के प्रशस्तिकाव्यों महाकाव्यों, नाटकों, अंग्रेजी नाटकों और काव्यों के अनुवादों और निबन्धों के लिखने, पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन और नाना गोष्ठियों के आयोजन की परम्परा अजस्त्र गति से चलती रही और सम्प्रति भी वह सतत् गति से प्रवहमान है। अतः सुदीर्घ काल से अब तक भारतीय साहित्य को अनुप्राणित करने वाली जीवंत भाषा संस्कृत को 'मृत भाषा' कहना अपनी अल्पज्ञता और भाषा वैज्ञानिक अनभिज्ञता को दर्शाना है।