हिंदी साहित्य का इतिहास : आदिकाल की प्रमुख रचनाएँ
आदिकाल की प्रमुख रचनाएँ प्रस्तावना (Introduction)
हिंदी भाषा के आदिकाल में मूल हिंदी भाषी प्रदेश के कवियों की रचनाएँ प्राप्त
नहीं होतीं, जो मिलती हैं। वे या
तो सीमांत प्रदेश में पाई जाती हैं या विकृत रूप में ही मिलती हैं। डॉ.
हजारीप्रसाद ने उस समय के भारत के ऐतिहासिक सर्वेक्षण के आधार पर इस अभाव के
कारणों की गवेषणा की है, जो निम्नांकित हैं-
इस काल की पुस्तकें तीन प्रकार से सुरक्षित हुई हैं-
(1) राज्याश्रय पाकर और राजकीय पुस्तकालयों में सुरक्षित रहकर,
(2) सुसंगठित धर्म संप्रदाय का आश्रय पाकर और मठों-विहारों आदि के पुस्तकालय में शरण पाकर। राज्याश्रय सबसे प्रबल साधन था। धर्म संप्रदाय का संरक्षण उसके बाद आता है।
(03) तीसरे प्रकार से जो पुस्तकें प्राप्त हुई
हैं वे बदलती रही हैं और लोक चित्त की चंचल सवारी करती रही हैं। समय-समय पर उनमें
परिवर्तन और परिवर्द्धन भी होता रहा है। आल्हा काव्य इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। यह
बता सकना कठिन है कि आल्हा खंड का असली रूप क्या था? इसके विपरीत उस समय के अन्य काव्य आल्हा काव्य के समान लोक प्रीति का भाजन
नहीं बन सके और अपना शुद्ध रूप लिए अस्त हो गए।
देशी भाषा की दूसरी पुस्तकें जैन संप्रदाय का आश्रय पाकर सांप्रदायिक भंडारों
में सुरक्षित रह गई हैं। उनका शुद्ध रूप भी सुरक्षित रह गया है। कुछ पुस्तकें
बौद्ध धर्म का आश्रय पाकर बौद्ध नरपतियों की कृपा से बच गई। थीं। जो आगे चलकर
हिंदुस्तान के बाहर पाई जा सकी हैं, परन्तु जो पुस्तकें हिंदू धर्म और हिंदू नरेशों के संरक्षण में बची हैं वे
अधिकांशतः संस्कृत में हैं।
1 आदिकाल में हिन्दी भाषी प्रदेश की मुख्य रचनाएँ
➽ मूल हिंदी भाषा प्रदेश में हिंदी रचनाओं का अभाव क्यों रहा, इसका कारण बताते हुए डॉ. साहब लिखते हैं कि सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु के
उपरान्त भी उसके सेनापति भडि तथा उसके वंशज कुछ काल तक शासन करते रहे। नवीं
शताब्दी के आरंभ में वर्धनों की शक्ति क्षीण हुई।
➽ तीन शक्तियाँ - पूर्व के पाल, दक्षिण के राष्ट्रकूट और पश्चिम के प्रतिहार - कान्यकुब्ज की राज्यलक्ष्मी को
हथियाने में प्रयत्नशील रहे किन्तु सफलता प्रतिहारों को ही मिली। इसके बाद लगभग दो
शताब्दियों तक कान्यकुब्ज के प्रतिहार बड़े शक्तिशाली शासक बने रहे।
➽ उस समय का मध्य देश राजनीतिक दृष्टि से बड़ा ही विक्षुब्ध था। उस समय के
गहड़वार नरेश, चाहे वे दक्षिण से आये
या पश्चिम से वे बाहर के ही थे। उन्होंने काफी समय तक स्थानीय जनता से अपने आप को
अलग रखा। वे वैदिक संस्कृति के उपासक थे और बाहर से बुला - बुलाकर अनेक
ब्राह्मण-वंशों को काशी में बसा रहे थे। काशी में संस्कृत को इन लोगों ने बहुत
प्रोत्साहन दिया पर इनके यहाँ हिंदी को प्रश्रय न मिल सका। जिस प्रकार गौड़ देश के
पाल, गुजरात के सोलंकी और मालवा के
परमार देशी भाषा को प्रोत्साहन दे रहे थे। वैसा गहड़वारों के दरबार में नहीं हुआ।
डॉ. हजारीप्रसाद इस उपेक्षा के कारणों का विश्लेषण करते हुए लिखते हैं- "ये
लोग बाहर से आए थे और देशीय जनता के साथ दीर्घकाल तक एक नहीं हो पाये थे। दूसरा
कारण यह भी हो सकता है कि मध्य देश में जिस संरक्षणशील धारा की प्रतिष्ठा थी उसमें
संस्कृत भाषा और वर्जनशील ब्राह्मण व्यवस्था से अधिकाधिक चिपटा रहना ही स्थानीय
जनता की दृष्टि से ऊँचा उठने का साधन रहा हो।" आरंभ में गहड़वार नरेश स्थानीय
जनता से अलग बने रहे, परन्तु शनै: शनै: यह
प्रवृत्ति कम होने लगी। गहड़वार नरेश गोविन्दचन्द्र के सभा - पंडित दामोदर भट्ट ने
राजकुमारों को काशी की भाषा सिखाने का प्रयत्न किया और इस प्रकार धीरे-धीरे देशी
भाषा को इस दरबार में प्रोत्साहन मिलने लगा। दुर्भाग्यवश जयचन्द के अस्त होने के
साथ इस प्रोत्साहन और प्रवृत्ति का अन्त हो गया। अब समस्त उत्तरी भारत पर मुस्लिम
आक्रांताओं की विजयपताका फहराने लगी। इन नये शासकों को देशी जनता के साथ एक होने
में और भी अधिक समय लगा।
➽ गहड़वारों के शासनकाल में समूचा हिंदी प्रदेश स्मार्त धर्मानुयायी था। जब
गहड़वारों का प्रभाव क्षीण हो गया और अजमेर कालिंजर आदि राज्य स्वतंत्र हो गए तो
उन राज्यों में भी स्मार्त धर्म की प्रबलता रही। इस समय शैव मत का दबदबा था।
नाथयोगियों, रसेश्वर मत के मानने
वाले रस सिद्धों और मंत्र-तंत्र में विश्वास रखने वाले शक्ति-साधकों का इन
क्षेत्रों में बड़ा जोर था। पर इन शैव साधकों के संगठित मत नहीं थे और न ही इनका
देशी भाषा के प्रति कोई विशेष अनुराग था। इसके अतिरिक्त ये जनता के प्रति भी तटस्थ
बने रहे। केवल यह ही नहीं तब की जनता इनसे अतीव भयभीत थी। अतः स्पष्ट है कि इनके
द्वारा प्रणीत रचनाएँ जनप्रिय नहीं हो सकती थीं। कुछ थोड़ी-सी पुस्तकें इन योगियों
की मिल जाती हैं पर एक तो उन्हें जैन पुस्तकों के समान संगठित भंडारों का आश्रय
नहीं मिला दूसरे वे आल्हा आदि की भाँति लोक मनोहर भी नहीं हो सकीं। इनकी रक्षा का
भार संप्रदाय के कुछ अशिक्षित साधुओं पर रहा। इन रचनाओं को प्रामाणिक रूप में
सुरक्षित रखने का प्रयत्न नहीं किया गया। परवर्ती साहित्य में इन योगियों का दो
रूपों में उल्लेख मिलता है- (1) सूफी कवियों की कथा में नाना प्रकार की सिद्धियों के आकार के रूप में, और (2) सगुण या निर्गुण भक्त
कवियों की पुस्तकों में खंडनों और प्रत्याख्यानों के विषय के रूप में।
➽ जिन सम्प्रदायों ने इस रहस्यात्मक साहित्य की सृष्टि की थी वे चिरकाल तक एक
सुसंगठित संप्रदाय के रूप में नहीं रह सके, फलतः उनका साहित्य लुप्त हो गया। पूर्वी प्रदेशों में वह थोड़ा-बहुत इसीलिए
सुरक्षित रह गया है कि 12वीं 13वीं शताब्दी तक वहाँ
उक्त मत संगठित संप्रदाय के रूप में जीवित रहा । नेपाल आदि प्रदेशों से कुछ अल्प
मात्रा में इस रहस्यात्मक साहित्य का उद्धार किया जा सका है।
➽ उत्तर भारत का धर्म मत नवीन संपर्क और नवीन प्रतिक्रिया के फलस्वरूप बराबर
अपनी पुरानी परंपरा पर अधिक दृढ़ता के साथ डटा रहा। हिमालय के पाददेश की साधना उसे
अभिभूत नहीं कर सकी। यहाँ संस्कृत कुछ और ब्राह्मण धर्म की प्रतिष्ठा बहुत बाद तक
बनी रही। इस प्रकार न तो हमें इस प्रदेश के ऐसे साहित्य का ही पता चलता है, जो राज-रक्षित हो और न ऐसे साहित्य का जो संगठित संप्रदाय द्वारा सुरक्षित हो।
केवल जनता की जिह्वा पर जो कुछ बचा रहा, वही अनेक परिवर्तनों के बाद घट-बढ़कर कदाचित् मिल जाता है।
➽ यह है आदिकाल के हिंदी साहित्य के अरक्षित रहने की एक कल्पित मनोरंजक कहानी जो
प्रायः श्रद्धेय आचार्य जी के शब्दों में उपन्यस्त की गई हैं।
➽ अब प्रश्न यह उठता है कि चौदहवीं शताब्दी से पूर्व हिंदी रचनाएँ उपलब्ध क्यों
नहीं होतीं? द्विवेदी जी इसके कुछ
कारण - जैसे कि किसी सुदृढ़ संप्रदाय के संरक्षण का अभाव, शासक वर्ग की उपेक्षा तथा जन-मनोहर या लोकप्रिय साहित्य का अभाव आदि बताये
हैं। इन कारणों में द्विवेदी जी के मतानुसार प्रधान कारण गहड़वार शासकों की हिंदी
के प्रति उपेक्षा भाव है। वे लिखते हैं- “ इस प्रदेश की जनता से भिन्न और विशिष्ट बने रहने की प्रवृत्ति के कारण देशी
भाषा और उसके साहित्य को आश्रय नहीं दे सके। अंतिम पीढ़ियों में ये लोग देशी भाषा
और उसके साहित्य को प्रोत्साहन देने लगे थे।" समझ में नहीं आता है केवल
गहड़वार नरेशों के उपेक्षा भाव से हिंदी साहित्य क्यों नहीं पनप सकी। हिंदी सदा
विरोधों और संघर्षों में पलती- जूझती आई है। वह अपनी अजस्र प्राणधारा और अदम्य
शक्ति से विषम से विषम परिस्थितियों में भी आगे बढ़कर अपना मार्ग बनाती रही है।
फिर उस समय क्या उसकी शक्ति कुंठित हो गई थी? सच तो यह है कि चौदहवीं शताब्दी तक हिंदी साहित्य के ग्रन्थों के उपलब्ध न
होने के कारण कुछ और हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या गहड़वार नरेशों ने हिंदी
साहित्य की किसी रचना पर कोई प्रतिबंध लगा दिया था या उसे नष्ट करने की कोई आज्ञा
निकाली थी? फिर राज्याश्रय ही सब
कुछ नहीं होता, धर्म और जनाश्रय भी
उसे मिल सकता था। माना कि इस समय कोई सुसंगठित धार्मिक संप्रदाय नहीं था फिर भी
एक-आध रचना तो अपने विशुद्ध रूप में सुरक्षित रह ही सकती थी और फिर इस विशाल देश
का विराट जन-समूह एकाध रचना को भी अविकृत रूप में सुरक्षित नहीं रख सका ? संस्कृत साहित्य को अनेक बार विदेशी शासकों के निर्मम प्रहारों को सहना पड़ा
फिर भी वह पूरी तरह विनष्ट नहीं हुआ जैसा कि अल्पकालीन शासकीय उपेक्षा से हिंदी
साहित्य । ऐसा क्यों? इसके अतिरिक्त डॉ. दशरथ
शर्मा जैसे प्रसिद्ध इतिहासकार भी द्विवेदी जी की उक्त मान्यता का खंडन करते हुए
लिखते हैं-" कन्नौज सदा से देशी भाषा को मान देता रहा है। यदि संस्कृत व
संस्कृति के प्रबल समर्थक गोविन्दचन्द्र ने भी देशी भाषा को इतना मान दिया तो हम
किस आधार पर कह सकते हैं कि उसके दो पूर्वजों ने ही देशी भाषा का विरोध किया था और
उन्होंने विरोध किया भी तो तीस-चालीस वर्षों में किसी भाषा का साहित्य सर्वथा नष्ट
नहीं हो जाता।" यह भी ध्यान रहे कि कन्नौज पर गहड़वारों का आधिपत्य 1090 ई. में हुआ था तथा देशी भाषा को आश्रय देने वाले गोविन्द चन्द्र सन् 1114 में गद्दी पर बैठे। इस पर द्विवेदी जी का उपेक्षित काल 24 वर्ष का ही ठहरता है। इस अल्पकालीन उपेक्षा के कारण पूर्ववर्ती शताब्दियों का
साहित्य समूल नष्ट हो गया, यह तर्क कुछ अकल्पनीय लगता है।
➽ इसके साथ-साथ एक और प्रश्न उठता है कि यदि उस काल का साहित्य उपलब्ध नहीं होता तो उन अज्ञात और अरक्षित रचनाओं के आधार पर इतिहास का ढांचा किस प्रकार खड़ा किया गया और उसका नामकरण कैसे संपन्न हुआ? इस संबंध में डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त के विचार अवलोकनीय हैं- “ वस्तुतः इस युग में हिंदी की प्रामाणिक रचनाएँ न मिलने का कारण मुसलमानों का आक्रमण, देश की अशान्ति या किसी शासन विशेष की अवज्ञा नहीं है। यदि ऐसा होता तो इस युग में रचित अपभ्रंश की शताधिक रचनाएँ उपलब्ध न होतीं। यह युग साहित्य की दृष्टि से अपभ्रंश का युग है किन्तु हम इसे बलात् हिंदी का आदिकाल या वीरगाथा काल सिद्ध करना चाहते हैं: फलस्वरूप कभी हम अपभ्रंश की रचनाओं को उधार ले लेते हैं, कभी अस्तित्वहीन या परवर्ती रचनाओं का आश्रय ग्रहण करते हैं और कभी साहित्य नष्ट हो जाने की मनगढ़ंत कहानियाँ कहकर आँसू बहाते हैं। " हम प्रस्तुत पुस्तक के हिंदी साहित्य के आदिकाल का नामकरण तथा पूर्वापर सीमानिर्धारण नामक प्रकरण में बता चुके हैं कि हिंदी भाषा का आरंभ लगभग 13वीं शताब्दी में स्वीकार किया जा सकता है। उक्त मान्यता के आधार पर ग्रंथाभाव की समस्या का सहज में ही समाधान हो जाता है। वस्तुतः वह युग अपभ्रंशों का युग था, स्वयं आचार्य हजारीप्रसाद के निम्नांकित शब्दों में यही तथ्य ध्वनित होता है, “वस्तुत 14वीं शताब्दी के पहले ही भाषा का रूप हिंदी प्रदेशों में क्या और कैसा था, इसका निर्णय करने योग्य साहित्य आज उपलब्ध नहीं हो रहा है। जो एकाध शिलालेख और ग्रन्थ मिलते हैं वे बताते हैं कि यद्यपि गद्य की और बोलचाल की भाषा में तत्सम शब्दों का प्रचार बढ़ने लग गया था, पर पद्म में अपभ्रंश का ही प्राधान्य था । "