आदिकालीन रासो ग्रंथों की प्रामाणिकता और अस्तित्व
आदिकालीन रासो ग्रंथों की प्रामाणिकता और अस्तित्व
➽ आदिकाल में रचित जिन कतिपय रासों ग्रंथों का वर्णन ऊपर किया जा चुका है उनके विषय में कभी-कभी प्रामाणिकता और अप्रामाणिकता का प्रश्न खड़ा कर दिया जाता है। हम्मीर रासो अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ है। इसके कुछ छंद प्राकृत पैंगलम् में मिलते हैं और इसी आधार पर इसका अस्तित्व स्वीकार किया जाता है। बीसलदेव रासो तथा परमाल रासो मूलतः गेय काव्य थे। अतः समय-समय पर इनके मूल रूपों में परिवर्तन और परिवर्द्धन प्रक्रिया निरंतर चलती रही। खुमान रासो में क्षेपकों की यह प्रक्रिया और भी जोरों से चली। पृथ्वीराज रासो के अनेक संस्करण मिलते हैं और आज तक भी यह समस्या बनी हुई है कि किस संस्करण को प्रामाणिक कहा जाये। नि:संदेह इन ग्रंथों के मूल रूप अथवा प्रामाणिक संस्करण नहीं मिल पाते हैं किंतु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि इन ग्रंथों का प्रणयन आदिकाल में नहीं हुआ और उस समय इनका अस्तित्व नहीं था। निःसंदेह सभी रासो ग्रंथ सर्वांश में तो प्रामाणिक नहीं है किंतु इन्हें सर्वथा उत्तरकालीन प्रणीत मानकर सर्वथा अप्रामाणिक या अस्तित्वहीन भी नहीं कहा जा सकता है। वास्तव में उक्त ग्रंथ कुछ अंशों में प्रामाणिक हैं और कुछ अंशों में अप्रामाणिक हैं। इनकी स्थिति रामायण, महाभारत तथा भास के नाटकों जैसी है। जैसे रामायण आदि में समय-समय पर परिवर्तन और परिवर्द्धन होते रहे हैं वैसे रासो ग्रंथों में भी समय-समय पर परिवर्तन होते रहे हैं। रामायणादि में परिवर्तन की प्रक्रिया में भाषागत परिवर्तन नहीं हुआ जबकि रासो ग्रंथों में विषयगत परिवर्तन के साथ-साथ भाषागत परिवर्तन बड़ी क्षिप्र गति से हुआ और कभी-कभी तो यहाँ तक संदेह हो जाता है कि इनका प्रणयन कदाचित पंद्रहवी - सोलहवीं शताब्दी में हुआ। अस्तु रासो ग्रंथों के आकार और रूपगत परिवर्तन के आधार पर इनके अस्तित्व संदिग्ध या इन्हें सर्वथा अप्रामाणिक समझना नितांत असमीचीन होगा। यदि आकार वृद्धि एवं रूप परिवर्तन की अप्रामाणिकता का निर्णायक तत्व स्वीकार कर लिया जाए तो फिर कबीर, सूर, मीरा तथा बिहारी आदि कवियों की रचनाएँ भी उक्त मानदंड पर पूरी नहीं उतर सकती, किंतु वस्तुस्थिति इससे सर्वथा भिन्न है। अतः उक्त रासो ग्रंथों को आदिकालीन इतिहास की काल-सीमा में प्रणीत सामग्री के रूप में स्वीकार करना न्यायसंगत है। उपर्युक्त रासो ग्रंथ कुछ अंशों में प्रामाणिक हैं। निश्चय ही इनका सृजन आदिकाल में हुआ बाद में इनमें रूप व आकारगत परिवर्तनों की गति अबाध रूप से चलती रही।
ग्रहण व त्याग की समस्या
➽ हिंदी के आदिकाल के साहित्य का प्रणयन संस्कृत तथा अपभ्रंश साहित्य के निर्माण के समानांतर हुआ। उस समय संस्कृत साहित्य के ज्योतिष, दर्शन व स्मृति ग्रंथों पर अनेक टीकाएँ लिखी गईं। संस्कृत की वृहत्त्रयी में परिगणित नैषध चरित जैसे महाकाव्य का निर्माण इसी काल में हुआ। शृंगार प्रकाश तथा सरस्वती कंठाभरण के लेखक भोजराज, साहित्य दर्पणकार विश्वनाथ तथा क्षेमेंद्र जैसे आचार्य कवि कुंतक और महिमभट्ट जैसे काव्यशास्त्री तथा जयदेव, सोमदेव तथा कल्हण जैसे सुकवि इसी काल में हुए। इसी समय में अपभ्रंश साहित्य के समर्थ कवि एवं आचार्य हेमचंद्र ने अपने साहित्य का प्रणयन किया। इसी समय में ही शुद्ध अपभ्रंश की रचनाएँ- पउम चरिउ, स्वयंभू छंद, महापुराण, जसहर चरिउ, भविष्यत कथा तथा संदेश रासक आदि निर्मित हुईं। सौभाग्यवश इसी समय हिंदी के सिद्ध काव्य, नाथा साहित्य, श्रावकाचार, राउलवेल तथा भरतेश्वर बाहुबली रास आदि ग्रंथ भी प्रणीत हुए जिनका अपभ्रंश भाषा भाग एक प्रभावी तत्त्व है और वे मूलतः हिंदी में ही लिखित हैं। इससे स्पष्ट है कि हिंदी का आदिकाल विविध साहित्य के प्रणयन की दृष्टि से एक संक्रमणकाल है। अब प्रश्न उठता है कि आदिकाल में रचित विविध काव्यों में से हिंदी साहित्य के अंतर्गत कौन से काव्यग्रंथ हैं और कौन से त्याज्य? उत्तर स्पष्ट है कि विशुद्ध अपभ्रंश भाषा में रचित काव्यों को हिंदी की परिधि में समेटना उचित नहीं है किंतु ऐसी रचनाएँ जिनमें अपभ्रंश भाषा एक प्रभावी तत्त्व के रूप से काम कर रही है, उन्हें नि:संकोच हिंदी में सम्मिलित कर लेना होगा। हिंदी के उत्तरोत्तर विकसित रूप के अध्ययन की दृष्टि से भी ऐसा करना वांछनीय है। चौसर आदि की अंग्रेज़ी आज की अंग्रेज़ी से रूपमाता दृष्टि से काफी भिन्न है किंतु उस पुरानी अंग्रेज़ी को आज की अंग्रेज़ी के रूपगत अध्ययन के लिए एक आवश्यक अभिनांश के रूप में ग्रहण किया जाता है।
➽ इसी प्रकार पृथ्वीराज रासो आदि ग्रंथ आदिकाल की परिधि से बाहर नहीं हैं। मूलतः वे इसी काल में लिखे गए थे। बाद में उनमें रूप और आकारगत परिवर्तन आते रहे। मात्र परिवर्तन को यदि राज्य का निर्णायक तत्त्व मान लिया जाए तब कबीर, सूर तथा बिहारी आदि की रचनाएँ भी हिंदी साहित्य की परिधि से दूर जा पड़ेंगी।
➽ आचार्य शुक्ल ने आदिकाल में रचित सिद्धों और नाथों के साहित्य को धार्मिक और सांप्रदायिक कहकर उसे शुद्ध रागात्मक साहित्य की कोटि में न रखने का तर्क देकर प्रकारान्तर से उक्त धर्मानुप्राणिता रचनाओं को हिंदी के आदिकालीन साहित्य की परिधि से बाहर रखने की सलाह दी है किंतु हमारे विचारानुसार आचार्य शुक्ल ने इन रचनाओं का मूल्यांकन करते समय न्याय नहीं किया है। डॉ. रामकुमार वर्मा ने सिद्ध साहित्य को हिंदी में परिगणित करने के पक्ष में जोरदार शब्दों में लिखा है कि “सिद्ध साहित्य का महत्त्व इस बात में बहुत अधिक है कि इससे हमारे साहित्य की आदि रूप की सामग्री प्रामाणिक ढंग से प्राप्त होती है। सिद्ध व नाथ साहित्य में शताब्दियों से आने वाली धार्मिक और सांस्कृतिक विचारधारा का स्पष्ट उल्लेख है। " आचार्य द्विवेदी के विचार इस विषय में और भी अधिक महत्त्वपूर्ण हैं- “ कई रचनाएँ जो मूलतः जैन धर्म भावना से प्रेरित होकर लिखी गई हैं, निःसंदेह उत्तम काव्य हैं और हम्मीर रासो की भाँति हों। साहित्यिक इतिहास के लिए स्वीकार्य हो सकती हैं। यही बात बौद्ध सिद्धों की रचनाओं के बारे में कही जा सकती है।" केवल धार्मिक या सांप्रदायिक होने से किसी रचना को सगात्मक साहित्य की कोटि से बहिर्भूत नहीं किया जा सकता। तुलसी का रामचरितमानस तथा सूर का सूरसागर धर्म एवं संप्रदाय की भावनाओं से अनुप्राणित होते हुए भी उत्तमोत्तम साहित्य का निदर्शन है। अतः सिद्ध व नाथ साहित्य, श्रावकाचार तथा धरतेश्वर बाहुबली रास एवं रासो आदि ग्रंथों को आदिकाल के साहित्य की सामग्री मानना न्यायसंगत है।