हिंदी साहित्य का इतिहास : आदिकाल की प्रवृत्तियाँ
आदिकाल की प्रवृत्तियाँ प्रस्तावना
➽ हिन्दी के आदिकालीन
साहित्य का कथ्य जहाँ अपने आपमें मनोरम है वहाँ उसका शिल्प विधान अतीव आकर्षणमय
है। इस साहित्य में शिल्प विधान के अंतर्गत छन्द प्रयोग क्षेत्र में तो एक
महाक्रांति का सूत्रपात हुआ। इस काल के छन्द प्रयोग की सबसे बड़ी उल्लेखनीय बात यह
रही है कि इनका उपयोग कहीं भी चमत्कार प्रदर्शनार्थ नहीं हुआ बल्कि इनका सदुपयोग
पाठक व श्रोता की बदलती हुई चित्तवृत्ति की अनुरूपता में किया गया है। छन्दों का
जितना विविधमुखी प्रयोग इस साहित्य में हुआ है उतना इसके पूर्ववर्ती साहित्य में नहीं
हुआ। इस विषय में निश्चय ही जायसी व तुलसी आदि प्रबंध काव्यकार इस साहित्य के ऋणी
हैं। कथानक और काव्य रूढ़ियां शिल्प विधान का एक महत्त्वपूर्ण अंग हैं जिनका हम
ऊपर दिशानिर्देश कर चुके हैं। इनका प्रयोग काव्य की एक विशिष्ट संस्कृति का सूचक
है। महाकवि तुलसीदास द्वारा अपनायी गई संवाद -शैली इसका एक सुंदर उदाहरण है।
आदिकालीन साहित्य की सामान्य प्रवृत्तियाँ
आदिकाल का संक्रमणकालीन
साहित्य विषय वस्तुगत नाना प्रवृत्तियों तथा काव्य रूपगत सम्पदा की विविध
पद्धतियों की दृष्टि से वस्तुतः विविधमुखी है। कथ्य एवं शिल्प विधान के दृष्टिकोण
से इस काल का साहित्य अपने समकालीन संस्कृत साहित्य से निश्चयतः आगे रहा है। इसमें
एक ओर जहां नाना सम्प्रदायगत धर्म व वैराग्य का विवेचन हुआ है वहाँ दूसरी ओर इसमें
श्रृंगार रस की अजस्र धारा अदम्य वेगमयी वीर रस की जीवन्त धारा से समवेत होती दिखाई
पड़ती है। साथ-साथ इसमें जनमानस की आवश्यकता के पूर्तिकारक लोकानुरंजनकारी साहित्य
का प्रणयन हुआ। राज्याश्रय,
लोकाश्रय तथा
धर्माश्रय में प्रणीत आदिकालीन साहित्य ने आगामी हिन्दी साहित्य के लिए एक सशक्त
पृष्ठभूमि प्रस्तुत कर दी। उक्त साहित्य का विषय-वस्तु शिल्प विधानगत प्रवृत्तियों
के विकास की दृष्टि के निरूपण निम्नस्थ है-
(1) आदिकालीन साहित्य और पूर्व परम्परा-
हम पहले संकेत कर चुके हैं कि हिन्दी का आदिकालीन साहित्य
संक्रमणकालीन साहित्य है। यह संस्कृत व अपभ्रंश भाषा के साहित्यों के समानान्तर
प्रणीत हुआ । अतः इसका समसामयिक काव्यधाराओं और तत्संबंधी पूर्ववर्ती काव्य
परम्पराओं से प्रभावित होना अनिवार्य था। कदाचित् इसी प्रभावाधिक्य को लक्षित करते
हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इसे अपभ्रंश साहित्य का बढ़ावा कहा है। छन्द, काव्यात्मक रूप, विषयवस्तु, काव्य रूढ़ियों और
परंपराओं की दृष्टि से इस काल का साहित्य, अपभ्रंश साहित्य से प्रचुर मात्रा में प्रभावित हुआ है।
किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि इसमें पूर्ववर्ती काव्य परंपराओं का मात्र
अनुपालन ही हुआ है। इसके विपरीत उस समय की प्राणवान हिन्दी भाषा में तत्कालीन प्रबुद्धचेता
हिन्दी साहित्यकार की विकासोन्मुख प्रतिभा का सम्यक् उन्मेष हुआ है, जिसने भावी हिन्दी
साहित्य की नानाविध परम्पराओं के लिए एक सुनियोजित मार्ग को प्रशस्त किया।
( 2 ) कथ्य प्रतिपादन -
इस
साहित्य का सुसृजन एक व्यापक पटभूमि को आधार बनाकर हुआ। इसमें नाथों, सिद्धों व जैन
सम्प्रदायों की सात्विक धर्म मनोवृत्तियों का विशद चित्रण हुआ । रासो काव्यों तथा
अन्य शृंगारपरक ग्रन्थों में श्रृंगार रस की सहज सरलता व हृदयग्राही सहिष्णुता
विद्यमान है। तत्कालीन वीरगाथाओं में जहाँ वीर रस की उच्छल कल्लोलिनी है, वहाँ उनमें आश्रयदाताओं
का उद्दाम यशोगान भी है। खुसरो आदि कवियों का लोकानुरंजनकारी साहित्य अविस्मरणीय
है। इस काल के कलाकार ने जीवन के जिस भी पक्ष को लिया है, उसके साथ अपना पूरा
तादात्म्य स्थापित करते हुए उसे मूर्तिमान कर दिया है।
(3) क्रमात्मक प्रवृत्त्यात्मक विकास
इस काल के साहित्य में चित्रित काव्यात्मक प्रवृत्तियाँ
आगामी हिन्दी साहित्य में क्रमशः उत्तरोत्तर विकसित हुई। आदिकाल के साहित्य में
नारी के प्राकृत शृंगार से लेकर उसके मानसिक सौन्दर्य तक पहुंचने की प्रवृत्ति
प्रबल वेग से उभरी। प्रेम काव्यों की कथानक रूढ़ियों व परम्पराओं का परम्परागत
वर्णन जैसे- नखशिख, दूती सम्प्रेषण, सन्देश या कामलेख का
भेजना, प्रेमी-प्रेमिका
के मिलन, दैवी शक्तियों का
हाथ, नायक-नायिका का
किसी मन्दिर अथवा खंडहर में मिलन आयोजन, संवादों के रूपों में शुक शुकी तथा सारिका आदि का प्रयोग
तथा उनके द्वारा प्रेम के रहस्य का उद्घाटन, स्वकीया व परकीया के प्रेम के नाना प्रकारों का चित्रण तथा
प्रेमकाव्यों में विद्यमान अन्य अनेक काव्य रूढ़ियों का नियोजन आदि । भक्ति व
रीतिकाल के साहित्यों में विद्यापति के माध्यम से शृंगारी प्रवृत्तियों का संवेग
प्रस्फुटन, एक ऐतिहासिक सत्य
है। रीतिकालीन साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियों शृंगार की प्रधानता, आश्रयदाताओं का
प्रशस्तिगान, नारी का नखशिख
वर्णन, अलंकरणप्रियता, मुक्त काव्योचित नाना
छन्दों का उपयोग आदि पर उक्त काल के साहित्य का क्रमागत परम्परा प्रभाव स्पष्ट है।
कबीर आदि निर्गुण संतों के साहित्य की सम्यक् अवधारणा के लिए आदिकाल के सिद्धों और
नाथों की वैचारिक मान्यताओं का पुष्टज्ञान आवश्यक है। आदिकाल में रचित धार्मिक
चरित काव्यों व कथाओं ने जायसी और तुलसी की सृजन प्रक्रिया व कृतियों को प्रत्यक्ष
या परोक्ष रूप से प्रभावित किया है। मध्यकालीन हिन्दी साहित्य की मूल
केन्द्रबिन्दु नारी अपनी नाना भूमिकाओं में आदिकाल के जैन, रासो व लोक साहित्य से
किसी-न-किसी रूप में प्रभावित होती रही है।
(4) काव्य व उपनाम लेखन-
काव्य
या कवितांश के अनुकरण की आशंका से काव्य में कदाचित उपनाम लेखन की प्रथा का प्रचलन
हुआ होगा। यह प्रथा मध्यकालीन भारतीय साहित्य की सभी भाषाओं के काव्यों में
दृष्टिगोचर होती है। उर्दू साहित्य में तो अद्यावधि भी इसका प्रचलन है। हिन्दी
साहित्य के आदिकालीन काव्यों तथा अपभ्रंश साहित्य के काव्यों-विशेषतः मुक्तक काव्य
में कवि के नाम उपनाम उल्लेख की प्रथा मौजूद थी। हिन्दी में इस प्रथा का पालन
भक्तिकाल और रीतिकाल के साहित्यों में दृढ़तापूर्वक हुआ।
(5) प्रकृति निरूपण -
इस काल
के साहित्य में वस्तु वर्णन के अंतर्गत प्रकृति-चित्रण की दोनों पद्धतियों आलंबन व
उद्दीपन को अपनाया गया। इसके अतिरिक्त उक्त साहित्य में कहीं पर प्रकृति वर्णनों
की परिगणन शैली भी दृष्टिगोचर होती है। इस साहित्य के प्रणेता ने विभिन्न प्राकृतिक
वर्णनों के साथ मानव जीवन की रागात्मकता का भी कलात्मक अभिव्यंजन किया है। इस
साहित्य के प्रकृति निरूपण के उभयरूप आलंबन व उद्दीपन परवर्ती हिन्दी साहित्य न
देखे जा सकते हैं। इसके महाकाव्यों का वस्तुवर्णन हिन्दी के मध्यकालीन परवर्ती
साहित्य में अनुकरणीय बना रहा। प्रकृति वर्णन की परिगणन शैली जायसी के पद्मावत तथा
अन्य वर्णक - काव्यों में अवलोकनीय है।
( 6 ) कलात्मक अभिव्यंजन-
इस
समय के कवि की प्रतिभा का विस्तार नानाविध विषयों तक था जिसका उसने कौशलपूर्वक
अभिव्यंजन किया है। चाहे वह धर्माश्रयी नाथों-सिद्धों का दुरूह हठयोगात्मक साहित्य
हो, चाहे वह
लोकाश्रयी खुसरो का पहेली मुकरीमय अनुरंजनात्मक साहित्य हो, चाहे वे वीर रस की
ओजस्विनी रचनायें हों, किंवा ललितांगना
के मनोमुग्धकारी लावण्यमय- शृंगारी वर्णन हो, सर्वत्र उस समय के साहित्यकार ने अपनी परिष्कृत साहित्यिक
अभिव्यक्ति का परिचय दिया है।
(7) अभिव्यक्ति शैलियां-
डिंगल
व पिंगल उस युग के साहित्यकार ने तत्कालीन हिन्दी भाषा की प्रचलित दोनों शैलियों
का अभिव्यक्ति के क्षेत्र में कलात्मक प्रयोग किया है। कतिपय विद्वानों ने डिंगल व
पिंगल को दो विभिन्न भाषाओं के रूप में स्वीकार किया है जो कि भ्रामक है। ये दोनों
संस्कृत की पांचाली तथा गौड़ी आदि रीतियों तथा आरभटी और सात्वती आदि वृत्तियों के
समान उस मसय की हिन्दी भाषा की दो शैलियां मात्र थीं।
( 8 ) काव्यगत रूप-
कथ्य की
आदिकालीन साहित्य में काव्य के अनेक रूपों रासो काव्य, चरित काव्य, मुक्ति काव्य, हठयोगात्मक रचनाओं एवं
फुटकर पद आदि अनेक रूपों में अभिव्यक्ति मिली है। तत्कालीन साहित्य को अपने
पूर्ववर्ती व समकालीन संस्कृत व अपभ्रंश साहित्य में प्रयुज्यमान काव्यरूप एक
रिक्थ के रूप में प्राप्त हुए, जिनका विकास हिन्दी में समुचित दिशा में हुआ। उस समय में
हिन्दी में गद्य का अतीव विरल रूप था।
( 9 ) शिल्प विधान -
हिन्दी के
आदिकालीन साहित्य का कथ्य जहाँ अपने आपमें मनोरम है वहाँ उसका शिल्प विधान अतीव
आकर्षणमय है। इस साहित्य में शिल्प विधान के अंतर्गत छन्द प्रयोग क्षेत्र में तो
एक महाक्रांति का सूत्रपात हुआ। इस काल के छन्द प्रयोग की सबसे बड़ी उल्लेखनीय बात
यह रही है कि इनका उपयोग कहीं भी चमत्कार प्रदर्शनार्थ नहीं हुआ बल्कि इनका
सदुपयोग पाठक व श्रोता की बदलती हुई चित्तवृत्ति की अनुरूपता में किया गया है।
छन्दों का जितना विविधमुखी प्रयोग इस साहित्य में हुआ है उतना इसके पूर्ववर्ती
साहित्य में नहीं हुआ । इस विषय में निश्चय ही जायसी व तुलसी आदि प्रबंध काव्यकार
इस साहित्य के ऋणी हैं। कथानक और काव्य रूढ़ियां शिल्प विधान का एक महत्त्वपूर्ण
अंग हैं जिनका हम ऊपर दिशानिर्देश कर चुके हैं। इनका प्रयोग काव्य की एक विशिष्ट
संस्कृति का सूचक है। महाकवि तुलसीदास द्वारा अपनायी गई संवाद-शैली इसका एक सुंदर
उदाहरण है।
अतः संक्षेप में कहा जा सकता है कि हिन्दी का आदिकालीन साहित्य कथ्य और अभिव्यंजना कौशल की दृष्टि से पर्याप्त सम्पन्न बन पड़ा है।