आदिकालीन साहित्य : उपलब्धियाँ एवं निष्कर्ष
आदिकालीन साहित्य : उपलब्धियाँ एवं निष्कर्ष
➽ हिंदी के प्रारंभिक काल का साहित्य विविधोन्मुखी और समृद्ध है। इसमें जहाँ एक ओर धर्माश्रित काव्यों में वैराग्य की शांत स्रोतस्विनी है, वहाँ दूसरी और उसमें शृंगार रस की कलकल निनादिनी सुंदर कल्लोलिनी भी है। इसमें जहाँ एक ओर वीर रस के अदम्य वेग से संपन्न गरजती - कड़कड़ाती तटिनी है वहाँ इसमें लोकाश्रित काव्यों में अनुरंजनकारिणी सरस पयस्विनी भी है। इसमें हमारा समस्त जातीय जीवन अपनी संपूर्ण क्षमताओं और परिसीमाओं सहित निबद्ध है। उक्त काल का साहित्य हिंदी का संक्रमणकालीन साहित्य है। इसमें पूर्ववर्ती अपभ्रंश काव्यों की परंपराओं का मात्र अंधानुकरण नहीं है। हिन्दी एक जीवन्त भाषा है और वह पूर्ववर्ती साहित्य की जीवन प्राणधारा को लेकर चली है। उसमें उस समय के साहित्यकार की प्रतिभा का यथेष्ट विकास हुआ। इसमें हिंदी के स्वतंत्रचेता कलाकार की स्वयं की प्राणचेतना भी यत्र-तत्र प्रस्फुटित हुई है। और वह कई दिशाओं में पूर्व-परंपरा को पीछे छोड़कर आगे निकल गई है। उसने आगामी हिंदी साहित्य की अनेकविध परंपराओं का मार्ग प्रशस्त किया। वीरगाथात्मक साहित्य में वीर रस के रोमांचकारी दृश्य तथा आश्रयदाताओं का उद्दाम प्रशस्ति-गान है। इसमें वीर रस की सशक्त कलात्मक अभिव्यंजना हुई है।
➽ वीर रस के कवि ने जिस पार्श्व को लिया है, वह सजीव हो उठा है। उसकी प्रतिभा प्राकृतिक सौंदर्य के ग्रहण और उसके प्रतिफल में समर्थ है। उसकी वीर रस पूर्ण कविता में जनजीवन को दीप्त व प्रोत्साहित करने की पूर्ण शक्ति है। उसके श्रृंगार वर्णनों में रमणी के सुखद - पुष्पाच्छादित पर्यंक से लेकर वीरांगना की अपने पति की वीरगति की कामना तक चित्रित है। इससे स्पष्ट है कि इन सब विषयों तक तत्कालीन कवि की प्रतिभा का विस्तार था। इन सब विषयों का उसने कौशलपूर्ण अभिव्यंजन किया है। उक्त उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने डिंगल व पिंगल दोनों शैलियों का कलात्मक उपयोग किया।
➽ उस समय दृश्य काव्य का अभाव था तथा काव्य की गद्य विधा का यथेष्ट विकास नहीं हुआ था। वीरगाथा काल के कवि का कथ्य और शिल्प विधान दोनों मनोरम हैं। छंदों के क्षेत्र में तो मानों उस समय एक क्रांति-सी आ गई थी। छंद प्रयोग की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसका उपयोग श्रोता और पाठक की बदलती हुई चित्तवृत्ति की अनुरूपता में हुआ है। काव्य रूढ़ियाँ शिल्प विधान का एक महत्त्वपूर्ण अंग हैं। उस समय के रासो तथा अन्य शृंगारी काव्यों में शुक दूती दैवी शक्ति तथा संवाद शैली आदि काव्य रूढ़ियां प्रचुर मात्रा में प्रयुक्त हुई हैं जो कि एक विशिष्ट काव्य संस्कृति की सूचक हैं।
➽ संक्षेपतः यह कहा जा सकता है कि हिंदी के प्रारंभिक काल की वीरगाथाओं का साहित्य कथ्य और शिल्प विधान की दृष्टियों से पर्याप्त संपन्न है। इस साहित्य की अनेक परंपराएँ और शैलीगत विशेषताएँ परवर्ती हिंदी काव्य में पल्लवित और पुष्पित हुईं।