अपभ्रंश भाषा और साहित्य |अपभ्रंश भाषा और उसके भेद | Apbhransh Bhasha Literature

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अपभ्रंश भाषा और साहित्य , अपभ्रंश भाषा और उसके भेद

अपभ्रंश भाषा और साहित्य |अपभ्रंश भाषा और उसके भेद | Apbhransh Bhasha Literature


अपभ्रंश भाषा और साहित्य 

➽ प्राकृत भाषा के साहित्य क्षेत्र में परिनिष्ठित और व्याकरण के नियमों से आबद्ध हो जाने पर जनजीवन से उसका व्यापक संपर्क टूट गया। जिन लोकप्रचलित बोलियों से प्राकृत की रचना हुई थी. उनका जनसामान्य में बराबर विकास होता रहा। ये बोलियाँ देशी भाषा अथवा अपभ्रंश के नाम से अभिहित हुई। इसे दोहादूहाअवब्भंस और अवहट्ट और अवहत्थ आदि के विभिन्न नामों से पुकारा गया। प्रायः इन सभी शब्दों का अर्थ बिगड़ी हुई अशुद्धअसंस्कृत एवं अव्याकरणसम्मत भाषा लिया गया। अपभ्रंश भाषा मध्यकालीन आर्य भाषाओं के अंतर्गत है और सामान्यतः इनका काल 600 ई. से 1200 ई. तक स्वीकार किया गया है। (हालांकि 16वीं शताब्दी तक परिनिष्ठित अपभ्रंश में साहित्यिक रचनाओं की सृष्टि होती रही। आगे चलकर जब अपभ्रंश भाषा भी लोकभाषा न रहकर परिनिष्ठित साहित्यिक भाषा बन गईतो देशी भाषाओं हिंदीराजस्थानीपंजाबीगुजरातीमराठीबंगाली और सिंधी आदि भाषाओं का उदय हुआ।

 

अपभ्रंश भाषा और उसके भेद

 

➽ अपभ्रंश शब्द का प्रयोग भारतीय साहित्य में बहुत प्राचीन काल से होता आया है। यह विकृत शब्द के अर्थ और भाषा के रूप में चर्चित है। पतंजलि के महाभाष्य में संस्कृत को प्रकृति (मूल) और अपभ्रंश को उसका विकृत (भ्रष्ट) रूप कहा गया है। भरत के नाट्य शास्त्र में संस्कृतप्राकृत तथा लोकभाषा अपभ्रंश के भेदों का भी उल्लेख किया है। हेमचंद्र ने प्राकृत व्याकरण में अपभ्रंश को शिष्ट जनों की भाषा कहा है।

 

वैयाकरणों ने मुख्यत: तीन अपभ्रंशों-नागरब्राचड़ और उपनागर की चर्चा की है। मार्कडेय ने देश-भेद के आधार पर इसके 27 भेदों का उल्लेख किया है। कई विद्वानों ने भौगोलिक आधार पर पूर्वीपश्चिमी उत्तरी तथा दक्षिणी नामक अपभ्रंश भेदों की चर्चा की है। कई विद्वानों का विचार है कि जितनी प्राकृतें हैं उतने ही अपभ्रंश के भेद हैंकिंतु यह धारणा असंगत है। अशोक की मृत्यु के पश्चात् मागधी प्राकृत का साहित्यिक विकास सर्वथा अवरुद्ध हो गया और कालान्तर से अर्द्धमागधी के क्षेत्र में भी शौरसेनी अपभ्रंश का बोलबाला रहा। पूर्वी कवियों ने काव्य के क्षेत्र में शौरसेनी अपभ्रंश का प्रयोग किया। 10वीं शती में बंगाल में भी कविता क्षेत्र में उक्त अपभ्रंश का प्राधान्य रहा। सारे उत्तरी भारत में 12वीं शताब्दी तक गुजरात से पंजाब तक और महाराष्ट्र से नेपाल तक शौरसेनी अपभ्रंश का प्रयोग होता रहा। डॉ. सुनीति कुमार चाटुर्ज्या के शब्दों में, “वस्तुतः 12वीं शती तक साहित्य में केवल एक ही भाषाशैली चुनी जाती रही और वह थी - शौरसेनी या नागर अपभ्रंश गुजरात से लेकर बंगाल तक और शूरसेन प्रदेशों से लेकर बरार तक इसी साहित्यिक शैली का एकछत्र साम्राज्य था। पश्चिमी (शौरसेनी अपभ्रंश उस काल की साहित्यिक भाषा थी ठीक उसी तरह जैसे उसकी साक्षात् पुत्री हिंदी भाषा समस्त भारत की राष्ट्रभाषा तथा भारत के अधिकांश भाग की साहित्यिक भाषा है। "

 

अपभ्रंश साहित्य

 

➽ प्राकृत साहित्य के समान अपभ्रंश भी पर्याप्त समृद्ध है। इसमें महाकाव्योंखंडकाव्योंगीतिकाव्योंलौकिक- प्रेमकाव्योंधार्मिक रचनाओंरूपक साहित्यस्फुट साहित्य तथा गद्य साहित्य की नाना विधाओं की सृष्टि हुई है। इसमें जैन धर्म के सिद्धांत और सिद्धान्तेत्तर साहित्य बौद्ध सिद्धों तथा नाथों के साहित्य तथा शौर्य और शृंगारात्मक लौकिक काव्यों का प्रणयन हुआ है।

 

➽ जैनों के धर्मपरक काव्यों में जोइन्दु ( योगीन्द्र ) ( 11वीं शती) के परमात्म प्रकाशयोगसार तथा सावयधम्मदोहादेवसेन का समय-सार तथा जैन मुनि रामसिंह (11वीं शती) का पाहुड़ दोहा प्रमुख रचनाएँ हैं।

 

➽ इनका हम अन्यत्र उल्लेख कर चुके हैं। जैनों के धर्मेतर साहित्य के अंतर्गत स्वयंभू (8वीं शती) के पद्म चरिउ तथा हरिवंश पुराण तथा पुष्पदंत ( ईसा की 10वीं शती का उत्तरार्द्ध) के महापुराणयशहर चरिउ और जयकुमार चरिउ आदि प्रबंध काव्यों की चर्चा प्रस्तुत पुस्तक के आदिकाल नामक खंड में जैन साहित्य के अंतर्गत की जा चुकी है। धनपाल (11वीं शती) की भविष्यत कथा का उल्लेख भी उक्त प्रकरण में द्रष्टव्य है। इस परंपरा में मुनि कंकामार (11वीं शती) का करकंडचरिउ एक उल्लेखनीय कृति है। कथानक रूढ़ियों के अध्ययन की दृष्टि से यह रचना महत्त्वपूर्ण है।

 

➽  बौद्ध सिद्धों ने अपने चर्यापदों और दोहों तथा नाथपंथियों ने अपनी वाणियों से अपभ्रंश साहित्य की अभिवृद्धि हैं। अपभ्रंशों के शौर्य एवं प्रेम प्रधान काव्यों के अंतर्गत अब्दुर्रहमान का संदेश रासक एक महत्त्वपूर्ण गीति काव्य है जिसकी सविस्तार चर्चा हम आदिकाल में कर चुके हैं। इसके अतिरिक्त हेमचंद्र के शब्दानुसार के आठवें अध्याय तथा पुरातन प्रबंध संग्रह और प्रबंध चिन्तामणि में प्रेम तथा नीति व शौर्य संबंधी अनेक उत्तमोत्तम दोहे संगृहीत हैं. 

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