पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता
पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता
➽ प्रारंभ में रासो को एक प्रामाणिक ग्रंथ समझा गया। कर्नल टाड ने इसे प्रामाणिक समझकर इसके साहित्यिक सौंदर्य पर मुग्ध होकर इसके लगभग तीस हजार पद्यों का अंग्रेजी अनुवाद किया था। फ्रेंच विद्वान गार्साद तॉसी ने भी इसे प्रामाणिक माना था। बंगाल की रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ने तो इसका प्रकाशन भी आरंभ कर दिया था, किंतु इसी बीच 1875 ई. में डॉ. वूलर को काश्मीर में जयनक रचित 'पृथ्वीराज विजय' नामक संस्कृत काव्य उपलब्ध हुआ। ऐतिहासिकता की दृष्टि से इस ग्रंथ में वर्णित घटनायें उसे रासो की अपेक्षा शुद्ध प्रतीत हुई। ऐसी स्थिति में प्रो. वूलर को रासो की प्रामाणिकता पर संदेह हुआ और उसने उसका प्रकाशन कार्य स्थगित करवा दिया। वैसे तो रासो की प्रामाणिकता पर संदेह करने वाले सर्वप्रथम व्यक्ति जोधपुर के कविराज मुरारीदीन तथा उदयपुर के कविराज श्यामलदास थे किंतु डॉ. वूलर के संदेहपूर्ण दृष्टिकोण से अन्य भारतीय विद्वानों को इस दिशा में काफी प्रेरणा मिली, जिनमें गौरीशंकर हीराचंद्र जझा विशेष उल्लेखनीय हैं। इन्होंने अकादय युक्तियों से रासो को अप्रामाणिक सिद्ध करने का प्रयत्न किया है।
➽ इधर डॉ. दशरथ शर्मा ने ओझा जी की तमाम शंकाओं को निर्मूल सिद्ध करने के लिए तथा रासो को प्रामाणिक ग्रंथ सिद्ध करने के लिए उल्लेखनीय प्रयत्न किये हैं। सच यह है कि हिंदी साहित्य में रासो की प्रामाणिकता का प्रश्न आज तक विवादास्पद बना हुआ है। कुछ आलोचक रासों को नितांत अनैतिहासिक मानते हैं जबकि कुछ विद्वान इसे सर्वथा प्रामाणिक मानते हैं। इस संबंध में विद्वानों का तीसरा वर्ग रासो की अर्द्ध- प्रामाणिक रचना मानता है। चौथा वर्ग ऐसा है जो चंद को पृथ्वीराज का समकालीन तो मानता है पर इनके मतानुसार चंद ने रासो की रचना नहीं की।
रासो के आलोचकों के ये चार वर्ग निम्नलिखित हैं-
प्रथम वर्ग -
➽ रासो को सर्वथा अप्रामाणिक मानता है। यह वर्ग चंद के अस्तित्व को तथा रासो को पृथ्वीराज की समकालीन रचना भी नहीं मानता। इस पक्ष के समर्थक हैं कविराज श्यामलदास, कविराज मुरारीदास, गौरीशंकर हीराचंद ओझा, डॉ. वूलर मारिसन, मुंशी देवी प्रसाद थी अमृतलाल शील, श्री रामचंद्र शुक्ल तथा डॉ. रामकुमार वर्मा।
द्वितीय वर्ग -
➽ यह वर्ग रासो के वर्तमान रूप को प्रामाणिक तथा चंद को पृथ्वीराज का समकालीन मानता है। इस पक्ष के समर्थक है श्यामसुंदरदास मथुराप्रसाद दीक्षित, मोहनलाल विष्णुलाल पांड्या मिश्र तथा मोतीलाल मेनारिया आदि। इनमें कुछ रासो में प्रक्षिप्त अंशों का बहुत बड़ी संख्या में होना मानते हैं।
तृतीय वर्ग -
➽ यह वर्ग मानता है कि पृथ्वीराज के दरबार में चंद नामक कवि था जिसने रासो लिखा था किंतु वह मूल रूप में अप्राप्य है। आज उसका परिवर्तित एवं विकृत रूप उपलब्ध होता है। इस पक्ष के समर्थक हैं-डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी मुनि विनविजय, अगरचंद नाहटा, डॉ. दशरथ शर्मा, कविराज मोहनसिंह और हजारीप्रसाद । ये विद्वान रासो को अर्द्ध-प्रामाणिक रचना स्वीकार करते हैं।
चतुर्थ वर्ग -
➽ यह वर्ग मानता है कि चंद पृथ्वीराज का समकालीन था परंतु उसने प्रबंध रूप में रासो की रचना नहीं की। जैन ग्रंथशाला में प्राप्त पदों को उसकी फुटकर रचना मानता है। नरोत्तम स्वामी का यही मत है।
रासो की अप्रामाणिकता के कारण
➽ रासो को अप्रामाणिक मानने के मुख्यतः तीन कारण हैं- (क) घटना - वैषम्य, (ख) काल वैषम्य, (ग) भाषा संबंधी अव्यवस्था ।
(क) घटना वैषम्य - रासो में दिये गये अनेक नाम तथा घटनायें इतिहाससम्मत नहीं हैं। उदाहरणार्थ-
1. रासो में परमार, चालुक्य और चौहान क्षत्रिय अग्निवंशी माने गए हैं जबकि प्राचीन ग्रंथों और शिलालेखों के आधार पर ये सूर्यवंशी प्रमाणित होते हैं।
2. चौहानों की वंशावली, पृथ्वीराज की माता का नाम, माता का वंश, पुत्र का नाम, सामंतों का नाम आदि ऐतिहासिक शिलालेखों तथा पृथ्वीराज विजय नामक ग्रंथ से मेल नहीं खाते। पृथ्वीराज की माँ अनंगपाल की लड़की नहीं थी और न ही जयचंद अनंगपाल का दौहित्र तथा राठौरवंशी था। शिलालेखों में उसे गहरवार क्षत्रिय बताया गया है।
3. ओझा जी ने पृथ्वीराज तथा जयचंद की शत्रुता तथा संयोगिता स्वयंवर की बात को भी अनैतिहासिक कहा है।
4. इतिहास के अनुसार अनंगपाल उस समय दिल्ली का राजा नहीं था और न ही पृथ्वीराज को उसने गोद लिया था। पृथ्वीराज अजमेर का शासक था न कि दिल्ली का बीसलदेव पहले से ही दिल्ली राज्य को अजमेर राज्य में सम्मिलित कर चुके थे।
5. पृथ्वीराज की माँ का नाम कर्पूरदेवी था, न कि कमला; जैसा रासो में वर्णित है।
6. पृथ्वीराज की बहिन पृथा का विवाह मेवाड़ के राजा समरसिंह से नहीं हुआ था क्योंकि शिलालेखों से यह प्रमाणित हो चुका है कि समरसिंह पृथ्वीराज के पश्चात् 109 वर्ष तक जीवित रहे।
7. गुजरात के राजा भीमसिंह का पृथ्वीराज द्वारा वध भी अनैतिहासिक है, क्योंकि राजा भीमसिंह पृथ्वीराज के पश्चात् 50 वर्ष तक जीवित रहे थे। भीमसिंह पृथ्वीराज के समय बालक ही था।
8. शहाबुद्दीन का मृत्यु संबंधी इतिवृत्त भी कोरी कल्पना पर आधारित है, क्योंकि गोरी की मृत्यु पृथ्वीराज के हाथों नहीं, गख्खरों के हाथों से हुई।
9. रासो में पृथ्वीराज के 11 वर्ष से लेकर 36 वर्ष तक की आयु तक चौदह विवाहों का वर्णन है। जबकि इतिहास के अनुसार पृथ्वीराज की मृत्यु तीस वर्ष की अवस्था से पूर्व ही हो गई थी। अतः इतने विवाह असंभव हैं।
10. शहाबुद्दीन द्वारा समरसिंह का वध और पृथ्वीराज द्वारा सोमेश्वर का वध इतिहास विरुद्ध है।
(ख) काल वैषम्य -
➽ रासो में दी गई तिथियाँ तथा संवत् भी अशुद्ध हैं। कर्नल टाड के अनुसार रासो में दिये गए संवतों तथा दूसरे ऐतिहासिक संवतों में सौ वर्ष का अंतर है।
1. रासो में पृथ्वीराज की मृत्यु का संवत् 1158 है जबकि इतिहास से वह संवत् 1148 है। पृथ्वीराज का जन्म रासो में सं. 1115 है। इतिहास से वह 1220 ठहरता है।
2. आबू पर भीम चालुक्य का आक्रमण शहाबुद्दीन के साथ पुराडोर युद्ध की तिथियाँ भी अशुद्ध हैं।
3. पृथ्वीराज की जीवन घटनाएँ उसका दिल्ली जाना, मेवाती मुगल युद्ध, संयोगिता स्वयंवर घटनाओं का सं. 1460 के आसपास रचित हम्मीर महाकाव्य में कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता है।
4. रासो के अनुसार शहाबुद्दीन गौरी संवत् 1219 में पृथ्वीराज द्वारा मारा गया था परंतु इतिहास के अनुसार सं. 1263 में गक्खतें के द्वारा उसका वध किया गया था।
➽ उक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि रासो एक जाली ग्रंथ है। यदि चंदबरदाई पृथ्वीराज का समकालीन होता और रासो उसकी कृति होती तो कदाचित इतनी भयंकर भूलें न होतीं। इस विषय में आचार्य शुक्ल लिखते हैं-" इस संबंध में इसके अतिरिक्त और कुछ कहने की जगह नहीं कि यह ग्रंथ पूरा जाली है। यह हो सकता है कि इसमें इधर-उधर चंद के कुछ पद्य भी बिखरे हों। पर उनका पता लगाना असंभव है। यदि किसी समसामयिक कवि का रचा होता और इसमें कुछ थोड़े अंश ही पीछे से मिले होते तो कुछ घटनाएँ और इसमें कुछ संवत् तो ठीक होते।"
(ग) भाषा-संबंधी अव्यवस्था -
➽ रासो में अरबी फारसी के बहुत से शब्दों का प्रयोग हुआ है जो चंद के समय किसी भी प्रकार प्रयोग में नहीं लाये जा सकते थे। इस प्रकार रासो की भाषा चंद के समय की न होकर सोलहवीं शताब्दी की ठहरती है। प्रसिद्ध भाषाशास्त्री डॉ. धीरेंद्र वर्मा ने इसी आधार पर इसे सोलहवीं शती की रचना माना है। आचार्य शुक्ल का इस संबंध में कहना है, "यह ग्रंथ (पृथ्वीराज रासो) ने तो भाषा के इतिहास और न ही साहित्य के जिज्ञासुओं के काम का है।"
रासो को प्रामाणिक मानने वालों का मत
➽ रासो एकदम जाली पुस्तक नहीं है। इसमें बहुत कुछ प्रक्षेप होने के कारण इसका रूप विकृत जरूर हो गया है, पर इस विशाल ग्रंथ में कुछ सार भी अवश्य है। इसका मूल रूप निश्चित रूप से साहित्य और भाषा के अध्ययन की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । रासो के लघुतम संस्करण में प्रक्षेप अधिक संख्या में नहीं हैं। मुनि जिनविजय का कहना है कि रासो का मूल रूप अल्पकाय था और उसकी भाषा अपभ्रंश थी। ए. के. चटर्जी का भी ऐसा ही विश्वास है। क्योंकि 'पुरातन प्रबंध संग्रह' में रासो के चार छंद ऐसे मिले हैं, जो रासो की लघुतम प्रतियों में भी हैं। यह प्रति लगभग पंद्रहवीं शताब्दी की मानी गई है। डॉ. हजारीप्रसाद का मत है, "इन पद्यों के प्रकाशन के बाद अब इस विषय में किसी को संदेह नहीं रह गया है कि चंद नामक कवि पृथ्वीराज के दरबार में अवश्य थे और उन्होंने ग्रंथ भी लिखा है। सौभाग्य रासो में भी ये कुछ छंद कुछ विकृत रूप में प्राप्त हो गए हैं। इस पर यह अनुमान किया जा सकता है कि वर्तमान रासो में चंद के मूल छंद अवश्य मिले हुए हैं। "
डॉ. दशरथ शर्मा ने रासो पर आरोपित शंकाओं का खंडन करते हुए कहा है-
1. मूल रासो न तो जली ग्रंथ है और न उसकी रचना सं. सोलह सौ के आसपास हुई थी। इधर मिली हुई रासो की लघुतम प्रतियों के आधार पर घटना वैषम्य, काल वैषम्य एवं भाषा संबंधी अव्यवस्थाओं का निराकरण हो जाता है। इन प्रतियों में इतिहास विषयक त्रुटिपूर्ण घटनाओं का कहीं भी उल्लेख नहीं है।
2. राजपूत कुलों की आबू के अग्निकुंड से उत्पत्ति का उल्लेख भी इस प्रति में नहीं है। उसमें केवल इतना लिखा है कि ब्रह्मा के यज्ञ से वीर चौहान मानिक राय उत्पन्न हुआ। सुर्जन- चरित्र, हम्मीर काव्य और पुष्कर तीर्थ में भी यह कथा इसी प्रकार है।
3. ओझा जी के अनुसार रासो की अशुद्ध वंशावली का यह विस्तार बीकानेर की लघुतम प्रति में नहीं है। पृथ्वीराज विजय में और इस प्रति की वंशावली में कुछ ही नामों का अंतर है।
4. अनंगपाल और पृथ्वीराज के संबंध की अशुद्धि इस प्रति में भी है। शर्मा जी उसका कोई कारण नहीं बता सके।
5. संयोगिता - स्वयंवर का वर्णन सभी प्रतियों में विस्तारपूर्वक है। लघुतम प्रति में केवल इच्छिनी के विवाह का वर्णन है।
6. पृथा का विवाह तथा शहाबुद्दीन समरसिंह युद्ध और भीम- सोमेश्वर तथा पृथ्वीराज और सोमेश्वर के युद्ध का इस प्रति में कहीं उल्लेख नहीं। उसमें पृथ्वीराज और पद्मावती के विवाह की कथा भी नहीं है।
7. लघुतम प्रति में कैमास - वध का वर्णन है। पृथ्वीराज विजय के अनुसार वह पृथ्वीराज का प्रधान था। वह मूल रासो की कथा है।
डॉ. दशरथ शर्मा का कहना है कि रासो की अप्रामाणिकता के संबंध में दी गई सब युक्तियाँ हेत्वाभास हैं। वे आगे लिखते हैं-
“सारांश यह कि अपने मूल रूप में रासो की ऐतिहासिकता अक्षुण्ण है। इस समय आवश्यकता इस बात की है कि बीकानेर की प्रति से भी रासो की पुरानी प्रति को खोज निकाला जाये। यदि रासो की प्राचीनतम प्रति मिल जाये तो उसमें निश्चित रूप से सुर्जन-चरित में उद्धृत बातें मिलेंगी, क्योंकि यह संस्कृत में रासो का सारांश है।' "
➽ इधर काल-वैषम्य का समाधान करते हुए पं. मोहनलाल विष्णुलाल पांड्या ने 'अनंद' संवत् की कल्पना की है। अनंद अर्थात् अ-शून्य (0) और नंद-नौ (9) के अंक जोड़ने से 90 वर्ष का व्यवधान सभी तिथियों में ठीक बैठता है। पर ओझा जी का कहना है कि राजस्थान में विक्रम संवत् का प्रचलन रहा है। अतः इस काव्य में भी संवत् का व्यवहार होना चाहिए था। अस्तु पृथ्वीराज का दरबारी कवि जयनक कश्मीरी था और वह संस्कृत का कवि था। उसके द्वारा चंदबरदायी के अनुल्लेख से पृथ्वीराज रासो की अप्रामाणिकता सिद्ध नहीं की जा सकती है। सबसे पहली बात तो यह है कि जयनक ने कदाचित् कवि सुलभ सहज ईर्ष्यावश ऐसा किया हो या यह भी संभव है कि प्राचीन काल के छोटे-छोटे राज्यों में भाषा कवि को संस्कृत कवियों के सम्मुख अत्यंत गौण स्थान मिला करता था। वे साधारण भाट या चारण कवि से अधिक सम्मान के पात्र नहीं समझे जाते थे। वह अनुमान है कि बेचारे चंदबरदाई की भी संस्कृत कवि के सामने दयनीय स्थिति रही होगी। संस्कृत पंडितों के द्वारा तत्कालीन भाषा कवि को तुच्छ और नगण्य समझा गया। लोक में वे भाट की संज्ञा से अभिहित किये जाते थे। संभवतः ऐसे भाट कवि अपनी प्रतिभा का विशेष सम्मान प्राप्त न करके प्रशस्तिपरक अतिशयोक्तियों द्वारा आश्रयदाता को रिझाकर जीवनयापन करते रहे हो।
➽ डॉ. हजारीप्रसाद ने रासो को अर्द्धप्रामाणिक रचना स्वीकार किया है। उनका कहना है कि इस रासो का काव्य रूप दसवीं शताब्दी के साहित्य के काव्य रूप से समानता रखता है। इसकी संवाद प्रवृत्ति और रासो प्रवृत्ति और
➽ कीर्तिपताका और संदेश रासक से साम्य रखती हैं। इसमें सभी प्राचीन कथानक रूढ़ियों का सुंदर निर्वाह हुआ है। 12वीं शती की भाषा की संयुक्ताक्षरमय अनुस्वारान्त प्रवृत्ति इसमें उपलब्ध होती है। रासो विशुद्ध रूप से इतिहास ग्रंथ नहीं है प्रत्युत काव्यग्रंथ है। हर्षचरित का समान रासो में भी यत्र-तत्र दैवी शक्ति का आरोप है। वस्तुस्थिति यह है कि प्राचीन भारतीय वाङ्मय में इतिहास को सीमित भौतिक अर्थ में ग्रहण न करके उसे व्यापक सांस्कृतिक रूप में ग्रहण किया गया। उसमें तथ्यों (facts) और कल्पना (fiction) का अद्भुत सम्मिश्रण है तथा निजधरी कथाएँ साथ-साथ चलती हैं। इसके साथ उसमें संभावनाओं पर अधिक बल है। डॉ. हजारीप्रसाद का विचार है कि रासो की रचना शुक शुकी के संवाद के रूप में हुई थी अतः जिन सर्गों का आरंभ शुक शुकी संवाद से होता है, उन्हीं को प्रामाणिक माना जाना चाहिए। इस आधार पर आपने निम्नांकित सभी को प्रामाणिक मानने का सुझाव दिया है- (1) प्रारंभिक अंश (2) इच्छिनी का विवाह (3) शशिव्रता का गंधर्व विवाह, ( 4 ) तोमर पाहार का शहाबुद्दीन को पकड़ना, (5) संयोगिता का विवाह (6) कैमास वध, (7) गोरी-अध संबंधी इतिवृत्त रासो के संबंध में डॉ. नामवरसिंह की भी उपर्युक्त मान्यता है। उनका कहना है कि शुक का दौत्य कार्य, नायिका की अप्सरा का अवतार कहना, महादेव के मंदिर में नायक-नायिका का मिलना, सिंहलद्वीप, फल द्वारा संतान की उत्पत्ति, लिंग परिवर्तन आदि बातें अनैतिहासिकता की द्योतक नहीं बल्कि कथानक रूढ़ि के निर्वाह की सूचक है। पृथ्वीराज रासो ऐसी रूढ़ियों का कोश है। इनमें से कितनी चंद द्वारा नियोजित हैं और कितनी दूसरों के द्वारा इसको अलग कर पाना खेल नहीं है।"
➽ डॉ. माताप्रसाद गुप्त ने डॉ. हजारीप्रसाद के मत की आलोचना करते हुए लिखा है कि प्रक्षेपकारों ने भी शुक शुकी के संवाद से प्रक्षिप्त सर्गों की रचना न की होगी, इसका क्या प्रमाण है? जिन सर्गों को द्विवेदी जी ने प्रामाणिक माना है उनमें भी संभाव है, प्रक्षिप्त अंश हो ।
➽ रासो की भाषा संबंधी गड़बड़ी का समाधान करते हुए रासो की प्रामाणिकता के समर्थकों का कहना है कि उस समय मुसलमानों के आक्रमण आरंभ हो गये थे। अतः लाहौर का निवासी होने के कारण चंद की भाषा में उन शब्दों का प्रयोग उचित और तर्कसंगत है। यदि अरबी-फारसी के शब्दों के आधार पर रासो अप्रामाणिक है तो सूर और तुलसी के काव्य भी अप्रामाणिक मानना पड़ेगा क्योंकि उसमें भी उर्दू और फारसी के शब्द उपलब्ध होते हैं।
➽ इस प्रकार रासो की प्रामाणिकता के संबंध में अनेक मत प्रचलित हैं। हमारे विचारानुसार रासो सर्वथा अप्रामाणिक नहीं है। उसका मूल रूप अभी प्राप्त नहीं है। रासो का लघुतम संस्करण उसके मूल रूप से अधिक निकट है। हमारे कवि लोग जानबूझकर चरित नायक के गौरव की रक्षा के लिए ऐतिहासिक तथ्यों में परिवर्तन करते रहे हैं। चंद इसके अपवाद नहीं हैं। साथ ही यह भी मानना होगा कि बारहवीं शताब्दी तक हिंदी का विकास इतना अधिक नहीं हुआ था कि वह साहित्य में प्रयुक्त होती । अतः रासो का मूलतः अपभ्रंश में रचा जाना ही अधिक संभव है, अस्तु, रासो की प्रामाणिकता और अप्रामाणिकता के विषय में हिंदी साहित्य में इतना अधिक कहा-सुना गया है कि एक साधारण पाठक हैरान रह जाता है कि वह इसे असली कहें या जाली? डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में, “निरर्थक मंच से जो दुस्तर फेन राशि तैयार हुई है उसे पार करके ग्रंथ के साहित्यिक रस तक पहुँचाना हिंदी के विद्यार्थी के लिए असंभव सा व्यापार हो गया है। "