भक्तिकालीन साहित्य का सारांश
भक्तिकालीन साहित्य का सारांश
आध्यात्मिकता एवं साहित्यिकता का समन्वय
भक्तिकाव्य में मार्मिक भावनाओं एवं कवित्व का सामंजस्य वर्तमान है। भक्तिकालीन काव्य जैसे 'रामचरितमानस' जहाँ धर्म का उच्चतम रूप हमारे सामने रखता है, वहाँ उसमें उच्चकोटि का कवित्व भी है। यदि उसमें दास्य, सख्य, वात्सल्य एवं माधुर्य भाव की भक्ति का निरूपण है, तो दूसरी ओर उसमें लौकिक जीवन की अभिव्यक्ति भी अत्यन्त सफलता से हुई है। भक्तिकालीन साहित्य भक्तों के हृदय की प्यास बुझाता है, तो काव्यरसिकों को भी रसमग्न कर देने की शक्ति रखता है। 'रामचरितमानस', 'सूरसागर आदि इस प्रकार के काव्यग्रंथ हैं। इन रचनाओं में भक्तिभाव की गम्भीरता, भाषा की सुकुमारता, अनुभूति की तीव्रता तथा रसोद्रेक की पूर्ण क्षमता है।
लोकमंगल का साहित्य
भक्तिकालीन साहित्य में लोक मंगल की भावना भी निहित है। यद्यपि 'सूर' ने लोकमंगल की ओर अधि एक ध्यान नहीं दिया और वे कृष्ण के लोकरंजन, मधुर और लीलामय रूप में ही मग्न रहे, परन्तु सम्पूर्ण रूप से भक्ति साहित्य में लोकमंगल की भावना प्रमुख है। ये कवि भक्त होने के साथ-साथ समाज सुधारक और जननायक थे। जायसी, कबीर और तुलसी के काव्य में समाज को महान सन्देश दिये गए हैं। तुलसीदास के विषय में आचार्य शुक्ल के शब्द अक्षरशः सत्य हैं- 'भारतीय जनता का प्रतिनिधि कवि यदि किसी को कह सकते है, तो इसी महानुभाव (तुलसी) को ही। इस काल के कवि भक्त, समाज सुधारक लोकनायक एवं भविष्यद्रष्टा थे। कविता के संबंध में तुलसी के शब्दों में उनका आदर्श था।
"कीरति भनिति भूति भलि सोई ।
सुरसरि सम सब कहुँ हित होई ।
भक्तिकाल में लोक और परलोक का सामंजस्य है। वह हृदय, मन और आत्मा की प्यास शांत कर सकता है। इसमें काव्यत्व, भक्ति, संस्कृति आध्यात्मिकता का मधुर समन्वय है। इस प्रकार भक्तिकाल को हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग कहना तर्कसंगत एंवा समुचित मालूम पड़ता है।