आदिकाल में अपभ्रंश की प्रमुख रचनाएँ: भविष्यदत्त कथा
धनपाल रचित भविष्यदत्त कथा
➽ जैन कवि धनपाल रचित भविष्यदत्त कथा यह अपभ्रंश साहित्य का कथा-काव्य है जिसकी रचना धनपाल (10वीं शताब्दी ई.) ने की। इसे 'भविष्यदत्त कथा' तथा 'सुय पंचमी' के नाम से भी अभिहित किया जाता है क्योंकि यह सुय पंचमी माहात्म्य के लिए लिखी गई हैं। इसके प्रणयन का उद्देश्य धार्मिक शिक्षा है। राहुल जी ने इसे 10वीं सदी रचित माना है तथा इसकी भाषा को पुरानी हिंदी कहा है। मोतीलाल मेनारिया ने जैन कवि धनपाल का समय सं. 1081 माना है तथा इसकी भाषा को पुरानी राजस्थानी माना है। हमारे विचार में इस ग्रन्थ की भाषा साहित्यिक अपभ्रंश है।
➽ इस प्रबंध काव्य में तीन प्रकार की कथाएँ जुड़ी हुई हैं। इसमें बाईस संधियाँ हैं। कथा का पहला भाग शुद्ध घरेलू ढंग की कहानी हैं, जिसमें दो विवाहों के दुःखद पक्ष को सामने रखा गया है। इसमें वणिकपुत्र भविष्यदत्त की कथा है जो अपने सौतेले भाई बंधुदत्त के द्वारा कई बार छले जाने पर भी अंत में जिन महिमा के कारण सुखी होता है। कथा का मुख्य अंश यही है और कवि ने इसे आराम से चौदह संधियों में कहा है।
➽ इस काव्य का वस्तु-वर्णन हृदयग्राही है। इसमें शृंगार, वीर और शांत रस की प्रधानता है। काव्य में कई मार्मिक स्थल हैं जहाँ कि धनपाल की काव्य-प्रतिभा स्फुटित हुई है। तिलक द्वीप में अकेले छोड़े गये भविष्यदत्त की हृदय की व्याकुलता का चित्र देखिए जबकि वह एक गहरी चिंता में निमग्न है-
गयं विप्पुलं ताम सव्वं वणिज्जम् ।
हुवं अम्ह गोतम्मि लज्जा वणिज्जम् ॥
नारी के रूप वर्णन का भी चित्र देखिए-
णं वम्मह भल्लि विघण सील जुवाण जणि ।
धनपाल का नख-शिख वर्णन परंपरायुक्त है। कवि की दृष्टि नारी के बाह्य सौंदर्य पर अधिक टिकी है, उसके आन्तरिक सौंदर्य की ओर नहीं गई।
मुहावरों और लोकोक्तियों का भी सुंदर प्रयोग हुआ है
कि घिउ होई विरोलिए पाणि ।
➽ भविष्यदत्त कथा में उपमा, उत्प्रेक्षा, स्वाभावोक्ति, विरोधाभास और अतिशयोक्ति आदि अलंकारों का सुंदर प्रयोग हुआ है। भुजंगप्रयात, लक्ष्मीधर, मंदार, चामर, शंख, नारी, अडिल्ला, काव्य, प्लवंगल, सिंहावलोकन तथा कलहंस आदि वार्णिक तथा मात्रिक छंदों का प्रयोग हुआ है।
➽ संभव है भविष्यदत्त कथा जैसे चरित काव्य अपभ्रंश साहित्य में और भी लिखे गए हों। इन काव्यों का अध्ययन परवर्ती हिंदी साहित्य की प्रवृत्तियों के सम्यक् अवबोध के लिए उपयोगी सिद्ध होगा। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जैन कवियों द्वारा लिखे गए चरित काव्यों के संबंध में लिखते हैं-" इन चरित काव्यों के अध्ययन से परवर्ती काल के हिंदी साहित्य के कथानकों, कथानक रूढ़ियों, काव्यरूपों, कवि-प्रसिद्धियों, छंद-योजना, वर्णन शैली, वस्तु-विन्यास, कवि-कौशल आदि की कहानी बहुत स्पष्ट हो जाती है। इसलिए इन काव्यों से हिंदी साहित्य के विकास के अध्ययन में बहुत महत्त्वपूर्ण सहायता प्राप्त होती है। "
➽ आचार्य शुक्ल ने जैन कवियों की रचनाओं में धर्म-भाव को देखते हुए इन्हें रागात्मक साहित्य की परिधि से बाहर कर दिया था किन्तु यह संगत नहीं। सूर, तुलसी, जायसी और मीरा का साहित्य धार्मिक होते हुए भी काव्य- वैभव से संपन्न है, यही दशा जैन कवियों के इन चरित काव्यों की है।