चंदबरदायी व्यक्ति और चरित चंदबरदायी : पृथ्वीराज रासो
पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता प्रस्तावना (Introduction)
➽ कई विद्वानों ने
चंद के पूर्व पुरुषों को मगध से आया हुआ बताया है किंतु रासो में लिखा है कि चंद
का जन्म लौहार में हुआ। कहते हैं कि चंद पृथ्वीराज के पिता सोमेश्वर के समय
राजपूताने में आया और पहले सोमेश्वर का दरबारी और पीछे पृथ्वीराज का मंत्री, सखा और राजकवि हुआ।
पृथ्वीराज ने नागौर बसाया था और वहीं बहुत-सी भूमि चंद को दी थी। नागौर में अब तक
भी चंद के वंशज रहते हैं।
➽ इधर प्रो. वूलर
आदि विद्वानों ने चंद के अस्तित्व को मानने से बिलकुल इंकार कर दिया है। प्रो.
महोदय का कथन है कि जयनक रचित पृथ्वीराज विजय नामक संस्कृत काव्य में पृथ्वीराज की
राजसभा का वर्णन किया है पर उसमें चंद का कहीं भी नाम नहीं है। उसमें पृथ्वीराज के
दरबारी बंदीजन पृथ्वीभट्ट का उल्लेख है।
➽ प्रारंभ में रासो को एक प्रामाणिक ग्रंथ समझा गया। कर्नल टाड ने इसे प्रामाणिक समझकर इसके साहित्यिक सौंदर्य पर मुग्ध होकर इसके लगभग तीस हजार पद्यों का अंग्रेजी अनुवाद किया था। फ्रेंच विद्वान गार्सा द तॉसी ने भी इसे प्रामाणिक माना था। बंगाल की रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ने तो इसका प्रकाशन भी आरंभ कर दिया था, किंतु इसी बीच 1875 ई. में डॉ. वूलर को काश्मीर में जयनक रचित 'पृथ्वीराज विजय' नामक संस्कृत काव्य उपलब्ध हुआ। ऐतिहासिकता की दृष्टि से इस ग्रंथ में वर्णित घटनाएँ उसे रासो की अपेक्षा शुद्ध प्रतीत हुई। ऐसी स्थिति में प्रो. वूलर को रासो की प्रामाणिकता पर संदेह हुआ और उसने उसका प्रकाशन कार्य स्थगित करवा दिया। वैसे तो रासो की प्रामाणिकता पर संदेह करने वाले सर्वप्रथम व्यक्ति जोधपुर के कविराज मुरारीदीन तथा उदयपुर के कविराज श्यामलदास थे किंतु डॉ. वूलर के संदेहपूर्ण दृष्टिकोण से अन्य भारतीय विद्वानों को इस दिशा में काफी प्रेरणा मिली, जिनमें गौरीशंकर हीराचंद्र ओझा विशेष उल्लेखनीय हैं।
चंदबरदायी : पृथ्वीराज रासो
चंदबरदायी व्यक्ति और चरित
➽ चंद हिंदी साहित्य का एक ऐसा विलक्षण प्रतिभासंपन्न कवि है जिसकी कृति 'पृथ्वीराज रासो' और उसका निजी
अस्तित्व आज तक प्रश्नवाची चिह्न (?) से संयुक्त है। आज पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता अत्यंत
विवादास्पद विषय है। हिंदी के कुछ विद्वानों ने रासो को सर्वथा अप्रामाणिक, कुछ एक ने
प्रामाणिक और कइयों ने अर्द्ध-प्रामाणिक माना है। इस वितंडावाद से रासोकार का
व्यक्तित्व नितान्त धूमिल हो गया है।
➽ परंपरागत तॉसी
चंद को पृथ्वीराज का समकालीन मानते हैं। ऐसा प्रसिद्ध है कि ये पृथ्वीराज के साथ
वि.स. 1206 में पैदा हुए
थे। ये जगाति गोत्र के भट्ट ब्राह्मण थे और इनका जन्म लाहौर में हुआ। जालंधरी इनकी
इष्ट देवी थीं। जिनकी कृपा से चंद अदृश्य काव्य तक का भी निर्माण कर सकते थे। चंद
पृथ्वीराज के राजकवि ही नहीं थे, अपितु सखा और सामन्त भी थे। षट् भाषा-व्याकरण, काव्य, साहित्य, छंद-शास्त्र, ज्योतिष, पुराण, नाटक आदि में ये
पूर्णतया दक्ष थे। इनका जीवन पृथ्वीराज से एकमात्र अभिन्न था। ये सभा, युद्ध, आखेट तथा
यात्रादि में सदा महाराज के साथ रहा करते थे। जब शहाबुद्दीन गोरी पृथ्वीराज चौहान
को बंदी बनाकर गजनी ले गया तब चंद भी वहाँ पहुँचे और रासो का लेखन कार्य अपने
पुत्र जल्हण को सौंप गए-
पुस्तक जल्हण
हत्थ हैं चलि गज्जन नृप काज ।
➽ गजनी पहुँचकर चंद
ने सम्राट चौहान को मुक्त करवाने के लिए पृथ्वीराज द्वारा शब्दवेधी बाण चलाने की
योजना बनाई। पृथ्वीराज ने चंद के संकेत पर बाण चलाकर गोरी का काम तमाम कर दिया, तत्पश्चात् चंद
और पृथ्वीराज ने कटार मारकर आत्मोत्सर्ग किया।
➽ कई विद्वानों ने चंद के पूर्व पुरुषों को मगध से आया हुआ बताया है किंतु रासो में लिखा है कि चंद का जन्म लौहार में हुआ। कहते हैं कि चंद पृथ्वीराज के पिता सोमेश्वर के समय राजपूताने में आया और पहले सोमेश्वर का दरबारी और पीछे पृथ्वीराज का मंत्री, सखा और राजकवि हुआ। पृथ्वीराज ने नागौर बसाया था और वहीं बहुत-सी भूमि चंद को दी थी। नागौर में अब तक भी चंद के वंशज रहते हैं।
➽ इधर प्रो. वूलर
आदि विद्वानों ने चंद के अस्तित्व को मानने से बिलकुल इंकार कर दिया है। प्रो.
महोदय का कथन है कि जयनक रचित पृथ्वीराज विजय नामक संस्कृत काव्य में पृथ्वीराज की
राज सभा का वर्णन किया है पर उसमें चंद का कहीं भी नाम नहीं है। उसमें पृथ्वीराज
के दरबारी बंदीजन पृथ्वी भट्ट का उल्लेख हैं।
तनयश्चंद्रराजस्य चंद्रराज इवाभवत्।
संग्रह यः सुवृत्तानां सुवृत्तानामिव व्यथाजात् ॥
➽ पृथ्वीराज विजय के उपरोक्त श्लोक के आधार पर चंद्रराज नामक किसी कवि का होना तो सिद्ध होता है, पर यह नाम चंदबरदायी का सूचक नहीं। ओझा जी ने भी इसे चंद्रक कवि का सूचक बताया है जिसका उल्लेख काश्मीरी कवि क्षेमेंद्र ने भी किया है। इसी तथ्य की पुष्टि कुछ एक शिलालेखों से भी हो जाती है। उनमें चंद का कहीं भी उल्लेख नहीं है। इसके अतिरिक्त 15वीं सदी में रचित हम्मीर महाकाव्य में चौहान वंश का वर्णन तो है पर चंद का नाम भी नहीं है। इसी प्रकार उस समय में लिखित 'रंभामंजरी' नामक नाटकों में रासो या चंद का कहीं भी उल्लेख नहीं है। उक्त तथ्यों के आधार पर ही चंद की अस्तित्वहीनता स्वीकार करना संगत प्रतीत नहीं होता। किसी ग्रंथ अथवा शिलालेख में अन्य कवि का नाम न होना कोई प्रबल तर्क नहीं है। ईर्ष्यावश या किसी अन्य कारणवश उसका उल्लेख न किया जाना नितान्त संभव है। दूसरी बात यह भी है कि जयनक या हम्मीर महाकाव्यकार कोई इतिहास प्रस्तुत नहीं कर रहे थे। बाण ने अपनी कादम्बरी में अनेक कवियों को श्रद्धांजलि अर्पित की है पर फिर भी कुछ एक कवियों का वहाँ उल्लेख नहीं है किंतु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं कि संस्कृत साहित्य में कवि है ही नहीं। सच तो यह है कि हमारे यहाँ कुछ मिथ्या और निरर्थक मान्यताएँ और धारणाएँ चल निकली हैं जैसे रामायण के राम और रावण आदि पात्र एकमात्र कल्पित हैं, कौटिल्य एवं चाणक्य सर्वथा कल्पित (Mythical) है। अस्तु! प्रबंध संग्रहों के संपादक मुनि जिनविजय ने लिखा है "इससे यह प्रमाणित होता है कि चंद कवि निश्चयतः एक ऐतिहासिक पुरुष था और वह दिल्लीश्वर हिंदू सम्राट पृथ्वीराज का समकालीन और उसका सम्मानित राजकवि था। उसी ने पृथ्वीराज के कीर्तिकलाप का वर्णन करने के लिए देशव्यापी प्राकृत भाषा में एक काव्य रचना की थी जो पृथ्वीराज रासो के नाम से प्रसिद्ध हुई । "
➽ चंदरबरदायी ने षड्-भाषा कुरान तथा पुराणों के ज्ञाता होने का दावा किया है.... षड्- भाषा कुरानंच पुराण विदित मया। वर्णरत्नाकर के लेखक ज्योतिरीश्वर ठाकुर ने षड्-भाषाओं के अंतर्गत संस्कृत, प्राकृत, अवहट्ट, पैशाची, शौरसेनी तथा मागधी का उल्लेख किया है। उनके अनुसार-शकारी, आभारी, चांडाली, सावली, द्राविड़ी, औत्कलि और विजातीया ये सात उपभाषाएँ हैं। (वर्णरत्नाकर पृ. 44 ) हमारा अनुमान है कि चंदबरदायी को उपर्युक्त भाषाओं का विशिष्ट ज्ञान था और यह कोई अजब बात नहीं कि पृथ्वीराज रासो अपने में मूल रूप में या तत्संबंधी - अपभ्रंशों में प्रणीत हुआ हो तथा बाद में उसकी भाषा में आवश्यकतानुसार परिवर्तन की प्रक्रिया चलती रही हो । प्राकृत भाषा
➽ शताब्दियों से चली आई चंदवरदायी विषयक जनश्रुति परंपरा को एकमात्र कपोल कल्पित नहीं कहा जा सकता है। निःसंदेह चंद की जीवनी के संबंध में जितनी सामग्री उपलब्ध है, वह नितान्त विश्वसनीय एवं संतोषजनक नहीं इस संबंध में विशेष अनुसंधान की आवश्यकता है।