भाषा की विशेषताएँ और प्रकृति
भाषा की विशेषताएँ और प्रकृति
(1) भाषा पैतृक सम्पत्ति नहीं है-
कुछ लोगों का विश्वास है कि भाषा पैतृक सम्पत्ति है। पिता की भाषा पुत्र को पैतृक संपत्ति की भाँति अनायास ही प्राप्त होती है, किंतु यथार्थतः ऐसी बात नहीं है। यदि किसी भारतीय बच्चे को एक-दो वर्ष की अवस्था से फ्रांस में पाला जाय तो वह हिंदी या हिन्दुस्तानी आदि न समझ या बोल सकेगा और फ्रेंच ही उसकी मातृभाषा या अपनी भाषा होगी। यदि भाषा पैतृक संपत्ति होती तो भारतीय लड़का भारत से बाहर कहीं भी रहकर बिना प्रयास के हिंदी समझ और बोल लेता। कुछ वर्ष पूर्व लखनऊ के अस्पताल में लगभग 12 वर्ष का एक लड़का लाया गया था जो मनुष्य की तरह कुछ भी नहीं बोल पाता था। खोज करने पर पता चला कि उसे कोई भेड़िया बहुत पहले उठा ले गया था और तब से वह उसी भेड़िये के साथ रहा। उसमें सभी आदतें भेड़िये सी थीं। उसके मुँह से निःसृत ध्वनि भी भेड़िये से ही मिलती जुलती थी। यदि भाषा पैतृक संपत्ति होती तो वह अवश्य मनुष्य की तरह बोलता, क्योंकि वह गूँगा नहीं था ।
(2) भाषा अर्जित संपत्ति है-
ऊपर के दोनों उदाहरणों में हम देख चुके हैं कि अपने चारों ओर के समाज या वातावरण से मनुष्य भाषा सीखता है। भारतवर्ष में उत्पन्न शिशु फ्रांस में रहकर इसीलिए फ्रेंच बोलने लगता है कि उसके चारों ओर फ्रेंच का वातावरण रहता है। इसी प्रकार भेड़िये का साथी लड़का एक और वातावरण के अभाव में मनुष्य की कोई भाषा नहीं सीख सका; और दूसरी और भेड़िये के साथ रहने से वह उसी की ध्वनि का कुछ रूपों में अर्जन कर सका। अतएव यह स्पष्ट है कि भाषा आसपास के लोगों से अर्जित की जाती है, और इसीलिए यह पैतृक न होकर अर्जित संपत्ति है।
( 3 ) भाषा आद्यन्त सामाजिक वस्तु है-
ऊपर हम भाषा को अर्जित संपत्ति कह चुके हैं। प्रश्न यह है कि व्यक्ति इस संपत्ति का अर्जन कहाँ से करता है? इसका एकमात्र उत्तर है 'समाज से।' इतना ही नहीं, भाषा पूर्णत: आदि से अंत तक समाज से संबंधित है। उसका विकास समाज में ही होता है; और इसीलिए यह एक सामाजिक संस्था है। यों, अकेले में हम भाषा के सहारे सोचते अवश्य हैं, किंतु वह भाषा इस सामान्य मुखर भाषा से भिन्न है जिसकी बात की जा रही है।
( 4 ) भाषा परंपरा है, व्यक्ति उसका अर्जन कर सकता है उसे उत्पन्न नहीं कर सकता
भाषा परंपरा - से चली आ रही है, व्यक्ति उसका अर्जन परंपरा और समाज से करता है। एक व्यक्ति उसमें परिवर्तन आदि तो कर सकता है, किंतु उसे उत्पन्न नहीं कर सकता (सांकेतिक या गुप्त आदि भाषाओं की बात यहाँ नहीं की जा रही है)। यदि कोई उसका जनक और जननी है तो समाज और परंपरा ।
(5) भाषा का अर्जन अनुकरण द्वारा होता है-
ऊपर की बातों में भाषा के अर्जित एक समाज सापेक्ष होने की बात हम कह चुके हैं। यहाँ 'अर्जन' की विधि के संबंध में इतना और कहना है कि भाषा को हम 'अनुकरण द्वारा सीखते हैं। शिशु के समक्ष माँ 'दूध' कहती है। वह सुनता है और धीरे-धीरे उसे स्वयं कहने का प्रयास करता है। प्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक अरस्तु के शब्दों में अनुकरण मनुष्य का सबसे बड़ा गुण है। वह भाषा के सीखने में भी उसी गुण का उपयोग करता है।
(6) भाषा चिर परिवर्तनशील है-
यथार्थतः भाषा केवल मौखिक भाषा को कहना चाहिए। उसका लिखित रूप उसी मौखिक पर आधारित है और उसी के पीछे पीछे चलता है। यह मौखिक भाषा स्वयं अनुकरण पर आधारित है, अतः दो आदमियों की भाषा बिल्कुल एक सी नहीं होती। अनुकरणप्रिय प्राणी होने पर भी मनुष्य अनुकरण की कला में पूर्ण नहीं है। अनुकरण का 'पूर्ण' या 'ठीक' न होना कई बातों पर आधारित है। ऊपर हम कह चुके हैं कि भाषा के दो आधार हैं: (1) शारीरिक (भौतिक) और (2) मानसिक परिवर्तन में ये दोनों ही कार्य करते हैं। अनुकरणकर्ता की शारीरिक और मानसिक परिस्थिति सवंदा ठीक वैसी ही नहीं रहती जैसी कि उसकी रहती है, जिसका अनुकरण किया जाता है। इस प्रकार प्रत्येक अनुकरण में कुछ न कुछ विभिन्नता का आ जाना उतना ही स्वाभाविक है जितना कि अनुकरण करना । ये साधारण और छोटी-छोटी विभिन्नताएँ ही भाषा परिवर्तन उपस्थित किया करती हैं। इसके अतिरिक्त प्रयोग से घिसने और बाहरी प्रभावों से भी परिवर्तन होता है। इस प्रकार भाषा प्रतिपल परिवर्तित होती रहती है।
(7) भाषा का कोई अंतिम स्वरूप नहीं है-
जो वस्तु बन बन कर पूर्ण हो जाती है, उसका अंतिम स्वरूप होता है, पर भाषा के विषय में यह बात नहीं है। यह कभी पूर्ण नहीं हो सकती। अर्थात्, यह कभी नहीं कहा जा सकता कि अमुक भाषा का अमुक रूप अंतिम है। यहाँ यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि भाषा से हमारा अर्थ जीवित भाषा से है। मृत भाषा का अंतिम रूप तो अवश्य ही अंतिम होता है, पर जीवित भाषा में यह बात नहीं है। जैसा कि अन्य सभी के लिए सत्य है, भाषा के विषय में असत्य नहीं है कि परिवर्तन और अस्थैर्य ही उसके जीवन का द्योतक है। पूर्णता और स्थिरता मृत्यु है, या मृत्यु ही पूर्णता या स्थिरता है।
( 8 ) प्रत्येक भाषा की एक भौगोलिक सीमा होती है
हर भाषा की अपनी एक भौगोलिक सीमा होती - है। सीमा के भीतर ही उस भाषा का अपना वास्तविक क्षेत्र होता है। उस सीमा के बाहर उसका स्वरूप थोड़ा या अधिक परिवर्तित हो जाता है, या उस सीमा के बाहर किसी पूर्णत: भिन्न भाषा की सीमा शुरू हो जाती है।
( 9 ) प्रत्येक भाषा की एक ऐतिहासिक सीमा होती है-
भौगोलिक सीमा की तरह भाषा की ऐतिहासिक सीमा भी होती है। अर्थात्, प्रत्येक भाषा इतिहास के किसी निश्चित काल से प्रारंभ होकर इतिहास के निश्चित काल तक व्यवहृत होती है तथा वह भाषा अपने काल की परिवर्ती या पूर्ववर्ती भाषा से भिन्न होती है। उदाहरण के लिए. मोटे रूप से प्राकृत भाषा का काल पहली ईसवीं से 500 ई. तक माना जाता है। इस कड़ी में इसके पूर्व पालि भाषा थी, तथा इसके बाद अपभ्रंश, और ये दोनों भाषाएँ (पालि तथा अपभ्रंश) प्राकृत से भिन्न हैं।
( 10 ) प्रत्येक भाषा की अपनी अलग संरचना होती है-
दूसरे शब्दों में, किन्हीं भी दो भाषाओं का ढाँचा पूर्णतया एक नहीं होता है। उनमें ध्वनि, शब्द, रूप, वाक्य या अर्थ आदि में किसी भी एक स्तर पर या एक से अधिक स्तरों पर संरचना या ढाँचे में अंतर अवश्य होता है। यही अंतर उनकी अलग या स्वतंत्र सत्ता का कारण बनता है।
(11) भाषा की धारा स्वभावतः कठिनता से सरलता की ओर जाती है-
सभी भाषाओं के इतिहास से भाषा के कठिनता से सरलता की ओर जाने की बात स्पष्ट है। यों भी इसके लिए सीधा तर्क हमारे पास यह है कि मनुष्य का यह जन्मजात् स्वभाव है कि कम से कम प्रयास में अधिक से अधिक लाभ उठाना चाहता है। इसी 'कम प्रयास' के प्रयास में वह 'सत्येन्द्र' को 'सतेन्द्र', और फिर 'सतेन' कहने लगता है, और एक अवस्था ऐसी आ जाती है जब यह केवल 'सति' कहकर ही काम चलाना चाहता है। यह उदाहरण 'ध्वनि' से संबंधित है। किंतु, व्याकरण के रूपों के बारे में भी यही बात है। पुरानी भाषाओं (ग्रीक संस्कृत आदि) में रूपों और अपवादों का बाहुल्य है, किंतु आधुनिक भाषाओं में रूप कम हो गये हैं, साथ ही नियम बढ़ गये हैं और अपवाद कम हो गये हैं और आगे भी कम होते जा रहे हैं।
भाषा पानी की धारा है जो स्वभावतः ऊँचाई (कठिनाई) के नीचे (सरलता) की ओर जाती है।
(12) भाषा स्थूलता से सूक्ष्मता और अप्रौढ़ता से प्रौढ़ता की ओर जाती है
भाषा की उत्पत्ति पर विचार करते समय कहा जा चुका है कि आरंभ में भाषा स्थूल थी, सूक्ष्म भावों के लिए या विचारों को गहराई से व्यक्त करने के लिए अपेक्षित सूक्ष्मता उसमें नहीं थी, फिर धीरे-धीरे उसने इसकी प्राप्ति की। इसी प्रकार दिन-पर-दिन भाषा में विकास होता रहा है, और वह अप्रौढ़ से प्रौढ़ और प्रौढ़ से प्रौढ़तर होता जा रही है। यह एक सामान्य सिद्धांत तो है, किंतु प्रयोग पर भी निर्भर करता है। आज की हिंदी की तुलना में कल की हिंदी अधिक सूक्ष्म और प्रौढ़ होगी, किंतु संस्कृत की तुलना में आज की हिंदी को सूक्ष्म और प्रौढ़ नहीं कह सकते, क्योंकि उन अनेक क्षेत्रों में प्रयुक्त होकर अभी तक हिंदी विकसित नहीं हुई, जिनमें संस्कृत हजारों वर्ष पूर्व हो चुकी है।
(13) भाषा संयोगावस्था से वियोगावस्था की ओर जाती है-
पहले लोगों का विचार था कि भाषा वियोग (व्यवहिति या विश्लेष ) से संयोग (संहिति या संश्लेष) की ओर जाती है। कुछ लोगों का यह भी मत रहा है कि बारी-बारी से भाषाओं की जिन्दगी दोनों स्थितियों से गुजरती रहती है। किंतु अब ये मत प्रायः भ्रामक सिद्ध हो चुके हैं। नवीन मत के अनुसार भाषा संयोग से वियोग की ओर जाती है। संयोग का अर्थ है मिली होने की स्थिति, जैसे 'रामः गच्छति' तथा वियोग का अर्थ है अलग हुई स्थिति, जैसे 'राम जाता है।' संस्कृत में केवल 'गच्छति' (संयुक्त रूप से काम चल जाता था, पर हिंदी में 'जाता है' (वियुक्त रूप) का प्रयोग करना पड़ता है।
( 14 ) हर भाषा का स्पष्टतः या अस्पष्टतः एक मानक रूप होता है-
पीछे 'भाषा के अभिलक्षण' तथा 'भाषा की परिभाषा' में कुछ अल्प विशेषताओं की ओर भी संकेत किया गया है।