दलपति नाल्ह का बीसलदेव रासो रचनाकाल रचयिता चरित नायक
दलपति नाल्ह का बीसलदेव रासो
➽ हिंदी साहित्य में रासो शब्द का ग्रहण सामान्यतः दो रूपों में हुआ एक गेय मुक्तक परंपरा और दूसरी नृत्यगीतपरक परंपरा । बीसलदेव रासो प्रथम परंपरा का प्रतिनिधि ग्रंथ है। आदिकाल के गेय साहित्य में इस ग्रंथ की चर्चा विशेष रूप से की जाती है, वस्तुत: बीसलदेव रासो को प्रेमाख्यान काव्यों की कोटि में रखना अधिक संगत है। इसमें विवाह के उपरांत पति-पत्नी के संपर्क से प्रेम का विकास दिखाया गया है। उक्त रासों में चित्रित प्रोषितपतिका के विरह और बारहमासा आदि के आधार पर इसे संदेश रासक तथा 'ढोला मारू रा दूहा' की कोटि में रखना अधिक वैज्ञानिक होगा। प्रायः इतिहासकारों ने बीसलदेव रासो को वीर काव्यों की कोटि में रखा है, जो इस काव्य की कथा की आत्मा से मेल नहीं खाता है। इसका वास्तविक स्थान हिंदुओं द्वारा रचित प्रेमाख्यानों में ही होना चाहिए। अस्तु, आदिकाल के अन्य रासों ग्रंथों के समान इस ग्रंथ के रचनाकाल, रचयिता और चरितनायक आदि विषय विवादास्पद हैं। नीचे की पंक्तियों में हम क्रमशः उक्त बातों के संबंध में विवेचना करेंगे।
बीसलदेव रासो रचनाकाल -
प्रस्तुत ग्रंथ के रचना काल का प्रश्न अत्यंत ही विवादास्पद है। आचार्य शुक्ल ने निम्न पद्य के आधार पर इसका रचनाकाल सं. 1212 स्वीकार किया है-
बारह सौ बहोत्तरा मझारि, जेठ दी नवमी बुधवारि
नाल्ह रसायण आरंभई शारदा तुटी ब्रह्म कुमारी ॥
सं. 1212 में ज्येष्ठ की नवमी बुधवार को इस ग्रंथ का प्रणयन आरंभ हुआ। उक्त कथन की पुष्टि सं. 1210 से 1220 तक उपलब्ध होने वाले शिलालेखों से भी हो जाती है। ग्रंथ में वर्तमानकालीन क्रिया का प्रयोग भी इसी तथ्य का समर्थन करता है। किंतु कुछ विद्वानों ने निम्न कारणों के आधार पर उक्त काल के संबंध में संदेह प्रकट किया है-
(1) राजा भोज की पुत्री का देहांत लगभग 100 वर्ष पहले हुआ, अतः बीसल के साथ उसका विवाह असंभव है। कोई समकालीन रचयिता इस प्रकार इतिहास के विरुद्ध नहीं लिख सकता।
(2) बीसलदेव अत्यंत पराक्रमी योद्धा थे। उन्होंने कई बार मुसलमानों को नाकों चने चबवाये थे। उन्होंने दिल्ली और झांसी पर अधिकार भी किया था। बीसलदेव रासो में ऐसी वीरतापूर्ण घटनाओं का उल्लेख अवश्य होना चाहिए था।
(3) बीसलदेव जैसा युद्धप्रिय व्यक्ति 12 वर्ष तक उड़ीसा रहा, यह भी असंभव है।
➽ डॉ. रामकुमार वर्मा ने बीसलदेव का राजमती से विवाह सिद्ध करने के लिए बीसलदेव का समय सं. 1058 सिद्ध किया है। उनका कहना है कि जैपाल 1001 में महमूद से पुनः पराजित हुआ और उसने आत्मघात कर लिया। उसका पुत्र अनगपाल अजमेर के चौहान राजा बीसलदेव के नेतृत्व में मुसलमानों के विरुद्ध लड़ा था। अतः बीसलदेव का समय 1001 से 1058 है। डॉ. वर्मा के अनुसार राजा भोज 1075 में राज्यासीन हुआ और 40 वर्ष तक उसने राज्य किया।
➽ गौरीशंकर हीराचंद ओझा के अनुसार बीसलदेव का समय सं. 1030 से 1056 तक है। उन्होंने, सं. 1055 से भोज को सिंहासनासीन माना है। ओझा जी के अनुसार बीसलदेव का समय 11वीं शती है। उनका कहना है कि वर्तमान काल की क्रियाएँ भी इसी तथ्य की द्योतक हैं।
➽ मिश्रबंधुओं ने इस ग्रंथ का समय 1220 तथा लाला सीताराम ने 1272 स्वीकार किया है। इधर श्री गजराज बी.ए. ( बीकानेर निवासी) ने बीसलदेव रासो की एक प्राचीन प्रति के आधार पर उसका रचना काल सं. 1073 माना है
संवत सहज तिहत्तर जानि नाल्ह कबीसर सरसीय वाणि।
➽ किन्तु हमारे विचार में यह उक्ति किसी भट्ट की कृपा है जो कि एकमात्र प्रक्षिप्त है। यदि प्रस्तुत ग्रन्थ 1073 में निर्मित हुआ तो इस ग्रन्थ की भाषा परिनिष्ठित अपभ्रंश होनी चाहिए थी।
➽ डॉ. रामकुमार वर्मा पृथ्वीराज विजय की प्रामाणिकता सिद्ध करते हुए लिखते हैं कि अर्णोराज के द्वितीय पुत्र विग्रहराज चतुर्थ के शिलालेख 1210 से सिद्ध होता है कि अर्णोराज की मृत्यु 1201 से 1272 के बीच हुई। यह कथन अपने आपमें विरोधी है। जो बीसलदेव या विग्रहराज 1058 में विद्यमान था यह तृतीय था और 1220 के लगभग चतुर्थ विग्रहराज विद्यमान थे। यहां एक बात और भी विचारणीय है। डॉ. महोदय ने नरपति को बीसलदेव का समकालीन नहीं माना है फिर वर्तमानकालीन क्रियाओं की सार्थकता कैसी? विग्रहराज तृतीय के समय अजमेर बसा ही नहीं थी। तृतीय विग्रहराज के वंशज महाराज अजयराज ने अजमेर बसाया था। अजयराज के पुत्र अर्णोराज ने अनासागर झील बनवाई थी। उसका वर्णन बीसलदेव रासो में उपलब्ध होता है।
➽ इस ग्रन्थ के रचना काल के संबंध में डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी का कथन है कि कवि ने अतिरंजित कल्पना से काम लिया है। बीसलदेव अत्यंत प्रतापशाली राजा था, वह स्वयं संस्कृत का कवि भी था। उसने अपना हर- केलि नाटक शिलापट्टों पर खुदवाया था। उसके राजकवि सोमदेव ने 'ललित विग्रहराज' लिखा था। बीसलदेव रासो में बीसलदेव की वीरता का कोई आभास नहीं मिलता। इस बात का भी प्रमाण नहीं कि उसने उड़ीसा को जीता था । ग्रन्थ में बार-बार कहा गया है कि रासो का निर्माण गायन के लिए हुआ है, पर राजपूताने के विद्वानों का कहना है कि बीसलदेव रासो यहाँ कभी भी नहीं गाया गया है। यह तो निश्चित है कि नरपति नाल्ह बीसलदेव का समसामयिक नहीं। राजपूताने में वर्तमानकालीन क्रियाओं का प्रयोग बार-बार देखा गया है। अतः बीसलदेव रासो का रचना - काल 1545 से 1660 है। मोतीलाल मेनारिया ने भी यही रचनाकाल स्वीकार किया है। इनके इस कथन का आधार उक्त ग्रन्थ की भाषा है।
➽ इस प्रकार हमने देखा कि उक्त ग्रन्थ के रचनाकाल के संबंध में तीन संवत् हैं- 1212, 1545 से 1560 तथा 1073। हमारे विचारानुसार इस ग्रन्थ का रचना काल संवत् 1212 समीचीन है। बीसलदेव रासो का नायक विग्रहराज चतुर्थ है । विग्रहराज चतुर्थ का राजमती से विवाह भी संभव है। राजमती धारा के परमार वंशज राजा भोज की पुत्री नहीं, जैसलमेर के बसाने वाले रावल भोज देव की सुपुत्री है। रावल भोज देव का शासनकाल 1205 से आरंभ होता है। प्रस्तुत ग्रन्थ का चतुर्थ खण्ड तो प्राप्त नहीं होता। दूसरे और तीसरे में सर्वत्र राजमती को जैसलमेर की राजकुमारी बताया है।
➽ लेखक ने इस ग्रन्थ को इतिहास या वंशावली के रूप में प्रस्तुत नहीं किया। प्रत्युत उन्होंने इसे सरस कल्पना और काव्यमय रूप दिया है। यही कारण है कि इससे विग्रहराज चतुर्थ की वीरता की उपेक्षा है। बीसलदेव का उड़ीसा प्रस्थान, जगन्नाथपुरी की यात्रा, वहाँ के राजा के निमंत्रण अथवा दिग्विजय की भावना से संभव है कवि ने उसे विरह वर्णन का रूप दे दिया है। पर्याप्त प्रक्षिप्त पाठों के होते पर भी यह रचना 1212 में लिखी गई मालूम पड़ती है। भले ही इसका वर्तमान रूप 16वीं शताब्दी में निर्मित हुआ हो।
बीसलदेव रासो रचयिता -
➽ इस ग्रन्थ का रचयिता विग्रहराज चतुर्थ का समकालीन कवि नरपति नाल्ह (1212) है। पर इधर मोतीलाल मेनारिया ने अजमेर के नरपति को गुजरात के नरपति नाल्ह से अभिन्न माना है। इनके इस विश्वास का प्रमुख आधार दोनों कवियों का भाव साम्य है। डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी भी इस संबंध में मेनारिया के मत से सहमत दिखाई पड़ते हैं। अजमेर के नरपति नाल्ह का समय 1212 है जबकि गुजरात के नरपति नाल्ह का समय 16वीं शती ठहरता है। ऐसी स्थिति में दोनों में एकता स्थापित करना समीचीन नहीं है। रही भावसाम्य की बात, उसका मिल जाना संभव है क्योंकि मानव मन में एकता मिलनी कोई अकल्पनीय वस्तु नहीं। शृंगार प्रकाश के कर्ता भोजराज तथा फ्रायड में भाव साम्य मिलता है। किन्तु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं कि वे दोनों समकालीन थे या उन्होंने एक-दूसरे के भावों का अपहरण किया है। स्वयं कवि ने अपने ग्रन्थ का रचनाकाल 'बाधारा सौ बहोत्तरा' दिया है। इसमें बहोत्तरा का अर्थ भले ही 12, 20, 72 किया जाए पर बारह सौ तो स्पष्ट ही है। अतः 16वीं शताब्दी के कवि को 13वीं शती के कवि से आज्ञा मानना समुचित नहीं।
बीसलदेव रासो का चरित नायक -
➽ बीसलदेव रासो का चरित नायक विग्रहराज चतुर्थ है। अजमेर और सांभर के चौहानों में विग्रहराज नाम के राजा मिलते हैं जिन्हें बीसलदेव कहा जाता है। दिल्ली के फिरोजशाह की लाट पर विग्रहराज चतुर्थ द्वारा खुदवाये गए लेख से इस बात की पुष्टि होती है। विग्रहराज तृतीय का. सं. 1150 विक्रमी में तथा विग्रहराज चतुर्थ का सं. 1210 से 1220 वि. तक विद्यमान रहना सिद्ध होता है। बीसलदेव रासो में कोई वंशावली नहीं दी गई है अतः यह निर्णय देना अत्यंत कठिन हो जाता है कि यह कौन सा विग्रहराज चतुर्थ को इस ग्रन्थ का नायक मानना स्वीकार किया है किन्तु श्री ओझा जी ने विग्रहराज तृतीय को इसका नायक मानना अधिक उपयुक्त समझा है। उनका कहना है कि यदि बीसलदेव को विग्रहराज चतुर्थ माना जाय तो राजमती का उससे विवाह इतिहास के विरुद्ध पड़ता है और इसी प्रकार और भी अनेक ऐतिहासिक असंगतियाँ बनी रहती हैं।
➽ वास्तव में नरपति नाल्ह न कोई इतिहासज्ञ था और न ही कोई बड़ा कवि । उसने सुने सुनाये आख्यान पर लोगों को प्रसन्न करने के लिए काव्य का ढांचा खड़ा किया जिसमें समय-समय पर यथेष्ट मात्रा में परिवर्तन तथा परिवर्द्धन होता रहा जिसमें उसका असली रूप दब गया और उसमें कई ऐतिहासिक भ्रांतियाँ आ गईं।
बीसलदेव रासो की भाषा -
इस ग्रन्थ की भाषा को उस युग की भाषा का संधिस्थल कह सकते हैं। इसकी भाषा में एक ओर तो अपभ्रंशपन है और दूसरी ओर हिन्दीपन । भाषा का यह रूप वस्तुतः उसे सं. 1212 की रचना सिद्ध करता है। 11वीं शती की अधिकांश रचनाएँ डिंगल और पिंगल में लिखी गई है। अतः यह रचना 13वीं शती की ठहरती है। इस संबंध में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल तथा डॉ. रामकुमार वर्मा के विचार द्रष्टव्य हैं
"भाषा की परीक्षा करके देखते हैं तो वह साहित्यिक नहीं, राजस्थानी है।.... इस ग्रन्थ से एक बात का आभास मिलता है। वह यह कि श्लिष्ट भाषा में ब्रज और खड़ी बोली के प्राचीन रूप का ही राजस्थान में व्यवहार होता था । साहित्य की सामान्य भाषा हिन्दी थी जो पिंगल भाषा कहलाती थी। बीसलदेव रासो में बीच-बीच में बराबर इस साहित्यिक भाषा (हिन्दी) को मिलाने का प्रयत्न दिखाई पड़ता है।
आचार्य शुक्ल
"बीसलदेव रासो का व्याकरण अपभ्रंश के नियमों का पालन कर रहा है। कारक क्रियाओं और संज्ञाओं के रूप अपभ्रंश भाषा के ही हैं। अतएव भाषा की दृष्टि से इस रासो को अपभ्रंश भाषा से सद्यः विकसित हिन्दी का ग्रन्थ कहने में किसी प्रकार की आपत्ति नहीं होनी चाहिए। "
- डॉ. रामकुमार वर्मा
बीसलदेव रासो काव्य सौन्दर्य -
बीसलदेव रासो एक विरह काव्य है। इसमें चार खण्ड हैं तथा सवा सौ छन्द हैं। इसके प्रथम खण्ड में अजमेर के विग्रहराज चतुर्थ उपनाम बीसलदेव का परमार वंशज राजा भोज की कन्या राजमती से विवाह वर्णित है। द्वितीय खण्ड में राजमती के व्यंग्य पर राजा का उड़ीसा प्रवास है। तृतीय खण्ड में राजमती का विरह वर्णन तथा 12 वर्षों के अनन्तर राजा का वापस आना उल्लिखित है। चतुर्थ खण्ड में राजमती का मायके चला जाना तथा बीसलदेव का उसे अजमेर वापस ले आने का वर्णन है। यह सारी कथा ललित मुक्तकों में कही गई है। यदि इस कहानी को हटा दिया जाय तो भी इस प्रेम काव्य के मुक्तकों की एकसूत्रता में कोई अन्तर नहीं आता । सन्देश रासक की भांति बीसलदेव रासो भी मुख्यतः विरह काव्य है। अन्तर इतना है कि बीसलदेव रासो के आरंभ में विवाह के गीत हैं साथ ही बीसलदेव के परदेस जाने का प्रसंग भी वर्णित है। शेष प्रसंग सामान्य रूप से लगभग एक से हैं। अन्तर केवल ब्यौरे का है। यह ग्रन्थ विरह के स्वाभाविक चित्र, संयोग और विप्रलंभ शृंगार की सफल उद्भावना और साथ ही प्रकृति के रूप चित्रों से परिपूर्ण है। इस ग्रंथ की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि विविध घटनाओं के वर्णनों के होते हुए भी इस काव्य में इतिवृत्तात्मकता नहीं है। राजमती का चरित्र बड़ा ही सजीव तथा विलक्षण बन पड़ा है। " मध्य युग के समूचे हिन्दी साहित्य में जबान ही इतनी तेज और मन की इतनी खरी नायिका नहीं। दीख पड़ती है।" राजा बीसलदेव ने एक दिन राजकीय अभियान की रौ में कहा कि मेरे समान दूसरा भूपाल नहीं। रानी से यह मिथ्याभिमान न सहा गया। उसने कहा उड़ीसा का राजा तुमसे धनी है। जिस प्रकार तुम्हारे राज्य में नमक निकलता है, उसी तरह उसके घर में हीरे की खानों से हीरा निकलता है। राजा इस पर जलभुन गया और वह रूठ गया और रानी के लाख अनुनय-विनय करने पर भी उसने उड़ीसा जाने का संकल्प कर लिया। उस समय के रानी के वचन अत्यंत मार्मिक बन पड़े हैं:
हेड़ाऊ का तुण्यि हिंउ ।
हाथ न फेरइ सउसउ बार ॥
अर्थात् मैं हार के उस घोड़े के समान उपेक्षिता हूं जिस पर घोड़े वाला सौ-सौ दिन तक हाथ नहीं फेरता । आगे चलकर वह कहती हैं कि ताजा घोड़ा यदि उसांसे लेता है तो दागा जाता है, चरता हुआ मृग भी मोहित किया जा सकता है, किन्तु हे सखि ! अंचल में पिया को बांधा कैसे जा सकता है?
चांपीया तेजीय जउ रे उससाई
मृग रे चरन्ता मोहिजड़
सखि अंचल बांधियड नाह किऊं जाइ ॥
पति की नीरसता पर झल्लाकर राजमती यहाँ तक कहती है
राउ नहीं सषि भइंस पीडार
राजमती जबान की तेज है तो क्या? आखिर है तो नारी ही विरह से उसका हृदय विदीर्ण हो जाता है। उसे अपने स्त्री जीवन पर रोना आता है। महेश को उलाहना देती हुई वह कहती है कि स्त्री का जन्म तुमने क्यों किया? देने के लिए तो तुम्हारे पास और भी अनेक जन्म थे। तुमने मुझे जंगल का जंतु क्यों नहीं बनाया। यदि वन खंड की काली कोयल ही बनाया होता तो आम और चंपा की डाल पर तो बैठती, अंगूर और बीजोरी के फल तो खाती। वास्तव में उक्त कथन में वासनाभिभूत मध्ययुगीन पुरुष के स्वार्थ और उसकी अति कामुकतामयी रसिकता की शिकार बनी हुई मध्ययुगीन नारी की आत्मा का करुण क्रन्दन एवं चीत्कार है। इसी प्रकार के कथन विद्यापति तथा हेमचंद्र में भी देखे जा सकते हैं। राजमती की आत्मा, विद्रोहिणी, मन अभिमानी और जबान प्रखर है। पुरुष की स्वार्थमय रसिकता ने उसे नारी जीवन से ही विरक्त बना दिया है
अस्त्रीय जनम काई दीघउ महेस
रानि न सिरजीय रोझड़ी,
अवर जनम धारइ घणा रे नरेश,
घणह न सिरजीय धउलीय गाई ।
वनखंड काली कोइली,
हऊं वइसती अंबा नई चंपा की डाल
भषतौ वाष विजोरडी ।
आगे वह फिर कहता है कि यदि तुमने मुझे नारी ही बनाया तो राजरानी न बनाकर आंजनी (जाटनी ) क्यों नहीं बनाया। तब मैं अपने भरतार के साथ खेत कमाती. अच्छी लोमपटी पहती, तुंग तुरंग के समान अपना गात स्वामी के गात से भिड़ातीं, स्वामी को सामने से लेती और हँस-हँसकर प्रिय की बात पूछती । कितनी बड़ी विवशता है कि किसी राजा की रानी होना कितना बड़ा अभिशाप है। राजा के वापस लौटने पर रानी की कैंची जैसी जबान से फिर न रहा गया और उसने ताना मार ही दिया
स्वामी घी विजियउ नइ जीतियउ तेल।
हे स्वामी! तुमने वाणिज्य तो घी कर जरूर किया किंतु जीता तेल ही इतनी सुंदर नारी से विवाह तो किया किंतु उसके उपभोग करने का सौभाग्य तुम्हें न मिल सका। अभिव्यक्ति की ताजगी और भावों की तीव्रता में बीसलदेव रासो संदेश रासक से कहीं अधिक लोक-जीवन के रंग में रंगा हुआ है। इससे यह सिद्ध है कि हिंदी साहित्य के अभ्युदय काल में लोक-जीवन का स्पर्श अधिक गहराई के साथ होने लगा था। बीसलदेव रासो पर लोक तत्त्व का प्रभाव बहुत गहरा है।
विप्रलंभ की अवस्था में कवि ने जो बारहमासा दिया है वह भी अपने ढंग का अकेला है चैत्रमास का छंद देखिए -
चैत्र मासई चतुरंगी हे नारि ।
प्रीय बिण जीविजई किसई अधारि।
कंचूयउ भीजड़ हसइ ।
सात सहेलीय बइठी छड़ पाई।
विरह काव्य होने के कारण बीसलदेव रासो में संभोग के मांसलतापूर्ण चित्रों का प्रायः अभाव है। इस दृष्टि से यह संदेश परंपरा में आता है। कालिदास के मेघदूत की परंपरा में नहीं, क्योंकि कालिदास का यक्ष प्रकृति से अतिरसिक है। वियोग काल में अनुभूतियाँ तरल और सूक्ष्म हो जाती हैं। किंतु कालिदास का यक्ष वियोग काल में संदेश देते समय भी संयोग के मांसल दृश्यों को नहीं भूलता।
इस रचना में आदि से अंत तक एक ही छंद प्रयोग हुआ है। संपूर्ण रचना गेय है। प्रत्येक छंद स्वतंत्र गीत है और केदारा राग में गाये जाने के लिए लिखा गया है। यह रचना नृत्य गीत के रूप में प्रस्तुत की जाती है। इसमें कहीं-कहीं पर साधारण और अक्रमिक शैली में घटनाओं का वर्णन मिलता है और कई स्थानों पर 'बेटी राजा भोज की' बीज में ही जोड़ दिया गया है। दूसरी बात यह है कि कथानक के अंतर्गत आने वाले संवाद कई जगह उलझे हुए हैं। कहीं-कहीं पर चित्रण अत्यंत नीरस और भौंड़ा हो गया है। किंतु इन त्रुटियों के होते हुए भी बीसलदेव रासो अपनी गेयता, संक्षिप्तता और सरस चित्रणों के फलस्वरूप पाठकों को प्रभावित करता रहेगा ।