हिंदी का विकास , हिंदी भाषा का विकास
हिंदी का विकास
यों तो हिंदी के कुछ रूप पालि में ही मिलने लगते हैं, प्राकृत-काल में उनकी संख्या और भी बढ़ जाती है तथा अपभ्रंश-काल में ये रूप चालीस प्रतिशत से भी ऊपर हो जाते हैं, किंतु हिंदी भाषा का वास्तविक आरंभ 1000 ई. से माना जाता है। इस तरह हिंदी के विकास का इतिहास आज तक कुल लगभग पौने दस सौ वर्षों ( 1000 ई. से 1972 तक) में फैला है। भाषा के विकास की दृष्टि से इस पूरे समय को तीन कालों में बाँटा जा सकता है-
आदिकाल (1000 ई. 1500 ई.) में हिंदी भाषा का विकास -
हिंदी भाषा अपने आदिकाल में सभी बातों में अपभ्रंश के बहुत अधिक निकट थी, क्योंकि उसी से हिंदी का उद्भव हुआ था। उसकी मुख्य विशेषताएँ निम्नांकित हैं:
आदिकालीन हिंदी की ध्वनि-
आदिकालीन हिंदी में मुख्यत: उन्हीं ध्वनियों (स्वरों- व्यंजनों) का प्रयोग मिलता है जो अपभ्रंशों में प्रयुक्त होती थीं। मुख्य अंतर निम्नांकित है-
(1) अपभ्रंश में केवल आठ स्वर थे-अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ओ। ये आठों ही स्वर मूल स्वर थे। आदिकालीन हिंदी में दो नए स्वर ऐ औ विकसित हो गए जो संयुक्त स्वर थे तथा जिनका उच्चारण क्रमशः अऍ, अओं था।
(2) च, छ, ज, झ संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश में स्पर्श व्यंजन थे, किंतु आदिकालीन हिंदी में आकर वे स्पर्श संघर्षी हो गए और तब से अब तक ये स्पर्श संघर्ष ही हैं।
(3) न, र, ल, स संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश में दंत्य ध्वनि थे। आदिकाल में ये वर्त्स्य हो गए।
(4) अपभ्रंश में ड़ ढ़ व्यंजन नहीं थे। आदिकालीन हिंदी में इनका विकास हो गया।
( 5 ) न्ह, म्ह, ल्ह पहले संयुक्त व्यंजन थे, अब वे क्रमशः न म ल के महाप्राण रूप हो गए. अर्थात् संयुक्त व्यंजन न रहकर मूल व्यंजन हो गए।
(6) संस्कृत तथा फारसी आदि से कुछ शब्दों के आ जाने के कारण कुछ नए संयुक्त व्यंजन हिंदी में आ गए जो अपभ्रंश में नहीं थे। कुछ अपभ्रंश शब्दों के लोप के कारण कुछ ऐसे संयुक्त व्यंजनों के लोप की भी संभावना हो सकती है जो अपभ्रंश में थे।
आदिकालीन हिंदी का व्याकरण -
आदिकालीन हिंदी का व्याकरण 1000 या 1100 ई. के आसपास तक अपभ्रंश के बहुत अधिक निकट था। भाषा में काफी रूप ऐसे थे जो अपभ्रंश के थे। किंतु धीरे-धीरे अपभ्रंश के व्याकरणिक रूप कम होते गए और हिंदी के अपने रूप विकसित होते गए तथा धीरे-धीरे 1500 ई. तक आते-आते हिंदी अपने पैरों पर खड़ी हो गई और अपभ्रंश के रूप प्रायः प्रयोग से निकल गए। आदिकालीन हिंदी का व्याकरण समवेतत: अपभ्रंश व्याकरण से निम्नांकित बातों में भिन्न है:
(1) अपभ्रंश काफी हद तक संयोगात्मक भाषा थी। क्रिया तथा कारकीय रूप संयोगात्मक होते थे, किंतु आदिकालीन हिंदी में वियोगात्मक रूपों का प्राधान्य हो चला। सहायक क्रियाओं तथा परसग (कारक चिह्नों) का प्रयोग काफी होने लगा। धीरे-धीरे संयोगात्मक रूप कम होते गए और उनका स्थान वियोगात्मक रूप लेते गए।
(2) नपुंसकलिंग एक सीमा तक अपभ्रंश में था। यद्यपि संस्कृत, पालि, प्राकृत की तुलना में उसकी स्थिति अस्पष्ट-सी होती जा रही थी। आदिकालीन हिंदी में नपुंसकलिंग का प्रयोग प्राय: पूर्णत: समाप्त हो गया। गोरखनाथ में कुछ प्रयोगों ने नपुंसकलिंग का माना गया है, किंतु यह मान्यता पूर्णतः असंदिग्ध नहीं कही जा सकती।
(3) हिंदी वाक्य रचना में शब्द क्रम निश्चित होने लगा था।
आदिकालीन हिंदी का शब्द समूह
आदिकालीन हिंदी का शब्द समूह अपने प्रारंभिक चरण में अपभ्रंश का ही था, किंतु धीरे-धीरे कुछ परिवर्तन आते गए जिनमें उल्लेख्य दो-तीन हैं-
( 1 ) भक्ति आंदोलन का प्रारंभ हो गया था, अतः तत्सम शब्दावली अपभ्रंश की तुलना में कुछ बहने लगी।
(2) मुसलमानों के आगमन से पश्तो फारसी तथा तुर्की . भाषाओं का प्रभाव पड़ा और कुछ शब्द इन तीनों भाषाओं से हिंदी में आए।
(3) भक्ति आंदोलन तथा मुसलमानी शासन का प्रभाव समाज पर भी पड़ा और जिसके परिणामस्वरूप इस बात की भी संभावना हो सकती है कि कुछ ऐसे पुराने शब्द जो अपभ्रंश में प्रचलित थे इस काल में अनावश्यक या अल्पावश्यक होने के कारण या तो शब्द- समूह से निकल गए या फिर उनका प्रयोग बहुत कम हो गया ।
आदिकालीन हिंदी का साहित्य में प्रयोग -
इस काल में साहित्य में प्रमुखतः डिंगल, मैथिली, दक्खिनी, अवधी, ब्रज तथा मिश्रित रूपों का प्रयोग मिलता है। इस काल के प्रमुख हिंदी साहित्यकार गोरखनाथ, विद्यापति, नरपति नाल्ह, चंदबरदायी, कबीर, ख्वाजा बंदा नवाज तथा शाह मीराजी आदि हैं।
मध्यकाल ( 1500 ई. से 1800 ई. तक ) हिंदी का विकास
इस काल में आकर ध्वनि व्याकरण तथा शब्द-समूह के क्षेत्र मुख्यतः निम्नांकित परिवर्तन हुए
मध्यकाल में ध्वनि -
(1) फारसी की का प्रचार हुआ जिसके कारण उच्च वर्ग के लोगों में में हिंदी में क्र, ख, ग ज फ़ ये पाँच नए व्यंजन आ गए।
(2) शब्दांत का 'अ' कम-से-कम मूल व्यंजन के बाद आने पर लुप्त हो गया। 'राम' का उच्चारण 'राम्' हो गया। किंतु 'भक्त' जैसे शब्दों में जहाँ अ के पूर्व संयुक्त व्यंजन था, 'अ' बना रहा। कुछ स्थितियों में अक्षरांत 'अ' का भी लोप होने लगा। उदाहरण के लिए, आदिकालीन 'जपता' अब उच्चारण में 'जप्ता' हो गया।
मध्यकाल में व्याकरण -
(1) इस काल में हिंदी व्याकरण के क्षेत्र में पूरी तरह अपने पैरों पर खड़ी हो गई। अपभ्रंश के रूप प्रायः हिंदी से निकल गए। जो कुछ बचे थे, वे वह थे जिन्हें हिंदी ने आत्मसात् कर लिया था।
(2) भाषा आदिकालीन भाषा की तुलना में और भी वियोगात्मक हो गई। संयोगात्मक रूप और भी कम हो गए। परसर्गों तथा सहायक क्रियाओं का प्रयोग और भी बढ़ गया।
(3) उच्च वर्ग में फ़ारसी का प्रचार होने के कारण हिंदी वाक्य रचना फारसी से प्रभावित होने लगी ।
मध्यकाल में शब्द समूह -
(1) इस काल में आते-आते काफी शब्द फारसी (लगभग 3500), अरबी ( लगभग 2500 ) पश्तो ( लगभग 50 ) तुर्की ( लगभग 125) हिंदी में आ गए और उनकी संख्या लगभग 6000 हो गई।
( 2 ) भक्ति आंदोलन के चरम बिंदु पर पहुँचने के कारण तत्सम शब्दों का अनुपात भाषा में और भी बढ़ गया।
(3) यूरोप से संपर्क होने के कारण कुछ पुर्तगाली, स्पेनी, फ्रांसीसी तथा अंग्रेजी शब्द भी हिंदी में आ गए। साहित्य में प्रयोग इस काल में धर्म की प्रधानता के कारण राम-स्थान की भाषा अवधी तथा कृष्ण-स्थान की भाषा ब्रज में ही विशेष रूप से साहित्य रचा गया। यों दक्खिनी, उर्दू, डिंगल, मैथिली और खड़ी बोली में भी साहित्य-रचना हुई। इस काल के प्रमुख साहित्यकार जायसी, सूर, मीरा, तुलसी, केशव, बिहारी, भूषण, देव, बुरहानुद्दीन, नुसरती, कुली कुतुबशाह वजही तथा वली आदि हैं।
आधुनिक काल ( 1800 ई. - अब तक ) - हिंदी का विकास
आधुनिक काल में ध्वनि -
(1) आधुनिक काल में शिक्षा के व्यवस्थित प्रचार के कारण तथा प्रारंभ में हिंदी प्रदेश में अनेक क्षेत्रों में कचहरियों की भाषा उर्दू होने के कारण क्र. ख, ग, ज, फ़, जो मध्यकाल में केवल उच्च वर्गों के फारसी पढ़े-लिखे लोगों तक प्रचलित थे। इस काल में प्रायः 1947 तक सुशिक्षित लोगों में खूब प्रचलित हो गए, किंतु स्वतंत्रता के बाद स्थिति बदली है और अंग्रेजी में प्रयुक्त होने के कारण ज़, फ़ तो एक सीमा तक अब भी प्रयुक्त हो रहे हैं, किंतु क्र. ख़, ग़ के ठीक प्रयोग में कमी आई है। नई पीढी, कुछ अपवादों के छोड़कर इनके स्थान पर प्रायः क, ख, ज बोलने लगी है।
(2) अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार के कारण कुछ क्षेत्रों में ऑ (कॉलिज, डॉक्टर, ऑफिस, कॉफी आदि में) ध्वनि भी हिंदी में प्रयुक्त हो रही हैं। अन्यत्र इसके स्थान पर आ का प्रयोग होता है
(3) अंग्रेजी शब्दों के प्रचार के कारण कुछ नए संयुक्त व्यंजन (इ) हिंदी में प्रयुक्त हो रहे हैं।
(4) स्वरों में ऐ, औ हिंदी में आदिकाल में आए थे। इनका उच्चारण अएँ, अ था, अर्थात् वे संयुक्त स्वर थे। आधुनिक काल में मुख्यतः 1940 के बाद ऐ औ की स्थिति कुछ भिन्न हो गई है। इस संबंध में 3 बातें उल्लेख्य हैं: (क) पश्चिमी हिंदी क्षेत्र में ये स्वर सामान्यतः मूल स्वर रूप में उच्चरित होते हैं। (ख) पूर्वी हिंदी क्षेत्र में अब भी ये अएँ, अऑ रूप में संयुक्त स्वर के रूप में ही प्रयुक्त हो रहे हैं। (ग) नैना, भैया, कौआ जैसे शब्दों में पश्चिमी तथा पूर्वी दोनों ही हिंदी क्षेत्रों में ऐ औ का उच्चारण क्रमश: संयुक्त स्वर अइ, अउ रूप में होता है।
(5) मध्यकाल में अ का लोप शब्दांत तथा कुछ परिस्थितियों में अक्षरांत में होना प्रारंभ हुआ था। आधुनिक काल तक आते-आते यह प्रक्रिया पूरी हो गई। अब हिंदी में उच्चारण में ही कोई भी शब्द अकरांत नहीं है।
(6) व ध्वनि आदि तथा मध्यकाल में कुछ अपवादों को छोड़कर प्राय द्वयो ठ रूप में उच्चरित होती थी, अब वह कुछ अपवादों को छोड़कर हिंदी के काफी शब्दों में दंतोष्ठ्य रूप में उच्चारित होती है। '
आधुनिक काल में व्याकरण -
(1) आदिकाल में हिंदी की विभिन्न बोलियों के व्याकरणिक अस्तित्व का प्रारंभ हो गया था, किंतु काफी व्याकरणिक रूप ऐसे थे जो पास-पास के क्षेत्रों में समान थे। मध्यकाल में उनमें इस प्रकार के मिश्रण की काफी कमी हो गई थी। सूर, बिहारी, देव आदि की ब्रजभाषा तथा जायसी, तुलसी आदि की अवधी इस बात का प्रमाण हैं। आधुनिक काल तक आते-आते ब्रज, अवधी, भोजपुरी, मैथिली आदि कई बोलियों का व्याकरणिक अस्तित्व इतना स्वतंत्र हो गया है कि उन्हें बड़ी सरलता से भाषा की संज्ञा दी जा सकती है।
(2) हिंदी प्राय: पूर्णतः एक वियोगात्मक भाषा हो गई है।
(3) प्रेस, रेडियो, शिक्षा तथा व्याकरणिक विश्लेषण आदि के प्रभाव से हिंदी व्याकरण का रूप काफ़ी स्थिर हो गया है। कुछ अपवादों को छोड़कर हिंदी व्याकरण का मानक रूप सुनिश्चित हो चुका है। व्याकरण के इस स्थिरीकरण में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी का मुख्य हाथ रहा है।
(4) कहा जा चुका है कि मध्यकाल में हिंदी वाक्य रचना एक सीमा तक फारसी से प्रभावित हुई थी। आधुनिक काल में अंग्रेजी शिक्षा का प्रचार फारसी की तुलना में कहीं अधिक हुआ है। साथ ही समाचारपत्रों, रेडियो तथा सरकारी कामों में प्रयोग के कारण भी अंग्रेजी हमारे अधिक निकट आई है। इसका परिणाम यह हुआ है कि हिंदी भाषा वाक्य-रचना, मुहावरा तथा लोकोक्ति के क्षेत्र में अंग्रेजी से बहुत अधिक प्रभावित हुई है। उदाहरण के लिए, मैं सोने जा रहा हूँ' 'I am going to sleep' का प्रभाव है तो 'वह आदमी जो कल बीमार पड़ा था, आज मर गया' 'The man who fell ill yesterday expired today' का। इसी तरह .. पर प्रकाश डालना' मुहावरा 'To throw light on का अनुवाद है तो 'आवश्यकता आविष्कार की जननी हैं' लोकोक्ति 'Necessity is the mother of invention का। अंग्रेजी ने विराम चिह्नों के माध्यम से भी हिंदी वाक्य रचना को प्रभावित किया है।
(5) इधर कुछ वर्षों से 'कीजिए' के लिए 'करिए', 'मुझे' के लिए 'मेरे को', 'मुझसे' के लिए 'मेरे से', 'तुझमें' के लिए 'तेरे में' जैसे नए रूपों का प्रचार कुछ क्षेत्रों में बढ़ता जा रहा है।
आधुनिक काल में शब्द-
समूह - शब्द- समूह की दृष्टि से 1800 से 1972 तक के आधुनिक काल को मोटे रूप से छह-सात उपकालों में विभाजित किया जा सकता है। 1800 से 1850 तक का हिंदी शब्द- समूह मोटे रूप से वही था जो मध्यकाल के अंतिम चरण में था। अंतर केवल यह था कि धीरे-धीरे अंग्रेजी के अधिकाधिक शब्द हिंदी भ में आते जा रहे थे। 1850 से 1900 तक अंग्रेजी के और शब्दों के आने के अतिरिक्त कारण तत्सम शब्दों का प्रयोग बढ़ा और कुछ पुराने तद्भव शब्द परिनिष्ठित हिंदी से १९०० के बाद के द्विवेदी काल तथा छायावादी काल में अनेक कारणों से तत्सम शब्दों का प्रयोग बढ़ना आरंभ हो गया। प्रसाद, महादेवी वर्मा का पूरा साहित्य इस दृष्टि से दर्शनीय है। इसके बाद प्रगतिवादी आंदोलन के कारण तद्भव शब्दों के प्रयोग में पुनः वृद्धि हुई तथा तत्सम शब्दों के प्रयोग में काफी कमी हुई। 1947 तक लगभग यही स्थिति रही ।
1947 से बाद के शब्द-समूह में कई बातें उल्लेख्य हैं:
(1) अनेक पुराने शब्द नये अर्थों में प्रचलित हो गए हैं। उदाहरण के लिए, ‘सदन' राज्यसभा, लोकसभा के लिए ( दोनों सदनों में) प्रयुक्त हो रहा है।
2. सामान्य समूह में कई आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए क्षणिका, फिल्माना, श्लील, घुसपैठिया जैसे बहुत से नए शब्द आ गए हैं।
3. साहित्य में नाटक, उपन्यास, कहानी कविता की भाषा बोलचाल के बहुत निकट है, उसमें अरबी-फारसी तथा अंग्रेजी के जन-प्रचलित शब्दों का काफी प्रयोग हो रहा है। किंतु आलोचना की भाषा अब भी एक सीमा तक तत्सम शब्दों से काफी लदी हुई है।
(4) इधर हिंदी को पारिभाषिक शब्दों की बहुत आवश्यकता पड़ी है, क्योंकि वह अब विज्ञान, वाणिज्य, विधि आदि की भी भाषा है। इसकी पूर्ति के लिए अनेक शब्द अंग्रेजी, संस्कृत आदि से लिये गए हैं तथा अनेक नए शब्द बनाए गए हैं।
स्वतंत्रता के पूर्व हिंदी में मुश्किल से 5-6 हजार पारिभाषिक शब्द थे, किंतु अब उनकी संख्या लगभग एक लाख है और दिनोंदिन उनमें वृद्धि होती जा रही है। हिंदी शब्द समूह अनेक प्रभावों को ग्रहण करते हुए तथा नए शब्दों से समृद्ध होते हुए दिनों-दिन अधिक समृद्ध होता जा रहा है जिसके परिणामस्वरूप हिंदी अपनी अभिव्यंजना में अधिक सटीक, निश्चित, गहरी तथा समर्थ होती जा रही है।