आदिकालीन लौकिक साहित्य :ढोला मारू रा दूहा
ढोला मारू रा दूहा (Dhola Maru Ra Duha)
➽ यह संदेश रासक के समान लोककाव्य है और बीसलदेव रासो की तरह विरह गीत है। इस काव्य की कथा इस प्रकार है- सयानी होने पर मारू जी अपने बचपन के पति ढोला की चर्चा सुनती हैं। और विरह में व्याकुल हो जाती हैं। वह अपने पति का पता लगाने के लिए कई संदेशवाहक भेजती हैं, लेकिन कोई वापस लौटकर नहीं आता। सभी संदेशवाहक उसकी सौत मालवजी द्वारा मरवा दिये जाते हैं। अंत में मारवणी लोकगीतों के गायक एक ढाढी को यह जिम्मेदारी सौंपती है और उसे अपने उद्देश्य में सफलता मिलती है। ढाढी के प्रयत्न से ढोला और मारवणी का पुनर्मिलन होता है। बीच में मारवणी की हत्या करा दी जाती हैं और अंत में फिर मारवणी मालवजी तथा ढोला को इकट्ठा मिला दिया जाता है। इस ग्रन्थ का मुख्य संदेश मारवणी का ढोला के प्रति विरह-निवेदन है।
➽ काव्य-सौष्ठव की दृष्टि से भी यह काव्य अनुपम बन पड़ा है। इसमें संदेश रासक तथा बीसलदेव रासो से अधिक स्थानीय रंग है। इस ग्रन्थ में मारवाड़ देश वास्तविक रूप से प्रतिबिम्बित हो उठा है। संदेश रासक में संदेश - कथन एक सर्वथा अपरिचित व्यक्ति से किया गया है। बीसलदेव रासो में इस कार्य के लिए दरबार के एक पंडित का उपयोग किया गया है, लेकिन ढोला में क्रोंच पक्षी से लेकर ढाढियों तक से अपनी विरह वेदना कही गई है। अतः इसमें अधिक मार्मिकता आ सकी है। जायसी के पद्मावत में संदेश-प्रणाली निश्चित रूप से ढोला से प्रभावित है। ढोला लोकगीत के सबसे अधिक निकट है। अतः इसमें साधारणीकरण की मात्रा प्रचुर रूप में है। प्रस्तुत काव्य में शृंगार के संयोगकालीन वर्णन मर्यादित हैं और उनमें सांकेतिकता से काम लिया गया है। मिलन के उपरान्त प्रेमी - दंपति मत्तगत दंपति के समान रतिशैया की ओर जाते हैं। इस दिशा में उक्त काव्य संदेश रासक की कोटि में आता है। ढोला-मारू रा दूहा में विप्रलंभ शृंगार का अतीव उच्च एवं मनोवैज्ञानिक वर्णन है । नख-शिख वर्णन परंपरायुक्त है। वियोग वर्णन में हृदय की सच्चाई का स्वाभाविक एवं प्रभावशाली वर्णन है। विरह-वर्णन में कहीं भी हास्यास्पद ऊहात्मकता नहीं है।
➽ मारवणी का ढाढी को दिया गया संदेश अनुपम बन पड़ा है। इसमें नारी हृदय की वेदना सचमुच इठला रही है
दाढी, एक संदेसड, प्रीतम कहिया जाड़।
सा घण बलि कुइला भई भसम ढंढोलिसि आइ ॥
ढाडी जे प्रीतम मिलई, यूँ कहि दाखविवाह
उंजर नहिं छई प्राणियउ, था दिस झल रहियाह ॥
धनि जलकर कोयला हो गई है, अब आकर उसकी भस्म ढूँढ़ना। अब पंजर में प्राण नहीं हैं केवल उसकी लौ तुम्हारी ओर झुक-झुककर जल रही है। जायसी की 'सो धन जरि' से इसकी कितनी समानता है। मारवणी की मनःस्थिति का एक और चित्र देखिए जब ढोला के आने की खबर मिलती है तो उसका हृदय हर्षोद्रेक से हिमगिरि जैसा विशाल हो गया है। वह अनुभव करती है कि अब यह तन पंजर में समायेगा ही नहीं
हियड़ा हेमांगिरि भयऊ, तन पंजरे न माई।
इस प्रकार मारवाड़ देश में जहाँ एक ओर चारण काव्यों का प्रणयन हो रहा था वहीं दूसरी ओर जनसाधारण के कवि स्वान्तः सुखाय लोक-सामान्य जीवन को सहज में ही अपने काव्य में उड़ेल रहे थे। ढोला इस बात का स्पष्ट प्रमाण है। सूफी कवि जायसी का पद्मावत ढोला के बहुत से अंशों से प्रभावित है।
डॉ. रामकुमार वर्मा इस ग्रन्थ के काल आदि के संबंध में लिखते हैं-" यह सोलहवीं शताब्दी की रचना है और इसके रचयिता कुशल लाभ कहे जाते हैं इसे 'ढोला मालवजी री बात' के नाम से भी अभिहित किया जाता है। "