डिंगल स्वरूप , डिंगल शब्द की व्युत्पत्ति
डिंगल स्वरूप
साहित्यिक
राजस्थानी भाषा को डिंगल के नाम से अभिहित किया जाता है। भाषा विकास की दृष्टि से
यह भाषा एक ओर पतनोन्मुखी प्राकृत और अपभ्रंश तथा दूसरी ओर विकासोन्मुखी ब्रजभाषा
के बीच की साहित्यिक भाषा है। बोलचाल की राजस्थानी भाषा का परिमार्जित साहित्यिक
रूप डिंगल कहलाया ।
डिंगल शब्द की व्युत्पत्ति
डिंगल शब्द की व्युत्पत्ति के संबंध में भी विभिन्न विद्वानों के विभिन्न मत हैं
1. डॉ. एल. पी. टैसीटरी
डिंगल शब्द का असली अर्थ अनियमित अथवा गंवारू लेते हैं। ब्रजभाषा - परिमार्जित तथा व्याकरणसम्मत थी, पर डिंगल भाषा इस संबंध में स्वतंत्र थीं। पिंगल के समय के आधार पर इस भाषा का नाम डिंगल पड़ा।
समीक्षा -
उक्त भाषा
गँवारू नहीं थी बल्कि सुशिक्षित चारण वर्ग की साहित्यिक भाषा थी। इसे अनियमित कहना
भी संगत प्रतीत नहीं होता क्योंकि इसका भी एक सुव्यवस्थित व्याकरण था। रही पिंगल
के साम्य के आधार पर इसके नामकरण की बात तो भाषा विकास की दृष्टि से डिंगल पिंगल
की अपेक्षा पहले आती है। ब्रजभाषा के साहित्यिक रूप का पता लगभग 14वीं शताब्दी में मिलता
है।
2. हरप्रसाद शास्त्री -
इनका
कहना है कि प्रारंभ में इस भाषा का नाम 'डगल'
था, परन्तु बाद में पिंगल से
तुक मिलाने के लिए डिंगल कर दिया गया। उन्होंने अपने मत के समर्थन के लिए 'दोसे जंगल डगल जेय' आदि पद भी उद्धृत किया
है।
समीक्षा-
यहां पर प्रश्न
यह है कि आरंभ में डिंगल का नाम डगल क्यों था? राजस्थानी भाषा में डगल शब्द का अर्थ मिट्टी का ढेला या
अनगढ़ पत्थर है। यदि डिंगल भाषा अनगढ़ एवं अव्यवस्थित थी तो किस सुव्यवस्थित भाषा
की तुलना में इसे यह संज्ञा दी गई, क्योंकि ब्रजभाषा का साहित्यिक प्रौढ़ रूप 14वीं सदी तक नहीं बन पाया
था और फिर चारण कवि अपनी साहित्यिक भाषा को डगल या अनगढ़ क्यों कहने लगा था ?
13. गजराज ओझा
गजराज ओझा ने डिंगल भाषा
के नामकरण का आधार इसमें पाई जाने वाली 'डकार' वर्णों की बहुलता को बताया है। फिर पिंगल के आधार पर इसका
नाम डिंगल पड़ा। जिस प्रकार पिंगल अलंकार प्रधान है उसी प्रकार डिंगल डकार प्रधान
है।
समीक्षा -
पहली बात तो यह
है कि डिंगल भाषा में डकार वर्ण की कोई ऐसी बहुलता नहीं है जिसके आधार पर इसका
नामकरण किया जा सके। डिंगल काव्य में वीर, रौद्र और वीभत्स रसों के प्रसंग में निःसंदेह कर्णकटु शब्द
आये हैं किन्तु उसमें विशेषतः डकारात्मक शब्दों की प्रधानता हो, ऐसी बात नहीं। दूसरी बात
यह भी है कि 'भाषा - विज्ञान
के समूचे इतिहास में एक भी ऐसी मिसाल नहीं मिलेगी जहां किसी विशेष वर्ण के आधार पर
किसी भाषा का नामकरण हुआ हो ।
4. पुरुषोत्तम स्वामी
पुरुषोत्तम स्वामी ने
डिंगल शब्द की व्युत्पत्ति डिम+गल से मानी है। डिम का अर्थ डमरू की ध्वनि और गल का
अर्थ गला होता है। डमरू की ध्वनि युद्ध में वीरों का आह्वान करती है। डमरू वीर रस
के देवता महादेव का बाजा है। जो कविता गले से निकलकर डिम डिम की तरह वीरों के
हृदयों को उत्साह से भर दे उसी को डिंगल कहते हैं।
समीक्षा
यह मत भी
तर्कसंगत नहीं है, न ही तो डमरू की
ध्वनि उत्साहवर्द्धक मानी गई है और न ही - महादेव वीरत्व के देवता हैं। वीर रस के
देवता इन्द्र हैं और रौद्र रस के देवता महादेव हैं। डमरू वानरों के खेल-तमाशों में
बजाया जाता है। युद्ध में उत्साह के लिए नगाड़ों का उपयोग किया जाता है।
5. राजस्थान में प्रचलित
मतानुसार डिंगल शब्द की व्युत्पत्ति डिंभ+गल से मानी जाती है। डिंभ का अर्थ बालक
और गल का अर्थ गला। इस प्रकार डिंगल का अर्थ बालक की भाषा है। जैसे प्राकृत किसी
समय बाल भाषा कहलाती थी वैसे डिंभ-गल से डिंगल बनी।
समीक्षा -
प्रत्येक भाषा के जीवन में बाल्य अवस्था हुआ करती है जबकि वह पनप रही होती है, किन्तु सब भाषाओं के प्रौढ़ साहित्यिक रूप का नामकरण फिर इस आधार पर क्यों नहीं हुआ? फिर चारण कवियों की परिमार्जित साहित्यिक भाषा को बाल भाषा के हीन पद से अभिहित करना अनुचित भी है।
6. डिंगल शब्द की व्युत्पत्ति कुछ अन्य मत -
(क) पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी के अनुसार, डिंगल शब्द पिंगल के साम्य आधार पर बना है किन्तु इस शब्द का कोई विशेष अर्थ नहीं है। पिंगल के भेद करने के लिए इस श्रुतिकटु भाषा को डिंगल का नाम दे दिया गया है।
(ख) डॉ. श्यामसुन्दर दास पिंगल के अनुकरण पर ही इस शब्द को निर्मित मानते हैं। उनका कहना है कि यह एक मारवाड़ी शब्द है जो पिंगल के साम्य पर गढ़ा हुआ है।
(ग) रामकरण आसोपा और ठाकुर किशोरी सिंह बारहठ ने डिंगल शब्द की उत्पत्ति क्रमशः 'डांगे' और "बीड" धातुओं से बताई है।
7. मोतीलाल मेनारिया
मोतीलाल मेनारिया ने डिंगल शब्द को डींगल से निःसृत माना है जिसका अर्थ डींग (दर्पोक्ति) से युक्त भाषा है। बोझिल, धूमिल आदि शब्दों के समान यहाँ भी 'ल' प्रत्यय युक्त के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। मेनारिया के मतानुसार आरंभ में डिंगल चारण भाटों की भाषा थी। इसमें वे लोग अपने आश्रयदाताओं के यश का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया करते थे और उनकी वीरता की बड़ी-बड़ी डींगें मारा करते थे। उस समय इस भाषा को डींगल कहा करते थे और आज भी राजस्थान के वृद्ध चारणों में डींगल शब्द का ही प्रयोग प्रचलित है। मेनारिया जी का यह भी कहना है कि डींगल का डिंगल रूप अंग्रेजी के कारण हो गया है। डॉ. ग्रियर्सन आदि इस शब्द के उच्चारण से अपरिचित थे अतः उन्होंने अपने ग्रन्थों में दोनों हिज्जे एक तरह से लिखे Pingala and Dingala | Pingala का उच्चारण हिंदी वाले पिंगल किया करते थे। अतएव यह समझकर कि डींगल का उच्चारण भी इसी प्रकार होगा। उन्होंने इसे डिंगल बोलना-लिखना शुरू कर दिया और इस प्रकार यहाँ के पढ़े-लिखे लोगों में भी यही रूप प्रचलित हो निकला।
निष्कर्ष
उपर्युक्त मतों
में मोतीलाल मेनारिया का मत अपेक्षाकृत अधिक संगत है। जब तक इस विषय में नवीन
अनुसंधानों के द्वारा नवीन तथ्यों का उद्घाटन नहीं होता तब तक इसी मत पर संतोष
करना होगा। आचार्य ग्रियर्सन की भूल से डिंगल रूप में व्यवहृत होने लगा, यह बात कुछ विचित्र एवं
आश्चर्यजनक सी लगती है। उससे केवल इसी शब्द पर भूल हुई, या दूसरे शब्द पर वह भूल
नहीं हुई। मेरे विचार में डींगल शब्द को पिंगल के साम्य के आधार पर डिंगल मान लेना
अपेक्षाकृत अधिक समीचीन है। इस प्रकार हमें भी मेनारिया और डॉ. • श्यामसुन्दर दास
के संयुक्त मन्तव्य अपेक्षाकृत अधिक युक्तियुक्त प्रतीत होते हैं। डींग शब्द
राजस्थायी भाषा में दर्पोक्ति के अर्थ में कब में प्रयुक्त होने लगा है, अभी यह बात अनुसंधान की
अपेक्षा रखती है।
डिंगल राजस्थानी
(मारुवाजी) भाषा की एक शैली विशेष है। डिंगल शब्द राजस्थानी भाषा का पर्यायवाची
शब्द नहीं है। इसे न तो राजस्थानी भाषा से पृथक् भाषा स्वीकार किया जा सकता है और
न ही इसे राजस्थानी की एक उपभाषा। इस कारण भाषा को एक स्वतंत्र एवं वर्ग विशेष की
भाषा मानना असंगत है। डिंगल को राजस्थानी की विभाषा कहना भी ठीक नहीं है। इसे
राजस्थानी से पृथक् भाषा इसलिए भी स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि इसका विकास
राजस्थानी से पृथक् न होकर उससे अन्योन्य रूप से सम्बद्ध है।
वस्तुतः संस्कृत की समस्त और व्यास शैलियों के समान डिंगल भी राजस्थानी की एक शैली विशेष है। डॉ. महेश्वरी ने राजस्थानी की चार शैलियाँ स्वीकार की हैं- (क) जैन शैली (ख) चारण शैली, (ग) सन्त शैली, (घ) लौकिक शैली। डिंगल को चारण शैली के अंतर्गत समझना चाहिए। यही कारण है कि चारण-शैली की अधिकांश रचनाएँ डिंगल नाम से अभिहित होने लगी हैं। चारणों ने युद्ध और श्रृंगार वर्णनों के लिए एक विशिष्ट काव्य संघटना अथवा रचना पद्धति का आश्रय लिया जिसमें वर्णों के द्वित्व छन्दों को एक विशेष रूप में ढालने तथा क्रियारूपों को प्रभावशाली बनाने की प्रबल प्रवृत्ति लक्षित होती है। इस शैली का व्यवहार केवल चारणों ने ही नहीं किया बल्कि पृथ्वीराज राठौर जैसे समर्थ कवियों ने भी इस रचना पद्धति का सफल प्रयोग किया है। सच यह है कि डिंगल मारवाड़ी की एक शैली मात्र है जिसका पोषण विशेषतः चारणों द्वारा हुआ जिस प्रकार संस्कृत काव्य रचना की पद्धतियां वैदर्भी गौड़ी और पांचाली संस्कृत भाषा से पृथक् भाषाएँ न होकर उसकी भिन्न-भिन्न रचना शैलियां हैं इसी प्रकार डिंगल भी राजस्थानी की एक शैली विशेष है।