हिंदी भाषा का विकास- आदिकाल मध्यकाल आधुनिक काल | Hindi Bhasha Ke Vikaas Ke Vibhin Kaal

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 हिंदी भाषा का विकास- आदिकाल मध्यकाल आधुनिक काल   

हिंदी भाषा का विकास आदिकाल मध्यकाल आधुनिक काल | Hindi Bhasha Ke Vikaas Ke Vibhin Kaal


 

हिंदी भाषा का विकास 

खड़ी बोली हिंदी का उद्भव शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ हैकिंतु यदि हिंदी को पश्चिमी हिंदी और पूर्वी हिंदी की आठ बोलियों का प्रतिनिधि मानें तो उसका उद्भव शौरसेनी तथा अर्धमागधी अपभ्रंश से हुआ है। विस्तार में जाकर यदि उसे सत्रह बोलियों का प्रतिनिधि मानें तो हिंदी का उद्भव शौरसेनीअर्धमागधी तथा मागधी अपभ्रंश से हुआ है।

 

यों तो हिंदी भाषा के कुछ व्याकरणिक रूप पालि में ही मिलने लगते हैंप्राकृतकाल में उनकी संख्या और भी बढ़ गई है। तथा अपभ्रंश-काल में ये रूप प्रायः चालीस प्रतिशत से भी ऊपर हो गये हैंकिंतु हिंदी भाषा का वास्तविक आरंभ 1000 ई. से माना जाता है। इस तरह हिंदी के विकास का इतिहास आज तक कुल लगभग पौने दस सौ वर्षों ( 1000-1975) में फैला है। भाषा के विकास की दृष्टि से इस पूरे समय को तीन कालों में बाँटा जा सकता है। आदिकालमध्यकाल और आधुनिक काल ।


हिंदी भाषा के विकास का आदिकाल (1000-1500)

हिंदी भाषा अपने आदिकाल में सभी बातों में अपभ्रंश के बहुत अधिक निकट थीक्योंकि उसी से हिंदी का उद्भव हुआ था। आदिकालीन हिंदी में मुख्यत: उन्हीं ध्वनियों (स्वरों - व्यंजनों) का प्रयोग मिलता है जो अपभ्रंश में प्रयुक्त होती थीं। मुख्य अंतर ये हैं

 

1. अपभ्रंश में केवल आठ स्वर थे-अओ। ये आठों ही स्वर मूल स्वर थे। आदिकालीन हिंदी में दो नए स्वर ऐऔ विकसित हो गये जो संयुक्त स्वर थे तथा जिनका उच्चारण क्रमशः अऍअ ओं था। 

2. झ संस्कृतपालिप्राकृत और अपभ्रंश में स्पर्श व्यंजन थेकिंतु आदिकालीन हिंदी में आकर ये स्पर्श-संघर्षी हो गये और तब से अब तक ये स्पर्श संघर्षी ही हैं। 

3. न. रस संस्कृतपालिप्राकृत और अपभ्रंश में दन्त्य (ध्वनियाँ) थे। आदिकाल में ये वत्स्य हो गये।  

4. अपभ्रंश में ड़ ढ़ व्यंजन नहीं थे। आदिकाल हिंदी में इनका विकास हुआ। 

5. न्हम्हल्ह पहले संयुक्त व्यंजन थेअब वे क्रमशः नम ल के महाप्राण रूप हो गये अर्थात् संयुक्त व्यंजन न रहकर मूल व्यंजन हो गये। 

6. संस्कृतफारसी आदि से कुछ शब्दों के आ जाने के कारण कुछ नये संयुक्त व्यंजन हिंदी में आ गये जो अपभ्रंश में नहीं थे। कुछ अपभ्रंश - शब्दों के लोप के कारण कुछ ऐसे संयुक्त व्यंजनोंस्वरानुक्रमों तथा व्यंजनानुक्रमों के रोप की भी संभावना हो सकती हैजो अपभ्रंश में थे।


आदिकालीन हिंदी का व्याकरण 

आदिकालीन हिंदी का व्याकरण 1000 या 1100 ई. के आसपास तक अपभ्रंश के बहुत अधिक निकट था। भाषा में काफी रूप ऐसे थे जो अपभ्रंश के थेकिंतु धीरे-धीरे अपभ्रंश के व्याकरणिक रूप कम होते गये और हिंदी के अपने रूप विकसित होते गये। धीरे-धीरे 1500 ई. तक आते-आते हिंदी अपने पैरों पर खड़ी हो गई और अपभ्रंश के रूप प्रायः प्रयोग से निकल गये। 


आदिकालीन हिंदी का व्याकरण समवेततः अपभ्रंश व्याकरण से इन बातों में भिन्न है:

 

1. अपभ्रंश काफी हद तक संयोगात्मक भाषा थी। क्रिया तथा कारकीय रूप संयोगात्मक होते थेकिंतु आदिकालीन हिंदी में वियोगात्मक रूपों का प्राधान्य हो चला। सहायक क्रियाओं तथा परसर्गों (कारक-चिह्नों) का प्रयोग काफी होने लगा और धीरे-धीरे संयोगात्मक रूप कम होते गये और उनका स्थान वियोगात्मक रूप लेते गये।

 

2. नपुंसकलिंग एक सीमा तक अपभ्रंश में था - यद्यपि संस्कृतपालिप्राकृत की तुलना में उसकी स्थिति अस्पष्ट-सी होती जा रही थी। आदिकालीन हिंदी प्रयोगों में नपुंसकलिंग का प्रयोग प्राय: पूर्णत: समाप्त हो गया। गोरखनाथ की रचनाओं में कुछ प्रयोगों को कुछ लोगों ने नपुंसकलिंग का माना हैकिंतु यह मान्यता पूर्णतः असन्दिग्ध नहीं कही जा सकती।

 

3. हिंदी वाक्य रचना में शब्द क्रम धीरे-धीरे निश्चित होने लगा था।

 

आदिकालीन हिंदी का शब्द भंडार

आदिकालीन हिंदी का शब्द भंडार अपने प्रारंभिक चरण में अपभ्रंश का ही थाकिंतु धीरे-धीरे कुछ परिवर्तन आते गये जिनमें उल्लेख्य तीन हैं :

 

1. भक्ति आंदोलन का प्रारंभ हो गया थाअतः अपभ्रंश की तुलना में तत्सम शब्दावली कुछ बढ़ने लगी थी। 

2. मुसलमानों के आगमन से कुछ शब्द पश्तोफारसी तथा तुर्की भाषाओं से हिंदी में आये। 

3. भक्ति आंदोलन तथा मुसलमानी शासन का प्रभाव समाज पर भी पड़ा जिसके परिणामस्वरूप इस बात की भी संभावना हो सकती है कि कुछ ऐसे पुराने शब्दजो अपभ्रंश में प्रचलित थेइस काल में अनावश्यक या अल्पावश्यक होने के कारण या तो हिंदी शब्द भंडार से निकल गये या फिर उनका प्रयोग बहुत कम हो गया।

आदिकालीन हिंदी  साहित्य 

आदिकालीन हिंदी  साहित्य में प्रमुखतः डिंगलमैथिलीदक्खिनीअवधीब्रज तथा मिश्रित रूपों का प्रयोग मिलता है। इस युग के प्रमुख हिंदी साहित्यकार गोरखनाथविद्यापतिनरपति नाल्हचंदबरदायीकबीर आदि हैं।

 

 हिंदी भाषा का विकास मध्यकाल : (1500-1800): 

इस काल में ध्वनिव्याकरण तथा शब्द भंडार के क्षेत्र में मुख्यतः आगे दिये गये परिवर्तन हुए। ध्वनि के क्षेत्र में दो-तीन बातें उल्लेख्य हैं:

 

1. फारसी की शिक्षा की कुछ व्यवस्था तथा दरबार में फारसी का प्रयोग होने से उच्च वर्ग में फारसी का प्रचार हुआजिसके कारण उच्च वर्ग के लोगों की हिंदी में क्रफ़ ये पाँच नये व्यंजन आ गये।

 

2. शब्दांत का 'कम-से-कम मूल व्यंजन के बाद आने पर लुप्त हो गयाअर्थात् 'रामका उच्चारण 'राम्होने लगा। किंतु 'भक्तजैसे शब्दों में- जहाँ अ के पूर्व संयुक्त व्यंजन था - 'बना रहा। कुछ स्थितियों में अक्षरांत 'का भी लोप होने लगा। उदाहरण के लिएआदिकालीन 'जपताअब उच्चारण 'जप्ताहो गया।

 

3. ह के पहले का अ कुछ स्थितियों में ए जैसा उच्चरित होने लगा था ( अहमद - एहमद)।


मध्यकाल में व्याकरण  के क्षेत्र में भी मुख्यतः तीन ही बातें उल्लेख्य हैं:

 

1. इस काल में हिंदी भाषा व्याकरण के क्षेत्र में पूरी तरह अपने पैरों पर खड़ी हो गई। अपभ्रंश के रूप प्राय: हिंदी से निकल गये। जो कुछ बचे थेवे ऐसे थे जिन्हें हिंदी ने आत्मसात् कर लिया था। 

2. भाषा आदिकालीन भाषा की तुलना में और भी वियोगात्मक हो गई। संयोगात्मक रूप और भी कम हो गये। परसगों तथा सहायक क्रियाओं का प्रयोग और भी बढ़ गया। 

3. उच्च वर्ग में फारसी का प्रचार होने के कारण हिंदी वाक्य रचना फारसी से प्रभावित होने लगी थी।

 

मध्यकाल में शब्द-भंडार की दृष्टि से ये बातें मुख्य हैं: 

1. इस काल में आते-आते काफ़ी शब्द फ़ारसी (लगभग 3500), अरबी ( लगभग 2500), पश्तो (लगभग 50 ) तथा तुर्की ( लगभग 125 ) से हिंदी में आ गये और उनकी संख्या लगभग 600 हो गई। 

2. भक्ति आंदोलन के चरम बिंदु पर पहुँचने के कारण तत्सम शब्दों का अनुपात भाषा में और भी बढ़ गया। 

3. यूरोप से संपर्क होने के कारण कुछ पुर्तगालीस्पेनीफ्रांसीसी तथा अंग्रेजी शब्द भी हिंदी में आ गये।

 

इस काल में धर्म की प्रधानता के कारण राम-स्थान की भाषा अवधी तथा कृष्ण-स्थान की भाषा ब्रज में ही विशेष रूप से साहित्य रचा गया। यो दक्खिनीउर्दूडिंगलमैथिली और खड़ी बोली में भी साहित्य-रचना हुई । इस काल के प्रमुख साहित्यकार जायसीसूरमोरातुलसीकेशव बिहारी भूषणदेव हैं।

 

 हिंदी भाषा का विकास आधुनिक काल ( 1800 से अब तक ) : 

आधुनिककालीन हिंदी में ध्वनि के क्षेत्र में चार-पांच बातें उल्लेख्य हैं:

 

1. आधुनिक काल में शिक्षा के व्यवस्थित प्रचार के कारण तथा प्रारंभ में हिंदी प्रदेश में अनेक क्षेत्रों में कचहरियों की भाषा उर्दू होने के कारण क्रग ज क जो मध्यकाल में केवल उच्च वर्गों के फारसी पढ़े-लिखे लोगों तक प्रचलित थेइस काल में प्राय: 1947 ई. तक सुशिक्षित लोगों में खूब प्रचलित हो गये। किंतु स्वतंत्रता के बाद स्थिति बदली है और अंग्रेजी में प्रयुक्त होने के कारण ज़फ़ तो एक सीमा तक अब भी प्रयोग में हैंकिंतु क्रग के ठीक प्रयोग में कमी आयी है। नयी पीढ़ीकुछ अपवादों को छोड़कर इनके स्थान पर प्रायः कग बोलने लगी है।

 

2. अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार के कारण कुछ बहुशिक्षित लोगों द्वारा ऑ (कॉलेजडॉक्टरऑफिसकॉफ़ी आदि में) ध्वनि भी हिंदी में प्रयुक्त हो रही है।

 

3. अंग्रेजी शब्दों के प्रचार के कारण कुछ नये संयुक्त व्यंजन (जैसे ड) हिंदी में प्रयुक्त होने लगे हैं।

4. स्वरों में ऐऔ हिंदी में आदिकाल में आये थे। इनका उच्चारण अऍअओंया अर्थात् ये संयुक्त स्वर थे। 

आधुनिक काल मेंमुख्यतः 1940 ई. के बाद ऐऔ की स्थिति कुछ भिन्न हो गयी है। इस संबंध में तीन बातें उल्लेख्य हैं: 

(क) पश्चिमी हिंदी क्षेत्र में ये स्वर सामान्यतः मूल स्वर- रूप में उच्चरित होते हैं।

(ख) पूर्वी हिंदी क्षेत्र में अब भी ये अऍअओं रूप में संयुक्त स्वर के रूप में ही प्रयुक्त हो रहे हैं 

(ग) नैयावैयाकरणकौआ जैसे शब्दों में पश्चिमी तथा पूर्वी दोनों ही क्षेत्रों में ऐऔं का उच्चारण क्रमशः संयुक्त स्वर अइअउ रूप में होता है।

 

5. मध्यकाल में अ का लोप शब्दांत तथा कुछ स्थितियों में अक्षरांत में होना आरंभ हुआ था। आधुनिक काल तक आते-आते यह प्रक्रिया पूरी हो गयी। अब हिंदी में उच्चारण में कोई भी शब्द अकारांत नहीं है।

 

6. व ध्वनि आदिकाल तथा मध्यकाल में कुछ अपवादों को छोड़कर प्रायः द्वयोष्ठ रूप में उच्चरित होती थीअब वह कुछ अपवादों को छोड़कर हिंदी के काफी शब्दों में कम-से-कम पश्चिमी क्षेत्र में दंतोष्ठ्य रूप में उच्चारित होती है।

 

व्याकरण की दृष्टि से अधोलिखित बातें कही जा सकती हैं

1. आदिकाल में हिंदी की विभिन्न बोलियों के व्याकरणिक अस्तित्व का प्रारंभ हो गया थाकिंतु काफ़ी व्याकरणिक रूप ऐसे थेजो आसपास के क्षेत्रों में समान थे। मध्यकाल में उनमें इस प्रकार के मिश्रण में काफी कमी हो गई थी। सूरबिहारीदेव आदि की ब्रजभाषा तथा जायसीतुलसी आदि की अवधि इस बात का प्रमाण है। आधुनिक काल तक आते-आते ब्रजअवधीभोजपुरीमैथिली आदि कई बोलियों का व्याकरणिक अस्तित्व इतना स्वतंत्र हो गया है कि उन्हें बड़ी सरलता से भाषा की संज्ञा दी जा सकती है।

 

2. हिंदी प्राय: पूर्णत: एक वियोगात्मक भाषा हो गयी है।

 

3. प्रेसरेडियो शिक्षा तथा व्याकरणिक विश्लेषण आदि के प्रभाव से हिंदी व्याकरण का रूप काफ़ी . स्थिर हो गया है। कुछ अपवादों को छोड़कर हिंदी व्याकरण का मानक रूप सुनिश्चित हो चुका व्याकरण के इस स्थिरीकरण में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी का मुख्य हाथ रहा है। है।

 

4. कहा जा चुका है कि मध्यकाल में हिंदी वाक्य रचना एक सीमा तक फारसी से प्रभावित हुई थी। आधुनिक काल में अंग्रेजी शिक्षा का प्रचार फारसी की तुलना में कहीं अधिक हुआ है। साथ ही समाचार-पत्रोंरेडियो तथा सरकारी कामों में प्रयोग के कारण भी अंग्रेज़ी हमारे अधिक निकट आयी है। इसका परिणाम यह हुआ कि हिंदी भाषा वाक्य-रचनामुहावरों तथा लोकोक्ति आदि के क्षेत्र में अंग्रेजी से बहुत अधिक प्रभावित हुई है। उदाहरण के लिए 'मैं सोने जा रहा हूँ' 'आई ऐम गोइंग टु स्लीपका अनुवाद है तो 'वह आदमी जो कल बीमार पड़ा थाआज मर गया' 'द मैन हू फेल इल येस्टरडे एक्सपायरड टु डेका। इसी तरह 'प्रकाश डालनामुहावरा 'टु थ्रो लाइट ऑनका अनुवाद हैतो 'आवश्यकता आविष्कार की जननी है', लोकोक्ति 'नेसेसिटी इज द मदर ऑफ इन्वेन्शनका अंग्रेजी ने विराम चिह्नों के माध्यम से भी हिंदी वाक्य रचना को प्रभावित किया है।

5. इधर कुछ वर्षों से 'कीजिएके लिए 'करिए', 'मुझेके लिए 'मेरे को', 'मुझकोके लिए 'मेरे से', 'तुझ मेंके लिए 'तेरे में', 'तेरे मेंनहीं जाता है के स्थान पर 'नहीं जाता', 'नहीं जा रहा हैके स्थान पर 'नहीं जा रहाजैसे नये रूपों तथा नयी वाक्य रचना का प्रचार कुछ क्षेत्रों में बढ़ता जा रहा है। अर्थात् हिंदी भाषा को रूप-रचना तथा वाक्य रचना में परिवर्तन हो रहा है।

शब्द भंडार की दृष्टि से आधुनिक काल

शब्द भंडार की दृष्टि से 1800 ई. से अब तक के आधुनिक काल को सामान्यतः छह-सात उपकालों में विभाजित किया जा सकता है। 

1800 से 1850 ई. तक का हिंदी शब्द भंडार मोटे रूप से वही था जो मध्यकाल के अंतिम चरण में था। अंतर केवल यह था कि धीरे-धीरे अंग्रेजी के अधिकाधिक शब्द हिंदी भाषा में आते जा रहे थे।

1850 से 1900 ई. तक अंग्रेजी के और शब्दों के आने के अतिरिक्त आर्यसमाज के प्रचार-प्रसार के कारण तत्सम शब्दों का प्रयोग बढ़ा और कुछ पुराने तद्भव शब्द परिनिष्ठित हिंदी से निकल गये।

1900 ई. के बाद द्विवेदी - काल तथा छायावाद काल में अनेक कारणों से तत्सम शब्दों का प्रयोग बढ़ना प्रारंभ हो गया। प्रसाद पन्त और महादेवी वर्मा का पूरा साहित्य इस दृष्टि से दर्शनीय है। इसके बाद प्रगतिवादी आंदोलन के कारण तद्भव शब्दों के प्रयोग में पुनः वृद्धि हुई तथा तत्सम शब्दों के प्रयोग में काफी कमी हुई। 


सन् 1947 तक लगभग यही स्थिति रही। इसके बाद के शब्द भंडार में कई बातें उल्लेख्य हैं:

 

1. अनेक पुराने शब्द नये अर्थों में प्रचलित हो गये हैं। उदाहरण के लिए 'सदनराज्यसभा- लोकसभा के लिए (दोनों सदनों में प्रयुक्त हो रहा है। 

2. नयी आवश्यकता की पूर्ति के लिए क्षणिकाफिल्मानाघुसपैठिया जैसे बहुत-से नये शब्द हिंदी में आ गये हैं। 

3. साहित्य में नाटकउपन्यासकहानी और कविता की भाषा बोलचाल के बहुत निकट हैउसमें अरबी-फारसी तथा अंग्रेजी के जन-प्रचलित शब्दों का काफी प्रयोग हो रहा हैकिंतु आलोचना की भाषा अब भी एक सीमा तक तत्सम शब्दों से काफी लदी हुई है। 

4. इधर हिंदी को पारिभाषिक शब्दों की बहुत आवश्यकता पड़ी हैक्योंकि वह अब विज्ञानवाणिज्यविधि आदि की भी भाषा है। इसकी पूर्ति के लिए अनेक शब्द अंग्रेज़ीसंस्कृत आदि से लिये गये हैं तथा अनेक नये शब्द बनाये गये हैं। स्वतंत्रता के पूर्व हिंदी में मुश्किल से पांच-छह हज़ार पारिभाषिक शब्द थेकिंतु अब उनकी संख्या लगभग एक लाख है और दिनोंदिन उसमें वृद्धि होती जा रही है। हिंदी शब्द-भंडार अनेक प्रभावों को ग्रहण करते हुए तथा नये शब्दों से समृद्ध होते हुए दिनोंदिन अधिक व्यापक होता जा रहा हैजिसके परिणामस्वरूप हिंदी अपनी अभिव्यंजना में अधिक सटीकनिश्चितगहरी तथा समर्थ होती जा रही है।

 

किसी भाषा के प्रचार- क्षेत्र में जैसे-जैसे विस्तार होता हैउसके एकाधिक रूप विकसित होने लगते हैं। आज इंग्लैंडअमेरिकाऑस्ट्रेलिया की अंग्रेज़ी ध्वनि-व्यवस्थारूप-रचनावाक्य गठन तथा शब्द-भंडार किसी भी दृष्टि से पूर्णत: एक नहीं है। हिंदी के साथ भी वही स्थिति आती जा रही है। संविधान के 351वें अनुच्छेद के अनुसार संपर्क भाषा के रूप में जिस हिंदी का विकास होना हैवह कम-से-कम शब्द भंडार के क्षेत्र में भारत की प्रायः सभी भाषाओं से कुछ-न-कुछ ग्रहण करेगी। इस प्रकार राष्ट्रभाषा के रूप में उसका स्वरूप एक प्रकार से सार्वदेशिक होगा। नागपुर में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन (1975) में इस दिशा में स्वदेश - विदेश के हिंदी विद्वानों ने यथेष्ट विचार-विमर्श के उपरांत उपर्युक्त निष्कर्ष से ही सहमति प्रकट की और हिंदी को राष्ट्रभाषा के साथ ही विश्व की एक प्रमुख भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने का संकल्प व्यक्त किया।

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