हिंदी साहित्येतिहास की परंपरा, हिंदी साहित्य के इतिहास की पपरम्परा
हिंदी साहित्येतिहास की परंपरा
➽ यद्यपि उन्नीसवी शती से पूर्व विभिन्न कवियों और लेखकों द्वारा अनेक ऐसे ग्रंथों की रचना हो चुकी थी जिनमें हिंदी के विभिन्न कवियों के जीवन-वृत्त एवं कृतित्व का परिचय दिया गया है, जैसे-'चौरासी वैष्णवन की या" "दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता" "भक्तमाल' 'कविमाला', 'कालिदास हजारा' आदि किंतु इनमें काल-क्रम, सन्-संवत् आदि का अभाव होने के कारण इन्हें 'इतिहास' की संज्ञा नहीं दी जा सकती। वस्तुतः अब तक की जानकारी के अनुसार हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन का सबसे पहला प्रयास एक फ्रेंच विद्वान गार्सा द तॉसी का ही समझा जाता है जिन्होंने फ्रेंच भाषा में 'इस्त्वार द ला लितरेत्युर ऐन्दुई ऐन्दुस्तानी' ग्रंथ लिखा, जिसमें हिंदी और उर्दू के अनेक कवियों का विवरण वर्णक्रमानुसार दिया गया है। इसका प्रथम भाग 1839 में तथा द्वितीय 1847 ई. में प्रकाशित हुआ था। 1871 ई. में इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ, जिसमें इसे तीन खंडों में विभक्त करते हुए पर्याप्त संशोधन परिवर्तन किया गया। इस ग्रंथ का महत्त्व केवल इसी दृष्टि से है कि इसमें हिंदी काव्य का सर्वप्रथम इतिहास प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है तथा कवियों के रचना- काल का भी निर्देश किया गया है; अन्यथा कवियों को काल-क्रम के स्थान पर अंग्रेजी वर्णक्रम से प्रस्तुत करना, काल विभाजन एवं युगीन प्रवृत्तियों के विवेचन का कोई प्रयास न करना, हिंदी के कवियों में इतर भाषाओं को घुला मिला देना आदि ऐसी त्रुटियाँ हैं जिनके कारण इसे 'इतिहास' मानने में संकोच होता है। फिर भी, भारत से दूर बैठकर विदेशी भाषा में सर्वप्रथम इस प्रकार का प्रयास करना भी अपने-आपमें कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। वस्तुतः किसी भी क्षेत्र में किये गये प्रारंभिक एवं प्राथमिक प्रयास का महत्त्व प्रायः उसकी उपलब्धियों की दृष्टि से नयी, अपितु नयी दिशा की ओर अग्रसर होने की दृष्टि से ही माना जाता है- यह बात तॉसी के प्रयास पर भी लागू होती है। अस्तु, उनके ग्रंथ में अनेक त्रुटियों व न्यूनताओं के होते हुए भी हम उन्हें हिंदी साहित्येतिहास लेखन की परंपरा में उसके प्रवर्तक के रूप में, गौरवपूर्ण स्थान देना उचित समझते हैं।
➽ तॉसी की परंपरा को आगे बढ़ाने का श्रेय शिवसिंह सेंगर को है, जिन्होंने 'शिवसिंह सरोज' (1883) में लगभग एक सहस्र भाषा कवियों का जीवन चरित उनकी कविताओं के उदाहरण सहित प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। कवियों के जन्म-काल, रचना काल आदि के संकेत भी दिये गये हैं, यह दूसरी बात है कि वे बहुत विश्वसनीय नहीं हैं। इतिहास के रूप में इस ग्रंथ का भी महत्त्व अधिक नहीं है, किंतु फिर भी इसमें उस समय तक उपलब्ध हिंदी कविता संबंधी ज्ञान को संकलित कर दिया गया है, जिससे परवर्ती इतिहासकार लाभ उठा सकते हैं- इसी दृष्टि से इसका महत्त्व है।
➽ सन् 1888 में एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल की पत्रिका के विशेषांक के रूप में जार्ज ग्रियर्सन द्वारा रचित 'द मॉडर्न वर्नेक्युलर लिट्रेचर ऑफ हिंदुस्तान' का प्रकाशन हुआ, जो नाम से 'इतिहास' न होते हुए भी सच्चे अर्थ में हिंदी - साहित्य का पहला इतिहास कहा जा सकता है। इसमें लेखक ने कवियों और लेखकों का कालक्रमानुसार वर्गीकरण करते हुए उनकी प्रवृत्तियों को भी स्पष्ट करने का प्रयास किया है। उनके काल-विभाजन संबंधी प्रयास के गुण-दोषों पर आगे अलग रूप में विचार किया जायेगा, किंतु यहाँ इतना अवश्य कहा जा सकता है कि हिंदी भाषा और हिंदी साहित्य के स्वरूप एवं विकास के संबंध में जिस दृष्टिकोण का परिचय ग्रियर्सन ने दिया है, वह परवर्ती इतिहासकारों के लिए भी पथ-प्रदर्शक सिद्ध हुआ। मुख्य बात यह है कि उन्होंने हिंदी-साहित्य का भाषा की दृष्टि से क्षेत्र निर्धारित करते हुए स्पष्ट किया कि इसमें न तो संस्कृत - प्राकृत को सम्मिलित किया जा सकता है और न ही अरबी-फारसी मिश्रित उर्दू को उन्होंने अपनी भाषा नीति को स्पष्ट करते हुए भूमिका में लिखा है: "... मैं आधुनिक भाषा-साहित्य का ही विवरण प्रस्तुत करने जा रहा हूँ। अतः मैं संस्कृत में ग्रंथ-रचना करने वाले लेखकों का विवरण नहीं दे रहा हूँ। प्राकृत में लिखी पुस्तकों को भी विचार के बाहर रख रहा हूँ। भले ही प्राकृत कभी बोलचाल की भाषा रही हो, पर आधुनिक भाषा के अंतर्गत नहीं आती। मैं न तो अरबी-फारसी के भारतीय लेखकों का उल्लेख कर रहा हूँ और न ही विदेश से लायी गई साहित्यिक उर्दू के लेखकों का ही मैंने इन अंतिम को, उर्दूवालों को अपने इस विचार से जानबूझकर बहिष्कृत कर दिया है, क्योंकि इन पर पहले ही गार्सा द तॉसी ने पूर्णरूप से विचार कर लिया है।" इस प्रकार हिंदी भाषा के संबंध में जिस स्पष्ट एवं निर्भ्रान्त दृष्टि का परिचय ग्रियर्सन ने दिया, वह निश्चय ही उस युग की भूमिका में महत्त्वपूर्ण प्रतीत होती है तथा यह भी कहा जा सकता है कि दृष्टि की इसी स्वच्छता के कारण वे अपने लक्ष्य में सफल हो सके। ग्रियर्सन की दूसरी विशेषता यह है कि उन्होंने अपने ग्रंथ के आधार स्रोत के रूप में तॉसी एवं शिवसिंह सेंगर के ग्रंथों के अतिरिक्त भक्तमाल, गोसाई - चरित्र, हज़ारा, काव्य-संग्रह आदि सत्रह रचनाओं का उल्लेख करते हुए स्थान-स्थान पर मूलाधारों के संदर्भ - संकेत भी दिये हैं, जिससे उस तटस्थता, प्रामाणिकता और ईमानदारी का बोध होता है जो किसी भी इतिहासकार के लिए आवश्यक है। यह दुर्भाग्य की बात है कि परवर्ती हिंदी साहित्यकारों द्वारा इस परंपरा का निर्वाह सम्यक् रूप में नहीं हो सका।
➽ अपनी दृष्टि एवं पद्धति पर प्रकाश डालते हुए ग्रियर्सन ने लिखा है कि उन्होंने सामग्री को यथासंभव कालक्रमानुसार प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। ग्रंथ को कालखंडों में विभक्त किया गया है तथा प्रत्येक अध्याय कालविशेष का सूचक है। प्रत्येक काल के गौण कवियों का अध्यायविशेष के अंत में उल्लेख किया गया है। विभिन्न युगों की काव्य-प्रवृत्तियों की व्याख्या करते हुए उनसे संबंधित सांस्कृतिक परिस्थितियों और प्ररेणास्त्रोतों के भी उद्घाटन का प्रयास उनके द्वारा हुआ है। इसके अतिरिक्त हिंदी साहित्य के विकास क्रम का निर्धारण चारण-काव्य, धार्मिक काव्य, प्रेम काव्य, दरबारी काव्य के रूप में करना तथा सोलहवीं सत्रहवीं सदी के युग को (भक्तिकाल को) हिंदी काव्य का स्वर्ण युग मानना ग्रियर्सन की महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हैं जिन्हें किंचित् संशोधित एवं नूतन शब्दों में प्रस्तुत करके परवर्ती इतिहासकारों ने भारी श्रेय प्राप्त किया है। वस्तुतः उन्नीसवीं सदी के अंतिम चरण में, जबकि हिंदी साहित्य क्षेत्र में आलोचना एवं अनुसंधान की परंपराओं का श्रीगणेश भी न हुआ था, हिंदी भाषा एवं उसके काव्य की ऐसी स्पष्ट सूक्ष्म एवं प्रामाणिक ऐतिहासिक व्याख्या प्रस्तुत कर देना ग्रियर्सन की अद्भुत प्रतिभा शक्ति एवं गहन अध्ययनशीलता को प्रमाणित करता है; यह दूसरी बात है कि उनका ग्रंथ अंग्रेजी में रचित होने के कारण हिंदी के अध्येताओं की दृष्टि का केंद्र नहीं बन सका जिससे परवर्ती युग के अनेक इतिहासकार, जो उनकी धारणाओं और स्थापनाओं को पल्लवित करके हिंदी माध्यम से प्रस्तुत कर सके उस यश के भागी बने जो वस्तुतः ग्रियर्सन का दाय था ।
➽ मिश्रबंधुओं द्वारा रचित 'मिश्रबंधु विनोद' चार भागों में विभक्त है, जिसके प्रथम तीन भाग 1913 ई. में प्रकाशित हुए तथा चतुर्थ भाग 1934 ई. में प्रकाशित हुआ । मिश्र बंधुओं ने अपने ग्रंथ को 'इतिहास' की संज्ञा न देते हुए भी भरसक इस बात का यत्न किया कि यह एक आदर्श इतिहास सिद्ध हो। इसे परिपूर्ण एवं सुव्यवस्थित बनाने के लिए उन्होंने एक ओर तो इसमें लगभग पांच हजार कवियों को स्थान दिया है तथा दूसरी ओर इसे आठ से भी अधिक कालखंडों में विभक्त किया है इस क्षेत्र में उन्हें पूर्ववर्ती इतिहासकारों से अधिक सफलता मिली है। इतिहास के रूप में इस ग्रंथ की विशेषता यह है कि इसमें कवियों के विवरणों के साथ-साथ साहित्य के विविध अंगों पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है तथा अनेक अज्ञात कवियों को प्रकाश में लाते हुए उनके साहित्यिक महत्त्व को स्पष्ट करने का यत्न किया गया है। कवियों का सापेक्षिक महत्त्व निर्धारित करने के लिए उनकी श्रेणियाँ भी बनायी गई हैं । किंतु काव्य-समीक्षा में परंपरागत सिद्धांतों और पद्धति का ही अनुसरण मिलता है। अतः आधुनिक समीक्षा - दृष्टि से यह ग्रंथ भले ही बहुत संतोषजनक न कहा जा सके, किंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि इतिहास - लेखन की पूर्व - परंपरा को आगे बढ़ाने में इसका महत्त्वपूर्ण योगदान है, जैसा कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने स्वयं स्वीकार किया है: "कवियों के परिचयात्मक विवरण मैंने प्रायः मित्रवधु विनोद से ही लिये हैं। परवर्ती इतिहासकारों के लिए भी यह आधार ग्रंथ रहा है।
➽ हिंदी - साहित्येतिहास की परंपरा में सर्वोच्च स्थान आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा रचित 'हिंदी साहित्य का इतिहास' (1929) को प्राप्त है। जो मूलतः नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित 'हिंदी शब्द सागर की भूमिका के रूप में लिखा गया था तथा जिसे आगे परिवर्द्धित एवं विस्तृत करके स्वतंत्र पुस्तक का रूप दे दिया गया। इसके आरंभ में ही आचार्य शुक्ल ने अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुए उद्घोषित किया है: "जबकि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य परंपरा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही 'साहित्य का इतिहास' कहलाता है। जनता की चित्तवृत्ति बहुत कुछ राजनीतिक, सामाजिक, सांप्रदायिक तथा धार्मिक परिस्थिति के अनुसार होती है।" इस उदाहरण से स्पष्ट है कि आचार्य शुक्ल ने साहित्येतिहास के प्रति एक निश्चित व सुस्पष्ट दृष्टिकोण का परिचय देते हुए युगीन परिस्थितियों के संदर्भ में साहित्य के विकास क्रम की व्याख्या करने का प्रयास किया है। इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि उन्होंने साहित्येतिहास को साहित्यालोचन से पृथक् रूप में ग्रहण करते हुए विकासवादी और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का परिचय दिया। साथ ही उन्होंने इतिहास के मूल विषय को आरंभ करने से पूर्व ही 'काल-विभाग' के अंतर्गत हिंदी-साहित्य के 900 वर्षों के इतिहास को चार सुस्पष्ट कालखंडों में विभक्त करके अपनी योजना को एक ऐसे निश्चित रूप में प्रस्तुत कर दिया कि जिसमें पाठक के मन में शंका और संदेह के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता यह दूसरी बात है कि उन्होंने काल विभाजन का आधार न देकर केवल तत्संबंधी निष्कर्षों की ही सूचना दी है। किंतु इससे उस युग के उन पाठकों को अवश्य लाभ हुआ जो काल विभाजन की सूक्ष्मताओं के पचड़े में पड़े बिना ही संपूर्ण हिंदी साहित्य को एक दृष्टि से देख लेना चाहते थे। नवोपलब्ध तथ्यों और निष्कर्षों के अनुसार अब यह काल विभाजन त्रुटिपूर्ण सिद्ध हो गया है, किंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि अपनी अति सरलता व स्पष्टता के कारण यह आज भी बहुप्रचलित और बहुमान्य है।
➽ आचार्य शुक्ल के इतिहास की एक अन्य विशेषता है- पूरे भक्तिकाल को चार भागों या शाखाओं में बांटकर उसे शुद्ध दार्शनिक एवं धार्मिक आधार पर प्रतिष्ठित कर देना। उन्होंने इस काल के समस्त साहित्य को पहले निर्गुण-धारा और सगुण-धारा में और फिर प्रत्येक को दो-दो शाखाओं - ज्ञानाश्रयी शाखा व प्रेमाश्रयी शाखा तथा रामभक्तिशाखा व कृष्णभक्तिशाखा में विभक्त करके न केवल साहित्यिक आलोचकों के लिए, अपितु दार्शनिक तथा धार्मिक दृष्टि से साहित्यानुसंधान करने वालों के लिए भी एक अत्यंत सरल एवं सीधा मार्ग तैयार कर दिया। इतिहासकार के रूप में आचार्य शुक्ल की सबसे बड़ी विशेषता है-कवियों और साहित्यकारों के जीवन-चरित संबंधी इतिवृत्त के स्थान पर उनकी रचनाओं के साहित्यिक मूल्यांकन को प्रमुखता देना। इस क्षेत्र में उन्होंने एक तो चुने हुए कवियों को ही लिया जहाँ 'मिश्रबंधु विनोद' में कवि संख्या पांच हजार तक पहुँच चुकी थी, वहाँ उन्होंने उनमें से लगभग एक हजार को ही अपने इतिहास में स्थान दिया; फिर उनके विवेचन में उनकी साहित्यिक महत्ता व लघुता का ध्यान रखते हुए उन्हें तदनुसार ही स्थान दिया। वस्तुतः इतिहास के इतने संक्षिप्त कलेवर में भी इतने कवियों का जैसा प्रामाणिक, सारगर्भित एवं सोदाहरण विवेचन वे प्रस्तुत कर पाये हैं, उससे इतिहासकार शुक्ल की महानता प्रमाणित होती है। इसी प्रकार विभिन्न काव्यधाराओं और युगों की साहित्यिक प्रवृत्तियों के निर्धारण में भी उन्हें असाधारण सफलता प्राप्त हुई है। रीतिग्रंथकारों के आचार्यत्व एवं कवित्व का सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए उनकी उपलब्धियों तथा सीमाओं के संबंध में जो निर्णय आचार्य शुक्ल ने दिये, वे बहुत कुछ अंशों में आज भी मान्य हैं।
➽ इस प्रकार हम देखते हैं कि हिंदी साहित्य लेखन की परंपरा में आचार्य शुक्ल का योगदान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। उनका इतिहास ही कदाचित् अपने विषय का पहला ग्रंथ है जिसमें अत्यंत सूक्ष्म एवं व्यापक दृष्टि, विकसित दृष्टिकोण स्पष्ट विवेचन-विश्लेषण और प्रामाणिक निष्कर्षो का सन्निवेश मिलता है किंतु फिर भी हमें यह न भूलना चाहिए कि उनके द्वारा इतिहास की रचना उस समय हुई थी जबकि हिंदी का अधिकांश प्राचीन साहित्य अज्ञात, लुप्त एवं अप्रकाशित अवस्था में पड़ा था तथा उसका प्रामाणिक अध्ययन विश्लेषण नहीं हो पाया था । वस्तुत: इतिहासकार से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह इतिहास की सहस्राधिक रचनाओं का स्वयं ही अनुसंधान, अध्ययन, विश्लेषण करके उपलब्ध निष्कर्षों के आधार पर इतिहास की रचना करें, अपितु वह अन्य अनुसंधानकर्ताओं द्वारा उपलब्ध तथ्यों और निष्कर्षो के आलोक में अपना कार्य-संपादन करता है; यह दूसरी बात है कि उन तथ्यों और निष्कर्षों की ऐतिहासिक व्याख्या वह अपने ढंग से स्वतंत्र रूप में करता है। किंतु आचार्य शुक्ल के इतिहास लेखन के समय तो हिंदी अनुसंधान का आरंभ मात्र ही हो पाया था इस तथ्य की पुष्टि इस बात से होती है कि सन् 1929 तक सारे हिंदी जगत में लिखे गये शोध-प्रबंधों की संख्या तीन-चार से अधिक नहीं थी । ऐसी स्थिति में इतिहास के जिस पक्ष का संबंध उनकी स्वतंत्र चिन्तना एवं विवेचना-शक्ति से था, उसमें तो उन्हें सफलता मिली, किंतु जो पक्ष इतिहास की आधारभूत सामग्री से संबंध था, उसमें उन्हें अनुमान और कल्पना से काम लेना पड़ा, जिसका परिणाम यह हुआ कि इस पक्ष से संबंधित उनके अनेक निष्कर्ष अब अप्रामाणिक सिद्ध हो गये हैं। इससे उनके इतिहास में अनेक ऐसी त्रुटियों तथा असंगतियों का प्रादुर्भाव हो गया है, जो आज की स्थिति में उनके इतिहास के दुर्बल पक्ष को सूचित करती हैं। इसी प्रकार वीरगाथा काल में उल्लिखित रचनाओं के अस्तित्वहीन, अप्रामाणिक, परवर्ती या अन्य भाषा में रचित सिद्ध हो जाने के कारण भी यह काल आज अत्यंत विवादग्रस्त हो गया है। भक्तिकाल के नामकरण और वर्गीकरण में एक कठिनाई यह हो जाती है कि धर्मनिरपेक्ष दृष्टि से राजाश्रय एवं लोकाश्रय में काव्य-रचना करने वाले कवियों के लिए या रामकृष्ण के अतिरिक्त किसी अन्य अवतार या देवी - देवता की उपासना करने वाले भक्त कवि के लिए उसमें समुचित स्थान नहीं है। फिर भी, यह नामकरण और वर्गीकरण व्यावहारिक दृष्टि से सरल, सुगम एवं मान्य सिद्ध हुआ ।
➽ भक्तिकाल की ही भांति रीतिकाल में भी नामकरण, सीमा निर्धारण, परंपराओं व काव्यधाराओं का वर्गीकरण वर्गविशेष के एकपक्षीय बोध का सूचक है जिससे इस काल के रीतिमुक्त प्रेममार्गी कवियों, वीर रसात्मक काव्यों के रचयिताओं तथा राजनीति एवं वैराग्य संबंधी मुक्तकों के रचयिता कवियों के साथ न्याय नहीं हो पाता। केशवदास -जैसे आचार्य कवि को 'अलंकारवादी' तथा परवर्ती रीतिकवियों को 'रसवादी' घोषित करते हुए उन्हें रीति परंपरा के प्रवर्तक के पद से वंचित करना भी संगत प्रीतत नहीं होता, क्योंकि जहाँ एक ओर केशव ने 'रसिकप्रिया' में रस - सिद्धांत का सांगोपांग निरूपण किया है, वहाँ दूसरी ओर रीतिकवियों ने प्रायः अलंकारों पर भी ग्रंथ लिखे हैं। वास्तविकता यह है कि रीति प्रतिपादन के क्षेत्र में इस काल के प्रायः सभी रीतिबद्ध कवियों ने न केवल केशवदास द्वारा प्रस्तुत विषयों का अपितु उनकी प्रतिपादन शैली का भी पूरी तरह अनुसरण किया है। ऐसी स्थिति में तथाकथित 'रीतिकाल' (या रीति-परंपरा) का प्रवर्तन केशव से ही मानना ऐतिहासिक दृष्टि से ठीक होगा।
➽ विभिन्न काव्यधाराओं तथा परंपराओं के मूल उत्सों और स्रोतों के यथार्थ अनुसंधान में शुक्ल जी का युगवादी दृष्टिकोण भी बाधक सिद्ध हुआ। उन्होंने साहित्यिक परंपराओं और प्रवृत्तियों को युगविशेष की चित्तवृत्ति के प्रतिबिंब के रूप में ही ग्रहण किया, उन तत्त्वों तथा स्रोतों की उपेक्षा की जिनका संबंध पूर्व परंपरा से है। परिणाम यह हुआ कि उन्होंने पूरे मध्यकाल की विभिन्न धाराओं और प्रवृत्तियों को तद्युगीन मुस्लिम प्रभाव की देन के रूप में स्वीकार कर लिया जैसे, भक्ति आंदोलन तयुगीन निराशा की देन है, संत मत इस्लाम के एकेश्वरवाद के प्रभाव का सूचक है, प्रेमाख्यान परंपरा सूफी मसनवियों से अनुकृत है, आदि। इसमें कोई संदेह नहीं कि इन सब पर तयुगीन वातावरण का भी आंशिक प्रभाव है, किंतु यही सबकुछ नहीं है; इनके विकास को सम्यक् रूप से स्पष्ट करने के लिए संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश की उन परंपराओं पर भी विचार करना आवश्यक था जो हिंदी की विभिन्न मध्यकालीन काव्यधाराओं के मूल में आधारभूत तत्त्व की भांति विद्यमान हैं। वस्तुतः संस्कृत साहित्य की पौराणिक परंपराओं, प्राकृत अपभ्रंश के प्रेमाख्यानों व मुक्तकों की धाराओं, सिद्धों व नाथपंथियों की गुह्य वाणियों की उपेक्षा करके मध्यकालीन हिंदीकाव्य की विभिन्न काव्यधाराओं के वर्तमान स्वरूप की आलोचना भले ही की जा सके, किंतु उसके आधार स्रोतों का अनुसंधान और उनके विकास क्रम की ऐतिहासिक व्याख्या संभव नहीं है।
➽ आचार्य शुक्ल की नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा एवं प्रौढ़ विवेचना - शक्ति के महत्त्व के समक्ष नतमस्तक होते हुए भी हमें यह कटु सत्य स्वीकार करना पड़ता है कि इतिहासकार शुक्ल की उपलब्धियां उसी सीमा तक ग्राह्य हैं जहाँ तक वे उनके आलोचक रूप से संबंध हैं; किंतु जहाँ वे आलोचक से पृथक् होकर शुद्ध इतिहासकार के रूप में अवतरित होते हैं, वहीं उनकी अनेक सीमाएं स्पष्ट होने लगती हैं। अवश्य ही ये उनकी अपनी सीमाएँ न होकर इतिहास की सीमाएँ हैं, अर्थात् जिस काल-सीमा में उन्होंने कार्य किया था, उसमें कदाचित यह संभव नहीं था कि इतिहास को वह रूप दिया जा सकता जो परवर्ती अनुसंधान से उपलब्ध नूतन तथ्यों और निष्कर्षो के आलोक में संभव है। वस्तुतः उस युग की सीमित ज्ञानराशि को लेकर भी उन्होंने उसे जैसा रूप दिया, वह निश्चय ही उनके जैसे व्यक्ति के लिए ही संभव था । इतिहास लेखन की परंपरा में आचार्य शुक्ल का महत्त्व सदा अक्षुण्ण रहेगा, इसमें कोई संदेह नहीं।
➽ आचार्य शुक्ल के इतिहास-लेखन के लगभग एक शताब्दी बाद आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी इस क्षेत्र में अवतरित हुए । उनकी 'हिंदी साहित्य की भूमिका' क्रम और पद्धति की दृष्टि से इतिहास के रूप में प्रस्तुत नहीं है, किंतु उसमें प्रस्तुत विभिन्न स्वतंत्र लेखों में कुछ ऐसे तथ्यों और निष्कर्षों का प्रतिपादन किया गया है जो हिंदी-साहित्य के इतिहास-लेखन के लिए नयी दृष्टि, नयी सामग्री और नयी व्याख्या प्रदान करते हैं। जहाँ आचार्य शुक्ल की ऐतिहासिक दृष्टि 'युग की परिस्थितियों को प्रमुखता प्रदान करती थी, वहाँ आचार्य द्विवेदी ने परंपरा का महत्त्व प्रतिष्ठित करते हुए उन धारणाओं को खंडित किया जो युगीन प्रभाव के एकांगी दृष्टिकोण पर आधारित थीं। उन्होंने अत्यंत सशक्त स्वरों में उद्घोषित किया कि भक्ति आंदोलन न तो तद्युगीन पराजित हिंदू जाति की निराशा से उद्वेलित है और न ही इस्लाम की प्रतिक्रिया है; इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि सातवीं-आठवीं शती में, जबकि भारत की धरती पर इस्लाम की छाया भी नहीं पड़ी थी, दक्षिण के वैष्णव भक्तों में भक्ति अपने पूर्ण वैभव के साथ विद्यमान थी। इस प्रसंग में उन्होंने स्पष्ट शब्दों में इस्लाम के प्रभाव का खंडन करते हुए लिखा है, “मैं इस्लाम के महत्त्व को भूल नहीं रहा हूँ, लेकिन जोर देकर कहना चाहता हूँ कि अगर इस्लाम न आया होता तो भी इस साहित्य का बाहर आना वैसा ही होता जैसा आज है। "
➽ इसी प्रकार उन्होंने संत काव्य-परंपरा के स्रोतों का अनुसंधान करते हुए सिद्धों और नाथपंथियों की वाणियों, विचार- सरणियों, पद्धतियों व काव्य शैलियों के तुलनात्मक अध्ययन द्वारा यह स्पष्ट किया कि किस प्रकार कबीर आदि इनसे प्रभावित हैं। वस्तुतः भाव, विचार, तर्क-पद्धति, भाषा शैली आदि के आधार पर उन्होंने सिद्ध किया कि हिंदी का संत काव्य पूर्ववर्ती सिद्धों व नाथपथियों के साहित्य का सहज विकसित रूप है, अतः उसे केवल इस्लाम पर आधारित मानने की आवश्यकता नहीं। हिंदी के प्रेमाख्यानों के भी मूल स्रोतों का अनुसंधान करते हुए उन्होंने प्रतिपादित किया है कि इनकी कथावस्तु, कथानक रूढ़ियाँ, रचना - शैली, छंद-योजना आदि संस्कृत, प्राकृत व अपभ्रंश की काव्य-परंपराओं पर आश्रित हैं।
➽ मध्यकालीन हिंदी - काव्य के विविध स्रोतों के अनुसंधान के अतिरिक्त आचार्य द्विवेदी ने संत साहित्य और वैष्णव- भक्तिकाव्य के ऐतिहासिक मूल्यांकन के लिए नया दृष्टिकोण भी प्रस्तुत किया। शास्त्रीय परंपरा के संरक्षक महाकवि तुलसीदास के महत्त्व पर बल देते हुए प्राय: अनेक इतिहासकार संतों को अशिक्षित, असंस्कृत व अविकसित घोषित करके उनकी अवमानना करने का प्रयास करते हैं, जबकि आचार्य द्विवेदी ने वस्तुस्थिति की गहराई घोषित करते हुए लिखा है: “कभी-कभी हास्यास्पद भावे से कबीरदास को शास्त्र ज्ञानहीन, सुनी सुनायी बातों का गढ़ने वाला आदि कह दिया जाता है, मानो उस युग में जुलाहे, मोची, धुनिये और अन्यान्य नीची कही जाने वाली जातियों के लिए शास्त्र और वेद का दरवाजा खुला था और कबीरदास आदि ने जान-बूझकर उसकी अवहेलना की थी। सच पूछा जाए तो शास्त्र ज्ञान तत्व ज्ञान के मार्ग में सब समय सहायक ही नहीं होता; और कभी-कभी तो युग की तथोक्त नीच जातियों में से आये हुए महापुरुषों का शास्त्रीय तर्क - जाल से मुक्त श्रेयस्कर जान पड़ता है। " होना
➽ 'हिंदी साहित्य की भूमिका' के अनन्तर आचार्य द्विवेदी की इतिहास संबंधी कुछ और रचनाएँ भी प्रकाशित हुई हैं- 'हिंदी साहित्य : उद्भव और विकास', 'हिंदी साहित्य का आदिकाल' आदि। इनमें उन्होंने अपने तद्विषयक विचारों को अधिक व्यवस्थित एवं पुष्ट रूप में प्रस्तुत किया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि हिंदी - साहित्य के इतिहास की विशेषतः मध्यकालीन काव्य के स्रोतों व पूर्व-परंपराओं के अनुसंधान तथा उनकी अधिक सहानुभूति पूर्ण व यथातथ्य व्याख्या करने की दृष्टि से आचार्य द्विवेदी का योगदान अप्रतिम है। वस्तुतः वे पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने आचार्य शुक्ल की अनेक धारणाओं और स्थापनाओं को चुनौती देते हुए उन्हें सबल प्रमाणों के आधार पर खंडित किया। साथ ही उनके युग - रुचिवादी एकांगी दृष्टिकोण के समानान्तर अपने परंपरापरक दृष्टिकोण को स्थापित करके उन्होंने हिंदी साहित्य के अध्येताओं के लिए एक व्यापक एवं संतुलित इतिहास-दर्शन की भूमिका तैयार की। वैसे, वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाये तो किसी भी घटना, रचना या धारा की शुद्ध विकासवादी व्याख्या करने के लिए परंपरा और युग-स्थिति- दोनों पक्ष ही विचारणीय हैं। आचार्य द्विवेदी ने जहाँ परंपरा पर बल दिया, वहाँ आचार्य शुक्ल ने युग-स्थिति पर; अतः कहा जा सकता है कि दोनों के मत इस दृष्टि से एक-दूसरे के पूरक हैं।
➽ जहाँ ऐतिहासिक चेतना व पूर्व परंपरा के बोध की बात है, निश्चय ही आचार्य द्विवेदी हिंदी के सबसे अधिक सशक्त इतिहासकार हैं। पूर्ववर्ती सांस्कृतिक धाराओं, सरणियों और पद्धतियों का जैसा गंभीर अनुशीलन उन्होंने किया तथा मध्यकालीन जनमानस की भाव- धाराओं में जैसी गहरी डुबकी उन्होंने लगायी है, वह किसी और के लिए संभव नहीं। किंतु फिर भी उन्होंने अपना लक्ष्य आचार्य शुक्ल द्वारा स्थापित इतिहास के स्थूल ढांचे में ही अपनी धारणाओं को समेट देने तक का रखा है जबकि उसे आमूलचूल परिवर्तित कर देने की शक्ति का भी उनमें अभाव नहीं था। शुक्ल जी द्वारा स्थापित प्रथम तीन कालखंडों को बाह्य रूप व भीतरी आधारों की दृष्टि से पूर्णतः झकझोर देने के बाद भी उन्होंने उसे उन्मूलित कर देने का कार्य अपने हाथों से संपादित नहीं किया। शायद यह उनकी अहिंसक दृष्टि का परिणाम है कि वे पूर्व व्यवस्था के सारे दोषों व अवगुणों का उद्घाटन करने के बाद भी अपनी ओर से उसमें परिवर्तन का कोई प्रयास नहीं करते। कदाचित यही कारण है कि उनके इतिहास की रूपरेखा, काल- विभाजन पद्धति व काव्यधारा की नियोजना बहुत कुछ आचार्य शुक्ल के इतिहास के अनुरूप हैं।
➽ आचार्य द्विवेदी के ही साथ-साथ इस क्षेत्र में अवतरित होनेवाले का अन्य विद्वान डॉ. रामकुमार वर्मा ने 'हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास' (1938) में 693 ई. से 1693 ई. तक की कालावधि को ही लिया है। संपूर्ण ग्रंथ को सात प्रकरणों में विभक्त करते हुए सामान्यतः रामचंद्र शुक्ल के ही वर्गीकरण का अनुसरण किया गया है। इतना अवश्य है कि युगों व धाराओं के नामकरण में किंचित परिवर्तन कर उन्हें सरल रूप दे दिया गया है, यथा- 'निर्गुण ज्ञानाश्रयी शाखा', 'निर्गुण प्रेममार्गी (सूफ़ी) शाखा' जैसे लंबे-लंबे नामों के स्थान पर 'संतकाव्य', 'प्रेमकाव्य' आदि का प्रयोग किया गया है जो अधिक सुविधाजनक है। 'वीरगाथा काल' को 'चारणकाल' की संज्ञा देने के अतिरिक्त उससे पूर्व एक 'संधिकाल' और जोड़ दिया गया है। यद्यपि इस समय तक अपभ्रंश और हिंदी का भेद भलीभांति स्पष्ट हो चुका था तथा स्वयं डॉ. वर्मा ने भी दोनों को भिन्न-भिन्न माना है। फिर भी अपभ्रंश के सिद्ध, जैन व नाथपंथी कवियों की वाणी को हिंदी-साहित्य में स्थान देने का लोभ वे भी संवरण नहीं कर पाये। इतना ही नहीं, उन्होंने स्वयंभू को, जो कि अपभ्रंश के सबसे पहले कवि हैं, हिंदी का पहला कवि मानते हुए हिंदी - साहित्य का आरंभ 693 ई. से स्वीकार किया है। ऐतिहासिक व्याख्या की दृष्टि से यह इतिहास आचार्य शुक्ल के गुण-दोषों का ही विस्तार है, कवियों के मूल्यांकन में अवश्य लेखक ने अधिक सहृदयता और कलात्मकता का परिचय दिया है। अनेक कवियों के काव्य-सौंदर्य का आख्यान करते समय लेखक की लेखनी काव्यमय हो उठी है, जो कि डॉ. वर्मा के कवि पक्ष का संकेत देती है। शैली की इसी सरसता और प्रवाहपूर्णता के कारण उनका इतिहास पर्याप्त लोकप्रिय हुआ है तथा पाठकों को इस बात का अभाव प्रायः खलता रहा है कि यह भक्तिकाल तक ही सीमित है, इसका शेष भाग अभी तक अलिखित है।
➽ इधर नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा भी 'हिंदी साहित्य का बृहत इतिहास' प्रकाशित करने की विशाल योजना क्रियान्वित हो रही है, जिसके अंतर्गत समस्त हिंदी - साहित्य को सोलह भाषाओं में प्रस्तुत किया जायेगा । यद्यपि इस ग्रंथ के लेखन के लिए कुछ सामान्य सिद्धान्तों और पद्धतियों का निर्धारण कर लिया गया है, फिर भी प्रत्येक खंड अलग-अलग विद्वानों के संपादन में तथा विभिन्न लेखकों के सहयोग से निर्मित हो रहा है तथा संपूर्ण ग्रंथ के लेखन में शताधिक लेखकों का सहयोग अपेक्षित है; ऐसी स्थिति में इसकी उपलब्धियों और सीमाओं के बारे में सामान्य रूप में कुछ कहना कठिन है। वस्तुतः प्रत्येक खंड की सफलता-असफलता बहुत कुछ उसके संपादक व सहयोगी मंडल पर निर्भर है। इस दृष्टि से अब तक प्रकाशित खंडों में से कुछ बहुत महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुए हैं, यथा - इसका षष्ठ भाग ( रीतिकाल : रीतिबद्ध काव्य ) अपने विषय का सर्वाधिक प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है। समग्र रूप में यह योजना हिंदी साहित्येतिहास की बिखरी हुई सामग्री को सूत्रबद्ध कर सकेगी, इसमें संदेह नहीं । इतिहास के स्थूल ढांचे के रूप में इसमें आचार्य रामचंद्र शुक्ल के इतिहास को ही किंचित संशोधित करके अपनाया गया है। अतः मूल ढांचे के गुण-दोष इसमें भी अधिक व्यापक विस्तृत एवं सबल रूप में विद्यमान रहेंगे। यदि सभी क्षेत्रों के शताधिक लेखकों के स्वतंत्र सहयोग की अपेक्षा कुछ चुने हुए अधिकारी विद्वानों के सामूहिक योग से इसका निर्माण होता तो निस्संदेह इसमें अपेक्षाकृत अधिक एकरूपता, अन्विति एवं सजीवता आ पाती।
➽ विभिन्न विद्वानों के सामूहिक सहयोग के आधार पर लिखित इतिहास ग्रंथों में 'हिंदी साहित्य' भी उल्लेखनीय है, जिसका संपादन] डॉ. धीरेंद्र वर्मा ने किया है। इसमें संपूर्ण हिंदी साहित्य को तीन कालों- आदिकाल, मध्यकाल एवं आधुनिककाल में विभक्त करते हुए प्रत्येक काल की काव्य-परंपराओं का विवरण अविच्छिन्न रूप में प्रस्तुत किया गया है। जहाँ नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा नियोजित इतिहास में आचार्य शुक्ल के इतिहास की रूपरेखा को अधिक ध्यान में रखा गया है, वहाँ इसमें यत्र-तत्र अधिक स्वतंत्रता से काम लिया गया है- यही कारण है कि इसमें हम 'रासोकाव्य-परंपरा' जैसी नयी काव्य-परंपराओं को भी स्थापित देखते हैं। पर साथ ही इसमें कुछ दोष भी हैं- विभिन्न अध्यायों में विभिन्न लेखकों ने इतिहास-लेखन की विभिन्न दृष्टियों और पद्धतियों का उपयोग किया है जिससे इसमें एकरूपता अन्विति एवं संश्लेषण का अभाव परिलक्षित होता है। फिर भी, हिंदी साहित्य की इतिहास लेखन की परंपरा में इसका विशिष्ट स्थान है।
➽ उपर्युक्त इतिहास ग्रंथों के अतिरिक्त भी अनेक शोध प्रबंध और समीक्षात्मक ग्रंथ लिखे गये हैं जो हिंदी साहित्य के संपूर्ण इतिहास को तो नहीं, किंतु उसके किसी एक पक्ष अंग या काल को नूतन ऐतिहासिक दृष्टि और नयी वस्तु प्रदान करते हैं। इन सबका विवेचन तो यहां संभव नहीं, किंतु इनका संकेत अवश्य किया जा सकता है, यथा- डॉ. भगीरथ मिश्र का 'हिंदी - काव्यशास्त्र का इतिहास', डॉ. नगेंद्र की 'रीतिकाव्य की भूमिका', श्री परशुराम चतुर्वेदी का 'उत्तरी भारत की संत परंपरा', श्री प्रभुदयाल मीतल का 'चैतन्य-संप्रदाय और उसका साहित्य', डॉ. विजयेंद्र स्नातक का 'राधावल्लभ संप्रदायः सिद्धांत और साहित्य', श्री विश्वनाथप्रसाद मिश्र का 'हिंदी साहित्य का अतीत', श्री चंद्रकांत बाली का 'पंजाब प्रान्तीय हिंदी - साहित्य का इतिहास', डॉ. टीकमसिंह तोमर का 'हिंदी - वीरकाव्य', डॉ. मोतीलाल मेनारिया - कृत 'राजस्थानी भाषा और साहित्य' व 'राजस्थानी पिंगल साहित्य'; डॉ. केसरीनारायण शुक्ल, डॉ. श्रीकृष्णलाल और डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय के आधुनिक काल संबंधी विभिन्न शोध-प्रबंध, डॉ. नलिनविलोचन शर्मा का 'साहित्य का इतिहास-दर्शन', डॉ. सियाराम तिवारी का 'मध्यकालीन खंडकाव्य', डॉ. सरला शुक्ल, डॉ. हरिकांत श्रीवास्तव, डॉ. ओमप्रकाश शर्मा प्रभृति के प्रेमाख्यानक काव्य संबंधी शोध-प्रबंध आदि ऐसे शताधिक ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं जिनके द्वारा हिंदी साहित्य के विभिन्न कालखंडों, काव्य-रूपों, काव्य-धाराओं, उपभाषाओं के साहित्य आदि पर प्रकाश पड़ता है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि इन शोध-प्रबंधों में उपलब्ध नूतन निष्कर्षों के आधार पर अद्यतन सामग्री का उपयोग करते हुए नये सिरे से हिंदी - साहित्य का इतिहास लिखा जाये। ऐसा करने के लिए आचार्य शुक्ल द्वारा स्थापित ढांचे में आमूलचूल परिवर्तन करना पड़ेगा क्योंकि वह उस सामग्री पर आधारित है जो आज से 40-50 वर्ष पूर्व उपलब्ध थी, जबकि इस बीच बहुत सी नयी सामग्री प्रकाश में आ गयी है। इस लक्ष्य की पूर्ति का एक प्रयास ‘हिंदी-साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास' में हुआ है, जिसमें साहित्येतिहास के विकासवादी सिद्धांतों की प्रतिष्ठा कर हुए उनके आलोक में हिंदी - साहित्य की नूतन व्याख्या प्रस्तुत करने की चेष्टा की गयी है।
➽ इस प्रकार गार्सा द तॉसी से लेकर अब तक की परंपरा के संक्षिप्त सर्वेक्षण से यह भलीभांति स्पष्ट हो जाता है कि लगभग एक शताब्दी की ही अवधि में हिंदी - साहित्य का इतिहास-लेखन अनेक दृष्टियों, रूपों और पद्धतियों का आकलन और समन्वय करता हुआ संतोषजनक प्रगति कर गया है। इतना ही नहीं हमारे लेखकों ने न केवल विश्व-इतिहास-दर्शन के बहुमान्य सिद्धांतों और प्रयोगों को अंगीकृत किया है, अपितु उन्होंने ऐसे नये सिद्धांत भी प्रस्तुत किये हैं जिनका सम्यक् मूल्यांकन होने पर अन्य भाषाओं के इतिहासकार भी उनका अनुसरण कर सकते