हिंदी साहित्य का इतिहास : आदिकाल की परिस्थितियाँ |आदिकाल : युग की पृष्ठभूमि | Hindi Lietrature History

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हिंदी साहित्य का इतिहास : आदिकाल की परिस्थितियाँ

हिंदी साहित्य का इतिहास : आदिकाल की परिस्थितियाँ |आदिकाल : युग की पृष्ठभूमि | Hindi Lietrature History


 

आदिकाल की परिस्थितियाँ प्रस्तावना ( Introduction) 

➽ साहित्य मानव समाज की भावात्मक स्थिति और गतिशील चेतना की अभिव्यक्ति है। अतः उसके प्रेरक तत्त्व के रूप में मनुष्य के परिवेश का बहुत महत्त्व है। किसी भी काल के साहित्येतिहास को समझने के लिए उस परिवेश को ठीक प्रकार से समझना अत्यन्त आवश्यक होता है। इसी दृष्टि से आदिकालीन साहित्य के इतिहास के साथ तत्कालीन राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक स्थितियों को जानना अपेक्षित है।

 

➽  आदिकाल हिन्दू-मुस्लिम संस्कृतियों के परस्पर मिलन का काल है। हर्षवर्धन के समय हिन्दू संस्कृति प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति के चरम शिखर पर आरूढ़ हो चुकी थी। उसे राष्ट्रव्यापी एकता तथा जातीय गौरव प्राप्त हो चुके थे। संगीत, चित्र, मूर्ति एवं भवन निर्माण आदि कलाओं में जातीय गौरव सर्वत्र अभिव्यक्त हो रहा था। विशेषतः सभी ललित कलाएँ धर्म से अनुप्राणित थी। भुवनेश्वर, पुरी, खजुराहो, सोमनाथ बेलोर, कांची, तंजौर तथा आबू के भव्य मंदिर आदिकाल की अद्भुत विभूतियां हैं। अरब इतिहासकार अलबरूनी तथा महमूद गजनवी इन मन्दिरों की भव्यता, विशालता तथा धर्मानुप्राणता को देखकर आश्चर्यचकित रह गये थे।

 

आदिकाल : युग की पृष्ठभूमि

 

आदिकाल की राजनीतिक परिस्थिति- 

➽   भारतीय इतिहास का यह युग राजनीति की दृष्टि से अव्यवस्था, गृह कलह और पराजय का युग है। एक ओर तो इस युग का क्षितिज विदेशी आक्रमणों के भयावह मेघों से आच्छादित रहा दूसरी ओर रजवाड़ों की पारस्परिक भीतरी कलह घुन के समान इसे खोखला करती रही। सम्राट हर्षवर्धन (सन् 605 से 643) के निधन के पश्चात् मानो एक प्रकार से उत्तरी भारत से केन्द्रीय शक्ति का ह्रास हो गया और राजसत्ता डावांडोल हो गई। 9वीं शताब्दी में प्रतिहार मिहिर भोज ने उसे फिर समेटा और सुव्यवस्था का क्षेत्र बनाया। उधर दक्षिण को राष्ट्रकूटों के साम्राज्य ने सम्भाल रखा था। इधर अरब में नवोदित इस्लाम ने सुदूर पश्चिम एशिया और पश्चिम और पूर्व में अपने पैर पसारने चाहे, भले ही उसने बात की बात में मध्य एशिया और पश्चिम को रौंद और कुचल डाला पर वह अफगानिस्तान से आगे न बढ़ सका। अफगानिस्तान तब भारत के अन्तर्गत था। अब मुसलमानों ने सिंध को प्रवेश द्वार बनाना चाहा और सन् 710-11 में मुहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में सिंध पर - धावा किया। सिंध का राजा दाहिर और उसके पुत्र तिल-तिल भूमि के लिए लड़े परन्तु अंत में हार गये। इस पराजय का कारण स्पष्ट है, वहाँ के जाटों ने ब्राह्मण राजा दाहिर के व्यवहार से असंतुष्ट होकर उस युद्ध में केवल उदासीनता ही नहीं दिखाई प्रत्युत आक्रमणकारियों का साथ दिया और वैयक्तिक स्वार्थ के लिए निज देश के हित को न्योछावर कर दिया। इसी प्रकार सिंध के बौद्धों का इस आक्रमण के समय अपने ब्राह्मण राजा का साथ न देना भी इसी मनोवृत्ति को सूचित करता है। इस घटना से जनता की शासन के प्रति उदासीनता और राजनीतिक चेतना के ह्रास का पता चलता है। फिर 739 ई. में तत्कालीन अरब सेनापति ने सिंध से कच्छ, दक्खिनी मारवाड़, उज्जैन और उत्तरी गुजरात को ध्वस्त कर लाट (दक्षिण गुजरात) में प्रवेश किया। वहां चालुक्य सेनापति ने अरब सेना का पूर्णतया संहार किया। अरब सिंध तक ही सीमित रहे। 9वीं सदी में वहां उनके छोटे-मोटे सरदार ही रह गए। 9वीं सदी तक मुसलमान पश्चिमोत्तर भारत में प्रवेश न कर सके क्योंकि उस समय वहां शक्तिशाली राज्य थे। इनमें काश्मीर के सम्राट ललितादित्य का विशिष्ट स्थान है।

 

➽   उत्तरी भारत में दसवीं- ग्यारहवीं शताब्दियों में प्रतिहारों का राज्य बना रहा फिर भी उसके दूर के प्रान्त स्वतंत्र हो गये। इन नये राज्यों में विशिष्ट थे चेदि (दक्षिणी बुंदेलखंड), जुझती (उत्तरी बुंदेलखंड), मालवा, गुजरात सांभर और गौड़ 9वीं शताब्दी में बुखारा के तुर्क आक्रमणकारियों से डरकर हिन्दू राजाओं ने काबुल से हटकर अटक के समीप उदभांडपुर (ओहिंद) को अपनी राजधानी बनाया। कुछ समय के बाद शांहि इसके स्वामी हो गए। 10वीं शताब्दी के अंत में गजनी का राज्य महमूद गजनवी के हाथ आया। उसने उक्त शांहि राज्य को बड़ी कठिनता से जीता। फिर पंजाब और कांगड़ा को लिया और अन्तर्वेद पर चढ़ाई करके मथुरा और कन्नौज लूटे तथा कन्नौज को करद राज्य बनाकर ग्वालियर और कालिंजर को लूटा। इसके अनन्तर सौराष्ट्र पर चढ़ाई करके सोमनाथ मन्दिर से अपार धनराशि लूटी। जिन दिनों में महमूद के उत्तरी भारत में आक्रमण पर आक्रमण हो रहे थे, उन्हीं दिनों दक्षिण का चोल राजा राजेन्द्र पूर्व में अपने राज्य का विस्तार करने में व्यस्त था। उसने उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और बंगाल तक को जीत लिया। महमूद के बाद मालवा के भोज और वेदि के कर्ण का प्रताप भी कम न था। उन्होंने कुरूक्षेत्र और कांगड़ा से तुर्क आधिपत्य का अंत कर दिया। यदि चोल राजा राजेन्द्र विदेशी आक्रांता महमूद गजनवी के प्रति अपनी शक्ति का प्रयोग करता तो निश्चय था वह इंच भर भी भारत भूमि में न बढ़ पाता।

 

➽   ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी में दिल्ली में तोमर, अजमेर में चौहान और कन्नौज में गाहड़वालों के शक्तिशाली राज्य थे। 1150 में अजमेर के बीसलदेव चौहान ने तोमरों से दिल्ली ले ली और हांसी से लेकर हिमालय तक अपना राज्य फैला लिया और पंजाब से तुर्कों को पीछे धकेला ।

 

➽   गजनी में तुर्कों का अन्त करके शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी ने भारत जीतने की ठानी। कई बार हारकर भी उसने हिम्मत न हारी। अजमेर का शक्तिशाली राजा पृथ्वीराज चौहान उस समय विदेशी आक्रमण के प्रति पूर्णत: जागरूक न था । जब गोरी ने गुजरात पर आक्रमण किया तब उसकी सेना अजमेर की पश्चिमी आबू तक जाकर लौट आई और गोरी को रोकने की ओर ध्यान न दिया बल्कि उसी समय उसने जुझौती के राजा परमार्दिदेव से युद्ध छेड़ा, जिसमें दो देशी राजाओं की शक्ति का अपव्यय हुआ। कन्नौज के राजा जयचन्द के षड्यंत्र के परिणामस्वरूप पृथ्वीराज चौहान मुहम्मद गोरी से पराजित हुआ और मारा गया। फिर कन्नौज और कालिंजर का पतन हुआ। दिल्ली में तुर्क सल्तनत स्थापित हुई और शनैः-शनैः उसका विस्तार हुआ। यद्यपि उसका विरोध करने वाले सर्वत्र रहे और डटकर वे उसके सरदारों से लोहा लेते रहे फिर भी मुस्लिम पताका प्राय: पूरे भारत में फहराने लगी।

 

➽   राजनीतिक परिस्थितियों के सर्वेक्षण के पश्चात् यह कहा जा सकता है कि हिन्दुओं में अपना राज्य फैलाने की लालसा लिये अनेक वीर थे किन्तु आक्रमण के समय अपने पड़ोसी राज्य से उदासीन रहे थे। उनमें संकुचित राष्ट्रीयता थी। अपने दस-पचास गाँवों को ही राष्ट्र समझते रहे। व्यापक रूप से समूचे भारत को राष्ट्र नहीं समझा। यही कारण है कि वैयक्तिक वीरता होते हुए भी उन्हें पराजित होना पड़ा। यदि सम्मिलित रूप से विदेशी आक्रमणों का सामना किया गया होता तो निश्चित रूप से भारत का मानचित्र आज कुछ और होता। उस समय सामन्तवाद का बोलबाला था। राजा को सर्वोपरि सत्ता के रूप में समझा गया और उचित - अनुचित आज्ञा पर मर मिटना अपना धर्म समझा गया। जनता में राजनीतिक चेतना का ह्रास हो चुका था और वह अन्तः कलह, ईर्ष्या तथा द्वेष से बुरी तरह ग्रस्त हो चुकी थी। राजनीतिक दृष्टि से भारतीय इतिहास का यह काल पतन का काल कहा जाना चाहिए।

 

आदिकाल की धार्मिक परिस्थितियाँ 

➽  इस काल में वैदिक और पौराणिक धर्म के विविध रूपों के साथ बौद्ध और जैन धर्म भी अपने वास्तविक आदर्शों से दूर हट गए। शंकराचार्य (वि. 845-877) के प्रबल प्रहारों से बौद्ध धर्म को अत्यधिक आघात पहुंचा और वह अब जंत्र-मंत्र- तन्त्र की सिद्धियों के चक्र में ही पड़कर रह गया। उसने महायान व्रजयान और मन्त्रयान आदि कई रूप धारण किये। इन सम्प्रदायों का व्यावहारिक पक्ष बड़ा ही अनिष्टकारी सिद्ध हुआ। इन सम्प्रदायों में अलौकिक शक्तियों की प्राप्ति और उनका प्रदर्शन ही सिद्धि समझा गया । सिद्धि लाभ के लिए गुप्त मंत्रों का जाप, आचारविहीन गुप्त क्रियाओं विशेषकर निम्न वर्ग की नारियों से भोग विलास आदि को अपनाया गया। इनकी योगिनियों के द्वारा मनुष्य की कामुकता को खूब बढ़ावा मिला। चमत्कार प्रदर्शनार्थ निरीह जनता को ठगने की प्रवृत्ति बढ़ी। नैतिक स्तर गिरा और धर्म के नाम पर अधर्म का प्रचार होने लगा।

 

➽   बौद्धों के अतिरिक्त वैष्णवों के पांचरात्र, शैवों के पाशुपत, कालमुख कापालिक और रसेश्वरादि सम्प्रदायों में भी बौद्ध सम्प्रदायों की पूजा-पद्धति का अनुकरण होने लगा। शाक्तों में आनंद भैरवी, त्रिपुर सुन्दरी, ललितादि की अर्चना की यही प्रणाली है। जैन सम्प्रदाय में भी इसी तांत्रिक वामाचार पद्धति का प्रचार हुआ। इस प्रकार समाज का बहुत बड़ा क्षेत्र उस वामाचार एवं विकृत धर्म का क्रीड़ा क्षेत्र बना। यह सारी प्रक्रिया समाज के निम्न वर्ग में चलती रही। बीच-बीच में समाज को इन वामाचारियों के चंगुल से बचाने के भी प्रयास होते रहे। नाथ योगियों ने बहुत-कुछ हद तक वज्रयानियों की तांत्रिक उपासना पद्धति को अपनाया किन्तु आगे चलकर गुरु गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय में योग की प्रतिष्ठा की जिसमें संयम और आचार के लिए महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसी प्रकार तमिलनाडु के वैष्णव भक्त आलवार और शैवभक्त नायन्मार भक्ति के लोकहितकारी रूप को लेकर आये। 

➽   शंकर, रामानुज और निंबार्क आदि आचार्यों ने अपने-अपने सिद्धांतों का प्रतिपादन किया किन्तु लोक व्यवहार के लिए शिव और नारायण की उपासना में पद्धति चलाई। साथ ही नैष्ठिक हिन्दुओं में आचार-विचार, व्रत, पूजादि की वैसी वृद्धि हुई जैसी जैनों में। पुराने धर्म को मानने वालों ने वाम मार्ग की निंदा करने में कोई कसर नहीं उठा रखी थी और दूसरी ओर वाममार्गियों ने अपनी पगड़ी उछालने में अति कर दी थी। निःसंदेह उस समय का धार्मिक वातावरण अत्यंत दूषित हो गया था। इस समय पुरोहितों और गुह्य भावना की प्रधानता थी। 

➽  अपभ्रंश में लिखित चौरासी सिद्धों और नाथपंथियों का साहित्य बौद्ध धर्म के विकृत सम्प्रदायों की क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं का परिचय है। शंकर आदि आचार्यों के आंदोलन का प्रभाव आदिकालीन साहित्य पर विशेष रूप से नहीं पड़ा, भक्तिकालीन साहित्य पर पड़ा है। 

➽  इसी समय, इस्लाम धर्म भी अपने अनुयायियों की विजय प्राप्ति तथा आतंक के फलस्वरूप पनपने लग गया था पर इसका प्रभाव आदिकाल साहित्य पर नहीं पड़ा।

 
आदिकाल की सामाजिक परिस्थितियाँ- 

➽   जिस युग में धर्म और राजनीति की दीन-हीन दशा हो उसमें उच्च सामाजिकता की विशेष आशा नहीं की जा सकती है। अब जाति, गुण और कर्म के आधार पर न होकर वर्ण के आधार पर मानी जाने लगीं। एक जाति की अनेक उपजातियां होने लगीं। छुआछूत के नियम भी बड़े कड़े होते गये। हिन्दू जाति की पाचन शक्ति का प्रायः ह्रास हो चुका था। अलबरूनी इस संबंध में लिखता है - "उन्हें (हिन्दुओं को ) इस बात की इच्छा नहीं होती कि जो वस्तु एक बार भ्रष्ट हो गई है उसे शुद्ध करके फिर ले लें।" उस समय के रूढ़िग्रस्त धर्म के समान समाज भी रूढ़िग्रस्त हो चुका था। उस समय सामन्ती वीरता और वंश- कुलीनता का बोलबाला था। राजपूत जाति की एक उल्लेखनीय विशेषता थी- वीरता और आत्मोत्सर्ग राजपूत नारियां भी इस दिशा में किसी से पीछे नहीं रहीं, जौहर उनके आत्मबलिदान और शौर्य का प्रतीक है। स्वयंवर प्रथा उस युग की एक अन्य सामाजिक विशेषता थी। बड़े आश्चर्य की बात है कि कभी-कभी स्वयंवर जैसे पवित्र धार्मिक कृत्यों पर खून की नदियाँ बह जाया करती थीं। राजपूत दृढ़प्रतिज्ञ स्वामिभक्त तथा ईमानदार थे किन्तु वे कूटनीतिज्ञ और दूरदर्शी नहीं थे। जहाँ उनमें युग के प्रति रुचि थी वहाँ उनमें भोग-विलास के प्रति भी खूब आसक्ति थी । उस समय के जनसामान्य में मनोबल की कमी थी। इस सामाजिक अवस्था का चित्र तत्कालीन हिन्दी साहित्य में पूर्णरूप से चित्रित हुआ है। तत्कालीन काव्यों के अध्ययन से उस समय की सामाजिक दशा के ह्रासोन्मुख होने का पता चलता है। राजाओं का जीवन विलासमय था । ऐश्वर्याभिभूत नृपति वर्ग का अधिकांश समय अन्तःपुर में अपनी महिषियों उपपत्नियों तथा रक्षिताओं के साथ रंगरेलियों में बीतता था। राजा बहुपत्नीक थे। राजकुमारों को राजनीति, व्याकरण तर्कशास्त्र, काव्यों, नाटक, वात्स्यायन-रचित कामशास्त्र, गणित, नवरस, मंत्र, तंत्र एवं वशीकरणादि की नानाविधियों की शिक्षा दी जाती थी। स्त्री के संबंध में उस समय के समाज की धारा कोई उच्च नहीं थी। उसे केवल भोग और विलास की सामग्री मात्र समझा गया। बीसलदेव रासो की नायिका के करुण क्रन्दन में कदाचित् मध्ययुगीन रसिक पुरुष की वासना से अभिभूत तत्कालीन नारी समाज का चीत्कार- ध्वनित हो उठा है -

अस्त्रीक जन्म कोई दीघउ महेस । 

अवर जन्म धारई धणा रे नरेश।

 

आदिकाल की साहित्यिक परिस्थितियाँ- 

➽   निःसन्देह यह युग भीतरी कलहों और बाह्य संघर्षों का युग था। फिर भी इसमें संस्कृति का निर्माण होता रहा । ज्योतिष, दर्शन और स्मृति आदि विषयों पर टीकाएं और टीकाओं पर भी टीकाएं लिखी जाती रहीं। नाटक, कविता आदि के क्षेत्र में जहां पहले भवभूति और राजशेखर जैसे श्रेष्ठ साहित्यकार हुए वहाँ अब पांडित्य प्रदर्शन और अलंकार-चमत्कार दिखाना ही कविकर्म समझा जाने लगा। बारहवीं शताब्दी में श्री हर्ष का 'नैषध चरित' इस बात का प्रमाण है। धार का शासक भोज जहां स्वयं उच्चकोटि का विद्वान था वहां कवियों का आश्रयदाता और पालक भी था। भोज के 'सरस्वती कण्ठाभरण' और 'श्रृंगार प्रकाश' संस्कृत काव्यशास्त्र की अमर निधियाँ हैं। राजा भोज की राजसभा में पद्मगुप्त और धनिक जैसे विद्वान् मौजूद थे, जयदेव जैसे सुकवि, कुन्तक, महिम भट्ट, क्षेमेन्द्र, हेमचन्द्र और विश्वनाथ जैसे तत्वविद् आचार्य और सोमदेव जैसे काव्यकार इसी समय में हुए पर आदिकाल के हिन्दी साहित्य पर इनका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। कल्हण (सन् 1149 ) ने राजतरंगिणी लिखकर एक नई दिशा में पग रखा। इस काल में निर्मित संस्कृत साहित्य को देखकर कहा जा सकता है कि शनैः शनैः उसमें नव नवोन्मेषशालिनी प्रतिभा का ह्रास होने लग गया था। उस समय अपभ्रंश और देशी भाषा में रचित रचनाओं में भी प्रायः यही बात है। इनमें अधिकतर धार्मिक विचार हैं। लगता है जैसे उन्हें दैनिक जीवन के घात-प्रतिघातों और राजनीतिक उथल-पुथल से कोई सरोकार नहीं था।

 

➽ इस काल में वज्रयानी और सहजयानी सिद्धों, नाथपंथी योगियों, जैन धर्म के अनुयायी विरक्त मुनियों एवं गृहस्थ उपासकों और वीरता तथा श्रृंगार का चित्रण करने वाले चारणों, भाटों आदि की रचनाएँ विशेष रूप से हुई। कुछ ऐसे कवि भी हुए जिन्होंने अन्य विषयों में कविताएँ कीं। इन सबका पृथक् पृथक् रूप से आगे वर्णन किया जायेगा।


आदिकाल की सांस्कृतिक परिस्थितियाँ- 

➽ आदिकाल हिन्दू-मुस्लिम संस्कृतियों के परस्पर मिलन का काल है। हर्षवर्धन के समय हिन्दू संस्कृति प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति के चरम शिखर पर आरूढ़ हो चुकी थीं। उसे राष्ट्रव्यापी एकता तथा जातीय गौरव प्राप्त हो चुके थे। संगीत, चित्र, मूर्ति एवं भवन निर्माण आदि कलाओं में जातीय गौरव सर्वत्र अभिव्यक्त हो रहा था। विशेषतः सभी ललित कलाएँ धर्म से अनुप्राणित थी। भुवनेश्वर, पुरी, खजुराहो, सोमनाथ बेलोर, कांची, तंजौर तथा आबू के भव्य मंदिर आदिकाल की अद्भुत विभूतियां हैं। अरब इतिहासकार अलबरूनी तथा महमूद गजनवी इन मन्दिरों की भव्यता, विशालता तथा धर्मानुप्राणता को देखकर आश्चर्यचकित रह गये थे।

 

➽ यद्यपि अरब और फारस देशों में आठवीं-नवीं शताब्दी में सूफी मत का उदय हो चुका था, किन्तु भारत में उसके उदार स्वरूप का प्रवेश तब तक न हो सका था क्योंकि भारत में आने वाले मुस्लिम आक्रांता वर्ग तसव्वुफ की उदार भावना के समर्थक न थे। अतः दोनों संस्कृतियाँ तनाव की स्थिति में एक-दूसरे को संदेह व शंका की दृष्टि से देखती रहीं। इस काल में अब हिन्दू संस्कृति धीरे-धीरे मुस्लिम संस्कृति से प्रभावित होने लगीं। अब भारत के उत्सव, मेलों, त्योहारों, वेशभूषा, आहार, विहार तथा मनोरंजन आदि पर मुस्लिम रंग चढ़ने लगा यहाँ के गायन वादन तथा नृत्य पर मुस्लिम छाप स्पष्ट है। भारतीय संगीत में सारंगी, तबला तथा अलगोजा जैसे वाद्यों का समावेश इसका स्पष्ट प्रमाण है। मुस्लिम बादशाहों के अनुकरण पर हिन्दू नरेशों के राजदरबारों में मुस्लिम कलाएँ प्रवेश प लगीं। मूर्तिकला को छोड़कर अन्य भारतीय ललित कलाओं में मुस्लिम कला की कलम गहरे रूप से प्रकट होने लगीं।

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