साहित्य के इतिहास में आलोचनात्मक दृष्टिकोण
साहित्येतिहास और साहित्यालोचन
सामान्यतः साहित्य के इतिहास में आलोचनात्मक दृष्टिकोण का तथा साहित्यालोचन में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का उपयोग किया जाता है तथा इस दृष्टि से ये दोनों एक-दूसरे के पूरक व सहयोगी सिद्ध होते हैं, किंतु फिर भी हमें इस भ्रान्ति से बचना चाहिए कि दोनों मूलतः एक ही हैं।
इतिहास का लक्ष्य सदा अतीत की व्याख्या करते हुए विवेच्य वस्तु के विकास क्रम को स्पष्ट करने का होता है जबकि आलोचना का लक्ष्य वस्तु के गुण-दोषों का अन्वेषण करते हुए उसका मूल्य निर्धारित करना होता है। इतिहासकार भी कृति के गुण-दोषों पर विचार कर सकता है, किंतु वहाँ भी उसका लक्ष्य उन्हें युगीन प्रवृत्तियों के संदर्भ में देखने का रहता है; स्वतंत्र रूप से मूल्यांकन का नहीं। दूसरे, देश (space) और काल (time) के महत्त्वपूर्ण आयामों में से जहाँ आलोचक देश या स्थान को दृष्टिगत रखते हुए उसके स्थिर या शाश्वत तत्त्वों के अनुसंधान पर बल देता है; वहाँ इतिहासकार कालक्रम और युगीन संदर्भ को सर्वाधिक महत्त्व प्रदान करते हुए परिवर्तनशील तत्त्वों के विश्लेषण में प्रवृत्त होता है। तीसरे, आलोचक व्यक्तिविशेष या कृतिविशेष का मूल्यांकन स्वतंत्र रूप में भी कर सकता है जबकि इतिहासकार व्यक्ति और कृति को सदा पूर्व - परंपरा और युगीन वातावरण के संदर्भ में रखकर ही उसके योगदान को स्पष्ट करता है। चौथे, आलोचक के लिए महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों एवं रचनाओं का चयन भी पर्याप्त सिद्ध हो सकता है, किंतु इतिहासकार के लिए ऐसा संभव नहीं। इतिहास की संपूर्ण धारा को समझने के लिए सम्राट अकबर जितना महत्त्वपूर्ण है, हेमू वणिक भी उससे कम नहीं है; या महाकवि तुलसीदास का सर्वगुण संपन्न महाकाव्य उसके लिए जितना महत्त्वपूर्ण है, अनेक दोषों से ग्रस्त केशव की 'रामचंद्रिका' भी उसके लिए उतनी ही उपयोगी है - वह इनमें से किसी एक को भी ठुकराकर इतिहास की विकास प्रक्रिया के विश्लेषण में सफल नहीं हो सकता।
अस्तु, संक्षेप में कहा जा सकता है कि साहित्य का इतिहासकार जहाँ अतीत के सृजन कार्य को विभिन्न परंपराओं और धाराओं के रूप में ग्रहण करते हुए युगविशेष के संदर्भ में उनका विश्लेषण करता है, वहाँ आलोचक किन्हीं स्थापित मूल्यों के आधार पर या नये मूल्यों की स्थापना के उद्देश्य से विभिन्न कृतियों के मूल्यपरक तत्वों का उद्घाटन करता है। एक के द्वारा जहाँ 'ऐसा क्यों हुआ' का उत्तर दिया जाता है, वहाँ दूसरा 'इसमें क्या विशेषता है' की व्याख्या करता है। फिर भी, अनेक कारणों से आज साहित्येतिहास और साहित्यालोचन की सीमाएँ घुल-मिल सी गई है जिसके अनेक कारण हैं।
एक तो साहित्य क्षेत्र में विशेषतः हिंदी साहित्य में - इतिहासकार और आलोचक का कार्य कई बार एक ही व्यक्ति द्वारा संपन्न होता रहता है; इतना ही नहीं, अनेक बार 'इतिहास' संज्ञक रचनाओं में ऐतिहासिक विवेचन की अपेक्षा आलोचनात्मक अनुशीलन अधिक रहता है और आलोचनात्मक पुस्तकों में मूल्यांकन की अपेक्षा ऐतिहासिक व्याख्या अधिक उपलब्ध होती है। कदाचित इसी से इस धारणा का प्रचार हुआ कि अच्छे आलोचक के लिए अच्छा इतिहासकार या इसके विपरीत अच्छे इतिहासकार के लिए अच्छा आलोचक होना आवश्यक है; अवश्य ही आंशिक रूप में यह बात सही है किंतु अंततः दोनों के लिए दो भिन्न प्रकार की प्रतिभाएँ दृष्टियाँ और पद्धतियाँ अपेक्षित हैं इसे प्रायः भुला दिया गया है। इसके अतिरिक्त अधुनातन लेखन में कुछ वर्गों द्वारा आलोचना और इतिहास के भी मूल स्वरूप को विकृत करने की चेष्टा की जा रही है- आलोचना में जहाँ मूल्य और मूल्यांकन के स्थान पर आत्मप्रशंसा, वैयक्तिक प्रतिक्रिया एकपक्षीय विवरण, समाचारपत्रीय परिचय को प्रस्तुत किया जा रहा है; वहाँ इतिहास में परंपराओं, धाराओं व युगीन प्रवृत्तियों के तटस्थ विश्लेषण के स्थान पर वर्गविशेष, वादविशेष या व्यक्तिविशेष की प्रतिष्ठा का प्रयास हो रहा है। ऐसी स्थिति में, यदि दोनों का पारस्परिक अंतर अस्पष्ट या लुप्त हो जाये तो कोई आश्चर्य नहीं ।