हिन्दी साहित्य का इतिहास प्रश्न उत्तर (Hindi literature History question answer)
हिन्दी साहित्य का इतिहास प्रश्न उत्तर (Hindi literature History question answer)
रीतिकालीन गद्य साहित्य पर प्रकाश डालिए।
रीतिकाल में खड़ी बोली गद्य की तुलना में ब्रजभाषा गद्य अधिक समद्ध है। इस काल में विभिन्न टीकाओं के साथ साथ गद्य शैली में कथा, वार्ता, जीवनी, आत्मचरित आदि की भी रचना हुई जिनमें 'सूरदास की वार्ता', 'निज वार्ता भावना', 'विवाह पद्धति आदि का नाम लिया जा सकता है। खड़ी बोली का गद्य साहित्य ब्रजभाषा युक्त है और अधिकांश गद्य साहित्य अललित है। कुछ एक कृतियों के अनुवाद खड़ी बोली में हुए जिनमें "भाषा योग वाशिष्ठ', 'भाषा उपनिषद् आदि का नाम लिया जा सकता है। राजस्थानी भाषा में प्रेमपरक, वीरतापूर्ण, हास्यमय आदि बातें भी गद्य साहित्य में गिनी जाती है जिनमें बीरबल री बात', 'गोराबादल री बात' आदि का नाम लिया जा सकता है। इनके अतिरिक्त अवधी भाषा में 'उड्डील रस विनोद', 'सगुनावती आदि भी हिन्दी गद्य साहित्य में अपना , विशेष स्थान रखती हैं।
निर्गुण भक्ति के स्वरूप पर प्रकाश डालिए ।
निर्गुण भक्ति की अनुभूति पर जोर देती है। यदि व्यक्ति में अनुभूति का ज्ञान नहीं है तो उसकी भक्ति का ज्ञान केवल शब्द ज्ञान माना जाता है। आचार्य शंकराचार्य ने कहा है "अनुभवावसानत्वात् ब्रह्मज्ञानस्य" निर्गुण भक्ति वस्तुतः ब्रह्मज्ञान का विषय है भक्ति का नहीं । निर्गुण भक्ति के कवियों ने मनुष्य को अपनी आत्मा के स्वरूप पहचानने, उसके अनुकूल कार्य करके, परमात्मा में विलीन होने को ही भक्ति माना है।
भक्तिकालीन वीर काव्य प्रवत्ति का संक्षिप्त परिचय दीजिए ।
यद्यपि भक्तिकालीन काव्य में चार धाराएं निर्गुण, प्रेमाश्रयी, राम व कृष्ण काव्यधारा ही मुख्य रूप से गिनी जाती है, परन्तु इस काल में अन्य काव्य प्रवत्तियां भी प्रचलित थी। इस काल की वीर- काव्यधारा में कवि श्रीधर द्वारा रचित रणमल्ल छन्द, दुरसाजी आढ़ा द्वारा रचित 'विरुद्ध छिहत्तरी', दया राम द्वारा रचित राणा रासो' आदि उल्लेखनीय है। इनमें 'रणमल्ल छन्द की भाषा ओजपूर्ण है और उसके लगभग 70 छंद प्राप्त हो चुके हैं। 'विरुद्ध छिहत्तरी' में महाराणा प्रताप की शूरवीरता का यशोगान हुआ है। राणा रासो' में सिसोदिया वंश की परंपरा का वर्णन हुआ है। इनके अतिरिक्त रतन रासो', 'क्याम खाँ 'रासो' आदि भी वीरकाव्य प्रवत्ति की रचनाएँ हैं।
'सूफी' शब्द से क्या तात्पर्य है?
'सूफी' शब्द के मूलार्थ के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद हैं। अधिकांश विद्वानों ने इसका अर्थ 'सफूद ऊन' माना है, क्योंकि वे सूफी शब्द की उत्पत्ति सूफ (ऊन) से मानते हैं। अतः जो साधक ऊन धारण करते थे, वे सूफी कहलाए। कुछ विद्वानों ने इस शब्द की उत्पत्ति सुफ्फा (चूबतरा ) से माना है और कहा है कि जो साधक मदीना के आगे बने चबूतरे पर बैठते थे, वे सूफी कहलाए। कुछ विद्वान सफ्फ (पंक्ति) शब्द से भी 'सूफी' की उत्पत्ति होना स्वीकार करते हैं। वस्तुतः सूफी मत का सम्बन्ध इस्लाम से है। ये लोग आध्यात्मिक पथ पर गुरु व प्रेम को अधिक महत्व देते हैं। भारत में सूफी मत का आविर्भाव सिंध प्रांत में हुआ।
निर्गुण काव्यधारा के प्रमुख कवियों और उनकी रचनाओं पर प्रकाश डालिए।
निर्गुण काव्यधारा के प्रमुख कवियों में रामानन्द, कबीरदार, रैदास, नानकदेव,
जम्मनाथ, हरिदास निरंजनी, सींगा, दादूदयाल, मलूकदास आदि का नाम उल्लेखनीय है। इनमें से भी संत कबीर दास प्रतिनिधि हैं। उनकी रचनाओं में बीजक प्रमुख है। नानक देव एक भ्रमणशील साधु थे। 'असा दी वार', 'रहिरास और सोहिला उनकी प्रमुख रचनाएं हैं। हरिदास निरंजनी की प्रमुख रचनाएं अष्टपदी जोग ग्रंथ, पूजा जोग ग्रंथ आदि हैं। 'अंगवधू' दादूदयाल की प्रसिद्ध रचना है। मलूक दास ने 'ध्रुवचरित', 'सुखसागर', ज्ञानबोध आदि रचनाएं लिखीं।
मनसबी शैली पर प्रकाश डालिए
इस शैली का प्रयोग जायसी ने अपनी प्रमुख रचना 'पदमावत' में किया था। इस शैली की अपनी कुछ विशेषताएं एवं नियम होते हैं जिनका पालन रचनाकार को करना पड़ता है। इसमें सबसे पहले खुदा अथवा ईश्वर को याद किया जाता है। फिर मुहम्मद साहब का स्मरण करते हुए अपने आश्रयदाता राजा का यशोगान किया जाता है। तत्पश्चात् कवि इसमें अपने स्वयं एवं अपने परिवार, कुल आदि का वर्णन करता हुआ लौकिक प्रेम के सहारे आलैकिक प्रेम का चित्रण करता है। इसमें साधक को पुरुष व परमात्मा को स्त्री माना जाता है तथ साधक प्रेम के बल पर ही अनेक बाधाओं को पार करता हुआ परमात्मा पर पहुंच जाता है।
सूफी काव्य के कथा स्वरूप पर प्रकाश डालिए ।
हिंदी में प्राप्त सूफी काव्य का कथा स्वरूप रूढ़ हो गया है। अधिकांश प्रेमाख्यान काव्य में नायक और नायिका अपने माता-पिता की इकलौती संतान होते हैं। प्रायः विवाहित नायक-नायिका की सुन्दरता का वर्णन सुनकर विरह में व्याकुल हो उठता है तथा अपने स्वजनों का त्याग कर वह अपने संगी साथी या अकेले ही वेश बदलकर उसको प्राप्त करने के लिए निकल पड़ता है। गुरुजनों के आशीर्वाद से वह समस्त बाधाओं को पार करता हुआ नायिका को प्राप्त करने में सफल रहता है। कुछ प्रेमाख्यानक काव्यों को सुखांत व कुछ को दुखांत बनाया गया है।
प्रेमाख्यानक कवियों की गुरु महिमा पर प्रकाश डालिए ।
उत्तर यद्यपि सूफी अथवा प्रेमाख्यान कवियों ने भी संत कवियों की भांति अपने काव्य में गुरु का स्मरण किया है। जहां जहां उन्होंने ईश्वर और खलीफा की स्तुति की है, वहां वहां उन्होंने गुरु की महत्ता को भी स्वीकार किया है, परन्तु यह एक दम स्पष्ट है कि उनकी गुरु भक्ति संत कवियों की गुरु भक्ति के समान उत्कृष्ट नहीं है। उन्होंने गुरु को केवल गुरु ही माना है, भगवान नहीं। सूफी कवियों ने अधिकांश स्थलों पर गुरु के स्थान पर पीर शब्द का प्रयोग किया है। यदि पीर ही उनके काव्य में नायक-नायिका को मार्गदर्शन कराता है तथा उनकी बाधाओं को दूर कराता है।
प्रेमाख्यानक काव्य की भाषा शैली पर टिप्पणी कीजिए।
प्रेमाख्यानक काव्य की भाषा ठेठ अवधी है। जनता के बीच प्रचलित कथाओं को उन्होंने जनता की ही भाषा में कहा है जिसके कारण उसमें देशज शब्द का खुलकर प्रयोग हुआ हैं। कुछ एक स्थलों पर अपभ्रंश शब्दों का ही प्रयोग हुआ। सामान्यतः चौपाई और दोहा छन्द में ही रचना लिखी गई है। वैसे तो अनुप्रास, यमक, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि सभी अलंकारों का प्रयोग हुआ है, परन्तु समासोक्ति अलंकार का प्रभुत्व बना हुआ है।
रीतिकाल में लक्षण ग्रंथों के निर्माण की परम्परा पर प्रकाश डालिए।
रीतिकाल में अधिकांश कवियों ने लक्षण-ग्रंथों का निर्माण किया है। इनमें भी काव्य विवेचना का आधिपत्य है। लगभग सभी लक्षण ग्रंथकारों ने संस्कृत के लक्षण ग्रंथकार आचार्यों का अनुसरण करते हुए अपनी रचना में काव्य लक्षण का प्रकाश डाला है। परन्तु इसमें गहन चिन्तन व अध्ययन का अभाव स्पष्ट दिखाई देता है, क्योंकि उन्होंने तो केवल संस्कृत के काव्यग्रंथों का अनुवाद मात्र किया है। इसलिए उनके लक्षण ग्रंथों में नवीनता का अभाव है। संस्कृत काव्यशास्त्र में आचार्य व कवि दोनों को अलग-अलग स्थान है, परन्तु रीतिकालीन लक्षण ग्रंथकारों ने पहले काव्य लक्षण लिखकर फिर उसका उदाहरण दे दिया है जिससे आचार्य और कवि का भेद भी समाप्त हो गया है।
रीतिकालीन काव्य की श्रंगारिकता का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
रीतिकालीन काव्य में श्रंगार रस की प्रधानता है। इस काल में अधिकांश कवि दरबारी थे तथा उनका काव्य प्रयोजन धन प्राप्ति था और धन उन्हें तभी मिल सकता था जब वे अपने विलासी राजाओं की इच्छानुरूप श्रंगारपरक रचनाएं लिखते थे। इस प्रकार उनका प्रतिपाद्य अत्यंत सीमित हो गया और वे केवल संयोग और वियोग अवस्थाओं का ही बढ़ा चढ़ा कर वर्णन करने तक सीमित रहे। इस कारण उनका काव्य प्रेम के उच्चतम सोपान तक नहीं पहुंच पाया।
रीतिसिद्ध काव्यधारा पर प्रकाश डालिए ।
इस काव्यधारा के कवियों का मुख्य उद्देश्य काव्य रचना था काव्यशास्त्रीय ज्ञान होते हुए भी वे कवि - लक्षणों की उपेक्षा करते रहे, परन्तु इनके काव्य पर काव्यशास्त्र की छाप स्पष्ट दिखाई देती है बिहारी, मतिराम, भूपति आदि की सतसइयां इसी वर्ग में आती हैं। यद्यपि इन काव्य रचनाओं का मुख्य विषय श्रंगार है फिर भी विषय की विविधता देखने में आ जाती है। इन विविध विषयों में भक्ति, नीति, वीर रस आदि को गिना जा सकता है।
हिन्दी काव्य में भ्रमरगीत परम्परा का संक्षिप्त परिचय दीजिए ।
भ्रमरगीत का प्रथम बार उल्लेख 'श्रीमद्भागवात के दसवें स्कन्ध के सैंतालीसवें अध्याय में श्लोक संख्या बारह से लेकर इक्कीस तक में हुआ है। इसके पश्चात् सूरदास के काव्य में यह उत्कृष्ट रूप में मिलता है। इसके पश्चात् तो अनेक कवियों ने इस परम्परा को अपना और इसी को आधार बनाकर काव्य ग्रन्थों की रचना की। इन कवियों ने नन्ददास का भंवरगीत' विशेष रूप से उल्लेखनीय है अन्य कवियों में मतिराम, पद्माकर भारतेंदु सत्यनारायण कविरत्न, हरिऔध, जगन्नाथदास आदि का भी नाम लिया जा सकता है जिन्होंने इस परम्परा के फुटकर पदों की रचना की।
रीतिमुक्त काव्यधारा की प्रमुख प्रवत्ति पर प्रकाश डालिए ।
रीतिमुक्त कवियों की मुख्य प्रवत्ति स्वछन्द प्रेम रही है। इसलिए इनके काव्य में भी स्वछन्द और संयत प्रेम का निर्वाह हुआ है। उनमें भाव प्रवण हृदय की सच्ची अनुभूति है। उनमें कहीं भी कृत्रिमता, बनावट या कोई दुराव छिपान नहीं है। इनके काव्य में वर्णित प्रेम लोक-लाज के भय व परलोक की चिंता से मुक्त है। इनका प्रेम एक सरल मार्ग के समान है। इस काव्यधारा में शारीरिक व मांसल प्रेम की तुलना में आंतरिक प्रेम को अधिक महत्व दिया गया है। अतः कहा जा सकता है कि इनका प्रेम शुद्ध हृदय का योग है. बुद्धि के तर्क-वितर्क को स्थान नहीं दिया गया है।
रीतिमुक्त काव्यधारा की विरहानुभूति का संक्षेप में परिचय दीजिए ।
रीतिमुक्त काव्यधारा में व्यथा - प्रधान प्रेम का निर्वाह अधिक हुआ है। विरहजनित पीड़ा ही इनके काव्य का पोषक तत्व है विरह पीड़ा के वर्णन में कवियों ने अधिक रूचि दिखाई 1 है, क्योंकि वियोग में कवि की दष्टि अन्तर्मुखी हो जाती है। वियोग की अमिट प्यास उसके हृदय को सदैव प्रेमिका से मिलने के लिए आतुर रखती है। इन कवियों की प्रेम तष्णा हर रोज बढ़ती ही जाती है सम्भवतः उनकी इस विरहानुभूति पर सूफी कवियों के प्रेम की पीर का भी प्रभाव पड़ा है। यही कारण है कि उनका प्रेम रहस्यमय सा प्रतीत होता है ।
भ्रमरगीत की अन्तर्वस्तु का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
भ्रमरगीत मानव "दय का आकर्षक चित्रफलक है। भ्रमर के माध्यम से इस काव्य में मानवीय हृदय के विभिन्न भावों को अभिव्यक्त किया गया है। इसके साथ साथ इसमें निर्गुण भक्ति की तुलना में सगुण भक्ति का माहत्म्य दिखाया गया है गोपियों के वियोग वर्णन के माध्यम से प्रेम की महत्ता को भी दर्शाया गया है। अतः कहा जा सकता है कि भ्रमरगीतवियोगिनी नारी की मूक वेदना को मुखरित करने वाला और अद्वैतवाद के स्थान पर अवतारवार को सर्वश्रेष्ठ बताने वाला काव्य है।
उलटबांसियों से आप क्या समझते हैं?
हिंदी काव्य में उलटबांसी एक ऐसी उक्ति है जो मोटे तौर पर सामान्य लोक प्रचलित धारणा के विपरीत दिखाई पड़ती है वह अपने स्पष्ट अर्थ में विरोधपूर्ण एवं असम्भव सी प्रतीत होती है । परन्तु वह निरर्थक और बेतुकी न होकर अपने अन्दर एक गूढ़ अर्थ लिए होती है। जन साधारण तक उस गूढ़ बात को पहुंचाने के लिए कवियों ने इस चटपटी शैली को साधन बनाया है। विशेष रूप से संत कवियों ने अपने काव्य में उलटबांसियों का अधिक प्रयोग किया है।
सगुण भक्ति काव्य से क्या अभिप्राय है?
'सगुण' शब्द का अभिप्राय है- 'ईश्वरीय गुणों से युक्त वास्तव में ईश्वर को निर्गुण माना गया है, परन्तु यहां निर्गुण मोह-माया के तीन गुणों (सत्व, रज और तम ) से सम्बन्धित हैं। इसी प्रकार ईश्वर में ऐश्वर्य, तेज, बल, ज्ञान आदि गुणों का समावेश माना गया है। इन गुणों का पता तभी चलता है जब स्वयं ब्रह्म किसी रूप को धारण कर इन गुणों से सुसज्जित होकर लीला करते हैं। श्रीकृष्ण, राम आदि ऐसे ही रूप के उदाहरण हैं। अतः ब्रह्म द्वारा गुणों सहित अवतार धारण किए रूप की भक्ति करना ही सगुण भक्ति है ।
राम काव्य परम्परा की समन्वयात्मकता पर प्रकाश डालिए ।
राम काव्यधारा की एक प्रमुख विशेषता यह रही है कि उसका दष्टिकोण अत्यंत व्यापक है। यद्यपि इस काव्यधारा में राम की भक्ति व स्तुति को ही महत्व प्रदान किया गया है फिर भी कृष्ण, शिव, गणेश आदि देवताओं की पूजा-अर्चना आदि को भी स्थान दिया गया है। राम काव्य परंपरा के सबसे बड़े कवि और सबसे बड़े मश्कत तुलसीदास ने स्वयं अपने रामचरितमानस में राम के द्वारा शिव की पूजा करवाई है। अतः यह कहा जा सकता है कि राम काव्यधारा के कवियों ने भक्ति को सुसाध्य मानकर ज्ञान, भक्ति, कर्म आदि के बीच समन्वय स्थापित किया है।
निम्बार्ग सम्प्रदाय का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
यह सम्प्रदाय कृष्ण भक्ति से सम्बन्ध रखने वाला ब्रजमण्डल का प्रमुख वैष्णव सम्प्रदाय है। माना जाता है कि इस सम्प्रदाय का उपदेश नारद मुनि ने निम्बार्काचार्य को दिया था। निम्बार्काचार्य ने अपने सिद्धांत की स्थापना के लिए पांच ग्रंथों की रचना की। वस्तुतः यह सम्प्रदाय द्वैताद्वैतवाद पर आधारित है। इसमें ईश्वर को सगुण अवतारी श्रीकृष्ण के रूप में स्वीकार किया जाता है। कृष्ण-भक्ति में राधा-कृष्ण का युगल भाव स्वीकृत है। यह सम्प्रदाय दाम्पत्य भक्ति को ही श्रेष्ठ मानता है।
राधा वल्लभ सम्प्रदाय का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
इस सम्प्रदाय की स्थापना आचार्य हित परिवंश गोस्वामी ने सन् 1534 ई. में की थी। इस सम्प्रदाय की प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें न तो मुक्ति की कामना है और यह कर्मकाण्ड भक्ति को भी नहीं मानता। इसमें राधा को कृष्ण से भी ऊँचा स्थान देकर उनकी उपासना की जाती है। इस सम्प्रदाय के मन्दिरों में कृष्ण के साथ राधा की मूर्ति नहीं होती, बल्कि श्रीकृष्ण की वामभाग में एक गद्दी होती है जिस पर श्रीराधा लिखा होता है। इसे 'गद्दरी सेवा' भी कहते हैं।
चैतन्य या गौड़ीय सम्प्रदाय का संक्षिप्त परिचय दीजिए ।
इस सम्प्रदाय की स्थापना चैतन्य महाप्रभु ने की थी। यह सम्प्रदाय 'अचिन्त्य भेदाभेदे' सिद्धान्त पर टिका हुआ है। इस सम्प्रदाय का मत है कि ईश्वर, जीव, प्रकृति, काल और कर्म ये पांच तत्व ईश्वर के विभुचैतन्य सर्वज्ञ, स्वतन्त्र मुक्तिदाता और विज्ञान रूप - को दर्शाते हैं। ईश्वर विमुख होने पर जीव बंधनों में पड़ जाता है। मुक्ति पाने के लिए जीव को भक्ति करनी चाहिए जो कि पांच प्रकार की होती है शांत, दास्य, सख्य, वात्सल्य और माधुर्य.
कृष्ण काव्यधारा में प्रकृति चित्रण पर टिप्पणी कीजिए ।
कृष्ण भक्तिधारा प्रकृति चित्रण से भरपूर है। चूंकि श्रीकृष्ण की लीलाभूमि ब्रज प्रदेश ही है और वहां प्रकृति सौंदर्य का साम्राज्य है, इसीलिए कृष्ण काव्य में उसका अत्यधिक चित्रण होना स्वाभाविक ही है वियोग श्रंगार के वर्णन में प्रकृति का उद्दीपन रूप में चित्रण किया गया है। इसके अतिरिक्त कृष्ण भक्ति कवियों ने उपमान के लिए सबसे अधिक प्रकृति का ही आश्रय लिया है। अतः कहा जा सकता है कि कृष्ण काव्यधारा में प्रकृति के विभिन्न रूपों पर्वत, वन, नदी, कुंज, लता, दुम आदि सभी का विधिवत प्रयोग हुआ हैं ।
रीतिकालीन काव्य की वीर रस प्रवत्ति पर प्रकाश डालिए ?
वैसे तो रीतिकालीन काव्य में लक्षण ग्रंथों और श्रंगार परक रचनाओं की अधिकता है, परन्तु औरंगजेब की कट्टर असहिष्णुता के कारण इस काल में वीर रस के काव्य की भी रचना की गई। इस प्रवृत्ति के कवियों में भूषण सूदन, पद्याकर आदि का नाम लिया जा सकता है जिन्होंने अपनी ओजपूर्ण भाषा में औरंगजेब का विरोध करने वाले राजाओं की वीरता का गुणगान किया है। इन वीर रस के कवियों में राष्ट्रीयता का प्रधान स्वर है। नवीन खोजों में वीर रस से ओत-प्रोत और भी रचनाएँ प्रकाश में आयी हैं।
रीतिमुक्त कवियों के सौंदर्य चित्रण पर प्रकाश डालिए ।
यद्यपि रीतिमुक्त कवियों ने अपने पूर्ववर्ती कवियों की रीतिसिद्ध कवियों की भांति अपने काव्य में श्रंगार और सौंदर्य का चित्रण किया है, परन्तु उसकी विलक्षणता यह है कि इन स्वच्छन्द कवियों की दृष्टि बाह्य सौंदर्य की अपेक्षा आंतरिक सौंदर्य पर टिकी है जबकि अन्य कवियों की दष्टि केवल बाह्य सौंदर्य पर टिकी रही है। अतः उसमें मांसल चित्रण की अधिकता है। घनानंद ने अपनी प्रेमिका सुजान, बोधा ने अपनी प्रेमिका सुभान और आलम ने अपनी प्रेमिका शेख के स्वाभाविक सौंदर्य का चित्रण किया है उसमें कृत्रिमता नहीं है, वासनापरक दश्य नहीं है यही रीतिमुक्त कवियों के सौंदर्य चित्रण की विलक्षणता है।
रीतिबद्ध काव्य में नारी-चित्रण पर टिप्पणी कीजिए।
रीतिबद्ध कवियों के सामने नारी का एक ही रूप था विलासिनी प्रेमिका का । चूंकि वे दरबारी कवि थे और भोग-विलास में डूबे अपने आश्रयदाता को प्रसन्न करना ही उनके काव्य का अंतिम लक्ष्य था, इसलिए उन्होंने नारी को भोग विलास का एकमात्र उपकरण माना है। नारी के अन्य रूपों जैसे गहिणी का रूप माता का रूप बहिन का रूप, पुत्री का रूप आदि पर उनकी दृष्टि नहीं पड़ी। कुछ एक रीतिबद्ध कवियों ने आराध्या देवी के भी शारीरिक अंगों का वर्णन करने में ही अपना अभिष्ट समझा है। "तजि तीरथ हरि राधिका तन दुति करु अनुराग । अतः कहा जा सकता है कि रीतिबद्ध कवियों की दृष्टि में नारी का महत्व केवल पुरुष की विषय-वासना का साधन बनने तक सीमित है।
रीतिकालीन नीतिकाव्य की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए ?
रीतिकालीन नीतिकार कवियों में घाघ, भड्डरी आदि का नाम लिया जा सकता है। सामान्यतः खेती-बाड़ी, शकुन, धर्म-आचार, राजनीति, सामान्य ज्ञान आदि के विषयों पर नीतिपरक काव्य की रचना हुई है। इस काव्यधारा में पद्यात्मक शैली को अपनाया गया है और सूक्तियों का प्रयोग हुआ है। अधिकांश कवियों की भाषा सरल एवं सहज है और वह साहित्यिक रूप लिए हुए हैं। उन्होंने दोहे, कुंडलियाँ आदि छन्दों का सर्वाधिक प्रयोग किया है। अधिकांश काव्य ब्रजभाषा में रचित हैं।
रीतिकालीन खड़ी बोली गद्य साहित्य का संक्षिप्त परिचय दीजिए ।
रीतिकालीन खड़ी बोली का गद्य साहित्य भी शुद्ध रूप में नहीं है। इसके गद्य साहित्य में दूसरी भाषाओं का मिश्रण देखने में आता है। खड़ी बोली के गद्य साहित्य पर ब्रजभाषा का सर्वाधिक प्रभाव दिखाई देता है। अधिकांश साहित्य अध्यात्मक, दर्शन, वैद्यक, ज्योतिष, इतिहास, भूगोल, गणित आदि विषयों पर आधारित है। ब्रजभाषा से प्रभावित खड़ी बोली के गद्य साहित्य में 'बिहारी सतसई (टीका)', 'जपु टीका' आदि प्रमुख है। ब्रज, पंजाबी, उर्दू आदि मिश्रित खड़ी बोली गद्य साहित्य में फर्सनाम, 'सुरासुर निर्णय' आदि प्रमुख हैं। अधिकांश गद्य साहित्य की भाषा में तत्सम शब्दों की प्रधानता है।
रीतिकालीन राजस्थानी गद्य साहित्य पर टिप्पणी कीजिए ।
रीतिकाल में राजस्थानी गद्य साहित्य का प्रचूर मात्रा में निर्माण हुआ है। अधिकांश गद्य साहित्य वंशावली, पत्र, वात के रूप में है। कुछ एक तुकबंदी में रचित गद्य ग्रंथ भी प्राप्त होते हैं। मुख रूप से वात विधा का राजस्थानी गद्य साहित्य प्रसिद्ध है। 'वात' गद्य साहित्य की प्रमुख रचनाओं में सिद्धराज जयरिंहरी वात', 'गोरा बादल री वात', 'रावरामसिंह री वात' आदि प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त इस काल में ललित गद्य साहित्य की रचनाएं भी प्राप्त होती हैं और कुछ गद्य साहित्य टीकाओं व अनुवादों के रूप में प्राप्त होता है।
रीतिकालीन भोजपुरी एवं अवधी के गद्य साहित्य पर टिप्पणी कीजिए ।
यद्यपि रीतिकाल में रचित भोजपुरी गद्य साहित्य अधिक मात्रा में प्राप्त नहीं हुआ है। और जो गद्य रचनाएं प्राप्त हुई है। उनमें अवधी मिश्रित भोजपुरी है। ऐसे ग्रंथों में फणीन्द्र मिश्र के पंचायत न्यायपत्र का नाम लिया जा सकता है। इसके अतिरिक्त अवधी भाषा में जो गद्य साहित्य प्राप्त होता है उसमें भी शुद्ध अवधी भाषा का प्रयोग नहीं हुआ है, बल्कि ब्रजभाषा मिश्रित अवधी ही इन गद्य रचनाओं की भाषा है। अवधी की प्रमुख गद्य रचनाओं में रसविनोद, कबीर बीजक आदि का नाम लिया जा सकता है।
रीतिकालीन ब्रज भाषा गद्य साहित्य पर प्रकाश डालिए।
रीतिकाल में ब्रजभाषा ही कवियों की प्रमुख भाषा थी और जब गद्य साहित्य का विकास होने लगा तब भी अनेक लेखकों ने ब्रजभाषा को ही अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। ब्रजभाषा में रचित अधिकांश गद्य साहित्य वार्ता, टीका, अनुवाद, संवाद, जीवनी, ललित गद्य आदि के रूप में प्राप्त होता है। विशेष रूप से वार्ता गद्य साहित्य अधिक महत्पूर्ण है। इनमें 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता', 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता आदि का नाम उल्लेखनीय है। ललित गद्य में 'भक्ति विवेचन', 'हस्तामलक' आदि प्रमुख रचनाएं हैं। शेष गद्य साहित्य अध्यात्म, गणित, ज्योतिष आदि विषयों पर आधारित है।
रीतिकालीन गद्य साहित्य के वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालिए?
रीतिकालीन गद्य साहित्य को मोटे रूप से तीन भागों में बांटा जा सकता है। मौलिक - गद्य रचनाएं, अनूदित गद्य रचनाएं, टीकापरक गद्य रचनाएं। इस काल के समस्त गद्य साहित्य पर ब्रज भाषा का मिश्रण देखने में आता है । सम्पूर्ण गद्य साहित्य में ब्रजभाषा में रचित गद्य साहित्य का आधिक्य है। अधिकांश गद्य रचनाएं धर्म, दर्शन, वैद्यक, ज्योतिष, इतिहास, भूगोल, गणित आदि विषयों पर लिखी गई हैं। ब्रजभाषा में रचित 'वार्ता' गद्य साहित्य तथा राजस्थानी भाषा में रचित 'वात' गद्य साहित्य सम्पूर्ण रीतिकालीन गद्य साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।