हिन्दी साहित्य प्रश्न उत्तर (Hindi literature question answer)
हिन्दी साहित्य प्रश्न उत्तर (Hindi literature question answer)
साहित्येतिहास-दर्शन
का क्या अभिप्राय है?
सामान्यतः
साहित्य समाज सापेक्ष होता है। प्रत्येक साहित्यकार अपने युगीन वातावरण एवं
परिस्थितियों से अवश्य प्रभावित होता है और कभी-कभी वह अपनी रचना से युग को भी
प्रभावित करता है। इस प्रकार साहित्य एवं युगीन स्थिति का परस्पर घनिष्ठ संबंध
होता है। साहित्यिक रचना के साथ-साथ उस युगीन परिस्थितियों का अंकन करना ही
साहित्येतिहास का दर्शन कहलाता है।
साहित्येतिहास लेखन की कितनी विधियाँ हैं?
साहित्येतिहास लेखन की मुख्यतः निम्नलिखित विधियाँ होती हैं-
1. अकारादिक्रम विधि -
इसमें साहित्यकारों का परिचय वर्णमाला के क्रमानुसार दिया जाता है।
2. कालक्रम विधि -
इसमें साहित्यकारों के जन्म आदि के अनुसार उनकी रचनाओं का मूल्यांकन किया जाता है।
3. परिस्थिति-प्रवत्तिमूलक विधि
इसमें युग विशेष की परिस्थितियों के अनुरूप रचनाओं का वर्णन किया जाता है।
4 वैज्ञानिक अनुसंधान विधि
इसमें साहित्य के एक पक्ष को लेकर उससे संबंधित सभी तथ्यों का संकलन किया जाता है।
5. समाजशास्त्र सम्मत विधि -
इस विधि में लेखक समाजशास्त्र के सिद्धान्तों को ध्यान में रख कर
साहित्येतिहास की रचना करता है।
साहित्येतिहास लेखन की अकारादिद्रम विधि से क्या अभिप्राय है?
यह साहित्येतिहास
लेखन एक विधि है। इसमें वर्ण क्रम के अनुसार साहित्यकारों का परिचय दिया जाता है।
यह अत्यधिक प्राचीन विधि है। इसका आधुनिक समय में प्रचलन नहीं के बराबर है। गासी त
तासी द्वारा रचित 'इस्तवार द ल
लित्रेत्यूर ऐंदुई ऐ ऐंदूस्तानी' इसी विधि द्वारा लिखा गया साहित्येतिहास है।
कालक्रम विधि से क्या अभिप्राय है?
साहित्येतिहास
लेखन की यह एक अपेक्षाकृत अच्छी विधि है। इसमें साहित्यकारों के जन्म काल के
अनुसार उनकी रचनाओं को क्रमबद्ध करके अध्ययन किया जाता है। इस विधि की मुख्य
त्रुटि यह है कि जिस कवि का जन्म बाद में हुआ है, परन्तु उसने रचना कम आयु में ही लिख दी है उसका
नाम उस कवि के ऊपर आ जाता है जिसका पहले जन्म हुआ हो, परन्तु उसका
साहित्यि जीवन बाद में आरम्भ हुआ हो। जार्ज ग्रियर्सन द्वारा रचित द माडर्न
वार्नक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिंदुतान इसी विधि द्वारा लिखा गया साहित्येतिहास है।
परिस्थिति प्रवत्तिमूलक विधि पर प्रकाश डालिए?
यह साहित्येतिहास लेखन की एक श्रेष्ठ विधि है। इसमें किसी युग विशेष की विभन्न परिस्थितियों जैसे- धार्मिक, राजनीतिक आदि के आलोक में साहित्यकारों की रचनाओं का मूल्यांकन किया जाता है। इस विधि की मुख्य कमी यह है कि एक ही युग में विभिन्न जीवन-दष्टि रखने वाले दो कवियों के साथ यह विधि समुचित न्याय नहीं कर पाती । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा रचित हिन्दी साहित्य का इतिहास इसी विधि द्वारा लिखा गया साहित्येतिहास है।
हिंदी साहित्येतिहास लेखन में खड़ी बोली और इतर भाषाओं के समावेश पर प्रकाश डालिए ?
हिन्दी
साहित्येतिहास लेखन की इस बड़ी समस्या की ओर शिवदान सिंह चौहान ने आकर्षित किया
है। हिन्दी साहित्य के आरम्भिक और मध्य काल तक राजस्थानी, ब्रजभाषा, अवधी आदि भाषाओं
में रचित साहित्य का बाहुल्य है और आधुनिक काल में खड़ी बोली का वर्चस्व स्थापित
हो गया है। परन्तु आज भी अवधी, राजस्थानी आदि भाषाओं का प्रचलन है और इनमें साहित्यिक
रचनाएँ भी लिखी जा रही हैं। परन्तु आधुनिक साहित्य में उनका समावेश नहीं किया
जाता। यही हिन्दी साहित्येतिहास लेखन में खड़ी बोली और इतर भाषाओं के समावेश की
समस्या है।
आदिकाल के नामकरण
की विवेचना कीजिए?
हिन्दी
साहित्येतिहास लेखन में आदिकाल का नामकरण एक विवादास्पद विषय रहा है। इसके नामकरण
और काल-निर्धारण के संदर्भ में विद्वानों के विचार आपस में नहीं मिलते। आचार्य
शुक्ल ने आदिकाल को 'वीरगाथाकाल, मिश्र बन्धुओं ने
प्रारम्भिक काल, डॉ. रामकुमार
वर्मा ने संधि एवं चारण काल, राहुल सांकृत्यायन ने सिद्ध सामंतकाल कहा है। इसी प्रकार
इसकी काल सीमा पर भी विद्वानों में असहमति है। अतः हिन्दी साहित्येतिहास लेखन में
आविर्भाव काल अथवा आदिकाल का नामकरण एक समस्या बना हुआ है।
आदिकाल के गद्य साहित्य का संक्षप्त विवरण दीजिए।
हिन्दी साहित्य
के आरम्भिक काल के कवियों ने अपनी पूर्ववर्ती कवियों का अनुसरण करते हुए अधिकांश
साहित्यिक रचनाएँ पद्य शैली में ही लिखीं। फिर भी गद्य शैली का कुछ साहित्यकारों
ने प्रयोग किया। आदिकाल गद्य साहित्य को दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है-चम्पू
काव्य जैसे 'राउलवेल', 'उक्ति-व्यक्ति
प्रकरण, तथा शुद्ध गद्य
साहित्य जैसे वर्ण रत्नाकर।
हिन्दी साहित्य के आदिकाल के नामकरण एवं काल सीमा पर प्रकाश डालिए ।
जार्ज ग्रियर्सन ने आदिकाल को 'चारण काल कहा है तथा इसकी सीमा 700 ई० से 1300 ई. माना है। मिश्रबन्धुओं ने आदिकाल को 'प्रारम्भिक काल' कहकर इसकी समय सीमा 700 वि. से 1444 वि तक मानी है। आचार्य शुक्ल ने इसे 'वीरगाथाकाल' कहकर इसकी अवधि सं. 1050 से 1375 तक मानी है। डॉ. रामकुमार वर्मा ने इसे दो भागों संधि काल (सं. 750 से सं. 1000) तथा चारण काल (सं. 1000 (1375) में बांटा है। हिंदी साहित्य के आविर्भाव काल को आदिकाल' नाम हजारीप्रसाद द्विवेदी ने दिया है तथा इसकी समय सीमा 1000 ई. से 1400 ई. तक मानी है।
आदिकालीन सांस्कृतिक व साहित्यिक परिस्थितियों पर प्रकाश डालिए ?
आदिकालीन युग में दो संस्कृतियों के संक्रमण एवं हास- विकास का युग है। यद्यपि आरम्भ में हिन्दू संस्कृति अपने उच्चतम शिखर पर दिखाई देती है परन्तु धीरे-धीरे मुसलमानों के आक्रमणों से यह टूटती बिखरती सी दिखाई पड़ती है। मुस्लिम शासकों के मूर्ति-विरोधी होने के कारण मूर्तिकला को गहरा आघात पहुँचा है। संगीतकला, चित्रकला, वास्तुकला आदि पर मुस्लिम संस्कृति का प्रभाव पड़ता दिखाई देता है। साहित्य के क्षेत्र में (क) संस्कृत, (ख) प्राकृत व अपभ्रंश तथा (ग) हिंदी, इन तीन धाराओं का अधिक प्रचलन था । संस्कृत मुख्यतः राजकवियों की भाषा बन चुकी थी, प्राकृत व अपभ्रंश धर्म के प्रचार व प्रसार का माध्यम बन चुकी थी और हिन्दी 'लोक-जीवन' का प्रतिनिधित्व करती थी
आदिकालीन साहित्य-सामग्री का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
आदिकालीन साहित्य सामग्री को मुख्यतः तीन भागों धार्मिक साहित्य, लौकिक साहित्य एवं इतर साहित्य में बांट सकते हैं। धार्मिक साहित्य में जैन साहित्य, सिद्ध साहित्य एवं नाथ साहित्य को सम्मिलित किया जाता है। जैन साहित्य मुख्यतः अपभ्रंश में लिखा हुआ है, सिद्ध साहित्य की भाषा को सांध्य भाषा कहा गया है तथा नाथ साहित्य जनभाषा में लिखा हुआ है। लौकिक साहित्य में वीरगाथापरक काव्य अर्थात् रासो काव्य आता है जिसकी भाषा डिंगल व पिंगल है। इतर साहित्य में प्रेमकाव्य, स्वछन्द काव्य आते हैं।
सिद्ध साहित्य का संक्षिप्त में विवेचन कीजिए।
सिद्धों की
संख्या 84 मानी गई है
परन्तु अभी तक लगभग 14 सिद्धों की ही
रचनाएं प्रकाश में आई हैं। राहुल सांकृत्यायन ने हिन्दी काव्यधारा में इन सिद्धों
की वाणियों का संग्रह प्रस्तुत किया है जिसके आधार पर कहा जा सकता है कि उनकी
रचनाएं चर्यागीतों और दोहों के रूप में है। सिद्ध साहित्य समाज सापेक्ष ही है, परन्तु उसमें
सामाजिक विद्रोह की भावना बहुत अधिक दिखाई देती है। उसमें पाखंडों, आडम्बरों आदि का
विरोध किया गया है। उनकी भाषा को सांध्य भाषा' कहकर पुकारा जाता है।
जैन साहित्य का संक्षिप्त विवरण दीजिए ।
जैन साहित्य की
अधिकांश रचनाएं अपभ्रंश में है। प्रसिद्ध जैन कवियों में देवसेन, स्वयंभू, पुष्पदंत, धनपाल आदि का नाम
लिया जा सकता है। जैन साहित्य में चरित व फाग दो शैलियों का सर्वाधिक प्रयोग हुआ
है जैसे भतरेश्वर बाहुबली रास, चंदनबाला रास, स्थूलभद्र रास आदि जैन साहित्य की रचनाएं प्रबंध एवं मुक्तक
दोनों ही रूपों में विद्यमान हैं। जैन कवियों ने अपनी रचनाओं के चांचर, चतुष्पदी, कवित्त, दोहा आदि छंदों
का सर्वाधिक प्रयोग किया है।
नाथ साहित्य पर टिप्पणी लिखिए।
नाथों में मुख्यतः नौ नाथ गिने जाते हैं जिनमें गोरखनाथ सर्वोपरि हैं। नाथ साहित्य की सबसे बड़े विशेषता यह है कि यह साधनापरक है। इसमें कुंडलिनी के षट्चक्रों को भेदकर सहस्रार में पहुंचने पर समाधि अवस्था का ही चित्रण अधिक हुआ है। सिद्धों की भांति नाथों में भी अपने काव्य में रूपक तत्वों का प्रयोग किया है। उनका साहित्य मुख्यतः साखी, शब्द, दोहा, सोरठा आदि जैसे छन्दों से युक्त है। अभी नाथों का सम्पूर्ण साहित्य प्रकाश में नहीं आया है।
विद्यापति का साहित्यिक परिचय लिखिए।
विद्यापति का जन्म सन् 1360 ई. में स्वीकार किया जाता है। वे एक बहुआयामी साहित्यकार थे। उन्होंने तीन भाषाओं संस्कृत, अवहट्ट, मैथिली में काव्य रचना की। इनकी ख्याति का मुख्य आधार मैथिली भाषा में रचित 'पदावली' है। इसमें लगभग एक हजार पद हैं जो आज भी गीत के रूप में गाए जाते हैं। विद्यापति मूलतः श्रंगारी कवि हैं। उन्होंने पदावली' में श्रीकृष्ण राधा को नायक-नायिका के रूप में चित्रित करके श्रंगार रस से भरे पदों की रचना की है। इसके अतिरिक्त उन्होंने गोरक्ष विजय नामक नाटक भी लिखा है जिसकी भाषा संस्कृत एवं मैथिली है।
अमीर खुसरों के साहित्यिक परिचय दीजिए।
अमीर खुसरो का जन्म सन् 1253 ई. में आधुनिक एटा जिला के पटियाली गांव में हुआ था। उन्होंने अपने जीवन में लगभग 99 ग्रंथों की रचना की जिनमें से अधिकांश फारसी भाषा में थे। यद्यपि हिन्दी भाषा में अभी तक उनकी कोई भी प्रामाण्धिक रचना प्राप्त नहीं हुई है परन्तु यह निर्विवाद सत्य है कि वे खड़ी बोली के प्रथम कवि थे। उनकी हिन्दी कविताओं को बारह भागों पहेलियाँ, मुकरियाँ, निस्बतें, दोसुखन, ढकोसला, गीत, कव्वाली, फारसी - हिन्दी मिश्रित छन्द व गजल, फुटकल छन्द और 'खालिकबारी' में बांट सकते हैं। 'खालिकबारी उनकी बहुचर्चित रचना है।
भक्तिकाल की सामाजिक परिस्थितियों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
भक्तिकालीन युग
में भारतीय समाज में हिन्दुओं व मुसलमानों का आधिपत्य था आरम्भ में एकता दिखाई
देती है, परन्तु धीरे-धीरे
धार्मिक कट्टरता के कारण दोनों समुदाय एक दूसरे से दूर होते चले गए। चूंकि हिन्दू
विजित थे इसलिए उन्हें समाज में अब उतना आदर व सम्मान प्राप्त न था। मुस्लिम
शासकों की रूप लिप्सा के कारण हिन्दी स्त्री भी परदे के भीतर कर दी गई। कट्टर
हिंदू मुसलमानों से दूरी बनाए हुए थे। धीरे-धीरे इस स्थिति में बदलाव आने लगा और
अकबर के शासन काल में दोनों समुदायों के बीच यह कटुता काफी कम हो गई थी।
भक्तिकाल की साहित्यिक परिस्थिति का विवरण दीजिए।
भक्तिकाल के
आरम्भ में संस्कृत ही साहित्य की भाषा थी जबकि राजकाज की भाषा फारसी बनती जा रही
थी। यह एक निर्विवाद सत्य है कि उस समय हिंदी का प्रचलन जोरों पर था, परन्तु संस्कृत
और फारसी के सामने वह महत्वहीन ही थी जो कवि | राजदरबार का आश्रय लिए हुए थे वे राजाओं की प्रशंसा में
काव्य रचना करने में लीन थे। दूसरी ओर, धर्म की व्याख्या करने वाले काव्यों में उच्च कोटि का ज्ञान
प्राप्त होता है धर्म से सम्बन्धित साहित्य लोक एवं परलोक दोनों के विषय में
मार्गदर्शन करता है। |
भक्तिकाल के गद्य साहित्य पर प्रकाश डालिए।
वस्तुतः रीतिकाल तक हिन्दी में जो भी गद्य साहित्य लिखा गया, उसमें शुद्ध गद्य की साहित्यिक प्रवत्ति कम ही मिलती है। भक्तिकाल में लिखित गद्य साहित्य को मुख्यतः ब्रजभाषा, खड़ी बोली, राजस्थानी भाषा व दक्खिनी हिन्दी में बांटा जा सकता है। ब्रजभाषा के गद्य साहित्य में ध्रुवदास का सिद्धान्त विचार नाभादास का 'अष्टायाम आदि प्रमुख हैं। खड़ी बोली में गंग कवि की चन्द छन्द बरनन की महिमा जटमल का चम्पूकाव्य 'गोरा बादल की कथा', के अतिरिक्त भोगल पुराण व 'गेणेस गोसठ का नाम लिया जा सकता है। राजस्थानी भाषा में पृथ्वीचन्द्रचरित' तथा दक्षिणी हिन्दी में हिदायतनामा', शिकारनामा' आदि प्रमुख है।
भक्तिकालीन खड़ी बोली गद्य साहित्य का परिचय लिखिए।
भक्तिकालीन खड़ी
बोली व गद्य साहित्य को दो वर्गों में बांटा जा सकता है साहित्यिक - प्रकार में
वात शीर्षक से कथा-कहानी के रूप में और अन्योक्ति कथा के रूप में गद्य साहित्य
प्राप्त होता है जबकि असाहित्यिक प्रकार में टीका टिप्पणी आदि के रूप में गद्य
साहित्य प्राप्त होता है। इस काल में हिन्दी की सभी उपभाषाओं राजस्थानी, मैथिली, खड़ी बोली आदि
सभी में तुकमय गद्य की प्रवत्ति देखी जा सकती है। इस काल के गद्य साहित्य में जटमल
की रचना 'गोरा बादल की कथा
(चम्पूकाव्य) महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इसके अतिरिक्त कुतुबशतक, भोगलुपुराण आदि
भी गद्य साहित्य की अनुपम रचनाएँ हैं।
भक्तिकालीन राजस्थानी गद्य साहित्य का संक्षेप में विवेचन कीजिए।
राजस्थान की सभी
बोलियों में केवल मारवाड़ी बोली ही सर्वाधिक गद्य सम्पन्न है । भक्तिकाल में समस्त
राजस्थानी भाषा में प्राप्त गद्य साहित्य की रचनाओं में 'तत्व विचार
प्रकरण', 'पृथ्वीचन्द्र
चरित्र', 'धनपाल कथा', 'अंजना सुंदरी' कथा आदि प्रमुख
हैं। इन रचनाओं में तुकबंदी और पद्यमय शैली का भी आश्रय लिया गया है। इनके
अतिरिक्त राजस्थानी भाषा के गद्य साहित्य में उपदेश माला', 'योगशास्त्र' आदि जैसी कुछ
कथात्मक व्याख्याएँ भी प्राप्त होती हैं। राजस्थानी गद्य साहित्य में प्राप्त सभी
रचनाओं में पथ्वीचन्द्र चरित्र सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।
भक्तिकालीन ब्रजभाषा गद्य साहित्य पर प्रकाश डालिए ।
उत्तर यद्यपि
भक्तिकाल में गोरखनाथ के नाम से अनेक गद्य रचनाएं प्राप्त होती हैं. परन्तु उनकी
प्रामाणिकता संदिग्ध है सही अर्थों में भक्तिकाल की गद्य साहित्य की रचनाओं में
ध्रुवदास की 'सिद्धान्त विचार' नाभादास की 'अष्टायाम, बनारसी दास जैन
की परमार्थवचनिका' आदि का नाम
उल्लेखनीय है इनके अतिरिक्त चौरासी वैष्णव वार्ता' भी भक्तिकाल के अंतिम पड़ाव की रचना मानी जाती
है। इनके अतिरिक्त केशवदास की 'रसिक प्रिया' व 'कविप्रिया' में भी टिप्पणी
के रूप में गद्य शैली का प्रयोग किया गया है।
संत काव्यधारा के वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालिए ।
संत काव्यधारा
मुख्यतः निर्गुणोपासक है। संत कवियों ने अपने काव्य की रचना काव्यशास्त्र की
दृष्टि नहीं की थी। अतः वे काव्य की आत्मा रस निष्पत्ति आदि के विषय में उदासीन ही
रहे। उनके काव्य में रस की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता 'साधारणीकरण
विद्यमान है। कबीर, दांदुदयाल आदि
कवियों ने दाम्पत्य प्रतीकों के माध्यम से श्रंगार रस का संचार किया है। संत काव्य
की भाषा जनसाधारण की भाषा है वह सरल, सहज व अकृत्रिम है। उसमें अनेक बोलियों के शब्द विद्यमान
हैं। उनके काव्य में रूपक,
उपमा, दष्टांत, अन्योक्ति, अत्युक्ति, उत्प्रेक्षा आदि
अलंकारों का प्रचुर प्रयोग हुआ है। संक्षेप में, कहा जा सकता है कि संत काव्य की प्रमुख
विशेषताएं उसके अनुभूति पक्ष में दिखाई देती हैं।
सूफी काव्यधारा के वैशिष्ट्य का संक्षेप में विवेचन कीजिए।
सूफी काव्यधारा को प्रेमाख्यान काव्यधारा भी कह कर पुकारा जाता है। इस काव्यधारा की कथावस्तु में स्वाभाविकता की अपेक्षा वैचित्र्य को ही प्रमुखता दी गई है। अधिकांश काव्य प्रबंधात्मक है जिनके पात्र मानव व मानवेतर दोनों की श्रेणियों के होते हैं। अनेक स्थलों पर वस्तु वर्णन विशेषकर नायिका के अंगों का वर्णन विस्तारपूर्वक हुआ है। काव्य में श्रंगार रस के संयोग व वियोग दोनों ही पक्षों का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन हुआ है। सूफी काव्यधारा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि शैली की दृष्टि से सभी काव्य रचनाओं में अन्योक्ति व समासोक्ति का सहारा लिया गया है।
राम काव्यधारा के वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालिए ।
भक्तिकालीन राम
काव्यधारा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसके राम नर से नारायण बन चुके हैं; उन्हें देवत्व का
पद प्राप्त हो चुका है। अधिकांश राम भक्त कवियों ने दास्य भाव से ही राम की उपासना
की है और समन्वय की भावना का वे बार बार प्रदर्शन करते हैं। राम काव्य में भारतीय
संस्कृति का पोषण हुआ है और उसमें मर्यादा की महत्ता को सिद्ध किया गया है। इसमें
काव्यशास्त्र में वर्णित लगभग सभी रसों का सफलतापूर्वक निर्वाह हुआ है। यद्यपि
भाषा की दृष्टि से राम भक्त कवियों में एकजुटता का अभाव दिखाई देता है क्योंकि
स्वयं तुलसीदास ने अपने रामकाव्य को अवधी व ब्रजभाषा में लिखा, उनका अनुसरण करते
हुए अन्य राम भक्त कवियों ने भी अपनी अपनी भाषा को ही अभिव्यक्ति का साधन बनाया।
अधिकांश राम काव्य में दोहा, चौपाई, कवित्त, सवैया, सोरठा, बरवै आदि छन्दों का प्रयोग किया गया है। राम काव्य में
वासनात्मक भावों का नितांत अभाव है।
कृष्ण काव्यधारा के वैशिष्ट्य का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
भक्तिकालीन कृष्ण काव्यधारा के अधिकांश कवियों ने या तो बालकृष्ण की उपासना की है या फिर युवा श्री कृष्ण की जो गोपियों को छोड़कर मथुरा चले गये थे। अधिकांश काव्य श्रीकृष्ण के इन्हीं दो रूपों के इर्द गिर्द घूमता है। उसमें महाभारत के योगेश्वर श्रीकृष्ण के कहीं भी दर्शन नहीं होते। अतः अधिकांश कृष्ण-काव्य में वर्णित लीलाएँ आनंद देने वाली हैं। इस काव्यधारा में कहीं तो सख्य भाव से तो कहीं दास्य भाव तो कहीं वात्सल्य भाव तो कहीं शांत भाव से कृष्ण की उपासना की गई है। इस काव्य में वात्सल्य एवं श्रंगार रस का आधिपत्य है। अधिकांश काव्य ब्रजभाषा में है जिसमें चौपाई, छप्पय, कवित्त, सवैया आदि छंदों का प्रयोग हुआ है। रूपक, उत्प्रेक्षा, उपमा आदि अलंकारों का बहुतायत में प्रयोग हुआ है। अधिकांश काव्य गेय हैं और उसमें बिम्ब योजना का प्रयोग
भक्तिकालीन काव्य की उपलब्धि पर प्रकाश डालिए।
भक्तिकालीन काव्य
की सबसे बड़ी और पहली उपलब्धि यही है कि इस काल ने हिन्दी साहित्य जगत को उच्च
कोटि व बड़े महत्व के कवि प्रदान दिए। उन्होंने अपने काव्य के योगदान से हिन्दी
साहित्य को अत्यंत समद्ध कर दिया। पहली बार, काव्य और भक्ति का इतने व्यापक स्तर पर समन्वय हुआ, सामंजस्य हुआ, इस काल के कुछ
कवियों जैसे कबीर आदि ने एक ओर जहां धार्मिक पाखंड, आडम्बर आदि के किले मटियामेट कर दिए वहीं
तुलसीदास, सूरदास आदि जैसे
कवियों ने उन खण्डहरों के स्थान पर भक्ति के नए-नए भवन बनाए हैं जिनमें प्रवेश
पाकर शोषित व पीड़ित जनता को शांति मिली। सूफी काव्यधारा ने इस शोषण व पीड़ा
त्रस्त जनता को प्रेम का एक नया पाठ पढ़ाया। जन्त्र, मंत्र, टोने-टोटके, पाखंडों आदि से लिप्त जनता का ध्यान अद्वैतवाद, राम कृष्ण आदि की
ओर गया और उसमें एक नयी शक्ति का संचार हुआ।
रीतिकाल के नामकरण पर प्रकाश डालिए ।
वस्तुतः उत्तर
मध्य काल के नामकरण को लेकर विद्वानों में मतभेद रहे हैं। मिश्रबंधुओं ने इसे
अलंकृत काल कहा है तो आचार्य शुक्ल ने इसे रीतिकाल नाम दिया है। पं. विश्वनाथ
प्रसाद मिश्र ने इसे श्रंगार काल कहा। इसी प्रकार डॉ. रमाशंकर शुक्ल रसाल ने इसे
कला कला कहा है और डॉ. भगीरथ मिश्र ने इसे रीति श्रंगार काल कहा है। इन सभी नामों
में केवल रीतिकाल नाम ही अधिक उपर्युक्त एवं न्याय संगत है, क्योंकि इस काल
के अधिकांश ग्रंथ रीति सम्बन्धी ही थे और कवियों की प्रवत्ति भी केवल रीति ग्रंथों
को रचने की थी । यद्यपि सूदन धनानंद जैसे कवियों ने किसी भी रीतिग्रंथ की रचना
नहीं की थी, और इस दृष्टि से
वे इस प्रवृति में नहीं आते, फिर भी रीति कवियों व रीति ग्रंथों का बाहुल्य देखते हुए
इसे रीतिकाल कहना सर्वथा उपर्युक्त है।
रीतिकाल की साहित्यिक परिस्थितियों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
साहित्य की
दृष्टि से रीतिकाल अत्यंत समद्ध युग रहा है। फारसी भाषा राजकीय भाषा थी । अतः इसकी
अलंकार प्रधान शैली का अन्य सभी भाषाओं पर प्रभाव पड़ा। अधिकांश कवि दरबारी कवि थे
अतः उनके काव्य में अपने आश्रयदाता के गुणगान की प्रधानता है। कवियों ने अपने काव्य
में चमत्कार उत्पन्न करने के लिए संस्कृत भाषा की ओर ताकना आरम्भ कर दिया। इस काल
के कवियों का मुख्य उद्देश्य अपने सामर्थ्य का प्रदर्शन करना और काव्य रसिक समुदाय
में काव्य रीति के ज्ञान का प्रसार करना था। जो कवि दरबारी नहीं थे, उनका काव्य
दरबारी कवियों की तुलना में अधिक प्रभावशाली दिखाई पड़ता है। अतः कहा जा सकता है
कि रीतिकाल हिन्दी साहित्य में एक विशिष्ट स्थान रखता है।
रीतिकाल की सांस्कृतिक परिस्थितियों पर प्रकाश डालिए ।
रीतिकाल में सांस्कृतिक परिस्थितियां अधिक अनुकूल नहीं थी। औरंगजेब की धार्मिक कट्टरता के कारण हिन्दी मुस्लिम समुदाय दूर दूर रहने लगे थे। वैष्णव सम्प्रदाय के पीठाधीश अपने-अपने राजाओं, श्रीमानों की गुरु दीक्षा देते देते स्वयं उनके समान विलासी हो गए थे। वे राम कृष्ण की लीलाओं में भी अपने विलासी जीवन की संगति खोजने लगे थे। धर्म में पाखंड, अंधविश्वास आदि ने पुनः पांव जमा लिए थे। जनता के अंधविश्वास का अनुचित लाभ पुरारियों और मुल्लाओं ने खूब उठाया। रामलीला, रासलीलार, रामचरितमानस का पाठ आदि सभी कुछ मनोरंजन का साधन बन गया था।