हिंदी साहित्य का इतिहास : नामकरण
हिंदी साहित्य का इतिहास : नामकरण- प्रस्तावना ( Introduction)
आज की स्थितियाँ पर्याप्त
भिन्न हैं। विगत के चार-पाँच दशकों से हिंदी जगत में पुष्कल अनुसंधान सामग्री आलोक
में आई है और उस पर नवीन दृष्टिकोण से चिंतन-मनन हुआ है, जिसे ध्यान में रखते हुए
आचार्य शुक्ल के प्रवृत्यात्मक काल-विभाजन को सर्वथा निरापद और त्रुटि रहित नहीं
कहा जा सकता है विशेषतः वीरगाथा काल के नामकरण को किसी काल में साहित्य की विभिन्न
परंपराओं के अंतर्गत प्रणीत साहित्य को धर्मोपदेशपरक, दार्शनिक अथवा सृजनात्मक
साहित्येतर कहने मात्र से तत्कालीन विपुल साहित्य-राशि की महिमा को इतना व्याघात
नहीं पहुँचता जितनी हानि उस काल में रचित समग्र साहित्य को पहुँचती है। भारतवर्ष
में प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल के कुछ पूर्व तक, साहित्य सृजन की
प्रक्रिया धर्माश्रय, राजाश्रय और
लोकाश्रय में चलती रही है।
हिंदी साहित्य का ऐतिहासिक कालक्रम
काल विभाजन का नामकरण
साहित्य के इतिहास की महत्त्वपूर्ण समस्याएँ हैं। इनके आधार सामान्यतः इस प्रकार
माने गये हैं
1. ऐतिहासिक कालक्रम के अनुसार आदिकाल, मध्यकाल, संक्रांति - काल, आधुनिक काल आदि ।
2. शासक और उसके शासनकाल के अनुसार : एलिजाबेथ युग, विक्टोरिया युग, मराठाकाल आदि ।
3. लोकनायक और उसके प्रभाव-काल के अनुसार चैतन्य - काल (बांग्ला), गाँधी-युग (गुजराती) आदि ।
4. साहित्य नेता एवं उसकी प्रभाव परिधि के आधार पर रवींद्र युग, भारतेन्दु युग आदि ।
5. राष्ट्रीय, सामाजिक अथवा सांस्कृतिक घटना या आंदोलन के आधार पर भक्तिकाल पुनर्जागरण काल सुधार काल, युद्धोत्तर काल ( प्रथम महायुद्ध के बाद का कालखंड), स्वातन्त्र्योत्तर काल आदि ।
6. साहित्यिक प्रवृत्ति के
नाम पर रोमानी युग, रीतिकाल, छायावाद युग आदि ।
➠ इस प्रसंग में पहला
प्रश्न तो यही है कि इस प्रकार के विभाजन की आवश्यकता क्या हैं? इसका उत्तर स्पष्ट है और
वह यह कि वस्तु के समग्र रूप का दर्शन करने के लिए भी उसके अंगों का ही निरीक्षण
करना पड़ता है हमारी दृष्टि शरीर के विभिन्न अवयवों का अवलोकन करती हुई सम्पूर्ण
व्यक्तित्व का दर्शन करती है। अवयवों को पृथक् मानकर उनका निरीक्षण करना खंड-दर्शन
हैं, किंतु उनको
व्यक्तित्व के अंग मानकर देखना समग्र दर्शन है। और यही सहज विधि है क्योंकि निरवयव
रूप का दर्शन अपने आप में कठिन है। इसके अतिरिक्त जीवन या साहित्य को अखंड प्रवाह
रूप मानने पर भी इस बात से तो इंकार नहीं किया जा सकता कि उसमें समय-समय पर दिशा -
परिवर्तन और रूप-परिवर्तन होता रहता है। दृष्टि की अपनी सीमाएँ होती हैं। वह सभी
कुछ एक साथ नहीं देख सकती,
इसलिए अंगों पर
होती हुई ही अंगों का अवलोकन करती है। अतः यह बात बराबर ध्यान में रखते हुए कि
साहित्य की अखंड परम्परा का निरूपण ही इतिहास का लक्ष्य है, समय-समय पर उपस्थित
दिशा-परिवर्तनों और रूप-परिवर्तनों के अनुसार विकास क्रम का अध्ययन करना न सिर्फ
गलत नहीं है, बल्कि जरूरी भी
है।
➠ यहाँ दूसरा विचारणीय
प्रश्न यह है कि काल विभाजन का सही आधार क्या हो सकता है? वर्ग विभाजन प्राय: समान
प्रकृति और प्रवृत्ति के आधार पर किया जाता है। समान प्रकृति के अनेक पदार्थ मिलकर
एक वर्ग बनाते हैं और इस प्रकार समप्रकृति के आधार पर अनेक वर्गों में विभक्त होकर
अस्त-व्यस्त समूह व्यवस्थित रूप धारण कर लेता है। जिस प्रकार प्रवाह के अंदर अनेक
धाराएँ होती हैं, उसी प्रकार
साहित्य में अनेक प्रवृत्तियाँ होती हैं; और इन प्रवृत्तियों का आदि अंत या उतार-चढ़ाव ही इतिहास का
काल विभाजन अर्थात् विभिन्न युगों की सीमाओं का निर्धारण करता है। यह वर्ग विभाजन
परिपूर्ण नहीं हो सकता, इसका रूप प्रायः
स्थूल और आनुमानित होता है,
फिर भी समूह का
पर्यवेक्षण करने में इससे बड़ी सहायता मिलती है। काल विभाजन का आधार भी समान
प्रकृति और प्रवृत्ति ही होती है। जन-जीवन की प्रवृत्तियों व रीति- आदर्शों की
समानता के आधार पर सामाजिक इतिहास का काल विभाजन होता है और राजनीतिक परिस्थितियों
की समानता राजनीतिक इतिहास के काल- विभाजन का आधार बनती है। इसी प्रकार साहित्यिक
प्रवृत्तियों और रीति- आदर्शों का साम्य-वैषम्य ही साहित्य के इतिहास के काल
विभाजन का आधार हो सकता है। समान प्रकृति और प्रवृत्तियों की रचनाओं का कालक्रम से, वर्गीकृत अध्ययन कर
साहित्य का इतिहासकार सम्पूर्ण साहित्य सृष्टि का समवेत अध्ययन करने का प्रयत्न
करता है।
➠ इसी प्रकार नामकरण के पीछे भी कुछ-न-कुछ तर्क अवश्य रहता है अथवा रहना चाहिए। नाम की सार्थकता इसमें है कि वह पदार्थ के गुण अथवा धर्म का मुख्यतया द्योतन कर सके। इस तर्क से किसी कालखंड का नाम ऐसा होना चाहिए जो उसकी मूल साहित्य - चेतना को प्रतिबिम्बित कर सके। शासक के नाम पर भी कालखंड का नामकरण तभी मान्य हो सकता है या हुआ है जब उस शासक-विशेष के व्यक्तित्व ने प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रीति से साहित्य की गतिविधि को प्रभावित किया है। उदाहरण के लिए, एलिजाबेथ और विक्टोरिया- दोनों के राजनीतिक एवं सामाजिक व्यक्तित्व एवं शासन तंत्र ने अपने युग-जीवन को प्रभावित करते हुए साहित्य की गतिविधि पर भी गहरा प्रभाव डाला था। यही तर्क लोकनायक के विषय में है। चैतन्य या गाँधी का अपने युग के सांस्कृतिक- सामाजिक जीवन पर गहरा प्रभाव था जो साहित्य में व्यापक रूप से मुखरित होता रहा। उधर साहित्यिक नेता भी युग विशेष की साहित्यिक चेतना का प्रतिनिधि होने पर ही इस गौरव का अधिकारी होता है। शेक्सपियर, रवींद्रनाथ या भारतेंदु व्यक्ति न होकर संस्था थे-युग निर्माता थे, जिनके कृतित्व ने अपने-अपने युग की प्रमुख साहित्यिक प्रवृत्तियों को प्रभावित किया था। राष्ट्रीय महत्त्व की घटना जैसे महायुद्ध, भारतीय स्वतंत्रता की घोषणा अथवा किसी व्यापक आंदोलन या प्रवृत्ति के अनुसार नाम की सार्थकता और भी अधिक स्पष्ट है: भक्ति, पुनर्जागरण अथवा राष्ट्रीय आंदोलन का प्रभाव जितना समाज पर था उतना साहित्य पर भी और अंत में साहित्यिक प्रवृत्ति के विषय में तो कहना ही क्या? उसके अनुसार नामकरण की सार्थकता स्वतः सिद्ध है। कहने का अभिप्राय यह है कि साहित्य के इतिहास में नामकरण का मूल आधार है - काल- विशेष की साहित्यिक चेतना का प्रतिफलन जिसका माध्यम सामान्यतः उस युग की सर्वप्रमुख साहित्यिक प्रवृत्ति ही हो सकती है, लेकिन यह अनिवार्य नहीं है और इस प्रसंग में एक सीमा से आगे एकरूपता का प्रयत्न करना भी अधिक संगत नहीं है। यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक कालखंड में कोई एक प्रवृत्ति समग्र साहित्य- चेतना का प्रतिनिधित्व कर सके। जहाँ ऐसा होता है वहाँ नामकरण का प्रश्न आसानी से हल हो जाता है जैसे-रीतिकाल में या रोमानी युग में या छायावाद युग में, लेकिन ऐसा सदा नहीं होता। कभी-कभी कोई राष्ट्रीय सांस्कृतिक प्रवृत्ति इतनी बलवती होती है कि वह समाज और साहित्य को एक साथ और समान रूप से प्रभावित करती है जैसे- भक्ति, पुनर्जागरण या सुधार आंदोलन | ऐसी स्थिति में नामकरण का आधार सांस्कृतिक प्रवृत्ति ही होगी, क्योंकि साहित्य चेतना की प्रेरक वही है। इसके अतिरिक्त कभी-कभी किसी लोकनायक या साहित्य- नेता का व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली होता है. कि वह सम्पूर्ण युग की चेतना को व्याप्त कर लेता है: चैतन्य महाप्रभु, गाँधी और रवींद्रनाथ का व्यक्तित्व ऐसा ही था। अतः यहाँ भी साहित्यिक प्रवृत्ति के अनुसार नामकरण उचित नहीं होगा। किसी-किसी युग में ऐसा भी होता है कि किसी एक प्रवृत्ति को प्रमुख या प्रतिनिधि प्रवृत्ति मानना सम्भव नहीं होता। वहाँ सायास किसी प्रवृत्ति को आधार मानकर नामकरण अनुचित होता है : 'वीरगाथा - काल' नाम इसका प्रमाण है; अतः ऐसी स्थिति में "आदिकाल' जैसा निर्विशेष नाम ही अधिक उपयोगी होता है। कहने का अभिप्राय यह है कि काल विभाजन और नामकरण में एकरूपता अनिवार्य नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि काल विभाजन विवेकसम्मत हो, जो साहित्य की परम्परा को सही रूप में समझने में सहायक हो। साथ ही, नाम भी ऐसा होना चाहिए जो युग की साहित्य- चेतना का सही ढंग से प्रतिफलन करता हो; यदि साहित्यिक नामकरण से भ्रांति उत्पन्न होती हो तो अन्य उचित आधार ग्रहण करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए: नाम के लिए रूप का बलिदान नहीं करना चाहिए।
➠ रैने वैलक ने अपने निबंध
में इस मिश्रित पद्धति की आलोचना की है : "फिर भी प्रचलित नामों का यह
मिश्रित आधार कुछ-न-कुछ परेशानी अवश्य पैदा करता है। 'सुधारवाद' चर्च के इतिहास से आया है; 'मानववाद' मुख्यत: प्राचीन मानविकी
विद्याओं के इतिहास से 'पुनर्जागरण' कला के इतिहास से 'प्रजाधिपत्य' और 'पुनःस्थापन' का सम्बंध विशेष राजनीतिक
घटनाओं के साथ है। 'अठारहवीं शती' पुराना संख्यावाचक पद है
जिससे 'ऑमस्टन', 'नव्यशास्त्रवाद', 'पूर्व-स्वच्छंदतावाद' आदि साहित्यिक शब्दों का
अर्थ-बोध होने लगा है। 'पूर्व-स्वच्छंदतावाद' और 'स्वच्छंदतावाद' मुख्यतः साहित्यिक शब्द
हैं, जबकि 'विक्टोरिया- युग', 'एडवर्ड-युग' और 'जार्ज - युग' नाम पद राजाओं के शासन
काल से ग्रहण किये गये हैं। इसका अनिवार्य निष्कर्ष यह है कि नामावली राजनीति, साहित्य और कला के शब्दों
का गोरखधंधा मात्र है, जिसका औचित्य
सिद्ध नहीं किया जा सकता।" हमारे विचार से यह मंतव्य एक सीमा से आगे मान्य
नहीं हो सकता। कम-से-कम व्यवहार में अभी तक. केवल साहित्य-चेतना के आधार पर
काल-विभाजन तथा नामकरण के आधार की एकरूपता का निर्वाह संभव " और उसको सायास
सिद्ध कर देने से लाभ की अपेक्षा हानि अधिक हो सकती है। इसका अर्थ यह नहीं नहीं
हुआ है कि अंग्रेजी साहित्य के सभी कालखंडों के नाम ठीक है एडवर्ड जार्ज आदि
राजाओं अथवा प्रजाधिपत्य,
पुनःस्थापन आदि
राजनीतिक घटनाओं के नाम पर साहित्य के इतिहास का नामकरण तो एकदम असंगत है क्योंकि
ये नाम-पद किसी प्रकार की साहित्य- चेतना की व्यंजना नहीं करते। किंतु, 'विक्टोरियन' शब्द व्यक्तिवाचक न रहकर
एक विशेष जीवन-दृष्टि और साहित्य-चेतना का वाचक बन गया है और अब वह इतना अधिक
अर्थगर्भित हो गया है कि उसके स्थान पर किसी दूसरे शब्द का प्रयोग करने से
अनावश्यक भ्रांति ही हो सकती है। इसी प्रकार सांस्कृतिक नाम पदों की भी अपनी
सार्थकता है। वैलक द्वारा साहित्य चेतना पर बल दिया जाना ठीक ही है। नामकरण के लिए
प्रमुख साहित्यिक प्रवृत्ति का आधार ग्रहण करना अधिक संगत है; किंतु प्रत्येक स्थिति
में किसी युग की साहित्य - चेतना का द्योतन केवल साहित्यिक प्रवृत्ति के द्वारा ही
संभव है - यह मानना कम से कम व्यवहार में कठिन हो सकता हैं, और है। इसलिए आधार को
लचीला रखना होगा और यह मानकर चलना होगा कि कोई नाम पदार्थ के संपूर्ण व्यक्तित्व
का वाचक नहीं हो सकता। सामान्यतः नाम संकेत मात्र होता है, विशेष परिस्थिति में
प्रतीक हो सकता है, किंतु पूर्ण बिंब
तो वह नहीं हो सकता। इतिहास में नाम का प्रयोग प्रतीक के रूप में करना ही अधिक
संगत है, और जहाँ यह
संभावना न हो वहाँ संकेत मात्र से काम चल सकता है नाम में अशुद्ध या अस्पष्ट
प्रतीकार्थ भरने या उसे बिंब का रूप प्रदान करने की चेष्टा व्यर्थ है।
उक्त विवेचन का सारांश यह
है
1. काल विभाजन साहित्यिक प्रवृत्तियों और रीति- आदर्शों की समानता के आधार पर होना चाहिए।
2. युगों का नामकरण यथासंभव मूल साहित्य - चेतना को आधार मानकर साहित्यिक प्रवृत्ति के अनुसार करना चाहिए; किंतु जहाँ ऐसा नहीं हो सकता वहाँ राष्ट्रीय सांस्कृतिक प्रवृत्ति को आधार बनाया जा सकता है या फिर कभी-कभी विकल्प न होने पर निर्विशेष कालवाचक नाम को भी स्वीकार किया जा सकता है। नामकरण में एकरूपता काम्य है, किंतु उसे सायास सिद्ध करने के लिए भ्रांतिपूर्ण नामकरण उचित नहीं है।
3. युगों का सीमांकन मूल प्रवृत्तियों के आरंभ और अवसान के अनुसार होना चाहिए। जहाँ साहित्य के मूल स्वर अथवा उसकी मूल चेतना में परिवर्तन लक्षित हो और नये स्वर एवं चेतना का उदय हो, वहाँ युग की पूर्व सीमा और जहाँ वह समाप्त होने लगे, वहाँ उत्तर सीमा माननी चाहिए।