पृथ्वीराज रासो की अप्रामाणिकता/अर्द्धप्रामाणिकता
पृथ्वीराज रासो की अप्रामाणिकता/अर्द्धप्रामाणिकता प्रस्तावना (Introduction
)
➽ वस्तुतः आरम्भ में यह ग्रन्थ विवादास्पद नहीं था। कर्नल टॉड ने इसकी वर्णन शैली तथा काव्य-सौन्दर्य पर रीझकर इसके लगभग 30 हजार छन्दों का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया था। तासी भी इसकी प्रामाणिकता में संदेह नहीं करते थे। बंगाल की रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ने इस ग्रन्थ का मुद्रण भी आरम्भ कराया था। सन् 1875 ई. में डॉ. बूलर ने 'पृथ्वीराज विजय' ग्रन्थ के आधार पर इसे अप्रामाणिक रचना घोषित किया। फलत: राजस्थान के कुछ इतिवृत्त खेजियों कविराजा मुरारिदान- श्यामलदान - गौरीशंकर- हीराचन्द ओझा आदि ने इस काव्य को अप्रामाणिक सिद्ध करने के लिए सायास तर्क जुटाये। इन विद्वानों के तर्कों को निराधार सिद्ध करने का प्रयत्न किया डॉ. दशरथ शर्मा ने। वस्तुतः यह विवाद इतना उलझ गया है कि अब तक कुछ विद्वान इसे अप्रामाणिक कृति सिद्ध करने में जुटे हुए हैं। वे एतदर्थ नये-नये तर्क खोजते रहते हैं। कुछ विद्वान ऐसे भी हैं, जो उनके द्वारा खोज गये तर्क को निराधार सिद्ध करने के लिए सामग्री जुटाते रहते हैं।
1 पृथ्वीराज रासो की अप्रामाणिकता के लिए तर्क
जो लोग 'रासो' को अप्रामाणिक रचना मानते हैं, उनके तर्क निम्नलिखित हैं:
(1) 'रासो' में उल्लिखित घटनाएँ और नाम इतिहास से मेल नहीं खाते। इसमें परमार, चालुक्य और चौहान क्षत्रियों को अग्निवंशी माना गया है जबकि वे सूर्यवंशी प्रमाणित हुए हैं।
(2) पृथ्वीराज का दिल्ली गोद जाना, संयोगिता स्वयंवर आदि घटनाएँ इतिहास से मेल नहीं खातीं।
(3) अनंगपाल पृथ्वीराज तथा बीसलदेव के राज्यों के सन्दर्भ भी अशुद्ध हैं।
(4) पृथ्वीराज की मां का नाम कर्पूरी था, जो 'रासो' में कमला बताया गया है।
(5) पृथ्वीराज की बहिन पृथा का विवाह मेवाड़ के राणा समरसिंह के साथ बताया गया है, जो
(6) पृथ्वीराज द्वारा गुजरात के राजा भीमसिंह का वध भी इतिहास सम्मत नहीं है।
(7) 'रासो' में पृथ्वीराज के चौदह विवाहों का वर्णन है, जो इतिहास से मेल नहीं खाता ।(8) पृथ्वीराज के हाथों गोरी की मृत्यु की सूचना भी इतिहास सम्मत नहीं है।
(9) पृथ्वीराज द्वारा सोमेश्वर का वध भी इतिहास सम्मत नहीं है।
(10) 'रासो' में दी गईं
तिथियाँ अशुद्ध हैं। सभी तिथियों में इतिहास की तिथियों से प्राय: 90-100 वर्षों
का अन्तर है।
यदि उपर्युक्त तथ्यों को ही अन्तिम प्रमाण मान लिया जाये तब तो 'पृथ्वीराज रासो' को अप्रामाणिक रचना ही कहा जा सकता है, किन्तु दूसरे पक्ष के तर्क भी इस सम्बन्ध में विचारणीय हैं:
(1) डॉ. दशरथ शर्मा का मत है कि इसका मूल रूप प्रक्षेपों में छिपा हुआ है। इधर जो लघुतम प्रतियां मिली हैं, उनमें इतिहास सम्बन्धी अशुद्धियां नहीं हैं।
(2) घटनाओं में 90-100 वर्षों का जो अन्तर है, वह संवत् की भिन्नता के कारण है। मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या ने 'अनन्द संवत्' की कल्पना की है और उसके अनुसार तिथियां भी शुद्ध सिद्ध होती है।
(3) डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी का मत है कि 'पृथ्वीराज रासो' में बारहवीं शताब्दी की भाषा की संयुक्ताक्षरमयी अनुस्वारान्त प्रवृत्ति मिलती है, जिससे यह बारहवी शताब्दी का ग्रन्थ सिद्ध होता है।
(4) 'रासो' इतिहास- ग्रन्थ न होकर काव्य-रचना है, अतः उसमें इतिहास का सत्य खोजना और उसके न मिलने पर उसे अप्रामाणिक घोषित करना अनुचित है।
(5) डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी का यह मत भी है कि 'पृथ्वीराज रासो' की रचना शुक शुकी-संवाद के रूप में हुई थी। अतः जिन सर्गों में यह शैली नहीं मिलती उन्हें प्रक्षिप्त मानना चाहिए। यदि यह तर्क मान लिया जाये तो वे ही अंश प्रायः प्रक्षिप्त सिद्ध होते हैं, जिनमें इतिहास - विरुद्ध तथ्य हैं।
(6) जिन लोगों ने
'रासो' में अरबी-फारसी के शब्दों का प्रयोग देखकर उसे
जाली ग्रन्थ माना है, उसके विरुद्ध यह तर्क दिया जाता है कि चन्द
लाहौर का निवासी था। वहां उस समय मुसलमानों का प्रभाव पड़ चुका था, अतः उसकी भाषा
में अरबी-फारसी के शब्दों का मिश्रण होना सहज है।
➽ वस्तुतः
विद्वानों ने बाल की खाल निकालने की चेष्टा में अनेक ऐसे तर्क प्रस्तुत किये हैं, जो इस काव्य की
प्रामाणिकता के लिए उचित कसौटी नहीं बन सकते। 'पृथ्वीराज रासो' ही नहीं 'रामचरितमानस', 'सूरसागर', 'बीजक' आदि अनेक
महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों पर भी यदि अनेक प्रकार के तर्क दिये जाएँ तो उनकी
अप्रामाणिकता भी किसी-न-किसी सीमा तक सन्देह का विषय बन सकती है। 'रामचरितमानस' में तो
प्रक्षिप्त अंश स्वीकार किये भी जाते हैं। कई ऐसे पद भी मिलते हैं, जो सूर और मीरा
दोनों के नाम से प्रसिद्ध हैं। अतः प्रक्षिप्तांशों या इतिहास - विरोधी कथनों के
आधार पर 'पृथ्वीराज रासो' को अप्रामाणिक
मानना उचित नहीं है। चन्द ने पृथ्वीराज के जीवन की घटनाओं का जैसा सजीव वर्णन किया
है, उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि वह पृथ्वीराज का समकालीन
कवि था। अतः 'रासो' को अप्रामाणिक मानना उचित नहीं है। यदि इस
विवाद में कोई सत्यांश झलकता भी है, तो वह इतना ही कि
'पृथ्वीराज रासो' में पर्याप्त
प्रक्षिप्त अंशों का भी समावेश हुआ है।
2 काव्योत्कर्ष
➽ चन्दबरदायी ने इस
ग्रन्थ में अनेक घटनाओं का समावेश किया है तथा कुछ घटनाएँ बाद में भी चारणों ने
जोड़ी हैं, जिससे ऐसा लगता है कि यह काव्य एक घटना कोश है, परन्तु समस्त
घटनाचक्र के भीतर कवि ने अपनी रस- दृष्टि का नियोजित रूप में विस्तार किया है। अतः
इसे 'महाभारत' की तरह एक विशाल
महाकाव्य मान सकते हैं। इस काव्य में दो रस प्रमुख हैं- श्रृंगार और वीर। ये दोनों
रस पृथ्वीराज चौहान के चरित्र के दो पार्श्व उन्मुक्त करते हैं। वह जितना वीर है
उतना ही शृंगार- प्रेमी भी है। कवि ने एक ओर तो युद्धों के वर्णन में वीरता और
पराक्रम की अद्भुत सृष्टि की है, दूसरी ओर रूप-सौन्दर्य और प्रेम के भी सरस
चित्र उतारे हैं। नारी दोनों रसों के केन्द्र में है। उसे पाने के लिए युद्ध होते
हैं और पा लेने पर जीवन का विलास पक्ष अपनी पूरी रमणीयता के साथ उभरता है। ध्यान
देने की बात यह है कि प्रेम और शौर्य के सभी चित्रों में कवि ने कुछ नैतिक
मर्यादाओं का निर्वाह किया है, जिनके कारण रस की सात्विकता सुरक्षित रही है।
➽ 'पृथ्वीराज रासो' में वस्तु वर्णन
का भी आधिक्य है । कवि ने बड़ी तन्मयता के साथ नगरों, वनों, सरोवरों, किलों आदि का
वर्णन किया है। युद्ध क्षेत्र के दृश्य तो अद्भुत प्रतिभा का परिचय देते ही हैं।
कवि ने समय और क्रिया को एक साथ बिम्बों में बांधकर रंग और ध्वनियों को भी रूपायित
कर दिया है। भाव, वस्तु और ध्वनि की सम्मिलित प्रभावान्विति के
उदाहरण 'पृथ्वीराज रासो' भरे पड़े हैं। एक
उदाहरण देखिए:
बज्जिय घोर निसांन रान चौहान चहूँ दिसि ।
सकल दूर सामन्त समर बल जंत्र मंत्र तिसि ।
उठि राज प्रथिराज बाग लग्न मनहु वीर नट
कढ़त तेग मन बेग लगत मनहु बीजु झट्ट घट्ट ॥
नारी
सौन्दर्य का भी एक चित्र देखिए:
मनहुं कला ससिभान कला सोलह सो बन्निय।
बाल बैस ससि ता समीप अमृत रस पिन्निय ।
बिगसि कमल म्रिग भ्रमर नैनु खंजन म्रिग लुट्टिय ।
हीर कीर अरु बिम्ब मोती नख सिख अहिघुट्टिय
छत्रपति गयंद हरि हंस गति बिह बनाय संचै सचिय।
पद्मिनी रूप पदावतिय, मनहुं काम कामिनी
रचिय ॥
वीर और श्रृंगार
रसों के पोषण के लिए आवश्यकतानुसार अन्य रसों की भी योजना की गयी हैं और उनके
वर्णन में भी कवि ने उतनी ही तन्मयता दिखलायी है।
➽ 'पृथ्वीराज रासो' की भाषा के सम्बन्ध में भी विवाद रहा है। वस्तुतः यह काव्य पिंगल शैली में लिखा गया है। जो ब्रजभाषा का वह रूप है जिसमें राजस्थानी बोलियों का मिश्रण है। कवि ने तत्कालीन सभी प्रचलित शब्दों का स्वतंत्रता से प्रयोग किया है। शब्द चयन रसानुकूल है अतः वीर रस के चित्रणों में प्राकृत और अपभ्रंश के शब्द भी यत्र-तत्र मिल जाते हैं। जहाँ तक भाषा की शक्ति का प्रश्न है, कवि ने अभिधेय भाषा को भी पर्याप्त प्रभावशाली रूप दिया है। लाक्षणिक तथा ध्वन्यात्मक शब्दावली ने भी प्रायः भाषा - सौन्दर्य की वृद्धि की है। अलंकारों का चन्द ने सहज प्रयोग किया है। शायद ही कोई अलंकार ऐसा हो जिसे उन्होंने छोड़ा हो। लगभग अड़सठ प्रकार के छन्दों में लिखा गया यह महाकाव्य सभी दृष्टियों से आदिकाल की एक श्रेष्ठ कृति सिद्ध होता है।