'इतिहास दर्शन' की रूपरेखा |इतिहास के प्रति भारतीय पाश्चात्य दृष्टिकोण| Indian and Western View in History writing

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'इतिहास दर्शन' की रूपरेखा , इतिहास के प्रति भारतीय पाश्चात्य दृष्टिकोण

'इतिहास दर्शन' की रूपरेखा |इतिहास के प्रति भारतीय पाश्चात्य दृष्टिकोण| Indian and Western View in History writing

'इतिहास - दर्शनकी रूपरेखा 

जैसा कि पीछे संकेत दिया जा चुका है, इतिहास के अध्ययन में विभिन्न विद्वान विभिन्न प्रकार के दृष्टिकोणों का प्रयोग करते रहे हैं तथा ये दृष्टिकोण भी समय-समय पर बदलते रहे हैं- इसी तथ्य के आधार पर है। 'इतिहास - दर्शनविषय की स्थापना हुई है जिसमें इतिहास के संबंध में प्रयुक्त व प्रचलित विभिन्न दृष्टिकोणों धारणाओं व विचारों का अध्ययन किया जाता है। अस्तुइतिहास संबंधी इन्हीं विचार या धारणाओं को समूह रूप में 'इतिहास - दर्शनकी संज्ञा दी जाती है।

 

वैसेपश्चिम के कुछ विद्वानों ने 'इतिहास-दर्शन' (Philosophy of History ) का प्रयोग संकीर्ण व सीमित अर्थ में करते हुए अपने-अपने दृष्टिकोणों को ही उस पर आरोपित करने का प्रयास किया है। सर्वप्रथम वोल्तेर ने इस संज्ञा का प्रयोग करते हुए इसके अर्थ को केवल 'आलोचनात्मक या वैज्ञानिक इतिहासतक सीमित रखने का प्रयास किया। हीगल ने इसका प्रयोग विश्व इतिहास के अर्थ में तथा परवर्ती युग के कुछ विद्वानों ने केवल परीक्षणात्मक यथार्थवादी दृष्टिकोण के लिए किया। किंतु आज 'इतिहास-दर्शनके नाम से उपलब्ध पुस्तकों में पूर्व से पश्चिम तक तथा प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक के उन सभी दृष्टिकोणों व विचारों का प्रतिपादन किया जाता है जो इतिहास के अध्ययन से प्रयुक्त हुए हैं। ऐसी स्थिति मेंयदि हम एकांगी और एकपक्षीय धारणाओं से बचते हुए 'इतिहास-दर्शनका सर्वांगीण व सर्वपक्षीय बोध प्राप्त करना चाहते हैं तो हमें उसे उसी व्यापक एवं समन्वित अर्थ में ग्रहण करना होगा जिसके अनुसार 'इतिहास-दर्शनउन दृष्टिकोणों विचारों व अध्ययन-पद्धतियों के समूह का सूचक हैजिनका प्रयोग इतिहास के अध्ययन से संभव है।

 

इतिहास के प्रति भारतीय दृष्टिकोण: 

इतिहास के प्रति भारतीय दृष्टिकोण प्रायः आदर्शमूलक एवं अध्यात्मवादी रहा हैइसीलिए उसमें भौतिक जगत की स्थूल घटनाओं में भी आध्यात्मिक तत्वों व प्रवृत्तियों के अनुसंधान की प्रवृत्ति रही है। भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति में प्रायः सामयिक तत्वों की अपेक्षा चिरन्तन मूल्यों को अधिक महत्त्व दिया जाता रहा हैअतः यहाँ के प्राचीन इतिहासकारों ने अतीत की व्याख्या भी इसी दृष्टिकोण से कीअर्थात् वे परिवर्तनशील अतीत में से भी उन प्रवृत्तियों का अनुसंधान करते रहे जो मनुष्य को स्थायी एवं अमर बनाती हैं। उन्होंने घटनाओं एवं क्रिया-कलापों की व्यवस्था भौतिक उपलब्धियों एवं वैयक्तिक सफलताओं की दृष्टि से कम करके समष्टि हित की दृष्टि से अधिक की। इसीलिए महाभारतकार ने जहाँ इतिहास को एक ऐसा पूर्ववृत्त माना जिसके माध्यम से धर्मअर्थकाम और मोक्ष का उपदेश दिया जा सकेतो पौराणिकों ने ऋषियों एवं महापुरुषों के चरित गान को 'इतिहासके रूप में स्वीकार करते हुए घटना की अपेक्षा चरित्र को अधिक महत्त्व प्रदान किया।

 

यद्यपि आगे चलकर बाणकल्हण आदि इतिहासकारों ने इससे भिन्न दृष्टि को अपनाते हुए आध्यात्मिकनैतिक एवं चारित्रिक तत्वों की अपेक्षा यथार्थपरक वस्तु एवं तथ्यों को अधिक महत्त्व प्रदान कियाकिंतु काव्यात्मकता एवं अलंकृति का मोह वे भी न त्याग सके। इसीलिए जहाँ प्राचीन युग में भारतीय इतिहासकारों की रचनाएँ चारित्रिक मूल्योंनैतिक उपदेशों व आध्यात्मिक रूपकों से युक्त होकर पौराणिक रूप में परिणत हो गईंवहाँ परवर्ती इतिहासकारों की रचनाएँ शुद्ध इतिहास की अपेक्षा 'काव्यात्मक इतिहासया 'ऐतिहासिक काव्यके रूप में विकसित हुई। वस्तुतः भारत का प्राचीन इतिहासकार सत्य शोधन तक ही सीमित नहीं रहावह 'शिवऔर 'सुंदरम्के समन्वय के लिए भी बराबर सचेष्ट रहा। इसे व्यावहारिक दृष्टि से जहाँ उसका 'गुणकहा जा सकता हैवहाँ सैद्धान्तिक दृष्टि से यह उसका सबसे बड़ा 'दोषभी माना जा सकता हैक्योंकि उसने इतिहास के कलेवर में कला और नीति को स्थान देकर उसे शुद्ध ऐतिहासिकता से वंचित रखा। फिर भीयदि इतिहास के कलात्मक या काव्यात्मक रूप का किसी भी दृष्टि से कोई महत्त्व है तो उस दृष्टि से भारतीय इतिहासकार को सर्वोच्च स्थान प्रदान किया जा सकता है। वास्तव में भारतीय इतिहासकार ने अपनी संस्कृति एवं जीवन के आदर्शों के अनुरूप ही इतिहास के क्षेत्र में भी संश्लेषणात्मक व समन्वयात्मक दृष्टिकोण का परिचय देते हुए उसमें सत्यं शिवं व सुंदरम् के समन्वय का प्रयास कियाजो उसकी परम्पराओं को देखते हुए उचित व स्वाभाविक कहा जा सकता है। 


इतिहास के प्रति पाश्चात्य दृष्टिकोण: 

जहाँ भारतीय इतिहासकारों के दृष्टिकोण में आदर्शवादिता की प्रमुखता रहीवहाँ पाश्चात्य इतिहासकार प्राय: यथार्थवादी दृष्टिकोण से अनुप्राणित रहे हैं। 'इतिहास' (History) के प्रथम व्याख्याता यूनानी विद्वान हिरोदोतस ( 456-545 ई.पू.) ने इसे 'खोज', 'गवेषणाया 'अनुसंधानके अर्थ में ग्रहण करते हुए इसके चार लक्षण निर्धारित किये थे- एक तो यह कि इतिहास वैज्ञानिक विद्या हैअत: इसकी पद्धति आलोचनात्मक होती है। दूसरेयह मानव जाति से संबंधित होने के कारण मानवीय विद्या (मानविकी) है। तीसरेयह तर्कसंगत विद्या हैअतः इसमें तथ्य और निष्कर्ष प्रमाण पर आधारित होते हैं। चौथेयह अतीत के आलोक में भविष्य पर प्रकाश डालता हैअतः यह शिक्षाप्रद विद्या है। इसके अतिरिक्त हिरोदोतस ने यह भी स्पष्ट किया कि इतिहास का लक्ष्य प्राकृतिक या भौतिक परिवर्तन की प्रक्रिया की व्याख्या करना है।

 

प्राचीन युग में सामान्यत: हिरोदोतस का ही दृष्टिकोण मान्य रहा. किन्तु आधुनिक युग के विभिन्न विद्वानों ने इसके संबंध में नये दृष्टिकोण से विचार किया । इटैलियन विद्वान विको (1668-1744) ने इतिहास का संबंध न केवल अतीत सेअपितु वर्तमान से भी स्थापित करते हुए प्रतिपादित किया कि इतिहास का निर्माता स्वयं मनुष्य है और मनुष्य की मूलभूत प्रवृत्तियाँ सदा समान रहती हैंअतः विभिन्न युगों के इतिहास में भी समान प्रवृत्तियों का मिलना स्वाभाविक है। इतिहास लेखन की पद्धति के संबंध में भी विको ने अनेक सुझाव देते हुए इतिहासकारों को अतिरंजना व अतिशयोक्ति से बचने और अतीत को अधिक महत्त्व न देने बात कही।

 

जर्मन दार्शनिक कांत (1724-1804) ने इतिहास की नयी व्याख्या करते हुए प्रतिपादित किया कि सृष्टि का बाह्य विकास प्रकृति की आंतरिक विकास प्रक्रिया का प्रतिबिम्ब मात्र हैंअत: इतिहास को भी इसी रूप में ग्रहण किया जाना चाहिएअर्थात् ऐतिहासिक घटनाओं के पीछे प्राकृतिक नियमों की प्रवृत्ति को समझने का प्रयास किया जाना चाहिए। हीगल (1770-1831) ने कांत की विचारधारा को आगे बढ़ाते हुए स्पष्ट किया कि इतिहास केवल घटनाओं का अन्वेषण एवं संकलन मात्र नहीं हैअपितु उसके भीतर कारण कार्य की श्रृंखला विद्यमान है। हीगल के मतानुसार विश्व इतिहास की प्रक्रिया का मूल लक्ष्य मानव चेतना का विकास है जो द्वन्द्वात्मक पद्धति पर आधारित है । इस द्वंद्वात्मक पद्धति या प्रक्रिया के अनुसार वाद (thesis) एवं प्रतिवाद (anti- thesis) के द्वंद्व से समवाद (synthesis) का विकास होता है। इतिहास की व्याख्या भी इसी द्वंद्वात्मक पद्धति के आधार पर होनी चाहिए।

 

उन्नीसवीं शती में डारविन ने अपने विकासवादी सिद्धांत की स्थापना के द्वारा इतिहास को एक नूतन दृष्टिशक्ति व गति प्रदान की। डारविन परवर्ती युग में विभिन्न चिन्तकों ने आर्थिकसामाजिकराजनीतिकसांस्कृतिक आदि क्षेत्रों में विभिन्न विकासवादी सिद्धांतों की स्थापना करते हुए प्रमाणित किया कि सृष्टि का कोई अंग या तत्व एकाएक घटित या रचित न होकर क्रमशः विकसित है। अतः वैज्ञानिक दृष्टि से 'इतिहासका अर्थ 'घटना - समूह का संकलन न होकर 'विकास-क्रमका विवेचन है। कार्ल मार्क्सएंजिल्समारगनहक्सले प्रभृति ने विकासवाद के विभिन्न पक्षों की व्याख्या अपनी-अपनी दृष्टि से करते हुए उसे विभिन्न रूपों में प्रस्तुत किया है। बीसवीं शती के अनेक इतिहासकारों-स्पेंगलरट्वायनबीटर्नर आदि ने विश्व संस्कृति और सभ्यता के इतिहास की व्याख्या विकासवादी नियमों व प्रवृत्तियों के आधार पर करने की चेष्टा की है।

 

अस्तु, आज पाश्चात्य इतिहास दर्शन के सर्वप्रमुख एवं सर्वाधिक विकसित दृष्टिकोण के रूप में विकासवादी दृष्टिकोण को स्वीकार किया जा सकता हैकिंतु अनेक दृष्टियों से यह दृष्टिकोण भी अभी तक पूर्ण विकसित नहीं कहा जा सकता। एक तो अर्थशास्त्रसमाजशास्त्रमनोविज्ञानसंस्कृति आदि विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करनेवाले विकासवादी चिन्तकों के सिद्धांतों में भी परस्पर अन्विति एवं एकरूपता का अभाव हैजहाँ डारविन का विकासवाद प्राणिशास्त्र में लागू होता हैवहाँ मार्क्स का अर्थशास्त्र मेंस्पेन्सर का भौतिकविज्ञान में या बर्गसों का मनोविज्ञान में लागू होता है। दूसरेविकासवादी सिद्धांतों के विरोध में भी प्रतिक्रिया हो रही हैविद्वानों का एक वर्ग इन्हें 'विधेयवादीकहकर ठुकराने का प्रयास कर रहा है। सार्त्र आदि के वे अनुयायी जो कि नियमबद्धतापूर्व-निश्चिता एवं पूर्वनिर्धारण के विरोधी हैंइतिहास को भी किसी नियम से आबद्ध करना कैसे स्वीकार कर सकते हैं! अस्तित्ववादियों के अनुसार जब प्रकृति एवं मनुष्य ही नियमों से मुक्त हैं तो उनके इतिहास को नियमबद्ध कैसे किया जा सकता है! किंतु हमारे विचार में नियम और अनुशासन का यह विरोध अवैज्ञानिकता एवं अराजकता का ही पोषक है। कदाचित् हीगल के शब्दों में यह भी वाद का प्रतिवाद मात्र हैजो संभवतः हमें किसी नये 'समवादकी ओर अग्रसर करने में सहायक सिद्ध हो सके।

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