आधुनिक भारतीय आर्यभाषा विशेषताएँ वर्गीकरण
आधुनिक भारतीय आर्यभाषा
आधुनिक भारतीय भाषाओं की प्रमुख विशेषताएँ
अपभ्रंश के विभिन्न स्थानीय रूप 1000 ई. के आसपास अवहट्ठ रूपों से होते आधुनिक भाषाओं के रूप में विकसित हो गए। आधुनिक भारतीय भाषाओं की प्रमुख विशेषताएँ निम्नांकित हैं
(1) आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में प्रमुखतः वही ध्वनियाँ हैं जो प्राकृत, अपभ्रंश आदि में थीं। किंतु कुछ विशेषताएँ भी हैं -
(क) पंजाबी आदि में उदासीन स्वर 'अ' भी प्रयुक्त होने लगा है। अवधी आदि में जपित या अघोष स्वरों का प्रयोग होता है। गुजराती में मर्मर स्वर का विकास हो गया है। प्राकृत अपभ्रंश में केवल मूल स्वर थे, किंतु अवहट्ट में ऐ, औ विकसित हो गए थे। कई आधुनिक भाषाओं में इनका प्रयोग होता है, यद्यपि कुछ बोलियों में केवल मूल स्वरों का प्रयोग हो रहा है, संयुक्त स्वरों का नहीं।
(ख) 'ऋ' का प्रयोग तत्सम शब्दों में लिखने में चल रहा है, किंतु बोलने में यह स्वर न रहकर 'र' के साथ इ या उ स्वर का योग रह गया है। उत्तरी भारत में 'इसका उच्चारण 'रि' है और गुजराती आदि में 'रु'
(ग) व्यंजनों में, जहाँ तक ऊष्मों का प्रश्न है, लिखने में तो प्रयोग स, ष, श तीनों का हो रहा है, किंतु उच्चारण में स, श दो ही हैं। 'ष' भी 'श' रूप में उच्चरित होता है । चवर्ग के उच्चारण में आधुनिक काल में एकरूपता नहीं है। हिंदी में ये ध्वनियाँ स्पर्श संघर्षी हैं, किंतु मराठी में इनका एक उच्चारण त्स (च), दूज (ज) जैसा भी है। सच पूछा जाए तो मराठी में दो चवर्ग हो गया है। संयुक्त व्यंजन 'ज्ञ' के शुद्ध उच्चारण (ज्ञ) का लोप हो चुका है, उसके स्थान परज्य, ग्यँ और हाँ, दन आदि कई उच्चारण चल रहे हैं।
(घ) विदेशी भाषाओं के प्रभावस्वरूप आधुनिक भाषाओं में कई नवीन ध्वनियाँ आ गई हैं, क, ख, ग, ज़, फ़, ऑ आदि। इन ध्वनियों का लोकभाषाओं में तो क, ख, ग, ज, फ, आ के रूप में उच्चारण हो रहा है, किंतु पढ़े-लिखे लोग इन्हें प्रायः मूल रूप में बोलने का प्रयास करते हैं। संगम (Juncture ) तथा अनुनासिकता प्रायः सभी में स्वनिमिक है।
(2) जिन शब्दों के उपधा (Penultimate ) स्वर या अंतिम को छोड़कर किसी और पर बलात्मक स्वराघात था, (क) उनके अंतिम दीर्घ स्वर प्रायः ह्रस्व हो गए हैं तथा (ख) अंतिम 'अ' स्वर कुछ अपवादों (संयुक्त व्यंजनादि) को छोड़कर प्रायः लुप्त हो गया है (राम्, अबू आदि)
(3) प्राकृत आदि में जहाँ समीकरण के कारण व्यंजनद्वित्त या दीर्घ व्यंजन (कर्म-कम्म) हो गए थे, आधुनिक काल में 'द्वित्व' में केवल एक रह गया और पूर्ववर्ती स्वर में क्षतिपूरक दीर्घता आ गई (कम्म - काम, अट्ठ-आठ) । पंजाबी, सिन्धी अपवाद हैं, उनमें प्राय: प्राकृत से मिलते-जुलते रूप ही चलते हैं (अट्ठ कम्म) ।
(4) बलात्मक स्वराघात है। वाक्य के स्तर पर संगीतात्मक भी है।
(5) अपभ्रंश के प्रसंग में कहा जा चुका हैं कि संस्कृत, पालि आदि की तुलना में रूप कम हो गए थे। आधुनिक भाषाओं में अपभ्रंश की तुलना में भी रूप कम हो गए हैं, इस प्रकार भाषा सरल हो गई है। संस्कृत आदि में कारक के तीनों वचनों में लगभग 24 रूप बनते थे। प्राकृत में लगभग 12 हो गए थे अपभ्रंश में 6 और आधुनिक भाषाओं में केवल दो तीन या चार रूप हैं। क्रिया के रूपों में भी पर्याप्त कमी हो गई है। क्रियार्थ या काल आदि तो सभी, बल्कि संस्कृत आदि से अधिक व्यक्त कर लिये जाते हैं, किंतु सबके रूप अलग नहीं हैं। सहायक शब्दों से काम चल जाता है। मूल रूप थोड़े हैं।
(6) रचना की दृष्टि से संस्कृत, पालि, प्राकृत आदि की भाषा योगात्मक थी। अयोगात्मकता अपभ्रंशों से आरंभ हुई और अब, आधुनिक भाषाएँ (नाम और धातु दोनों दृष्टियों से) पूर्णतः अयोगात्मक या वियोगात्मक हो गई हैं। कुछ रूप योगात्मक हैं भी तो अपवादस्वरूप। नाम रूपों के लिए परसर्गों का प्रयोग होता है और धातु - रूपों के लिए कृदंत और सहायक क्रिया के आधार पर संयुक्त क्रिया का ।
(7) संस्कृत में वचन 3 थे। मध्यकालीन आर्य भाषाओं में ही द्विवचन समाप्त हो गया था और आधुनिक काल में भी केवल दो वचन हैं। अब प्रवृत्ति एकवचन की है। लगता है कि आगे चलकर रूप केवल एकवचन के रह जायेंगे और दो, तीन या अधिक का भाव सहायक शब्दों से प्रकट किया जाएगा। उदाहरणार्थ, हिंदी में 'मैं' के प्रयोग की प्रवृत्ति कम हो रही है। उसके स्थान पर 'हम' चल रहा है, जिसके बहुवचन का कोई अलग रूप नहीं होता, केवल 'लोग' या 'सब' जोड़कर काम चला लेते हैं।
(8) संस्कृत में लिंग 3 थे। मध्ययुगीन भाषाओं में भी स्थिति यही थी। आधुनिक काल में सिन्धी पंजाबी. राजस्थानी तथा हिंदी में 2 लिंग हैं (पुल्लिंग, स्त्रीलिंग) संभवत: तिब्बत-बर्मी मुंडा आदि भाषाओं के प्रभाव के कारण बंगाली, उड़िया, असमी में लिंगभेद कम सा है। बिहारी, नेपाली में भी समाप्त होता-सा दिखाई दे रहा है। तीन लिंग केवल गुजराती, मराठी और (कुछ) सिंहली में हैं।
(9) आधुनिक भाषाओं में प्राचीन तथा मध्ययुगीन से शब्द भण्डार की दृष्टि से सबसे बड़ी विशेषता यह है कि पश्तो, तुर्की, अरबी, फारसी, पुर्तगाली तथा अंग्रेजी आदि से लगभग 8-9 हजार नये विदेशी शब्द आ गए हैं। इनके पूर्व भाषाओं का प्रमुख शब्द भंडार तत्सम तद्भव और देशज का ही था। मध्ययुगीन भाषाओं की तुलना + में आज तत्सम शब्दों का प्रयोग अधिक हो रहा है और तद्भव का अपेक्षाकृत कम । इधर पारिभाषिक शब्दावली की कमी दूर करने के लिए नए शब्द बनाए और अपनाए जा रहे हैं। अनुकरणात्मक एवं प्रतिध्वन्यात्मक शब्द बहुत प्रयुक्त होने लगे हैं।
आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में
सिन्धी, गुजराती लदा पंजाबी, मराठी, उड़िया, बंगाली, असमिया, हिंदी , (पश्चिमी हिंदी, पूर्वी हिंदी) प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त कश्मीरी भी भारत की एक महत्त्वपूर्ण भाषा है, भारत-ईरानी की दरद शाखा में आती है। उर्दू, वस्तुतः भाषा वैज्ञानिक स्तर पर हिंदी की ही अरबी-फारसी से प्रभावित एक शैली है। इसीलिए हिंदी के अंतर्गत ही उसका विवरण दिया गया है। राजस्थानी, पहाड़ी तथा बिहारी वह को लोगों ने अलग रखा है, किंतु ये हिंदी प्रदेश में आती हैं, अतः इन पर भी हिंदी प्रदेश के अंतर्गत ही प्रकाश डाला गया है। वस्तुतः अब भाषा के आकृतिमूलक या पारिवारिक वर्गीकरण से सांस्कृतिक वर्गीकरण को कम महत्त्वपूर्ण नहीं माना जाता और इस दृष्टि से ये सभी राजस्थानी, पहाड़ी बिहारी हिंदी के सांस्कृतिक वर्ग में आती हैं।
भारत के बाहर बोली जाने वाली आधुनिक आर्य भाषाओं में नेपाली, सिंहली तथा जिप्सी भी उल्लेख्य हैं। आगे इन सभी का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। हमारा प्रमुख संबंध हिंदी से है, अतः उस पर विस्तार से विचार किया गया है।
आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं का वर्गीकरण
वर्गीकरण आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के वर्गीकरण पर विभिन्न विद्वानों (हार्नले वेबर, ग्रियर्सन चटर्जी, धीरेन्द्र वर्मा आदि) द्वारा विभिन्न रूपों में विचार किया गया है। यहाँ कुछ प्रमुख का उल्लेख किया जा रहा है।
(अ) इस प्रसंग में प्रथम नाम हार्नले का लिया जा सकता है। उन्होंने (Comparative Grammar of the Gaudian Lgs में) आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं को 4 वर्गों में रखा है : (क) पूर्वी गौडियन - पूर्वी हिंदी (इसी में बिहारी भी है), बंगला, असमी, उड़िया (ख) पश्चिमी गौडियन पश्चिमी हिंदी (राजस्थानी भी) गुजराती, सिन्धी, पंजाबी (ग) उत्तरी गौडियन - गढ़वाली, नेपाली आदि (पहाड़ी) । (घ) दक्षिणी गौडियन - मराठी |
(ब) हार्नले ने (उपर्युक्त पुस्तक में) भारतीय आर्यभाषाओं के अध्ययन के आधार पर पिछली सदी में यह सिद्धांत रखा था कि भारत में आर्य कम-से-कम दो बार आये। आर्य आधुनिक पंजाब में आकर बसे थे। कुछ दिन बाद दूसरे आर्यों का हमला हुआ। जैसे कहीं कील ठोकने पर कील छेद बनाकर बैठ जाती है और उस बने छेद के स्थान पर जो चीज रहती है, चारों ओर चली जाती है, उसी प्रकार नवागत आर्य उत्तर से आकर प्राचीन आर्यो के स्थान पर जम गए और पूर्वागत पूरब, दक्षिण, पश्चिम में फैल गये। इस प्रकार नवागत आर्य भीतरी कहे जा सकते हैं और पूर्वागत बाहरी इस भीतरी और बाहरी को लेकर यद्यपि दो बार आक्रमण न मानते हुए ग्रियर्सन ने (Linguistic Survery of India, भाग 1; तथा Bulletin of the School of Oriental Studies, London Institution, Vol. I, Pt. III. 1920 में) अपना पहला वर्गीकरण प्रस्तुत किया। इसमें 3 वर्ग हैं-
1. बाहरी उपशाखा -
- ( क ) पश्चिमोत्तरी समुदाय ( लहँदा, सिन्धी), (ख) दक्षिणी समुदाय (मराठी).
- (ग) पूर्वी समुदाय (उड़िया, बंगाली, असमी, बिहारी)।
2. मध्यवर्गी उपशाखा -
- (क) मध्यवर्ती समुदाय (पूर्वी हिंदी)।
3. भीतरी उपशाखा
- (क) केन्द्रीय समुदाय (पश्चिमी हिंदी, पंजाबी, गुजराती, भोली, खानदेशी);
- (ख) पहाड़ी समुदाय (पूर्वी मध्यवर्ती पश्चिमी)।
ग्रियर्सन हिंदी भाषा वर्गीकरण
बाद में ग्रियर्सन ने (Indian Antiquary, Supplement of Feb. 1931) एक नया वर्गीकरण सामने रखा जो इस प्रकार है:
(क) मध्यदेशी-पश्चिमी हिंदी।
(ख) अंतर्वर्ती (1) पश्चिमी हिंदी से विशेष घनिष्ठता वाली (पंजाबी, राजस्थानी, गुजराती, पहाड़ी (पूर्वी, पश्चिमी मध्य ) (II) बहिरंग से संबद्ध (पूर्वी हिंदी)।
(ग) बहिरंग भाषाएँ (1) पश्चिमोत्तरी (लहँदा सिन्धी) (II) दक्षिणी (मराठी) (III) पूर्वी (बिहारी, उड़िया, बंगाली, असमी )।
ग्रियर्सन वर्गीकरण की आलोचना
ग्रियर्सन का वर्गीकरण ध्वनि, व्याकरण या रूप तथा शब्द-समूह, इन तीन बातों पर आधारित है। डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी ने इन तीनों की ही आलोचना की है। उन्हीं के आधार पर ग्रियर्सन के कुछ प्रमुख आधार संक्षिप्त आलोचना के साथ दिये जा रहे हैं।
1. ध्वनि - ग्रियर्सन के वर्गीकरण के ध्वन्यात्मक आधार लगभग पन्द्रह हैं जिनमें केवल प्रमुख चार-पाँच लिये जा रहे हैं।
(क) ग्रियर्सन के अनुसार 'र्' का 'लू' या 'ड्' के लिए प्रयोग केवल बाहरीं भाषाओं में मिलता है, किंतु यथार्थतः ऐसी बात नहीं है। अवधी, ब्रज, खड़ी बोली आदि में भी यह प्रवृत्ति मिलती हैं। जैसे बर (बल), गर (गला), जर (जल)। बीरा (बीड़ा), किवार (किवाड़), भीर ( भीड़ आदि) ।
(ख) ग्रियर्सन के अनुसार बाहरी भाषाओं में 'द्' का परिवर्तन 'ड्' में हो जाता है। किंतु यह बात भीतरी में भी मिलती है। हिंदी में डीठि (दृष्टि), ड्योढ़ी ( देहली), डेढ़ (द्वयर्द्ध), डाभ (दर्भ), डाढ़ा (दग्ध), डंडा (दंड), डोली ( दोलिका), डोरा (दोरक ). डँसना (दश) आदि उदाहरणार्थ देखे जा सकते हैं।
(ग) ग्रियर्सन का कहना है कि 'म्ब' ध्वनि का विकास बाहरी भाषाओं में 'म' रूप में हुआ है तथा भीतरी में 'ब्' रूप में। किंतु इसके विरोधी उदाहरण भी मिलते हैं। पश्चिमी हिंदी क्षेत्र में 'जम्बुक' का 'जामुन' या 'तिम्ब' का 'नीम' मिलता है। दूसरी ओर बंगाल में 'निम्बुक' का 'लेबू' या 'नेबू' मिलता है।
(घ) ऊष्म ध्वनियों को लेकर ग्रियर्सन का कहना है कि भीतरी में इनका उच्चारण अधिक दबाकर किया जाता है और वह 'स' रूप में होता है, किंतु बाहरी में यह श, ख, या, ह रूप में मिलता है। बंगाल तथा महाराष्ट्र के कुछ भागों में निर्बल होकर यह 'श' हो गया है। पूर्वी बंगाल और असम में और भी निर्बल होकर 'ख' हो गया है और बंगला तथा पश्चिमोत्तरी में 'ह' हो गया है। जहाँ तक स्वरों के बीच में 'स' के 'ह' हो जाने का संबंध है, वह बाहरी के साथ भीतरी भाषाओं में पाया जाता है। सं. एकसप्तति, पं. हिंदी एकहत्तर, सं. द्वादश, पं. हिं. बारह, सं. करिष्यति, प. हि. करिहई। साथ ही बाहरी में 'स' भी कहीं-कहीं है, जैसे लहँदा करेसी (करेगी)। 'ख' बाला विकास बड़ा सीमित और पूर्वक्षेत्रीय है। उसके आधार पर धुर पूर्व और पश्चिम की भाषाएँ एक वर्ग में नहीं रखी जा सकतीं। 'श' वाली विशेषता बंगला आदि में मागधी प्राकृत से चली आ रही है और वह प्राय: निर्बन्ध (unconditional) है। मराठी में वह बाद का विकास है और संबंध (conditional) है ( इ. ई. ए. जय आदि तालव्य ध्वनियों के प्रभाव से)। इस रूप में तो भीतरी की गुजराती में भी यह विकास है, जैसे क ( करिष्यति ) । इस प्रकार यह भी भेदक तत्व नहीं है।
(ङ) महाप्राण ध्वनियों का अल्पप्राण हो जाना भी ग्रियर्सन के अनुसार बाहरी भाषाओं में है, भीतरी में नहीं। किंतु हिंदी में भगिनी का बहिन, प्राकृत कल्पि रूप *ईंठा (र्स. इष्टक) का ईंट, प्राकृत कल्पित रूप ऊँठ (सं. उष्ट्र) का ऊँट इसके विरोध में जाते हैं।
2. व्याकरण या रूप-
ग्रियर्सन ने इस प्रसंग में पाँच-छह रूप-विषयक आधारों का उल्लेख किया है जिनमें से तीन यहाँ लिये जा रहे हैं।
(क) ग्रियर्सन-ई स्त्री प्रत्यय के आधार पर बाहरी वर्ग की पश्चिमी और पूर्वी भाषाओं को एक वर्ग की सिद्ध करना चाहते हैं, किंतु वस्तुत: यह तर्क तब ठीक माना जाता जब भीतरी वर्ग में यह बात न मिलती। हिंदी में इस प्रत्यय का प्रयोग क्रिया (गाती, दौड़ी), परसर्ग (की), संज्ञा (लड़की, बेटी), विशेषण (बड़ी, छोटी) आदि कई वर्ग के शब्दों में खूब होता है, अत: इसे इस प्रकार वर्गीकरण का आधार नहीं मान सकते।
(ख) भाषा संयोगात्मक से वियोगात्मक होती है और कुछ लोगों के अनुसार वियोगात्मक से फिर संयोगात्मक। ग्रियर्सन का कहना है कि संयोगात्मक भाषा संस्कृत से चलकर आधुनिक भाषाएँ (कारक रूप में) वियोगात्मक हो गई हैं, किंतु आधुनिक में भी बाहरी भाषाएँ विकास में एक कदम और आगे बढ़कर संयोगात्मक हो रही हैं। जैसे हिंदी 'राम की किताब', बंगाली 'रामेर बोई'। ग्रियर्सन का यह भी कहना है कि भीतरी में यदि कुछ संयोगात्मक रूप मिलते भी हैं तो वे प्राचीन के अवशेष मात्र हैं, अर्थात् प्रवृत्ति नहीं है, अपवाद हैं। इस प्रकार बाहरी - भीतरी भाषाओं में यह एक काफी बड़ा अंतर है। किंतु ग्रियर्सन का यह अंतर भी सत्य की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। जैसा कि डॉ. चटर्जी ने दिखाया है, तुलनात्मक ढंग से जब हम बाहरी और भीतरी के कारक - रूपों का अध्ययन करते हैं तो देखते हैं कि संयोगात्मक रूपों का प्रयोग भीतरी में बाहरी से कम नहीं है, अतः इस बात को भी भेदक तत्व नहीं माना जा सकता। [ब्रज पूतहि (कर्म) मनहिं, भौनहिं (अधिकरण) ] ।
(ग) ग्रियर्सन विशेषणात्मक प्रत्यय 'ल' को केवल बाहरी भाषाओं की विशेषता मानते हैं, यद्यपि भीतरी में भी यह पर्याप्त है, जैसे रंगीला, हठीला, भड़कीला, चमकीला, कटीला, गठीला, खर्चीला आदि ।
3. शब्द-समूह-
इसके आधार पर भी ग्रियर्सन बाहरी भाषाओं में साम्य मानते हैं। किंतु विस्तार से देखने पर यह बात भी ठीक नहीं उतरती। मराठी - बंगाली या बंगाली - सिन्धी में बंगाली हिंदी से अधिक साम्य नहीं है। इस प्रकार ग्रियर्सन जिन बातों के आधार पर बाहरी भीतरी वर्गीकरण को स्थापित करना चाहते थे, वे बहुत सम्पुष्ट नहीं हैं।
डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी भाषा का वर्गीकरण (O.D.B.L. में) इस प्रकार है:
(क) उदीच्य (सिन्धी, लहँदा, पंजाबी) ।
(ख) प्रतीच्य (गुजराती, राजस्थानी )।
(ग) मध्यदेशीय ( पश्चिमी हिंदी) ।
(घ) प्राच्य (पूर्वी हिंदी, बिहारी, उड़िया, असमिया, बंगाली) ।
(ङ) दक्षिणात्य (मराठी) ।
डॉ. चटर्जी पहाड़ी को राजस्थानी का प्रायः रूपान्तर-सा मानते हैं। इसीलिए उसे यहाँ अलग स्थान नहीं दिया है।
डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने डॉ. चटर्जी के वर्गीकरण के आधार पर ही अपना वर्गीकरण दिया है:
(क) उदीच्य (सिन्धी, लहँदा, पंजाबी)।
(ख) प्रतीच्य (गुजराती)।
(ग) मध्यदेशीय ( राजस्थानी, प. हिंदी, पूर्वी हिंदी, बिहारी )
(घ) प्राच्य (उड़िया, असमी, बंगाली) ।
(ङ) दक्षिणात्य (मराठी) ।
इस वर्गीकरण में हिंदी के प्रमुख चारों रूपों को मध्यदेशीय माना गया है।
श्री सीताराम चतुर्वेदी का भाषा वर्गीकरण
श्री सीताराम चतुर्वेदी ने संबंधसूचक परसर्ग के आधार पर का (हिंदी, पहाड़ी, जयपुरी), दा (पंजाबी, लहँदा), जो (सिन्धी, कच्छी), नो (गुजराती), एर (बंगाली, उड़िया, असमी) वर्ग बनाये हैं। यथार्थत: यह कोई वर्गीकरण नहीं है। ऐसे तो 'ळ' या 'स' से 'श' ध्वनियों के आधार पर भी वर्ग बनाये जा सकते हैं।
व्यक्तिगत रूप से इन पंक्तियों का लेखक कुछ इस प्रकार का वर्गीकरण (जो प्रमुखतः क्षेत्रीय हैं) पसन्द करता रहा है:
मध्यवर्ती ( पूर्वी और पश्चिमी हिंदी),
पूर्वी ( बिहारी, उड़िया, बंगाली, असमी),
दक्षिणी (मराठी),
पश्चिमी (सिन्धी, गुजराती, राजस्थानी ),
उत्तरी (लहँदा, पंजाबी, पहाड़ी)।
किंतु वस्तुत: वर्गीकरण का आशय यह है कि उसके आधार पर भाषाओं की मूलभूत विशेषताएँ स्पष्ट हो जाएँ। उपर्युक्त किसी भी वर्गीकरण में यह बात नहीं है, ऐसी स्थिति में ये सारे व्यर्थ हैं। इनके आधार पर कोई भाषा वैज्ञानिक निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। इससे अच्छा यह है कि इनकी अलग-अलग प्रवृत्तियों का ही अध्ययन किया जाय। यदि वर्गीकरण जरूरी ही समझा जाए तो दो बातें कही जा सकती हैं: (1) प्रवृत्तियों के आधार पर इन भाषाओं में इतना वैभिन्य या साम्य है कि सभी बातों का ठीक तरह से विचार करते हुए वर्गीकरण हो ही नहीं सकता। (2) अतएव, उत्पत्ति या संबद्ध अपभ्रंशों के आधार पर इनके वर्ग बनाये जा सकते हैं। किंतु यह ध्यान रहे कि इस प्रकार के वर्गों में ध्वनि या गठन संबंधी साम्य, बहुत कम दृष्टियों से मिल सकता है। उत्पत्ति भी अपने-आप में महत्त्वपूर्ण है.. अतः इसे बिल्कुल निरर्थक नहीं कहा जा सकता। इस वर्गीकरण का रूप यह है:
(क) शौरसेनी ( पश्चिमी हिंदी, पहाड़ी, राजस्थानी, गुजराती) ।
(ख) मागधी ( बिहारी, बंगाली, असमी, उड़िया) ।
(ग) अर्द्धमागधी (पूर्वी हिंदी ) ।
(घ) महाराष्ट्री (मराठी) । वाचड पैशाची (सिन्धी, लहँदा, पंजाबी)। इन्हें क्रम से मध्यम, पूर्वीय, मध्यपूर्वीय, दक्षिणी और पश्चिमोत्तरी भी कहा जा सकता है।