जैन साहित्य : आदिकालीन हिंदी साहित्य के सम्बन्ध में
जैन साहित्य
➽ महात्मा बुद्ध के समान महावीर स्वामी ने भी अपने धर्म का प्रचार लोकभाषा के माध्यम से किया। इस प्रकार जैन धर्म के अनुयायियों को अपने धार्मिक सिद्धांतों का ज्ञान अपभ्रंश में प्राप्त हुआ। वैसे तो जैन उत्तर भारत में जहाँ-तहाँ फैले रहे किन्तु आठवीं से तेरहवीं शताब्दी तक काठियावाड़ गुजरात में इनकी प्रधानता रही। वहाँ के चालुक्य, राष्ट्रकूट और सोलंकी राजाओं पर इनका पर्याप्त प्रभाव रहा।
➽ महावीर स्वामी का जैन धर्म, हिन्दू धर्म के अधिक समीप है। जैनों के यहाँ भी परमात्मा तो हैं पर वह सृष्टि का नियामक न होकर चित्त और आनन्द का स्रोत हैं। उसका संसार से कोई संबंध नहीं। प्रत्येक मनुष्य अपनी साधना और पौरुष से परमात्मा बन सकता है। उसे परमात्मा से मिलने की कोई आवश्यकता नहीं। इन्होंने जीवन के प्रति श्रद्धा जगाई और उसमें आचार की सुदृढ़ भित्ति की स्थापना की। अहिंसा, करुणा, दया और त्याग का जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान बताया । त्याग इन्द्रियों के अनुशासन में नहीं कष्ट सहने में है। उन्होंने उपवास तथा व्रतादि कृच्छ साधना पर अधिक बल दिया और कर्मकांड की जटिलता को हटाकर ब्राह्मण तथा शूद्र को मुक्ति का समान भागी ठहराया।
➽ जैन मुनियों ने अपभ्रंश में प्रचुर रचनाएँ लिखीं जो कि धार्मिक हैं। इनमें सम्प्रदाय की रीति-नीति का पद्यबद्ध उल्लेख है। अहिंसा, कष्ट सहिष्णुता, विरक्ति और सदाचार की बातों का इनमें वर्णन है। कुछ गृहस्थ जैनों का लिखा हुआ साहित्य भी उपलब्ध होता है। इसके अतिरिक्त उस समय के व्याकरणादि ग्रन्थों में भी साहित्य के उदाहरण मिलते हैं। कुछ जैन कवियों ने हिन्दुओं की रामायण और महाभारत की कथाओं से राम और कृष्ण के चरित्रों को अपने धार्मिक सिद्धांतों और विश्वासों के अनुरूप अंकित किया है। इन पौराणिक कथाओं के अतिरिक्त जैन महापुरुषों के चरित्र लिखे गए तथा लोकप्रचलित इतिहास प्रसिद्ध आख्यान भी जैन धर्म के रंग में रंग कर प्रस्तुत किये गये। इसके अतिरिक्त जैनों ने रहस्यात्मक काव्य भी लिखे हैं। इस साहित्य के प्रणेता शील और ज्ञान-सम्पन्न उच्च वर्ग के थे। अतः उनमें अन्य धर्मों के प्रति कटु उक्तियाँ नहीं मिलती हैं और न ही लोकव्यवहार की उपेक्षा मिलती है। इनके धार्मिक अंश को छोड़ भी दें तो भी उसमें मानव हृदय की सहज कोमल अनुभूतियों का चित्रण मिलता है।
➽ इस प्रकार हमने देखा कि जैन साहित्य के अंतर्गत पुराण साहित्य, चरित्र काव्य, कथा काव्य एवं रहस्यवादी काव्य सभी लिखे गये। इसके अतिरिक्त व्याकरण ग्रन्थ तथा श्रृंगार, शौर्य, नीति और अन्योक्ति संबंधी फुटकर पद्य भी लिखे गये। पुराण संबंधी आख्यानों के रचयिताओं में स्वयंभू पुष्पदन्त, हरिभद्र सूरि, विनयचन्द्र सूरि धनपाल, जोइन्दु तथा रामसिंह का विशेष स्थान है।
स्वयंभू -
➽ (आठवीं सदी) ने पउम चरिउ (पद्म चरित) और टिलेजेमी चरिउ (अरिष्टनेमि चरित - हरिवंश पुराण) प्रबंधों के अतिरिक्त छन्द शास्त्र से संबंधित 'स्वयंभू छन्दस' की भी रचना की। पद्म चरित में राम की कथा है और अरिष्टनेमि चरित में कृष्ण की। इन्होंने नागकुमार चरित नामक एक अन्य ग्रन्थ भी लिखा है किन्तु इनकी कीर्ति का आधारस्तंभ पद्म चरित ही है। इन्हें अपभ्रंश का वाल्मीकि माना जाता है। इन्होंने अपनी रामायण में केवल पांच कांड रखे हैं और उनका नाम वाल्मीकि रामायण के कांडों से मिलता है। इन्होंने बालकांड का नाम विद्याधर कांड रखा है। अरण्य तथा किष्किन्धा कांड को एकदम उड़ा दिया है। स्वयंभू ने जैन धर्म की प्रतिष्ठा के लिए राम की कथा में यत्र-तत्र परिवर्तन कर दिये हैं और कुछ नये प्रसंग जोड़ दिये हैं। पद्म चरित में कथा प्रसंगों की मार्मिकता, चरित्र चित्रण की पटुता, स्थल एवं प्रकृति वर्णन की उत्कृष्टता और आलंकारिक तथा हृदयस्पर्शी उक्तियों की प्रचुरता दर्शनीय है। सीता के चरित्र की उदारता दिखाने में कवि ने कमाल ही कर दिया है और इसी प्रकार अरिष्टनेमि चरित में द्रौपदी के चरित्र को भी अपनी तूलिका से एकदम निखार दिया है। नारी चरित्रों के प्रति लेखक ने अतीव सहानुभूति और दक्षता से काम लिया है। इनकी कविता का एक उदाहरण दृष्टव्य है
एवहि तिह करोनि पुणु रहुवइ ।
जिहण होमि पडियारे तिय मई।
➽ सीता की अग्नि परीक्षा के पश्चात् राम ने क्षमायाचना कर ली और भारतीयता की मूर्ति किंतु परित्यक्त स्नेहशील सीता देवी ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा- "इसमें न तुम्हारा दोष है, न जनसमूह का दोष तो दुष्कृत कर्म का है और इस दोष से मुक्त होने के लिए एकमात्र उपाय यही है कि ऐसा किया जाए जिससे फिर स्त्री योनि में जन्म न लेना पड़े।" नारी पर पुरुष के अत्याचार की इतनी मार्मिक अनुभूति और क्या हो सकती है। डॉ. नामवरसिंह इनके संबंध में लिखते हैं-"स्वयंभू के काव्य का परिसर बहुत व्यापक है। हिमालय से लेकर समुद्र तक, रनिवासों से लेकर जनपदों तक, राजकीय जलक्रीड़ा से लेकर युद्धक्षेत्र तक जीवन के सभी क्षेत्रों में उनका प्रवेश है। वे प्रकृति के चित्रकार हैं, भावों के जानकार हैं, चिन्तन के आगार हैं। अपभ्रंश भाषा पर ऐसा अचूक अधिकार किसी भी कवि का फिर दिखाई नहीं पड़ा। अलंकृत भाषा तो बहुतों ने लिखी, किन्तु ऐसी प्रवाहमयी और लोकप्रचलित अपभ्रंश भाषा फिर नहीं लिखी गई। स्वयंभू सचमुच ही अपभ्रंश के वाल्मीकि हैं, परवर्ती अपभ्रंश कवियों ने उन्हें वैसे ही श्रद्धा के साथ स्मरण किया है। "
पुष्पदन्त (दसवीं सदी ) -
➽ पुष्पदन्त या पुष्प कश्यप गोत्रीय ब्राह्मण थे और शिवजी के भक्त थे किन्तु अन्त में जैन हो गये। इनके अनेक उपनाम थे। इनमें से एक 'अभिमान मेरु' भी है क्योंकि यह स्वभाव से बड़ा अक्खड़ और अभिमानी थे। इनके महापुराण के आदि पुराण खण्ड में तीर्थंकर ऋषभदेव तेईस तीर्थंकरों तथा उनके समसामयिक महापुरुषों के चरित हैं। उत्तर पुराण में पद्म पुराण (रामायण) और हरिवंश (महाभारत) हैं। नाग कुमार चरित तथा यशोधरा चरित जैन धर्म से सम्बद्ध खण्ड काव्य है। पुष्पदन्त ने राम की कथा में बहुत अधिक परिवर्तन कर दिये हैं। इन्होंने श्वेताम्बर मतावलम्बी कवि गुणभद्र के उत्तर पुराण में वर्णित रामकथा का अनुसरण किया है। राम कथा की अपेक्षा इनकी वृत्ति कृष्ण काव्य में अधिक रमी है। वहाँ इन्होंने खूब रस लिया है और कथा में कोई खास परिवर्तन भी नहीं किया। इन्हें अपभ्रंश भाषा का व्यास कहा जाता है। पुष्पदन्त की अपेक्षा स्वयंभू अधिक उदार थे। पुष्पदन्त अत्यंत असहिष्णु थे और उन्होंने खुलकर ब्राह्मणों का विरोध किया है। ये दोनों कवि कालिदास और बाण की परम्परा के अंतर्गत आते हैं। दोनों दरबारी कवि थे और अपार ऐश्वर्य से उनका निकट का परिचय था। अतः भाषा, शैली, कल्पना और संगीत का जो ऐश्वर्य कालिदास और बाण में मिलता है वह स्वयंभू और पुष्पदन्त में भी उपलब्ध होता है।
➽ अपभ्रंश भाषा में लिखे गये राम और कृष्ण काव्यों में कहीं-कहीं धार्मिकता का पुट अवश्य आ गया है परन्तु दिव्यता और अलौकिकता का रंग प्रायः नहीं है और भक्ति भावना का तो उसमें अभाव ही है। हिन्दी वैष्णव कवियों के राम और कृष्ण काव्यों से इनकी कोई तुलना नहीं है।
➽ लौकिक कथाओं का आश्रय लेकर जैन धर्म की शिक्षा देने के लिए अनेक काव्य लिखे गये। इनमें धनपाल की 'भविष्यत्त कथा' प्रसिद्ध है जो कि एक भविष्यदत्त नामक बनिये से संबंधित है। जोइन्दु के 'परमात्मा प्रकाश' तथा ‘योगसार' में सहिष्णुता का दृष्टिकोण है। रामसिंह के 'पाहुड़ दोहा' में भी यही बात है। धर्मसूरि (13वीं सदी) के 'जम्बूस्वामी रासा' में गृहस्थ जीवन की मधुरता की झांकी है। हेमचन्द्र के 'शब्दानुशासन' में अनेक द्रोहों में नारी- हृदय की मधुरता, रोमांस और शृंगार का हृदयकारी वर्णन है। 'प्रबन्ध चिन्तामणि' में मुञ्ज के प्रति मृणालवती के विश्वासघात की प्रतिक्रिया की मार्मिक उक्तियाँ हैं।
➽ हिंदी साहित्य के विकास में जैन धर्म का बहुत बड़ा हाथ है। अपभ्रंश भाषा में जैनों द्वारा अनेक ग्रन्थ लिखे गये हैं। अपभ्रंश से हिन्दी का विकास होने के कारण जैन साहित्य का हिन्दी पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा। केवल भाषा विज्ञान की दृष्टि से ही नहीं बल्कि हिन्दी के प्रारंभिक रूप का सूत्रपात करने में भी इस साहित्य का गहरा हाथ है। अपभ्रंश साहित्य अपने आपमें एक अत्यंत व्यापक साहित्य है। इसमें महाकाव्यों, खंडकाव्यों, गीतिकाव्यों, ऐहितकापरक लौकिक प्रेम काव्यों, धार्मिक काव्यों, रूपक साहित्य, स्फुट साहित्य, गद्य साहित्य आदि साहित्य की नाना विधाओं का प्रणयन हुआ है। हिन्दी साहित्य की उचित जानकारी के लिए अपभ्रंशों के विशाल साहित्य के गहन अध्ययन की महती आवश्यकता है।
➽ जैनेतर अपभ्रंश साहित्य में 'सन्देश रासक', 'कीर्तिलता' और 'कीर्तिपताका' नामक ग्रन्थों का प्रणयन हुआ। इसका वर्णन किसी अन्य प्रकरण में किया जायेगा।