कबीर के दोहे : गुरु कौ अंग
कबीर के दोहे प्रस्तावना
भारतीय संत परंपरा में और
विशेषकर निर्गुण संतों की परंपरा में गुरु को अत्यंत महत्त्व दिया गया है। गुरु की
महिमा अनंत है और उसे वही समझ सकता है जिसके ज्ञान चक्षु खुल गए हैं। गुरु ने जो
राम नाम का अमूल्य मंत्र दिया है उसके सामने संसार की समस्त वस्तुएँ तुच्छ और हेय
हैं। जिस प्रकार रणभूमि में शूर अपने विरोधी पक्ष को वाण - वर्षा से परास्त कर
देता है उसी प्रकार सद्गुरु अपने उपदेश से अपने शिष्य के अहं को नष्टकर आत्मज्ञान
से साक्षात्कार कराते हैं। अपनी इस महत्ता के कारण गुरु का स्थान भगवान के स्थान
के समान है अर्थात् गुरु एवं गोविन्द दोनों एक ही हैं। इसलिए गुरु की महिमा अनन्त
और अवर्णनीय है। सद्गुरु प्रेमरूपी तेल से परिपूर्ण एवं सर्वदा रहनेवाली
ज्ञानवर्तिका से युक्त दीपक अपने शिष्य को प्रदानकर इस प्रकाश से ज्ञान ज्योति
जलाकर अपनी मुक्ति का मार्ग ढूंढ निकालने का अवसर प्रदान करते हैं।
साखी - भाग - गुरुदेव कौ अंग
अंग-परिचय-
भारतीय सन्त परम्परा में और विशेषत: निर्गुण सन्तों की परम्परा में गुरु को अत्यन्त महत्त्व दिया गया है। इस अंग में कबीर ने भी गुरु की महत्ता का वर्णन किया है। उन्होंने बताया है कि इस संसार में गुरु के समान कोई हितैषी और अपना सगा नहीं है, इसलिए मैं अपना तन-मन और सर्वस्व गुरु के प्रति समर्पण करता हूँ जो क्षणभर में ही अपनी कृपा से मनुष्य को देवता बनाने में समर्थ है। गुरु की महिमा अनंत है और इसे वही समझ सकता है जिसके ज्ञान चक्षु खुल गये हों। गुरु की कृपा जिस व्यक्ति पर होती है, कलियुग का प्रभाव भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता; अर्थात् उस पर पापों और दुष्कर्मों का कोई प्रभाव नहीं हो सकता। गुरु ही अपने शिष्य के अन्तर की ज्योति को प्रज्वलित करने में समर्थ है, वही सच्चा शूरवीर है गुरु का उपदेश कानों में पड़ते ही शिष्य समस्त प्रकार के सांसारिक बन्धनों से मुक्त हो जाता है। ऐसा गुरु भगवान की कृपा से ही प्राप्त होता है किन्तु दुर्भाग्यवशात् जिस व्यक्ति को विद्वान् गुरु प्राप्त नहीं होता, उस शिष्य की कभी मुक्ति नहीं हो सकती. बल्कि वह तो अपने साथ अपने शिष्य को भी लेकर डूब जाता है। गुरु की वाणी ही उस संशय को नष्ट करने में समर्थ है, जो समस्त संसार का अपने कठोर पाश में आबद्ध किये हुए है। किन्तु केवल गुरु का मिलना ही मुक्ति के लिए पर्याप्त नहीं है, बल्कि शिष्य के शुद्ध अन्तःकरण की भी उतनी ही आवश्यकता है, क्योंकि यदि शिष्य के हृदय में किसी प्रकार का विकार है तो गुरु की कृपा से उसे कोई विशेष लाभ नहीं होगा। अपनी इसी महत्ता के कारण गुरु का स्थान भगवान के स्थान के समान है; अर्थात् गुरु और गोविन्द दोनों एक ही हैं। जिन लोगों को गुरु की प्राप्ति नहीं होती, तो चाहे जितनी तप और साधना करें किन्तु उनका कोई फल नहीं होता । सर्व प्रकार से समर्थ गुरु से ही परिचय हो जाने पर समस्त सांसारिक और मानसिक दुख नष्ट हो जाते हैं और आत्मा निर्मल होकर प्रभु भक्ति में तल्लीन हो जाती है। अतः गुरु की महिमा अनंत और अवर्णनीय है।
सतगुर सवाँन को सगा, सोधि सईं न दाति ।
हरिजी सर्वांन को हितू
हरिजन सई न जाति ।।7।।
शब्दार्थ-
सवॉन = समान , सोधी = तत्वशोधक अर्थात् साधु सई समान । दाति = दाता। हरिजन= प्रभु भक्त ।
व्याख्या-
(इस संसार में) सद्गुरु के समान अपना कोई निकट सम्बन्धी नहीं है। तत्वशोधन वा प्रभु खोज करने वाले साधु के समान कोई दाता नहीं क्योंकि वह अपना समस्त ज्ञानार्णव शिष्य में उड़ेल देता है। दयालु प्रभु तुल्प अपना कोई हितैषी नहीं है और प्रभुभक्तों के समान कोई जाति नहीं है। अर्थात् प्रभुभक्त सब मनुष्यों में श्रेष्ठ हैं।
विशेष- अनन्वयोपमा, अनुप्रास एवं यमक अलंकार |
बलिहारी गुरु आपण, याँहाड़ी के बार
जानि
मानिष तैं देवता करत न लागि बार ॥2॥ ,
शब्दार्थ-
आप अपने हादी शरीर
(अस्थिचर्ममय) व्याख्या- मैं शरीर को अपने गुरु के ऊपर वार न्योछावर करूँ, मैं उनकी बलि बलि जाता
हूँ, जिन्होंने अत्यंत
अल्प समय में मुझे मनुष्य से देवता बना दिया अर्थात् मेरी मानवीय दुर्बलताओं को
नष्ट कर मुझे दिव्यगुण युक्त कर दिया।
विशेष-
'बार' में यमक अलंकार; अर्थ-शक्ति उद्भव स्वतः सम्भव वस्तु में अलंकार ध्वनि । गुरु ब्रह्मा से बढ़कर है, क्योंकि वह क्षणमात्र में मनुष्य को देवता बनाता है', यह ध्वनि व्यतिरेक अलंकार के रूप में है।
सतगुर की महिमा अनंत, अनंत किया उपगार ।
लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत दिखावणहार ॥3॥
शब्दार्थ- अनंत - अनन्त । लोचन अनंत ज्ञान चक्षु, प्रज्ञा चक्षु अनंत - ब्रह्म ।
व्याख्या - सद्गुरु की महिमा अपरम्पार है, उन्होंने मेरे साथ महान उपकार किया है। उन्होंने मेरे (चर्मचक्षुओं के स्थान पर) ज्ञान चक्षु खोल दिये, दिव्य-दृष्टि प्रदान कर दी, जिसके द्वारा उस अनन्त ब्रह्म के दर्शन हो गये।
विशेष- यमक अलंकार ।
राम नाम लै पटतरै, देबे को कुछ नाहिं ।
क्या ले गुर संतोषिए, हौंस रही मन मांहि ॥4॥
शब्दार्थ- पटतरै बदले में। संतोषिए = संतुष्ट करूँ। टौंस - प्रबल अभिलाषा ।
व्याख्या-गुरु ने राम-नाम का जो अमूल्य मन्त्र दिया है उसके बदले में देने के लिए मेरे पास कुछ नहीं है क्योंकि उस राम नाम के सम्मुख समस्त वस्तुएँ तुच्छ और हेय हैं, फिर भला मैं क्या देकर गुरुदेव को सन्तुष्ट करूँ - यही प्रबल अभिलाषा मेरे मन में हुमककर रह जाती है।
विशेष-उपमान न मिलने से उपमानलुप्ता उपमा।
सतगुर के सदकै करूं, दिल अपणी का साछ ।
कलियुग हम स्यूं लडि
पड्या, मुहकम मेरा बाछ ॥5॥
शब्दार्थ- साछ = साक्षी। बाछ = रक्षक।
व्याख्या- मैं सद्गुरु पर प्राणपण से न्योछावर हूँ एवं अपने हृदय को साक्षी करके कहता हूँ कि कलिकाल
अर्थात् विविध मायामोह के प्रपंच मुझसे जूझ रहे हैं, पापों का और मन का संघर्ष चल रहा है, किन्तु शक्तिसम्पन्न गुरुवर मेरे रक्षक हैं, अतः पाप-पुंज मुझे परास्त नहीं कर सकते ।
विशेष -मानवीकरण
सतगुरु लई कमांण करि, बाँहण लागा तीर ।
एक जु
बाह्या प्रीति सूं भीतरि रह्या सरीर ॥16॥
शब्दार्थ -कमण धनुष। बांहण लागा बरसाने लगा।
व्याख्या-सद्गुरु ने हाथ में धनुष धारण कर लिया एवं तीरों की वर्षा करने लगे अर्थात् अध्यवसायपूर्वक प्रयत्नपूर्वक शिष्य को उपदेश देना प्रारम्भ कर दिया। इन उपदेश बाणों में एक बाण इस प्रकार प्रेमपूर्वक चलाया जिसने अन्तर को बेधकर हृदय में घर कर लिया। हृदय तक बाण को पहुँचने के लिए मध्य के समस्त अन्धावरण बेधने पड़े हैं। इसीलिए वह हृदय में जाकर रह गया। यह बाण था प्रेम का।
विशेष- रूपकातिशयोक्ति
(केवल उपमान पक्ष धनुष-बाण का उल्लेख होने से ) ; भक्ति रस ।
सतगुर सांचा सूरिवाँ, सवद जु बाह्या एक।
लागत ही मैं मिल गया, पड्या कलेजे छेक ॥ 7 ॥
शब्दार्थ सूरिवाँ- सूरमा वी, र बाह्य - मारा। मैं- अहंकार, आत्मज्ञान ।
व्याख्या -
सदगुरु सच्चे शूरवीर हैं। जिस प्रकार रणभूमि में सूर अपने विरोधी पक्ष को बाण - वर्षा से परास्त कर देता है; उसी प्रकार उस सद्गुरु रूपी शूर ने 'शब्द' (उपदेश) का बाण चलाया। उनके लगते ही मेरा 'मैं' अर्थात् अहं नष्ट हो गया अथवा उसके लगते ही मेरा आत्म-ज्ञान से साक्षात्कार हो गया। उस बाण के लगते ही हृदय में प्रेम की टेक का छिद्र हो गया। तात्पर्य यह है कि यह प्रेम उस सद्गुरु के उपदेश रूपी बाण का ही परिणाम है।
विशेष-सांगरूपक अलंकार ।
सतगुर मार्या या भरि धरि करि सुधी मूठि ।
अंगि उपाई लागिया, गई दवा लूँ फटि ॥8 ॥
शब्दार्थ- मार्या - मारा। भरि, पूर्ण शक्ति से दवा दावाग्नि ।
व्याख्या - सद्गुरु ने साधक के ऊपर यह उपदेश - वाण पूर्ण शक्ति से खींचकर एवं मूठ को लक्ष्योन्मुख करके सीधा कर मारा जिससे दावाग्नि-सी फूट पड़ी। समस्त वासना, माया आदि जल - जलकर क्षार होने लगे एवं साधक शरीर के वस्त्र माया आदि आवरण, उतारकर फेंकने लगा अर्थात् उसका वस्तुस्थिति से साक्षात्कार हो गया।
विशेष-उपमा एवं सांगरूपक अलंकार ।
हँसे न बोले उनमनी, चंचल मेल्या मारि कहे कबीर भीतर भिद्या, सतगुर के हथियारि॥19॥
शब्दार्थ - उनमनी योग की उत्पन्न दशा । मेल्ह्या वृत्तियाँ। भिद्या बेध दिया।
व्याख्या - योग की उन्मन दशा का वर्णन करते हुए कबीरदास जी कहते हैं कि मन की चंचल वृत्तियों को समाप्त कर सद्गुरु के उस उपदेश के ( प्रेम के) बाण ने हृदय को बेध दिया। परिणामस्वरूप शिष्य न हँसता है और न बोलता है अर्थात् सांसारिक हासविलास तथा राग-विराग से असम्पृक्त हो गया है।
विशेष - 1. रूपकातिशयोक्ति प्रयोजनवती गूढ़ व्यंग्या लक्षणा । शिष्य में चंचलता का अत्यन्ताभाव व्यंग्य है।
2. उन्मनी अवस्था - हठयोग या
राजयोग की सिद्धावस्था है,
जिसमें मन
समाधिस्य होकर पहुँचता है।
गूंगा हूवा बावला, बहरा हुआ कान।
पाऊँ थैं पंगुल भया, सतगुर मार्या बाण ॥10॥
शब्दार्थ- पाऊँ थैं - पैरों से, पंगुल - पंगु लँगड़ा।
व्याख्या-सद्गुरु के उपदेश - बाण के लगते ही शिष्य गूंगा, पागल, कानों से बहरा और पैरों से लंगड़ा हो गया। भाव यह है कि शिष्य वाणी का दुरुपयोग व्यर्थ के वाद-विवाद में नहीं करता एवं उसके कान भी प्रेम - भक्ति चर्चा के अतिरिक्त अन्य विषयों के लिए बहरे हैं एवं सांसारिक प्रयत्न से विरत होने के कारण लँगड़ा हो गया। इस विशेष स्थिति के कारण ही उसे पागल बताया गया है।
विशेष- गूढ़ व्यंग्य
प्रयोजनवती लक्षणा। शिष्य को प्राप्त होने वाली परम शांति व्यंग्य है।
पीछें लागा जाड़ था, लोक बेद के साथि।
आगैं थैं सतगुर मिल्या, दीपक दीया हाथि ।।] ॥
शब्दार्थ- दीपक = ज्ञान की ज्योति
व्याख्या - मैं (शिष्य) लोक एवं वेदविहित मार्ग का अंधानुकरण करता जा रहा था, किंतु आगे पथ में गुरुदेव मिल गये और उन्होंने ज्ञान का दीपक मेरे हाथ में दे दिया। जिससे मैं अपना पंथ स्वयं खोजकर लक्ष्य (ब्रह्म-प्राप्ति) तक पहुँच सकूँ।
विशेष-सांगरूपक एवं
रूपकातिशयोक्ति अलंकार ।
दीपक दीया तेल भरि बाती दई अघट्ट
पूरा किया बिसाहुणां, बहुरि न आँव हट्ट ॥2॥
शब्दार्थ- अघट्ट = कभी घटने न वाली, बिसाहूणां - क्रय विक्रय , हट्ट = बाजार।
व्याख्या-सद्गुरु ने प्रेमरूपी तेल से परिपूर्ण एवं सर्वदा रहने वाली ज्ञानवर्तिका से युक्त दीपक मुझे प्रदान किया। इसके प्रकाश में संसाररूपी बाजार में मैंने कर्मों का समस्त क्रय-विक्रय उपयुक्त रीति से कर लिया। अब मैं पुनः इस बाजार में नहीं आऊँगा । अर्थात् इस ज्ञान ज्योति के द्वारा मैं जीवनमुक्त हो जाऊँगा।
विशेष- 1. अलंकार-सांगरूपक एवं रूपकातिशयोक्ति ।
2. कबीर के पुनर्जन्म आवागमन
में विश्वास का परिचय प्राप्त होता है।
ग्यान प्रकास्या गुर मिल्या, सो जिनि बीसरि जाई ।
जब गोबिन्द कृपा करीं, तब गुर मिलया आई ॥3॥
शब्दार्थ- जिनि= नहीं।
बीसरि =छोड़ना ।
व्याख्या - गुरुदेव से भेंट होने पर हृदय में ज्ञान का प्रकाश हो गया। ऐसे ज्ञान स्वरूप गुरु से विमुख नहीं होना चाहिए। यह प्रभु कृपा का ही फल है कि गुरुवर मुझे मिल गये।
विशेष- सद्गुरु की
प्राप्ति के लिए कबीर भगवत्कृपा को आवश्यक मानते हैं।
कबीर गुर गरवा मिल्या, रलि गया आटैं लूंगा।
जाति पांति कुल सब मिटे नांव धरौगे कूण || 4 ||
शब्दार्थ-
गुर= गुरु, गरवा =गौरवमय । लूंण =नमक, नांव= नाम। कुंण = कौन-सा ।
व्याख्या - कबीर कहते हैं कि मुझे गौरवमय गुरुदेव के दर्शन हुए, उन्होंने अपने ज्ञान स्वरूप में मुझे इसी प्रकार एक कर लिया, अपने में मिला लिया, जैसे आटे में नमक मिल जाता है। अर्थात् गुरुदेव से इस प्रकार एक गुरु के ज्ञानस्वरूप के साथ ऐक्य स्थापित हो गया है। हो जाने पर मेरा स्वतंत्र अस्तित्व न रह गया और मेरे स्वतंत्र व्यक्तित्व के बोधक जाति पाँति, कुल आदि सब नष्ट हो गये, अब तुम (संसार) मुझे गुरु से पृथक् मानने के लिए किस नाम से पुकारोगे? भाव यह है कि अब मेरा
विशेष- प्रथम पंक्ति में
प्रतिवस्तूपमा।
जाका गुरु भी अंधला, चेला खरा निरंध ।
अंधै अंधा ठेलिया, दून्यूं कूप पड़न्त ॥5॥
शब्दार्थ - अंधला = अंधा, मूर्ख। खरा = पूर्णरूप से , निरंध = अंध, मूर्ख। कूप = कुआँ।
व्याख्या-
यहाँ कबीरदास जी गुरु की योग्यता पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि जिस शिष्य का गुरु भी अंधा है. अज्ञानी है एवं शिष्य भी पूर्णरूपेण अंधा, मूह है, वे दोनों लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकेंगे अंधा अंधे को अज्ञानी अज्ञानी को बिना देखे ही ठेल ठालकर मार्ग पर बढ़ायेगा तो परिणाम यह होगा कि दोनों ही पतन के कुएँ में गिर पड़ेंगे।
विशेष- यहाँ शब्दों की अभिव्यंजना शक्ति दर्शनीय है।
नां गुर मिल्या न सिष भया, लालच खेल्या दाव ।
दून्यूं बूड़े धार मैं, चढ़ि पाथर की नाव || 6 ||
शब्दार्थ - सिप् =शिष्य । बूड़े = डूब गये। पाथर = पत्थर, अज्ञान।
व्याख्या- न तो ज्ञानी सद्गुरु ही मिला और न शिष्य वास्तविक परिभाषा में शिष्य
अर्थात् ज्ञानाभिलाषी ही था। दोनों ज्ञान के नाम पर लालच का दाँव खेलते रहे, एक-दूसरे को धोखे में
डालने का प्रयास करते रहे और इस प्रकार दोनों मंझधार में ही डूब गये, तट-लक्ष्य तक नहीं पहुँच
पाये; जैसे कोई पत्थर की
नाव का आश्रय लेकर सागर तैरने का प्रयास करे तो बीच ही में डूब जाए।
विशेष-उपमा अलंकार।
चौसठि दीवा जोड़ करि चौवह चंदा माहि
तिहिं बरि किसकी चानिणों, जिहि परि गोविंद नाहि ॥7॥
शब्दार्थ- जोइ करि =
जलाकर प्रकाशित करके। चानिणाँ= चहेता, अभीप्सित।
व्याख्या- यदि कोई अपने हृदय मंदिर में चौंसठ कलाओं की ज्योति प्रकाशित कर ले और चंद्रमा की चौदह कलाओं के समान प्रकाशपूर्ण चौदह विद्याओं का उज्ज्वल प्रकाश विकीर्ण कर ले अर्थात् पूर्ण ज्ञानी हो जाए, किंतु यदि वह मंदिर प्रभुभक्ति के अभाव में अंधकारपूर्ण है तो वह किसी का अभीप्सित नहीं हो सकता। भाव यह है कि जीवन की सार्थकता भगवत्प्राप्ति में है।
विशेष - 1. कबीर यहाँ ज्ञान और भक्ति
के संबंध के पोषक हैं, और भक्ति को
ज्ञान के ऊपर मानते हैं। 2.
चंद्रमा की चौदह
कलाएँ कहने से कबीर पर इस्लामी संस्कृति का प्रभाव परिलक्षित होता है।
निस अंधियारी कारण, चौरासी लख चंद!
अगि आतुर ऊदै किया, तऊ दिष्टि नहिं मंद ॥ 8 ॥
शब्दार्थ - निसि = निशि, रात, अज्ञान, ऊदै किया = उदित किया. प्राप्त किया। मंद =मूर्ख ।
व्याख्या- अपनी अज्ञान की अंधतमसा के कारण तुझे चौरासी लाख योनियों में भटककर उनकी यातना सहनी पड़ी और तब बड़े कष्ट से मानव योनि में आया। मूर्ख फिर भी मेरी आँखें नहीं खुलतीं, तू फिर भी कुमार्ग की ओर ही बढ़ रहा है।
विशेष- कबीर पर वैष्णव
प्रभाव देखा जा सकता है।
भली भई जु गुर मिल्या नहीं तर होतो हाणि ।
दीपक दिष्टि पतंग ज्यूं, पड़ता पूरी जाणि ॥9॥
शब्दार्थ- नहीं तर= अन्यथा | पूरी जाणि = सर्वस्व समझकर |
व्याख्या- साधक कहता है कि
अच्छा ही हुआ कि गुरुदेव मिल गये, अन्यथा बड़ी भारी हानि होती। जिस प्रकार शलभ दीपशिखा को
सर्वस्व जान उस पर जल मरता है उसी प्रकार मैं भी सांसारिक माया के आकर्षणों को
सर्वस्व समझकर पतंगे कीड़े के समान जलकर नष्ट हो जाता।
विशेष- द्वितीय पंक्ति
में उपमा है।
माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि इवै पडत।
कहै कबीर गुर ग्यान थैं, एक आध उबरंत ||201
शब्दार्थ भ्रमिभ्रमि= मँडरा मँडराकर, इवें =उसी पर
व्याख्या- माया रूपी दीपक है और मानव पतंगा है जो मँडरा-मँडराकर, आकर्षित होकर, उसी दीपशिखा पर गिरकर विनष्ट होता है। कबीर कहते हैं कि इस माया दीप के आकर्षण से कोई एकाध विरले ही गुरु से ज्ञान प्राप्त कर बच पाते हैं।
विशेष-रूपक के द्वारा कवि
ने गुरु की महत्ता की व्यंजना कराई है। इस प्रकार अलंकार द्वारा वस्तु ध्वनि है।
सतगुर बपुरा क्या करै, जे सिषही माह चूक
भावै
त्यूं प्रमोधि ले, ज्यूं बसि बजाई
फूक ॥21॥
शब्दार्थ- बपुरा=बेचारा , चूक = कमी।
व्याख्या-यदि शिष्य में ही त्रुटि है तो बेचारा ज्ञानी गुरु भी क्या कर सकता है। चाहे उसे किसी प्रकार से समझा दो किंतु सब यों ही क्षण में बाहर निकल जाता है। जैसे वंशी में फूँक क्षणभर रहकर बाहर निकल जाती हैं और वह बाँसुरी फिर काष्ठ अर्थात् निर्जीव (शिष्य पक्ष में मूढ़) रह जाती है।
विशेष- दृष्टांत अलंकारा
संसै खाया सकल जुगु, संसा किनहूँ न खद्ध ।
जे वैधे गुर अब्धिरां
तिनि संसा चुणि चुणि बद्धा22॥
शब्दार्थ- संसै = संशय, भ्रम, अष्षिरां = अक्षर ज्ञान।
व्याख्या- माया के भ्रम ने समस्त जगत को विनष्ट किया है किंतु इस भ्रम को कोई नहीं नष्ट कर पाया। गुरु- ज्ञान की वाणी से प्रभावित जो लोग थे उन्होंने इस माया-भ्रम को चुन-चुनकर नष्ट कर दिया।
विशेष-1. इसमें मानवीकरण से सजीवता आ गई हैं।
2. अलंकार से वस्तु ध्वनित है। व्यंग्य है- 'शिष्य की परमतत्वज्ञता ' ।
चेतन चौकी बैसि करि सतगुर दीन्हीं धीर
निरभ होइ निसंक भजि, केवल कहै कबीर ॥23॥
शब्दार्थ - चेतनि = ज्ञान। निरभै होइ= निर्भय होकर |
व्याख्या- कबीर कहते हैं कि सद्गुरु ने ज्ञान की चौकी पर बैठकर शिष्य को प्रबोध देकर धैर्य प्रदान कर कहा कि तुम निर्मल चित्त हो, सांसारिक त्रासों से भयरहित होकर केवल ईश्वर का ही भजन करो।
विशेष-रूपक अलंकार।
सतगुर मिल्या त का भया, जे मन पाड़ी भोल ।
पासि
बिनंठा कप्पड़ा, क्या करै बिचारी
चोण ॥24॥
शब्दार्थ- पाड़ी =पड़ी हुई है। भोल = भूल, भ्रम । बिनंठा = नष्ट हो गया। चोण = मजीठ।
व्याख्या - जिन लोगों के चित्त भ्रमयुक्त हैं, उन्हें यदि सद्गुरु मिल भी गये तो क्या लाभ होगा? वे ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते। यदि वस्त्र को रंगने से पूर्व पुट देने में ही वह नष्ट हो जाये तो सुंदर रंग देने में समर्थ मजीठ बिचारा क्या कर सकता है, फटे हुए वस्त्र को किस प्रकार सुंदर रंग दे। त्रुटिपूर्ण शिष्य के साथ यही अवस्था गुरु की है।
विशेष - 1. पासि संस्कृत पुल्लिंग शब्द 'पास' है, जिसका अर्थ लाल रंग का जवास होता है। 'पाशन' से भी 'पासि' का विकास संभव है- अर्थ होगा किनारी के लिए रंगे जाने वाले वस्त्र को विशेष रूप से बाँधना।
2. दृष्टांत अलंकार
बुड़े थे परि ऊबरे, गुर की लहरि चमंकि ।
भेरा देख्या जरजरा, (तब ) ऊतरि पड़े फरंकि 11251
शब्दार्थ - परि = पर, परंतु । भेड़ा = बेड़ा। जरजरा= जीर्ण-शीर्ण, फरक = तुरंत तत्क्षण।
व्याख्या - हम तो इस भवसागर में डूबने को
ही थे कि गुरु कृपा की एक लहर ने हमें पार लगा दिया। उस गुरु कृपा के द्वारा ही
हमने देखा कि जिस वेदशास्त्र आदि के बेड़े से हम संसार सागर पार करना चाहते थे; वह तो जीर्ण-शीर्ण है, अतः हम उससे तत्क्षण कूद
पड़े और प्रभु भक्ति का सम्बल ग्रहण किया। भाव यह है कि केवल गुरु कृपा से ही
भवसागर पार किया जा सकता है।
विशेष- 'गुरु की लहरि चमकि' में रूपकातिशयोक्ति है। उपमेय ज्ञानधार है। 'भेरा देखा जरजरा' में भी यही अलंकार है।
गुर गोबिंद तौ एक हैं, दूजा यहु आकार।
आपा मेट
जीवत मरै तौ पावै करतार ॥26॥ ,
व्याख्या - गुरु और गोबिंद (ब्रह्म) तो एक ही है, उनमें कोई अंतर नहीं है। यह अपना मायाजनित शरीर ही इस भासित द्वैत का कारण है। यदि हम इस अहत्व, 'अयं निजः परो वा' की भावना को समाप्त कर जीवनमुक्त हो जायें तो प्रभु ब्रह्म की प्राप्ति हो सकती है।
विशेष- विरोधाभास के कारण
इस साखी में चमत्कार उत्पन्न हो सका है।
कबीर सतगुर नां मिल्या, रही अधूरी सीष।
स्वांग जती का पहरि करि
घरि-घरि मांगे भीष ॥27॥
व्याख्या- कबीरदास जी
कहते हैं कि यदि शिष्य को सद्गुरु की प्राप्ति नहीं होती तो उसकी शिक्षा अपूर्ण रह
जाती है। तपस्वी वेश धारण करके द्वार-द्वार पर भिक्षा माँगने वाले सद्गुरु नहीं हो
सकते। विशेष- 'स्वांग जती का
पहरि करि' में एक व्यापक
बिंब थोड़े शब्दों में मूर्तिमान हो गया है।
सतगुर सांचा सूरिवाँ, तातैं लोहिं लुहार ।
कसणो दे कंचन किया, ताड़ लिया ततसार ॥28॥
शब्दार्थ- तातैं = तप्त। लोहिं = लोहा । लुहार = लोहे का कार्य करने वाला।
व्याख्या- सद्गुरु सच्चा शूरवीर है जो शिष्य को अपने प्रयत्नों से उसी प्रकार योग्य बना देता है, जिस प्रकार लुहार तप्त लोहे को पीट-पीटकर सुघड़ और सुडौल आकार देता है। कबीर कहते हैं कि सद्गुरु शिष्य को परीक्षा की अग्नि में तपा - तपाकर स्वर्णकार की भाँति उसे इस योग्य बना देते हैं कि वह शुद्ध कंचन की कसौटी पर खरा उतर कर ब्रह्म (तत्त्व) को प्राप्त कर ले।
विशेष - 1. रूपक ।
2. वस्तु से व्यतिरेक अलंकार
ध्वनित है।
थापणि पाई थिति भई सतगुर दीन्हीं धीर ।
कबीर होरा बणजिया, मानसरोवर तीर 11291
शब्दार्थ - थापणि = शिष्य रूप में अपनी स्थापना । बणजिया= वाणिज्य, व्यापार
व्याख्या - सद्गुरु से शिष्य रूप में स्वीकृति पाकर उनका शिष्यत्व ग्रहण कर मेरा चंचल मन स्थिर हो गया और उन्होंने मुझे धैर्य प्रदान किया। इस मन की एकाग्रता से मैं मनरूपी सरोवर पर ( हंसों की भाँति) मुक्ता चुग रहा हूँ .
विशेष- मनः साधना की
महत्ता प्रकट की गई है।
निहचल निधि मिलाइ तत, सतगुर सास धीर ।
निपजी में सांझी घणां बार्ट नहीं कबीर 11301
शब्दार्थ- निहचल निधि = ब्रह्मा, तत = आत्मा । घणां = बहुत से।
व्याख्या-सद्गुरु के साहस और धैर्य ने आत्मा को ब्रह्म से मिला दिया। इस महामिलन से जो सुख उत्पन्न हुआ उसका भागीदार बनने के लिए बहुत से व्यक्ति व्याकुल हैं, किंतु कबीर उसे बाँटने के लिए प्रस्तुत नहीं, क्योंकि वह परमतत्व का आनंद दूसरे के द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता। अतः उस आनंद को प्राप्त करने के लिए स्वयं की आत्मा का ब्रह्म से साक्षात्कार आवश्यक है।
विशेष - 1. रूपक अलंकार से अमूर्त को मूर्त किया गया है।
2. दूसरी पंक्ति में व्यापक क्रिया-बिंब आकर्षक है।
चौपड़ि माड़ी चौहटे, अरध उरध बाजार
कहै कबीरा राम जन, खेलौ संत विचार ॥31॥
शब्दार्थ - चौपड़ि =
चौपड़ का खेल। माड़ी = बिछी है।
व्याख्या - शरीर के चौराहे पर चौपड़ बिछी है। उसके नीचे एवं ऊपर दोनों ओर चक्रों का बाजार लगा हुआ है (योगियों ने शरीर के अंतर्गत षट्चक्रों की स्थिति मानी है जो मूलाधार से प्रारंभ होकर शीर्ष में ब्रह्मरन्ध्र तक बिछे हुए हैं। इन षट्चक्रों का भेदन करके ही कुंडलिनी ब्रह्मरन्ध्र में पहुँचती है जहाँ निस्सृत होता है)। कबीरदास जी कहते हैं कि प्रभु भक्त संत गण इस खेल को विचारपूर्वक खेलते हैं अर्थात् योगसाधना में प्रवृत्त होते हैं।
विशेष- रूपकातिशयोक्ति द्वारा एक पूरे सूक्ष्म व्यापार को मूर्त किया गया है।
पासा पकड़ या प्रेम का, सारी किया शरीर ।
सतगुर
दाव बताइया, खैलैं दास कबीर 11321
व्याख्या-प्रेम के पांसे
से शरीर रूपी चौपड़ भक्त कबीर ने खेल प्रारंभ कर दिया है और सद्गुरु दावें बनाते
जा रहे हैं। भाव यह है कि साधक ने प्रेम का आश्रय लेकर गुरु के निर्देशन में
योगसाधना प्रारंभ कर दी है। विशेष- रूपक द्वारा, आसक्तिहीन साधना को मूर्त बनाया गया है।
सतगुर हम सूं रीझि करि, एक कह्या प्रसंग।
बरस्या बादल प्रेम का, भीजि गया सब अंग ॥33॥
शब्दार्थ - रिझि करि = प्रसन्न होकर ।
व्याख्या - सद्गुरु ने हम से प्रसन्न होकर प्रभु भक्ति की ऐसी मनोरम चर्चा छेड़ी कि प्रेम का बादल बरस गया जिससे शरीर का अंग-प्रत्यंग उस प्रेम जल से सिक्त हो गया।
विशेष- रूपक द्वारा भक्ति
की आनंददायिनी अनुभूति को साकार किया गया है।
कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरष्या आइ
अंतरि
भीगी आत्मा, हरी भई बनराई ॥34॥
शब्दार्थ- बनराय = वन- प्रदेश ।
व्याख्या- प्रभु प्रेम का बादल बरसा, जिससे अंतरात्मा उस प्रभु प्रेम जल से भीग गई और उसी के आनंद में शरीर रूपी वन- प्रदेश में भी हरियाली, उत्फुल्लता छा गई।
विशेष- असंगति अलंकार ।
पूरे सूं परचा भया, सब दुख मेल्या दूरि ।
निर्मल किन्हीं आत्मा, तार्थं सदा हजूरि ॥35॥
शब्दार्थ- परचा =परिचय । मेल्या दूरि = दूर कर दिये। तातैं = इसी कारण से।
व्याख्या - सर्वसमर्थ पूर्ण गुरु से मेरा परिचय हो गया, उन्होंने समस्त दुःख दूर कर दिये। उन दुःखों के अभाव में आत्मा निर्मल होकर सर्वदा प्रभु भक्ति में संलग्न रहती है।
विशेष - 1. 'हजूर' अरबी का शब्द है, जिसका अर्थ किसी के सम्मुख रहता है, कबीर ने इसी अर्थ में इसका प्रयोग किया है।
2. यहाँ अतिशयोक्ति अलंकार
है।