कबीर की ब्रह्म, जीव, जगत माया विचारधारा | कबीर के अनुसार ब्रह्म माया संसार जीवात्मा और शरीर | Kabir Ke Anusaar Bhramha Jeev Jagat Maaya

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कबीर की ब्रह्म, जीव, जगत माया विचारधारा



कबीर की ब्रह्म, जीव, जगत माया विचारधारा | कबीर के अनुसार  ब्रह्म  माया  संसार जीवात्मा और शरीर | Kabir Ke Anusaar Bhramha Jeev Jagat Maaya

  

कबीर की ब्रह्म, जीव, जगत माया विचारधारा - प्रस्तावना

 

कबीर का लक्ष्य जिस प्रकार कविता करना नहीं था, उसी भाँति दर्शन की गुत्थी को सुलझाना भी उन्हें अभीष्ट नहीं था, किन्तु भक्ति में प्रेम की विविध भाव-व्यंजनाओं के साथ-साथ कबीर की ब्रह्म, जीव, जगत माया आदि से सम्बन्धित विचारधारा भी सम्मुख आई है। इन विचारों के आधार पर ही हम उनकी विभिन्न धारणाओं का पता लगता सकते हैं।

 

यद्यपि कविता एवं दर्शन दोनों पृथक् पृथक् क्षेत्र हैं किन्तु फिर भी हम देखते हैं कि कवि भी दार्शनिक होता है. यह दूसरी बात है कि इस रूप में नहीं, जिस रूप में दर्शन का विद्वान इस सम्बन्ध में महादेवी जी के शब्द द्रष्टव्य हैं

 

" कवि में दार्शनिक को खोजना बहुत साधारण हो गया है। जहाँ तक सत्य के मूल रूप का सम्बन्ध है वे दोनों एक-दूसरे के अधिक निकट हैं अवश्य, पर साधन और प्रयोग की दृष्टि से उनका एक होना सहज नहीं। बुद्धि के निम्न स्तर से अपनी खोज आरम्भ करके उसे सूक्ष्म बिन्दु तक पहुँचाकर दार्शनिक सन्तुष्ट हो जाता है। उसकी सफलता यही है कि सूक्ष्म सत्य के उस रूप तक पहुँचने के लिए वही बौद्धिक दशा सम्भव रहे। अन्तर्जगत का सारा वैभव परखकर सत्य का मूल आँकने का उसे अवकाश नहीं, भाव की गहराई में डूबकर जीवन की थाह लेने का उसे अधिकार नहीं। वह तो चिन्तन-जगत का अधिकारी है। बुद्धि अन्तर का बोध कराकर एकता का निर्देश करती है और हृदय एकता की अनुभूति देकर अन्तर की ओर संकेत करता है। परिणामतः चिन्तन की विभिन्न रेखाओं का समानान्तर रहना अनिवार्य हो जाता है। सांख्य जिस रेखा पर बढ़कर सत्य की प्राप्ति करता है, वह वेदान्त को अंगीकृत न होगी और वेदान्त जिस क्रम से चलकर सत्य तक पहुँचता है, उसे योग स्वीकार न कर सकेगा।" “काव्य में बुद्धि हृदय से अनुशासित रहकर ही सक्रियता पाती है, इसी से उसका दर्शन न बौद्धिक तर्क-प्रणाली है और न सूक्ष्म बिन्दु तक पहुँचने वाली विशेष विचार पद्धति । वह तो जीवन को चेतना अनुभूति के समस्त वैभव के साथ स्वीकार करता है। अतः कवि का दर्शन, जीवन के प्रति उसकी आस्था का दूसरा नाम है।' रामरसायन से उन्मत्त कबीर सांसारिक जीवन से विरक्त हो, स्थितप्रज्ञ या जीवनमुक्त की दशा में आ गये थे। इसी अनोखे प्रेम जगत, भावलोक से जो उनका वास्तविक जीवन रह गया था, कबीर ने जो आस्थाएँ, विचार प्रकट किये हैं, उनसे हमें उनकी विचारधारा, चिन्तन-परिणामों का ज्ञान होता है।

 

 

1 ब्रह्म

 

कबीर का ब्रह्म उपनिषदों के अद्वैत से ही अधिक प्रभावित है। कबीर की ब्रह्म भावना आदि से अन्त तक अद्वैतपरक है किन्तु उस अद्वैत की प्राप्ति का प्रारम्भ या प्रयत्न जब कबीर करते हैं, प्रिय परमात्मा से वियुक्त हृदय की मनोभावनाओं की जिस समय अभिव्यक्ति करते हैं, उस समय वे द्वैत भावना से प्रस्थान करते हैं, किन्तु यह द्वैत भ्रमवश है, यही अज्ञान है। इस द्वैत भावना से कबीर की अद्वैत भावना पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वे सर्वत्र उसका निरूपण उपनिषदों के समान अद्वैती भावना से उत्प्रेरित होकर ही करते हैं

 "कस्तूरी कुण्डल बसै, मृग ढूँढ़े बन माहिं। 

ऐसे घट घट राम है, दुनिया देखे नाहिं।"

 

जिस भाँति ब्रह्म को कबीर ने हृदस्थ मानकर पत्रिका आदि लिखने का विरोध किया है, उसी प्रकार प्रतिबिम्बवाद के आश्रय पर उसे सर्वत्र भी माना है . 

"ज्यू जल में प्रतिबिम्ब, त्यूं सकल रामहिं जानिजै ।"

 

अद्वैतियों के ही समान कबीर का विश्वास है कि ब्रह्म से ही समस्त सृष्टि का निर्माण होता है और उसी के द्वारा उसका स्वरूप नष्ट हो जाता है.  

"पानी ही ते हिम भ्या, हिम ही गया बिलाय । 

कबीरा जो था सो भया अब कुछ कही न जाय ॥ " 


सृष्टि निर्माता होने के साथ-साथ यह ब्रह्म पूर्ण निराकार, रूपविहीन, निर्लिप्त है, समस्त सृष्टि के अणु-प्रति- अणु में व्याप्त होकर भी प्रत्येक घट में भी वास करता है-

 

"शरीर सरोवर भीतर आछै कमल अनूप । 

परम ज्योति पुरुसोत्तम, जाखे रेख न रूप ॥ "

 

उसे शरीर स्थित ज्योतिस्वरूप निराकार मानकर भी कबीर ने अद्वैती भावानुरूप अखण्ड एकरस माना है "

 

" आदि मध्य और अन्त लौ, अविहड़ सदा अभंग । 

कबीर उस कर्ता की, सेवक तजै न संग ॥"

 

समस्त सृष्टिव्यापी होने के साथ-साथ उस ब्रह्म की महिमा अपार है। वह इतना सामर्थ्यवान है कि बिना इन्द्रियों के स्वरूप के भी समस्त कार्य कर रहा है

 

"बिन मुख खाइ चरन बिन चालै, बिन जिभ्या गावै। 

आछै रहें ठौर नहीं छाड़, दस दिसिहीं फिरि आवै ॥ 

बिनहीं तालां ताल बजावै, बिन मंदल पर ताला। 

बिनहीं सबद अनाहद बाजै, तहाँ निरतत है गोपाला।। "

 

वास्तव में इनकी शक्ति का वर्णन करना सम्भव ही नहीं, वह तो अनुभव की ही वस्तु है-

 

"पारब्रह्म के तेज का, कैसा है उन्मान।

 कहिबै कूँ शोभा नहीं देखा ही परवान।।"

 

कबीर ने इस ब्रह्म को राम, हरि, मुरारि, गोपाल, विष्णु आदि नामों का सम्बोधन देकर भी निर्गुण-निराकार माना है। वैष्णवों के अवतारी नाम देकर भी वे ब्रह्म को उनके समान अवतारधारी नहीं मानते

 

"ना जसरथ घरि औतरी आवा, ना लंका का राव सतावा ।

 देवै कूखि न औतरि आवा, मां जसवै लै गोद खिलावा ।

 ना वो ग्वालन के संग फिरिया, गोबरधन लै न कर धरिया ।

 बावन होइ नहीं बलि छलिया, धरनी वेद ले न उधरिया ।।


 " उनकी उक्तियाँ सगुण भक्त कवियों के समान ही प्राप्त होती हैं। उन स्थलों पर प्रेमातिरेक ने कबीर को सगुण भक्तों की भावभूमि पर ही पहुँचा दिया है- 

 

"माधो मैं ऐसा अपराधी, तेरी जनमि होत नहीं साधी । 

कारनि कवन आइ जग जनम्याँ, जनमि कवन सचु पाया।

भौ जल तिरण चरण च्यंतामणि, ता चित घड़ी न लाया। 

तुम्ह कृपाल दयाल दमोदर, भगत बछल भौ हारी ॥ 

कहै कबीर धीर मति राखहु सासति करौ हमारी ॥ "

 

अतः यह मानना पड़ेगा कि ब्रह्म को निर्गुण मानकर भी कबीर उसके सगुण स्वरूप से अछूते नहीं रहे हैं, इसकी यत्किंचित् स्वीकृति उनके निम्न कथन में भी प्राप्त होती है-

 

"संतो धोखा का सों कहिये। 

गुण में निर्गुण निर्गुण में गुण है, बाट छांडि क्या बहिए ।। "

 

अतः हम कह सकते हैं कि कबीर का ब्रह्म अधिकांशतः अद्वैतीस्वरूप का निर्गुण, निराकार, निरुपाधि है, किन्तु कहीं-कहीं उसमें सगुण भावनाओं के लिए भी स्थान है। इसका कारण कबीर की प्रेमाभक्ति और उपनिषदों का ब्रह्म को विरुद्ध धर्माश्रयी चित्रित करना है, जिसका प्रभाव इन पर पड़ा है।

 

2 कबीर अनुसार माया 

कबीर ने माया का वर्णन अद्वैतियों के ही समान मिथ्या मानकर किया है। कबीर की माया धर्म और स्वभाव से सांख्यवादियों की प्रकृति से बहुत मिलती-जुलती है। सांख्यानुरूप ही कबीर ने इसे ब्रह्म से सम्बद्ध और त्रिगुणात्मक प्रकृतियुक्त माया कहा है-

 

"राजस तामस सातिग तीन्यू ये सब तेरी माया । "

 

माया ने समस्त संसार को अपने वश में कर चरित्र भ्रष्ट कर रखा है। इसलिए कबीर ने इसे व्यभिचारिणी तक कह डाला है

 

"तू माया रघुनाथ की, खेलड़ चढ़ी अहे ।

चतुर चिकारे चुणि-चुणि मारे, कोइ द छोड्या नेडे ॥

 मुनियर पीर डिगंबर मारे जतन करता जोगी । 

जंगत महि के जंगम मारे, तूरे फिरै बलिवंती ॥ 

वेद पढ़न्त ब्राह्मण मारा, सेवा करता स्वामी । 

अरथ करता मिसर पछाड्या, तू रे फिर मैमती ॥" 

दास कबीर राम के सरनै, ज्यूं लागी त्यूं तोरी ॥

 

केवल प्रभु के दास ही इससे मुक्त हैं, अन्यथा और सब तो इसके बन्धन में आबद्ध हैं। यदि कोई माया से बचकर रहता है तो भी यह उसे अपने फंदे में फँसा लेती है इससे त्राण का एकमात्र उपाय प्रभु भक्ति है। इसी भक्त के सम्बल से कबीर ने इसे विजित किया है

 

"कबीर माया पापणीं, फंध ले बैठी हाटि । 

सब जग तो फंधै पड्या, गया कबीरा काटि ॥ "

 

इससे त्राण का एक और भी उपाय कबीर ने बताया है, वह यह कि एक बार यदि भक्त इसके मिथ्यात्व को हृदय में समझ ले और इसे मिथ्या मान इससे दूर रहने का उपाय करे तो फिर यह दासी की ताई चारों ओर लगी लगी फिरती है-

 

"कबीर माया मोहनी, मांगी मिलै न हाथि। 

मनह उतारी झूठ करि, तब लागी डोलै साथि।। 

" इसी विकर्षण से आकर्षण वाली बात को कबीर ने दूसरे प्रकार से कहा है

 "जो काटो तो डह डही सींचो तो कुम्हलाय । 

इस गुणवन्ती बेल का, कुछ गुण कहा न जाय ।। "

 इसी सिद्धान्त को अपनाकर सन्त लोग हंसात्माएँ माया को दासी बनाकर रखती हैं, जिसका वर्णन कबीर ने इन शब्दों में किया है

 

"माया दासी संत की ऊँची देह असीम। 

बिलसी अरु लाती छड़ी, सुमरि सुमरि जगदीस।"

 

3 कबीर के अनुसार संसार

 

कबीर ने अद्वैतियों के ही समान ब्रह्म सत्य जगन्मिथ्या' के सिद्धान्त को अपनाकर संसार का वर्णन किया है। वह सर्वत्र संसार की सत्ता को मिथ्या मानते हैं और अद्वैतियों के ही समान उसके मिथ्या भाव को प्रकट करने के लिए सेमल फूल, आकाश नीलिमा, धुआँ धरौहर आदि के उपमान प्रयुक्त करते हैं।

 

"दिन दहूँ चहूं के कारण, जैसे सेमल फूले। 

झूठी सूं प्रीति लगाइ करि, साचै कूं भूले ॥ " 

" दिनां चारि के सुरंग फूल, तिनहि देखि कहा रह्यौ है भूल ।

 या बनासपति मैं लागेगी आगि, तब तू जैहाँ कहां भागि। "

 

ईश्वर स्मरण के बिना यह मिथ्या संसार, जिसकी क्षणिक स्थिति है, और भी अधिक दुखदायी है, क्योंकि सर्वदा कच्चे धागे में लटकी तलवार की भाँति काल सिर पर खड़ा रहता है

 

"रामां बिना संसारधंध कुहेरा, 

सिरि प्रगटया जंम का फेरा।"

 

इस संसार का नाश सर्वथा निश्चित है, इसकी उत्पत्ति और प्रलय में कुछ समय नहीं लगता, वह भी पूर्ण अनिश्चित है

 

"नर जाणे अमर मेरी काया धर धर बात दुपहरी छाया ।। 

मारग छांड़ि कुमारग जोवैं, आपण मरै और कूं रोवैं ।। 

कछु एक किया कछु एक करणां मुगध न चेतै निहचै मरणा ॥ 

ज्यूं जल बूँद तैसा संसारा, उपजत बिन सत लगै न वारा।"

 

कबीर का विश्वास है कि इस दुःख सुखमय संसार से तब तक छुटकारा नहीं हो सकता, जब हमारा मन निष्कलुष न हो

 

"जब लग मनहिं विकारा, तब लागि नहीं छूटै संसारा । 

जब मन निर्मल करि जाना, तब निर्मल माहिं समाना ॥ "

 

कबीर का विश्वास है कि इस संसार में जो जीवन मिला है, वह हमारे पिछले कुछ पुण्यों का फल है, अन्यथा 84 लाख योनियों में से किसी भी एक में हो सकते थे। इसलिए मनुष्य जन्म पा सत्कर्मों का व्यापार करना यहाँ अत्यन्त आवश्यक है

 

"चोखी बनज व्यपार करीजे, 

आइनै दिसावर रे राम जपि लाहौ लीजै॥" 

अब कबीर तो इस व्यापार को करने में पूर्ण दक्ष हो गये हैं और उन्होंने सत्कर्मों की पूँजी संचित कर ली है, इसीलिए काल रूपी दलाल का भी उन्हें भय नहीं रहा-

 

"रे जम नांहि नये व्यापारी, जे भरें जगाति तुम्हारी। 

वसुधा छाड़ि वनिज हम कीन्हों, लाद्यौ हरि को नाऊँ। 

राम नाम की गूंनि भराऊँ हरि के टांडै जाऊँ ।” 

इसी भाँति 'चदरिया झीनी वीती' में कबीर ने यही अभिव्यक्त किया है कि इस संसार में प्राप्त मानव जीवन को निष्कलंक रख सत्कर्मों का बनिज करना चाहिए।

 

4  कबीर के अनुसार जीवात्मा और शरीर

 

जहाँ तक आत्मा का सम्बन्ध है, कबीर ने सदैव उसे परमात्मा का अंश माना है। जिस प्रकार अद्वैतवादियों ने उपनिषदों का आधार लेकर ब्रह्म और आत्मा की एकता को प्रस्थापित किया, उसी भांति कबीर ने भी अंश अंशी भाव की अवस्थिति सर्वत्र मानी है। अपने रहस्यवाद में सर्वत्र उन्होंने आत्मा और परमात्मा का ऐक्य प्रस्थापित किया है

 

"प्रीतम के पतियां लिखूं, जो कहीं होय विदेसा 

तन में मन में नैन में ताकौ कहा संदेस।”


इसी अद्वैतवाद के आधार पर ब्रह्म के साक्षात्कार के लिए आत्मा विकल है। यह विरह-वियुक्तावस्था क्षणिक है, इसी भाव को वे इस प्रकार व्यक्त करते हैं

 

सेई तुम्ह सेई हम एक कहियत, जब आपा पर नहीं जाना । 

ज्यूं जल मैं पैसि न निकसै, कहै कबीर मन माना ।। " 


आत्मा और परमात्मा का यह पृथकत्व माया के कारण है, माया का आवरण हटते ही आत्मा और परमात्मा पुनः एक हैं। यह उसी भांति है, जिस प्रकार जल में तैरते हुए कुम्भ में भी लहर वाला जल है, किन्तु दोनों एक जैसे होते हुए भी अलग-अलग हैं। दोनों का मिलन तभी संभव है, जब कुम्भ (शरीर-माया) की सत्ता समाप्त हो जाए

 

जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है, बाहर भीतर पानी । 

फूटा कुम्भ जल जलहि समाना, इति तथ कथ्यो ग्यानी ॥ "

 

इसीलिए जब आत्मा परमात्मा की खोज में चली तो उसे सर्वत्र परमात्मा दृष्टिगत हुआ

 

"लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल ।

 लाली देखन मैं गयी, मैं भी हो गयी लाल ।। "

 

इस प्रकार अन्ततः आत्मा और परमात्मा एक ही है। जहाँ तक शरीर का सम्बन्ध है, कबीर का भाव है कि जो कुछ समस्त बिम्ब- ब्रह्माण्ड में है, उस सबकी सत्ता शरीर में है, शरीर में ब्रह्मांड का ही लघु संस्करण है

 “ब्रह्मण्डे सो प्यण्डे जानि। " 

किन्तु इस शरीर की स्थिति बड़ी क्षणिक है- 

पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात

देखत ही छिप जायगा, ज्यों तारा परभात।। "

 

अन्यत्र भी उसकी क्षणिकता का प्रतिपादन बड़े सुन्दर एवं नवीन उपमानों द्वारा कवि ने किया है। शरीर के लिए सर्वाधिक सुन्दर अंजलि के जल से दी है। अंजलि में रोका हुआ जल प्रतिपल रिसता रहता है, साथ ही किसी भी समय अंजलि खुल जाने पर उसका अस्तित्व ही समाप्त हो सकता है

 

तन धन जौवन अंजुली कौ पानी, जात न लागै बार। " 

X 

"जल अंजुली जीवन जैसा, ताका है किसा भरोसा ॥” 


साथ ही कबीर का यह भी विश्वास है कि शरीर पूर्ति के लिए नाना पाप कर्म करने से कोई लाभ नहीं, क्योंकि यह मिथ्या है। दूसरे हम जिनके लिए पाप-बोझ ढोते हैं, मृत्यु हो जाने पर, पंच तत्वमय शरीर की सत्ता समाप्त हो जाने पर, किसी का भी राग इससे नहीं रह जाता है

 

" मुठी एक मठिया मुठि एक कठिया, संगि काहू कै न जाइ । 

देहली लग तेरी मिहरी सगी रे, फलसा लगी सग माड़ । 

मड़हट लूँ सब लोग कुटुम्बी, हंस अकेला जाइ ॥” 


इस संसार में शरीर का नाश मृत्यु - उतनी ही निश्चित है जितना स्वयं निश्चित शब्द 

" जो ऊग्या सो आथवै फूल्या सो कुमिलाइ । 

जो चिणियाँ सो ढहि पड़ै, जो आया सो जाइ ॥ " 

आपको इस मृत्यु से बचाने वाला कोई नहीं। जो आज दूसरों की श्मशान यात्रा कर शोकाकुल हो रहे हैं, वे भी निश्चित रूप से इसी भाँति श्मशान के दर्शन करेंगे

 

रोवणहारे भी मुए, मुए जलांवणहार।

 हा हा करते ते मुए, , कासनि करौं पुकार ॥”

 

इस शरीर को धारण करने में बारम्बार मातृगर्भ में रह अमिट वेदना सहनी पड़ती है, इसका एक ही उपाय है-मोक्ष। यह मोक्ष या मृत्यु व्यक्ति को अपने सत्- कार्यों एवं अनन्य तथा दृढ़, ईश्वर भक्ति से प्राप्त होती है। मुक्ति प्राप्त कर भक्त भगवान, अंश अंशी, आत्मा परमात्मा एक हो जाते हैं, दोनों में कोई भेद नहीं रह जाता है। 

उपर्युक्त विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि कबीर के दार्शनिक विचार वेदान्ती हैं। दर्शन- क्षेत्र में निश्चित रूप से उन पर शुद्ध भारतीय प्रभाव है।

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