कबीर की भक्ति , कबीर की भक्ति के भेद
कबीर की भक्ति
कबीर की भक्ति ने भारतीय जनमानस को उस समय अवलम्बन प्रदान किया था जब वह सिद्धों और योगियों की गुह्यसाधना से ऊब रही थी। कबीरकालीन परिस्थितियों में धार्मिक अवस्था का अवलोकन करते समय हम देख चुके हैं कि उस समय प्रचलित नाना धर्म-साधनाएँ किस प्रकार जनता को भूलभुलैया में डाल रही थीं। इस महान सन्त ने अपनी प्रेमाभक्ति का ऐसा सबल और दृढ़ अवलम्बन धर्म-प्राण जनता को प्रदान किया कि वह राम-रस में भाव-विह्वल हो डूब उठी। यद्यपि कबीर से पूर्व रामानन्द ने भी भक्ति की ऐसी ही भावपूर्ण धारा बहाई थी, किन्तु उसका प्रसार सीमित क्षेत्र तक ही रहा। रामानन्द को- का श्रेय तो अवश्य प्राप्त है, किन्तु उसका व्यापक प्रसार और प्रचार कबीर के द्वारा ही हुआ। उसे 'सप्त द्वीप नवखण्ड' में कबीर ने ही प्रकट किया था।
'भक्ति द्राविण ऊपजी, लाये रामानन्द।'
कबीर की भक्ति स्वरूप
कबीर की भक्ति पर वैष्णव- विचारधारा का आंशिक प्रभाव पड़ा है। कबीर पर पड़ने वाले आध्यात्मिक प्रभावों में इसका विश्लेषण किया जा चुका है। कबीर की भक्ति के विवेचन से पूर्व यह आवश्यक हो जाता है कि हम यह देखें कि भारतीय भक्ति का स्वरूप किस प्रकार वर्णित है। आचार्यों ने इनकी व्याख्या भिन्न-भिन्न प्रकार से की है। रामानुजाचार्य जी ने 'ब्रह्मसूत्र' का भाष्य प्रस्तुत करते हुए भक्ति की व्याख्या में कहा है-
"ध्रुवानुस्मृतिरेव भक्तिशब्देनाभिधीयते।"
परमात्मा के निरन्तर स्मरण को ही भक्ति कहते हैं। व्यास ने इसकी व्याख्या में कहा है कि प्रणिधान वह भक्ति है, जिनके द्वारा परमेश्वर उस योगी पर कृपादृष्टि करते हैं तथा उसकी इच्छाओं की पूर्ति निमित्त उसे वरदान देते हैं-
"प्राभिधानाद् भक्ति विशेषादावर्जित ईश्वरस्तमनुगृह्णात्यभिध्यानमात्रण...।'
- पातञ्जल दर्शन, प्रथम अध्याय, व्यासभाष्य ।
पतञ्जलि के इसी 'ईश्वरप्राणिधानाद्वा' सूत्र की व्याख्या में भोज ने भक्ति का स्वरूप समझाया
है, वह वल्लभ के
पुष्टि - समर्पण के अत्यन्त निकट है। उनका कथन है कि प्रणिधान वह भक्ति है जिसमें
इन्द्रिय- भोगादिक सम्पूर्ण फलाकांक्षाओं का त्याग करके सब कर्म उस परम गुरु
परमात्मा को समर्पित कर दिए जाते हैं
"प्राणिधानं तत्र भक्ति-विशेषो विशिष्टमुपासनं सर्वक्रियाणामपि ।
विषयसुखादिकं फलमनिच्छन् सर्वाः क्रियास्तस्मिन् गुरावर्पयति ।"
-- पातञ्जल दर्शन, प्रथम अध्याय, भोजवृत्ति ।
भक्ति की अत्यन्त सुन्दर व्याख्या भक्तराज प्रह्लाद ने की उनका कथन है कि जैसी तीव्रासक्ति अविवेकी पुरुष को इन्द्रिय विषयों में होती है उसी प्रकार की आसक्ति आपका ( प्रभु का स्मरण करते समय मेरे हृदय से निकल न जाएँ
"या प्रीतिरविवेकाना विषयेष्वनपायिनी।
त्वामनुस्मरतः सा मे हृदयान्मापसर्पतु ॥ "
- विष्णुपुराण, 1 20 191
नारद भक्ति
सूत्रान्तर्गत भक्ति की महिमा बताते हुए कहा है-
" सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा।"
वह (भक्ति ) ईश्वर के प्रति प्रेमरूप है एवं साथ ही-
"अमृतस्वरूपा च ।"
वह अमृत स्वरूप भी है। उसका स्वरूप विश्लेषण नारद ने इस प्रकार किया है-
"तदर्पिताखिलाचारिता तर्द्विस्मरणे
परमव्याकुलतेति।"
पराशर ने उसको
विधि-विहित कर्मों में सीमित करते हुए भी अनुरागपूर्ण माना है
शाण्डिल्य-भक्तिसूत्र में उसे परा कोटि की मानते हुए ईश्वर के प्रति परम अनुरागरूप, माना है.
"पूजादिष्वनुरागः।"
"सा परानुरक्तिरीश्वरे।"
कबीर की भक्ति के भेद
नारद ने भक्ति के दो रूप माने हैं 1. प्रेमरूपा, 2. गौणी ।
प्रेमरूपा
भक्ति
के उन्होंने दो भेद किए हैं प्रथम 'कामरूपा' - जिसमें एक ही भाव की प्रधानता रहती है, जैसी गोपियों की
कृष्ण में। द्वितीय 'सम्बन्धरूपा' जिसमें दास्य, सख्य, वात्सल्य, आत्मनिवेदनादि
भाव आते हैं। कबीर की भक्ति में यद्यपि प्रधानता 'कामरूपा' की ही है, किन्तु सम्बन्धरूपा के भी उदाहरण प्राप्त हो जाते हैं-
"कबीर कूता राम का, मुतिया मेरा नाउँ।
गले राम की जेवड़ी, जित खँचै तित जाउँ ।” - दास्यासक्ति
"मोरे घर आय राम भरतार |
तन रति कर मैं मन रति करिहौं, पाँचों तत्व बराती ।
रामदेव मोहे व्याहन आये, मैं जोवत मदमाती ॥"
"हरि जननी मैं बालक तोरा
काहि न अवगुन बकसहु मोरा । " - वात्सल्यासक्ति
इसी भाँति अन्य
आसक्तियों के भी उदाहरण कबीर में प्राप्त होते हैं।
प्रेमरूपा भक्ति को तीन वर्गों में रखा गया है
1. गौण-जो सांसारिकता के समीप है।
2. मुख्य-प्रेम- समुख पर जगत के प्रति उदासीन नहीं।
3. अनन्य - स्पृहारहित, ज्ञान, कर्म आदि से ऊपर
अराध्य में लीन रहना ।
कबीर की भक्ति इस वर्ग विभाग में 'अनन्य' कोटि में आती है, क्योंकि वहाँ 'सब तज, हरि भजन' की ही भावना है।
गौणी के भी नारद
ने तीन भेद किए हैं- सात्विकी राजसी एवं तामसी । कबीर की भक्ति सात्विकी कोटि में
आती है।
चैतन्य सम्प्रदाय
में भी भक्ति का लगभग इसी प्रकार का विभाजन किया गया है। उसे इस प्रकार से
निर्दिष्ट किया जा सकता है।
भक्ति
- गौणी (लौकिक )
- परा (सिद्धावस्था)
गौणी (लौकिक )
- वैधि
- रागानुगा
- कामरूपा
- सम्बन्धरूपा
इस विभाजन में
कबीर की भक्ति 'परा' सिद्धावस्था के
अन्तर्गत आती है।
1. निर्गुण ब्रह्म -
कबीर ने अपनी भक्ति में जिस आराध्य
का वर्णन किया है वह उपनिषदों की अद्वैती भावना के प्रभाव से प्रभावित है। कबीर की
ब्रह्मभावना यद्यपि अधिकांशतः अद्वैती है, किन्तु कहीं-कहीं
अद्वैत से भिन्न है। इसका कारण यह है कि कबीर किसी सिद्धान्त के अनुयायी या
प्रस्थापक नहीं बल्कि उन्होंने ब्रह्म का जो कुछ भी वर्णन किया है वह अनुभव के
आधार पर किया है। कबीर प्रथम साधक हैं, और बाद में कवि ।
अतः भक्ति साधना में जिस-जिस रूप में ये ब्रह्मस्वरूप का साक्षात्कार करते जाते
हैं, उसी उसी रूप में
उसे बताते हैं। वे कविता के माध्यम में 'निज ब्रह्म-
विचार - आत्म साधना' को व्यक्त करते हैं। यही कारण है कि कबीर के ब्रह्म
का स्वरूप हमारे सम्मुख कभी किसी रूप में तो कभी किसी रूप में आता है। ब्रह्म के
स्वरूप परिवर्तन का वास्तविक कारण यही है कि वह किसी भी दार्शनिकवाद के मानदण्ड से
परे है, तार्किक विवाद से
ऊपर है, पुस्तकीय विद्या
से अगम्य पर प्रेम से प्राप्य है, अनुभूति का विषय है, सहज भाव से भावित
है। डॉ. रामकुमार वर्मा के शब्दों में
"वह ऐसा गुलाब है जो किसी बाग में नहीं लगाया जा सकता, केवल उसकी सुगन्ध
ही पाई जा सकती है। वह ऐसी सरिता है कि हम उसे किसी प्रशस्त वन में नहीं देख सकते, सुन सकते हैं।
" वरन् उसे कलकल नाद करते हुए ही
अनुभूति के विविध
स्तरों के द्वारा ही वह कहीं अद्वैत है और कहीं द्वैताद्वैत कहीं विशिष्टाद्वैत
किन्तु जैसा कि पहले कहा जा चुका है, अधिकांशतः कबीर
ने अद्वैती भावनानुकूल उस ब्रह्म का वर्णन किया है। जब कबीर कहते हैं
"कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढ़े बन माहिं।
ऐसे घट घट राम है, दुनियाँ देखे नाहिं ॥ "
X
" मृगा पास कस्तूरी बास, आप न खोजै खोजै
घास । "
तो वे ईश्वर की
अद्वैत सत्ता को स्वीकार करते हैं। वास्तव में उनका प्रभु रोमप्रतिरोम और सृष्टि
के कण-कण में परिव्याप्त है। वह हृदयस्थ होते हुए भी दूर दिखाई देता है, किन्तु जब वह
प्रियतम पास में ही है तो उसे संदेश भेजने की क्या आवश्यकता है? इसीलिए कबीर कहते
हैं-
"प्रियतम को पतिया लिखूं, जो कहीं होय विदेस |
तन में, मन में, नैन में, ताकौ कहा संदेस।।"
वास्तव में प्रियतम के इस प्रकार के संदेश प्रेषण को तो वे दिखाया -
मात्र, कृत्रिम प्रेम का
परिचायक मानते हैं, क्योंकि जहाँ देखो, वहीं उस
ईश्वर-प्रिय की सत्ता विद्यमान है
"कागद लिखे सो कागदी कि व्यवहारी जीवा
आतम दृष्टि कहा
लिखे, जित देखे तित पीव
॥"
कबीर ने उस
ब्रह्म की स्थिति सर्वत्र उसी भाँति मानी है जिस प्रकार अद्वैत भावना के पोषक
प्रतिबिम्बवाद में। हमारा कहने का यह तात्पर्य कदापि नहीं कि कबीर ने अद्वैती
भावना का अनुगमन कर प्रतिबिम्बवाद को भी अपने काव्य में प्रयुक्त किया. वे तो उस
ईश्वर की सर्वव्यापकता को अनुभव करते थे। इसीलिए उन्होंने कहा था -
" ज्यूँ जल में प्रतिबिम्ब, त्यूँ सकल रामहि
जानीजै।”
इस विवेचन से
स्पष्ट है कि कबीर की भक्ति का आलम्बन अद्वैती भावनानुकूल है। निम्नस्थ प्रसिद्ध
साखी तो उन्हें एकदम अद्वैती सिद्ध कर देती है
"जल में कुम्भ कुम्भ में जल है, बाहर भीतर पानी ।
फूटा कुम्भ जल जलहि समाना, इहि तथ कथ्यौ ग्यानी ॥ "
अद्वैतवादी भावना के साथ यह पूर्ण स्पष्ट है कि उनका ब्रह्म निगुर्ण निराकार है "
जाके मुँह माथा नहीं, नाहीं रूप सुरूप।
पुहुप बास ते
पातरा ऐसा तत्व अनूप ॥ "
किन्तु जब वे इस
ब्रह्म को समस्त संसार को बनाने वाला, बिगाड़ने वाला
मानते हैं तो निर्गुण का अस्तित्व प्रश्नसूचक चिह्न के साथ रखना पड़ता है।
" सात समुद्र की मसी करूँ, लेखनी सब बनराइ |
सब धरती कागद करूँ प्रभु गुण लिखा न जाइ ॥ "
जिस ईश्वर के गुणों का इतना विस्तार है, यह निरुपाधि, निर्विषय, निर्गुण कैसे रहा? इतना ही नहीं, कहीं कहीं तो यह
निरुपाधि ब्रह्म सोपाधि, सविशेष, सगुण एवं साकार
तथा वैष्णवों के समान अवतारी हुआ जान पड़ता है. यथा
"पंडिता मन रंजिता, भगति हेति त्यौं लाइ रे।
प्रेम प्रीति गोपाल भजि नर, और कारण जाड़ रे।
दाम छै पणि काम नाहीं, ग्यान छै पणि धंध रे।
श्रवण छै पणि सुरति नाहीं, नैन छै पणि अंध रे।
जाकै नाभि पदम सु उदित ब्रह्मा, चरन गंग तरंग ।
कहै कबीर हरि भगति बाँधू, जगत गुर गोव्यंद रे"
भला
निर्गुण-निराकार की नाभि से ब्रह्मा और चरणों से गंगा निकलने की क्या संगति ? वास्तव में ऐसे कथन कबीर ने भक्ति की झोंके में ही कहे हैं और इन स्थलों पर
उन्हें सूर तुलसी आदि भक्तों की कोटि से अलग नहीं किया जा सकता। वास्तव में उनके
निराकार ब्रह्म का अर्थ निर्विषय कदापि नहीं, इसीलिए कबीर के न
चाहते हुए भी उसमें गुणों का आरोप स्वतः हो गया है। डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी जी
ने भी स्वीकार किया है- "कबीरदास के निर्गुण ब्रह्म में गुण का अर्थ सत्व, रज आदि गुण हैं, इसलिए निर्गुण
ब्रह्म का अर्थ वे निराकार, निस्सीम आदि समझते हैं, निर्विषय
नहीं।"
2. साकार ब्रह्म -
कबीर की निर्गुण भक्ति में 'साकार' ब्रह्म के जो तत्त्व आ गये हैं उनके विषय में यही कहा जा सकता है कि वे कोरे
तीव्र भक्ति-भाव के ही द्योतक नहीं, अपितु जन-मन में 'साकार' स्वरूप की जो उपासना प्रचलित थी, उसका पूर्ण विरोध
करते हुए भी कबीर स्वयं कहीं-कहीं उसके प्रभाव से बच नहीं पाये हैं। वास्तव में
लोक प्रचलित परम्परा का पूर्ण बहिष्कार सम्भव भी नहीं है।
शुक्ल जी ने कबीर
में केवल शुष्क ज्ञान ही माना है, इसीलिए उन्होंने सन्तों का पृथक् वर्ग कर उसे 'ज्ञानमार्गी' नाम दिया है, किन्तु
वास्तविकता इस मान्यता से कोसों दूर है। कबीर की भक्ति में, और विशेष रूप से
उस स्थल पर, जहाँ उनकी आत्मा अपने प्रिय से विरहिणी रूप में आत्म-निवेदन करती है, भावों की सरसतम , विधि प्राप्त होती है, यथा
"फाड़ि पुटौला धज करों, कामदिली पहिरा
जिहि जिहि भेषां
हरि मिले, सोइ सोइ भेष
कराऊँ।"
वास्तव में
रामानन्द के द्वारा उन्हें राम की ऐसी मधुरा भक्ति प्राप्त हुई, जिसकी सरसता
निस्संदेह विस्मय की वस्तु है। इन्हीं को पाकर कबीर 'वीर' हो गये सबसे अलग, सबसे ऊपर, सबसे विलक्षण, सबसे सरस, सबसे तेज |
3. मुक्ति -
कबीर ने भक्ति को मुक्ति का एकमात्र साधन माना है, स्थान-स्थान पर भक्ति की महत्ता उन्होंने प्रतिपादित की है
" भक्ति नसैनी मुक्ति की । "
X
"क्या जप क्या तप क्या संजम, क्या व्रत और क्या अस्नान ।
जब लगि जुगत न जानिये, भाव भक्ति भगवान॥"
मुक्ति के साथ-साथ संसार के दुःख-शमन की भी साधना प्रभु भक्ति ही है
"भाव भगति बिसवास बिन, कटै न संसै मूल । कहै कबीर हरि भगति बिन, मुकति नहीं रे
मूल ॥ "
4. सती और शूर -
कबीर के भगवत्-प्रेम के आदर्श दो ही
हैं- 'सती' और 'शूर'। सती के आदर्श
चुनने में एक तो प्रेम की अनन्यता प्रकट होती है, दूसरे भक्त भगवान
के अधिक निकट आ जाता है। वास्तव में 'सती' भाव का आचरण करने
पर भक्त तो अपने गुरुतर कर्तव्य से मुक्त हो जाता हैं और उत्तरदायित्व प्रभु पर आ
जाता है
"उस समर्थ का दास हौं, कदै न होइ अकाज ।
पतिव्रता नांगी रहै, तो उस ही पुरुष की लाज ।।"
शूरवीर का आदर्श
इसलिए अपनाया गया है कि वास्तव में साधना मार्ग में जीवन की कठिनता, साहस और लक्ष्य
के लिए दत्तचित होने की आवश्यकता शूर के ही समान है, जिस भाँति शूरवीर
युद्ध क्षेत्र में लोहे की करारी मार के सम्मुख भी तिलभर भी नहीं मुड़ता और
प्राणोत्सर्ग कर अपने कर्तव्य की रक्षा करता है, वही स्थिति सच्चे
भक्त के लिए आवश्यक है। शूरवीर और सच्चे भक्त की एकमात्र कसौटी यही है
"सूरा तबही परषिये, लड़ै धनी के हेत ।
पुरिजा पुरिजा है पड़े, तऊं न छोड़ें खेत ।। "
संसार जिस मृत्यु
से भय खाता है, शूर और भक्त उसी का अभिनन्दन हँसते-हँसते अपने लक्ष्य के लिए कर
"जिस मरनै थैं जग डरै सो मेरे आनन्द ।
कब मरहूँ कब देखहूँ, पूरन परमानन्द ।। "
5. अनन्य भाव-
ये दोनों आदर्श ही कबीर की भक्ति की
अनन्यता में सहायता पहुँचाते हैं। कबीर ने भी अपने आराध्य के लिए अपना सर्वस्व 'मार्जार शिशु-न्यायवत्' कर दिया है। सर्वस्व समर्पण के साथ-साथ अपने अस्तित्व
को साध्य में लीन करने की उत्कृष्ट भावना कबीर में परिलक्षित होती है। यही कारण है
कि वे ईश्वर के गुलाम बनने में भी नहीं हिचकते
"मैं गुलाम मोहि बेचि गुसाईं ।
तन मन धन मेरा राम जी के तांई ।। "
इससे भी आगे बढ़कर वे अपने को मानव कहते ही नहीं, ईश्वर सामीप्य और
सर्वदा एकमेव रहने की कामना ही उनसे यह कहलाती है-
"कबीर कूता राम का, मुतिया मेरा नाऊँ ।
गले राम की जेबड़ी, जित खैचें तित जाऊँ।। "
इस पद पर झूमकर
हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने लिखा है-
“निरीह सारल्य का यह चरम दृष्टान्त है, आत्मसमर्पण की यह
हद है। इतने पर भी मन को प्रतीति नहीं होती कि यह प्रेम रस पर्याप्त है। क्या जाने
उस प्रियतम को कौन-सा ढंग पसन्द हो, कौन-सी वेशभूषा
रुचिकर हो। हाय उस अजब मस्ताने प्रिय का समागम कैसा होता होगा?"
6. विरह -
विरह भी कबीर की भक्ति-पद्धति का प्रमुख अंग
है। प्रियतम के विषय में वे कहते हैं-
"मन परतीति न प्रेम रस, ना इस तन में ढंग ।
क्या जाणौं उस पीव सूं, कैसी रहसी रंग ॥"
ऐसे अद्भुत
प्रियतम को जब आत्मा नहीं पाती तो उसके वियोग में खूब तड़पती है। कबीर काव्य की यह
तड़पन मीन से कम नहीं। जब से गुरु ने उस परमात्मा का ज्ञान कराया तब ही से भक्त
उसके लिए आकुल व्याकुल है
"गूंगा हुआ बावला, बहरा हुआ कान।
पाऊँ थै पंगुल भया, सतगुरु मारा बान।।"
उस प्रिय के
वियोग में प्रियतम का हृदय अहर्निश छटपटाता रहता है-
"तलफै बिन बालम मोर जिवा ।
दिन नहीं चैन, रात नहीं निंदिया, तलफ तलफ के भोर
किया।।"
कबीर की भक्तात्मा ने इस विरह का जो वर्णन किया है, वह इतना स्वाभाविक और मार्मिक है कि लगता हैं कि कबीर का कबीरत्व, पौरुषत्व यहाँ समाप्त हो गया है, और उनकी आत्मा ने स्त्री रूप में प्रियतम के लिए ये शब्द कहे हैं। प्रिय से संदेश पाने के लिए आत्मा इस भाँति छटपटाती है मानो यदि उसे अभीष्ट की प्राप्ति न हुई तो न जाने क्या होगा
"बिरहनि ऊभी पंथ सिरि, पंथी बूझे धाड़।
एक सबद कह पीव का कबर मिलेंगे आइ ।। "
वह केवल मात्र भेंट की इच्छुक है। भक्तात्मा का प्रभु दर्शन के अतिरिक्त और कुछ प्रयोजन ही नहीं, इसलिए वह यह न पूछकर कि प्रिय कुशल हैं अथवा नहीं, मुझे भी याद करते हैं या नहीं केवल यही कहती है
'एक सबद कह पीव का, कबर मिलेंगे आइ।'
जो यह भी ध्वनित करती है कि और काम को तो छोड़ पथिक, पहले यही बता कि वे कब आएंगे। किन्तु शीघ्र ही भक्त इस कल्पना जगत से नीचे उतर इस वास्तविकता पर आता है-
"आइ न सकौं तुझ पै, सकूँ न तुज्झ बुलाई।
जियरा यौंही लेहुगे, बिरह तपाइ तपाइ || "
इस दूरी के व्यवधान को दूर करना तो भक्त की सामर्थ्य से बाहर है, किन्तु प्रिय से मिलना फिर भी चाहता है। इसीलिए कहता है -
"यहु तन जारौं मसि करौं, लिखौं राम का नाउँ।
लेखणि करूं करंक की, लिखि लिखि राम पठाउँ।"
किन्तु बेचारा भक्त इस विरहाग्नि में भी कहाँ तक जले, जब उसका दुःख सहन शक्ति की सीमा से बाहर हो उठता है, जब भक्त का हृदय प्रिय वियोग में टूक-टूक हुआ जाता है तब विवश हो उसे ईश्वर को आक्रोशपूर्ण यह ताना देना पड़ता है
"कै बिरहणि कूं मीच दै, के आपा दिखलाय आ
ठ
पहर का दाझणा, मो पै सहा न जाय।। "
वास्तव में यह
प्रेम का चरमोत्कर्ष है जो प्रभु प्रियतम के अभाव में भी आत्मा-परमात्मा, भक्त भगवान के
अटूट प्रेम की उद्घोषणा कर रहा है। उनकी इस प्रेम भावना का विवेचन करते हुए
द्विवेदी जी ने लिखा है-
" इस प्रेम में मादकता नहीं है, पर मस्ती है। कर्कशता नहीं है, पर कठोरता है। असंयम नहीं है पर स्वाधीनता है । अन्धानुकरण नहीं है, पर विश्वास है। उजड़ता नहीं है, पर अक्खड़ता है। इसकी प्रचंडता सरलता का परिणाम है, उग्रता विश्वास का फल है, तीव्रता आत्मानुभूति का विवर्त है। "
7. निष्काम भाव-
यदि कबीर को प्रभु की प्राप्ति भी हो
जाए तो उससे वे कोई कामना सिद्धि की बात नहीं सोचते। उनकी एकमात्र कामना है
"मैन की करि कोठरी, पुतली पलंग बिछाया
पलकन की चिक
डारिक, पिय कूं ले
रिझाया।।"
या दूसरी कामना
है
"नैना अंतरि आव तूं, ज्यूं हौं नैन झपेउँ।
ना मैं देखूं और कूँ, ना तुम देखन देऊँ ॥ "
भक्ति में कामना के तो कबीर घोर विरोधी थे, तभी तो उन्होंने कहा था
"जब लगि भगति सकामता तब
लगि निष्फल सेव।"
इसलिए अन्त समय
उस प्रभु की भक्ति करने, नाम जपने का उपदेश उन्होंने दिया था
"कबीर निरभै राम जपि, जब लग दीवै बाति
। तेल घटया बाती बुझी, सोबैगा दिन राति ।। "
कबीर की इस भक्ति
में ज्ञान पुस्तकीय ज्ञान का कोई महत्त्व नहीं क्योंकि उनका विश्वास है कि ईश्वर
में अटूट लय ही मुक्ति के लिए पर्याप्त है, ज्ञान तो संसार की
गुत्थी में उलझा देता है। भक्त के लिए इतना ही ज्ञान पर्याप्त है कि वह
विषय-वासनाओं से मुक्त हो ईश्वर भजन करे
"पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय।
एकै आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ॥"
इसी भाँति
"कबीर पड़िया दूर कर पोथी देय बहाय
बावन आवर सोध कर, रमै ममैं चित
लाय।। "
8. साधन -
कबीर ने भक्ति के द्वार प्रत्येक के लिए खोलकर
सबको उसका अधिकारी बताया। वहाँ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि में
किसी भी भाँति का भेदभाव नहीं, क्योंकि सबकी रचना उन्हीं पाँच तत्वों से हुई है, सबका स्रष्टा
पिता परमात्मा एक ही है
"जाँति पाँति पूछे नहिं कोई।
हरि को भजै सो हरि का होई
।। "
इस भक्ति के
द्वार खुले हुए तो सबके लिए हैं, किन्तु प्रत्येक व्यक्ति भक्ति की प्राप्ति नहीं कर
सकता. इसका कारण साधना - भक्ति का मार्ग खाँडे की धार पर चलना ही है।' साधना की इस
विषमता का वर्णन कबीर ने स्थान-स्थान पर किया है
"गुरु भक्ति अति कठिन है, ज्यों खांडे की धार ।
बिना सांच पहुँचे
नहीं, महाकठिन ब्यौहार
॥"
इस भक्ति साधना के लिए तो साधक को जीवन न्योछावर करने के लिए शीश उतारकर हथेली पर रखना पड़ता है
" बागड़ देस लूवन का घर है, तहाँ जिनि जाई वाहन का डर है।
न तहाँ कोकिल न तहाँ सूवा, ऊँचे चढ़ि हँसा भूवा।
सब जगु देखौं कोई न धीरा, परस धूरि सिरि कहत अबीरा।
न तहाँ सरवर न तहाँ पाणी, न तहाँ सतगुर साधू वाणी ।
देस मालवा गहर गंभीर, डग डग रोटी पग-पग नीर ।
कहै 'कबीर' घर ही मनमाना, गूंगे का गुड़
गूंगे जाना।"
भक्तिमार्ग में
आने वाली जिन बाधाओं का वर्णन कबीर ने किया है उनमें 'कनक' और 'कामिनी' प्रमुख हैं। इन्हें तो कबीर 'दुर्गम घाटी दोय' बताते हैं। इनके
अतिरिक्त कुल, कुसंग, लोभ, मान, कपट, आशा और तृष्णा
आदि । वस्तुतः यह सब मन द्वारा ही प्रस्तुत होते हैं क्योंकि यह सब मायाजाल
मनःसृष्टि के अतिरिक्त कुछ नहीं । इसलिए कबीर ने मनः साधना पर बड़ा बल दिया है-
" काया कसूं कमाण ज्यू, पचतत्त करि बाण |
मारौं तो मन मृग को, नहीं तो मिथ्या जाण ॥ "
कबीर ने अपनी भक्ति के 3 प्रमुख सहायक साधन बताये हैं
1. मानव शरीर 2. गुरु 3. सत्संग ।
84 लक्ष योनियों में मानव शरीर ही एकमात्र ऐसा है जिसमें
प्रभु भक्ति का अवसर है। यदि इसे भी विषयानन्द में गँवा दिया तो फिर पश्चात्ताप के
अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता
"कबीरा हरि की भक्ति करु, तजि विषया रस चौज।
बार-बार न पाई है, मानुस जन्म की मौज ॥"
भक्ति-मार्ग पर तो एकमात्र
मार्गदर्शक गुरु ही हैं। गुरु के बिना तो भक्ति सम्भव नहीं-
"सतगुरु की महिमा अनत, अनत किया उपकार ।
लोचन अनत उघाड़िया, अनत दिखावन हार ॥ "
साधु-संगति की
महिमा अपार है। भक्ति का तो वह आवश्यक अंग है। इसे कबीर ने स्वर्ग से भी अधिक
महत्त्व प्रदान किया है-
"राम - बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय ।
जो सुख साधु-संग में, सो बैकुंठ न होय ॥ "
इस प्रकार हम देखते हैं कि कबीर की भक्ति पीयूष - सलिला भागीरथी के समान पावन है जिनके पुनीत कूलों पर न जाने कितनों के भटकते मन- कुरंगों को विश्रान्ति मिली है।