आदि ग्रंथ में संग्रहीत कबीर की रचनाएँ
आदि ग्रंथ में संग्रहीत कबीर की रचनाएँ
अर्थात् 'गुरु ग्रंथ साहिब' यह सिख धर्म के अनुयायियों का सर्वमान्य ग्रन्थ है। इसमें दसों गुरुओं की वाणियाँ संग्रहीत हैं। इसके पदों का संग्रह संवत् 1661 के भाद्रपद मास की प्रतिपदा को हुआ था। 'आदि ग्रंथ' में संग्रहीत कबीर साहब की रचनाएँ व 'कबीर की ग्रंथावली' की रचनाओं में कुछ भिन्नता है। आदि ग्रंथ में जो रचनाएँ हैं वे उनके व्यक्तिगत जीवन पर प्रकाश डालती हैं। हालाँकि पंजाबीपन का प्रभाव इनमें अधिक है। गुरु ग्रंथ साहिब की तीन प्रतिलिपियाँ मानी जाती हैं जो कि भिन्न कालों में लिखी गई हैं। एक मांगट (जि. गुजरात), दूसरी 'दमदमा साहब' में और तीसरी अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण के समय से उपलब्ध नहीं है। ऐसा होने के कारण ही शायद रचनाओं की संख्या के बारे में मतभेद है।
कबीर ग्रंथावली का पाठ
इस ग्रंथ का संग्रह काल सं. 1561 माना है। बाबू श्यामसुन्दरदास ने यह - सम्भावना की भी तो इसका अर्थ यह हुआ कि ग्रंथावली का संग्रह कबीर के जीवनकाल में हुआ है, यह उसकी अप्रामाणिकता का एक कारण है। दूसरा सन्देह है कि जिस स्याही से पुष्पिका में यह लिखा गया है और जो हस्तलिखित है वह दूसरी स्याही से लिखा गया है। इसलिए इसका काल संदिग्ध लगता है।
बीजक का पाठ -
कबीर पंथियों का पूज्य और विश्वसनीय ग्रन्थ माना जाता है। इसका संग्रह काल ज्ञात नहीं है, फिर भी अनुमान है कि यह 17वीं शताब्दी विक्रमी संवत् में किसी समय एकत्रित की गई हैं। इसमें साखियाँ अंगों के अनुसार नहीं मिलतीं जैसी अन्य दो ग्रंथों में मिलती हैं। इसकी भाषा भी अन्य दो से कुछ भिन्न है। यह है पुरानी पूर्वी हिन्दी
कबीर वाणी में मुख्य काव्य रूप-
आज कबीर दास की जितनी भी रचनाएँ मिलती हैं वे मुख्यतः तीन रूपों में मिलती हैं - साखी, पद व रमैनी अन्य रूपों का भी प्रयोग मिलता है जैसे-चौंतीसा, बावनी, विप्रमतीसी, बार, भिंती, चांचर, वसंत हिंडोला, बेलि, बिरहुली, कहस व उलटबाँसी शैली।
साखी -
'साखी' शब्द संस्कृत के 'साक्षी' शब्द का अपभ्रंशरूप है। इसका अर्थ है चश्मदीद गवाह, ऐसा व्यक्ति जिसने घटना को अपनी आँखों से देखा है। कबीर ने स्वयं कहा है कि साखी उन्होंने रचना - कौशल दिखाने के लिए नहीं, वरन् संसार की समस्याओं को सुलझाने के लिए प्रयुक्त किया है। कबीर कहते हैं-
'तुम जिन जानो गीत है, यह निज ब्रह्म विचार ।
केवल कहि समझाइया, आतम साधन सार ॥'
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'साखी' आखी ज्ञान की, समुझि देखि मन माहीं!
बिन साखी संसार का झगड़ा छूटत नाहीं ॥'
साखी की कोई परिभाषा नहीं दी जा सकती। साखी में प्रधानतः दो पंक्तियाँ और चार चरण होते हैं। एक पंक्ति व तीन पंक्तियों की भी साखी होती है। सामान्य पाठक 'साखी' व दोहे में कोई भेद नहीं समझते जो संशयात्मक है। कबीर के पूर्ववर्ती व परवर्ती संतों ने 'साखी' को ही उपदेश का सशक्त साधन बनाया। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं कि " असल में साक्षी (साखी) का मतलब ही यह है कि पूर्वतर साधकों की बात पर कबीर साहब अपनी साक्षी या गवाही दे रहे हैं। अर्थात इस सत्य का अनुभव वे भी कर चुके हैं। "
डॉ. भगवतस्वरूप मिश्र 'कबीर साहब' में सम्पादित एक लेख में कहते हैं कि, ..यद्यपि कबीर की सखियाँ अपेक्षाकृत अत्यन्त सरल एवं सहज प्रतीत होती हैं, पर उनमें कुछ गम्भीर अनुभूतिजन्य तत्व गर्भित हैं.... इस प्रकार संतों की साखी शब्द में साक्षी, सीख, अर्थ-गुह्यता तथा अर्थ- गाम्भीर्य आदि अनेक अर्थ छवियाँ गुणार्थ (connotation) के रूप में विद्यमान हैं।' " - संत कबीर का साखी साहित्य, पृ. 417
कबीर की साखियों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है सामाजिक भावबोध प्रधान व आध्यात्मिक भावबोध प्रधान। इन साखियों में आदर्श, मानव जीव की संसार यात्रा और उसका सामाजिक स्वरूप देखा जा सकता है।
पद-
कबीर वाणी के पद आध्यात्मिक भावबोध प्रधान अधिक हैं जबकि साखी सामाजिक बोध प्रधान = थीं। इसमें वे धार्मिक समन्वय पर बल देते हैं। धार्मिक ग्रंथों की भावना का इन्होंने आदर किया है। इन पदों में उपदेश अधिक हैं जोकि समकालीन साधकों को चेताने के लिए प्रयुक्त है। इसमें वैराग्यमूलक सिद्धान्तपरक एवं विरह-मिलन के पद हैं। 'उलटबाँसी' पद भी लोकप्रिय हैं जिनको इन्होंने 'उलटिवेद' या उलटावेद भी कहा है (ग्रं. (तिवारी) पद 137) 'विरह-मिलन' के पद अधिक सुन्दर बन पड़े हैं। जिनमें भक्ति की प्रगाढ़ता, सांकेतिक प्रतीकात्मक शैली, दाम्पत्य जीवन की छवियाँ, विवाह के अवसर का सजीव चित्रण, प्रेमोल्लास इत्यादि ने इन पदों को सजीवता प्रदान की है। कुछ पद द्रष्टव्य हैं
दुलहिनि गावहु मंगलचार।
हम घरि आए हो राजा राम भरतार ॥ -क. ग्रं. पद 2
'हरि मोरा पिउ मैं हरि की बहुरिया
राम बड़े मैं तनक लहुरिया ।।' -क. ग्रं. पद 2
अन्य पद हैं
संतौ भाइ आइ ग्यान की आंधी रे।
भ्रम की टाटी सबै उडाणी, माया रहै न बांधी ॥
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मन रे जागत रहिये भाई ।
गाफिल होइ वसत मति खोवै चोर मुसे घर जाई ||
रमैनी
कबीर से पूर्व रमैनी बहुत कम मिलती है वैसे दोहा चौपाई छन्द जो रमैनी में प्रयुक्त होते हैं, वे पुराने हैं। डॉ. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल कहते हैं कि-
"हिन्दी उस चौपाई लिखने की लोकप्रिय शैली के लिए कबीर की ऋणी है जिसमें दो गुम्फित रहते हैं। "
हिन्दी काव्य में निर्गुण सम्प्रदा, पृ. 344 ".
. प्रतीत होता है कि उस समय पूर्वी प्रदेशों की साधारण जनता में रामकथा के आधार पर दोहा- चौपाई शैली की रचनाओं को रमैनी ही कहा जाता रहेगा। कबीर ने इसी पद्धति से प्रभावित होकर निर्गुण राम के सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट किए। "
-कबीर के काव्य रूप- डॉ. नजीर मुहम्मद, पृ. 71
कबीर 'ग्रंथावली' व 'बीजक' में रमैनी नामक रचनाएँ प्राप्त होती हैं।
‘रमैनी' शब्द का अर्थ विभिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न ढंग से किया है। कुछ विद्वान कहते हैं कि रमैनी तो 'वेदशास्त्र में रमण कराने वाली वाणी' है। इसी प्रकार स्वसम्पादित कबीर बीजक के सम्पादक श्री विचार दास के अनुसार- 'रमैनी' 'रामणी' शब्द का रूपांतर है तथा वे मानते हैं कि इसका विषय जीवात्मा की सांसारिक क्रीड़ाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन है। जहाँ तक इन परिभाषाओं का प्रश्न है तो कबीर की रमैणियों का विषय इतना सीमित नहीं है वे तो उस परमतत्व की व्याख्या भी इसके अन्तर्गत करते हैं। इसी प्रकार संत कबीर को वेदों में इतना विश्वास नहीं था, वे तो अपने प्रिय से सीधा सम्पर्क स्थापित करते थे। उन्हें किसी बिचौलिए की तनिक भी आवश्यकता नहीं थी तो फिर वे वेदों की वाणी को क्यों लिखने लगे।
रमैनी का सीधा सम्बन्ध रामायण से है। डॉ. नजीर मुहम्मद के अनुसार "रामायण से रामायणी, रमयनी और फिर रमैनी हो जाना स्वाभाविक है।... साधारण जनता के बीच रामायण का रमैनी हो जाना सम्भव है। कबीर ने इनमें अनवतारी राम का महत्त्व प्रकट किया है। उनका राम दशरथी राम से भिन्न अजन्मा है। " - पृ. 90
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी लिखते हैं कि "मेरा अनुमान है कि दोहा चौपाइयों में लिखी गई तुलसीदास = की रामायण के प्रभाव ने कबीर पंथियों को भी अपनी रामायण बनाने को प्रोत्साहित किया है... दोहा - चौपाई में लिखित पदों को रमैनी कहा जाने लगा।"
कबीर बीजक की एक साखी में यह बताया गया है कि
जो मिलिया सो गुरु मिलिया, सीख न मिलिया कोय |
छः लाख छानबे रमैनी, एक जीव पर होय ॥
डॉ. बड़थ्वाल व पारसा नाथ तिवारी ने 'रमैनी' को कबीर कृत ही माना है। यह उनका अपना काव्य रूप है।