आदिकाल के रासो काव्य तथा कवि
दलपति विजय का खुमान रासो
➽ खुमान रासो का मूल लेखक कौन है और उसका समय क्या है ? ये दोनों प्रश्न अभी तक विवादास्पद हैं। इसके साथ-साथ प्रस्तुत ग्रंथों की प्रामाणिकता भी संदिग्ध हैं। शिवसिंह सेंगर इसके रचयिता के संबंध में मौन हैं। उसमें केवल यह बताया गया है कि किसी अज्ञातनाम भट्ट ने खुमान रासो नामक काव्य लिखा था, जिसमें श्री रामचंद्र से लेकर खुमान तक के नरपतियों का उल्लेख है। इधर खुमान रासो की जो हस्तलिखित प्रतियाँ मिली हैं, उनमें भी कुछ नहीं कहा जा सकता है कि दलपति इस ग्रंथ का मूल लेखक है अथवा उद्धर्ता।
➽ कर्नल टाड ने इस पुस्तक की चर्चा बड़े विस्तार से की है। उन्होंने कहा कि खुमान नाम के तीन शासक हुए हैं जिनमें प्रथम का समय 752 से 808 ई. तक दूसरे का 813 से 843 तक और तीसरे का 908 से 933 तक था। इस ग्रंथ में जिस खुमान का चरित्र है वह अनुमानत: खुमान द्वितीय है क्योंकि इसमें बगदाद के खलीफा अलमामू ( 813-833 ई.) के चित्तौड़ पर किये गए आक्रमण का उल्लेख है। जिस खुमान ने खलीफा को पराजित किया था वह द्वितीय है।
➽ अनुमान है कि इस ग्रंथ का निर्माण खुमान द्वितीय के समय में हुआ होगा लेकिन दूसरी ओर इसमें प्रताप तक के चरित्र का वर्णन है अतः इसका रचनाकाल 16वीं शती मानने को बाध्य होना पड़ता यही कारण है कि आचार्य हजारीप्रसाद इस ग्रंथ के संबंध में लिखते हैं- " हिंदी के विद्वानों ने इन्हें मेवाड़ के रावल खुमान सं. (870) का समकालीन होना अनुमानित किया है जो गलत है। वास्तव में इसका रचना काल सं. 1730 सं. 1760 के मध्य तक है। इस प्रकार इस ग्रंथ की चर्चा हिंदी साहित्य के आदि काल में नहीं होनी चाहिए। " अगरचंद नाहटा ने अत्यंत तर्कपूर्ण ढंग से हस्तलिखित प्रतियों पर विचार करने के उपरांत इस संबंध में निम्न निष्कर्ष दिये थे-
(1) इस ग्रंथ में बप्पा से लगाकर राजसिंह तक का वृत्तांत है। पर राणा खुमान का वृत्तांत विस्तार से होने के कारण ग्रंथ का नाम खुमानरासो रखा गया है।
(2) इसकी भाषा राजस्थानी है।
(3) इसके रचयिता तपागच्छीय जैन कवि दौलत विजय हैं जिनका दीक्षा से पूर्व का नाम दलपत था ।
(4) ग्रंथ का निर्माण सं. 1730 से 1760 के मध्य का है।
इस प्रकार खुमान रासो को हिन्दी का आदि रासो कहना किसी प्रकार युक्तिसंगत नहीं होगा। मोतीलाल मेनारिया ने भी इसका समय 18वीं शताब्दी ठहराया है।
खुमान रासो केवल खुमान के चरित को लेकर नहीं लिखा गया बल्कि उनके वंश के इतिहास को लेकर लिखा गया है। 'कामश रासो' में भी यही पद्धति अपनाई गई है।
यह ग्रंथ विविध छंदों में प्रस्तुत किया गया है और कविता की दृष्टि से अत्यंत सरल बन पड़ा है। यथा
पिउ चित्तौड़ न आविऊ, सावण पहिली तीज।
जोवे वाट रति विरहिणी खिंण खिंण अणवै खीज ॥